अवशेष प्रणय / राजा सिंह
सबेरा हो रहा था, वह अपनी गाड़ी के डिब्बे में बैठा, गाड़ी की रफ्तार से होड़ लेता उसका मन भी भाग रहा था। उसे अपने शहर आना काफी अच्छा लगता है। कितनी यादें जुड़ी हैं शहर से, बचपन से लेकर जवानी तक। जब भी वह अपने घर, शहर आता है अच्छी, बुरी, मीठी कड़वी यादों के गिरफ्त आ जाता है। उसे तो कोई बहाना चाहिए आने का और आज तो ठोस कारण है अपने शहर आने का। उसके सहकर्मी के बहिन की शादी, उसके अपने शहर में। इसी बहाने घर के लोगों से मुलाकात हो जायेगी और सबके हाल-चाल भी मिल जायेगंे।
शुरू-शुरू में ऐसा भी वक्त था, जब वह घर, अपने शहर जाना नहीं चाहता था। नहीं-नहीं घर से कोई नाराजगी, शिकायत नहीं थी, परन्तु उस समय घर और शहर का छुटना एक वरदान माफिक लगा था उसे। वह उस समय अवसाद की स्थिति में था। निराशा, हताशा और मानसिक यंत्रणा के अर्न्तद्वंद में घिरा था। उसकी कविता उससे दूर हो गयी थी और कारण उसकी समझ से परे था। उन दिनों घर आना, ताजा जख्मों को जानबूझ कर कुरेदनें जैसा लगता था। घाव, टीसने एवं रिसने लगते थे। आत्मविश्लेषण की उस खाई में गिर जाता था, जिसमें अपना ही दोष नजर आता था और उस खाई से तभी निकल पाता, जब वापस, अपने काम के शहर देहली आता था।
घर से वह निर्धारित लिखे समय पर मित्र के द्वारा बताये गये विवाह स्थल पर पहुंच जाता है। परन्तु अभी तक अरेंजमेन्ट की गहमा-गहमी चल रही थी। शायद मित्र के परिवार, रिस्तेदार को छोड़कर कोई नहीं आया था। वह सहकर्मी दोस्त से मिला और अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। कपूर ने आने की खुशी व्यक्त की और अन्यों के विषय में पूंॅछा। उसने बताया और भी लोग आते होगें। वह और कपूर विवाह मंडप में तरतीब से लगी कुर्सियों पर बैठ गये थे। कुछ देर बाद और काम देखना है कहकर सहकर्मी मित्र कपूर हवा हो गया था।
कुछ देर तक वह निरीक्षण के अन्दाज में सारी व्यवस्था अवलोकित करता रहता है। सब कुछ राजसी ठाठ-बाट का प्रतीक लग रहा था। एक दिन तो विशिष्टता का अहसास तो करवां ही दिया जाता है। निगाह दूर एक ईमारत पर टिक जाती है। सड़क के पार, एल.आई.सी. की ईमारत और हॉं, उसी के बगल में ही था कविता का स्कूल। जहॉं उसकी पहली मुलाकात हुई थी और प्रथम भेंट से ही उसके शान्त, ठहरे और नियमित पानी में हलचल का दौर प्रारम्भ कर दिया था।
उस दिन अचानक रविकान्त से मुलाकात हो गयी थी। रविकान्त उसके हाईस्कुल तक का सहपाठी था। हाईस्कूल के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी थी और अपने घर के नीचे ही उसकी मेडिकल स्टोर की दुकान थी, जिसमें वह अपने पिता के साथ बैठने लगा था। वह यदा-कदा मिल जाता था और देर तक एक दूसरे के हाल-चाल पूॅंछते रहते थे और न मिलने का उलाहना दिया करते थे। उस दिन भी यह सब हुआ और उसने आग्रह किया कि उसकी छोटी बहन कविता के स्कूल में वार्षिक समारोह है। उसे जाना हैं, वह भी साथ चले, कम्पनी हो जायेगी, वरना बोर हो जायेगा और वह मान गया था, साथ देने के लिए.
...जब वह दोनों पहुॅंचे, कार्यक्रम प्रारम्भ हो चुका था वार्षिक रिर्पोट पढ़ी जा रही थी, हाल भरा हुआ था। वह दोनों एक कोना पकड़कर खड़े होकर स्टेज पर ध्यान केन्द्रित किया। उसके तुरन्त बाद सरस्वती वंदना का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ, जिसे एक बहुत ही सुन्दर लड़की बडे़ सुन्दर अंदाज में गा रही थी 'ज्योति कलश छलके'। वह भाव विभोर होकर सुन रहा था उसे लगा उसके अलावा कोई भी इस वंदना को इतने अच्छे ढ़ग से नहीं गा सकता। उसने दोस्त से भरपूर तारीफ की, तभी उसने बताया, गाने वाली उसकी बहिन कविता है। वह चमकदार सफेद साड़ी में झकाझक सफेद थी और दूर से अलौकिक प्रभाव छोड़ रही थी।
...कविता थोड़ी देर बाद आयी थी, पता नहीं उसने कहॉं से हम लोगों को देख लिया था। अब उसने स्कर्ट-ब्लाउज पहन रखा था, जूते मोजे सहित वह कालेज गर्ल के रूप में थी। दोस्त ने मेरा परिचय करवायंा, 'राजकमल, मेरे पुराने दोस्त इंजीनिरिग कालेज से एम-टेक कर रहें है, हम लोग दसवीं तक साथ-साथ पढ़े है।' कविता ने उसे नमस्ते किया था किन्तु परिचय और दोस्त की उपस्थिति से अनभिग्न वह अपलक उसे निहारे चला जा रहा था उसका सौन्दर्य अप्रतिभ और चुम्बकीय था। वह स्पीचलेस हो गया था उसने सहमति में सिर्फ़ सर हिलाया था, उसके अभिवादन के प्रतिउत्तर में। अरे। कविता तो उसकी फेवरेट हिरोईन 'योगिता' की ट्रू कापी है, उसका छोटा प्रतिरूप। वह ऐसा ही बुदबुदाया था। दोनों में, शायद किसी ने भी नोटिश नहीं किया था।
...कविता ने सबका बैठने का इन्तजाम करवाया और वह तीनों वार्षिक समारोह को देखने लगे थे। किन्तु उसका ध्यान कार्यक्रम में नहीं लग रहा था और वह कनखियों से कविता को ही देखने में व्यस्त था। उसका चेहरा, उसकी ऑखें उसके अंग-प्रत्यंग और वह उन पर खिंचा जा रहा था और खो भी जा रहा था। कविता अपने भाई को कार्यक्रम के विषय में आने वाले कलाकारों के विषय में बताती जा रही थी। वह सिर्फ़ कविता की बातें ही सुन पा रहा था। उसे लगा ऐसा तो कभी नहीं हुआ। वह को-एजूकेशन में पढ़ रहा है किसी का भी उसके ऊपर असर नहीं हुआ था जबकि कईयों से काफी बोल-चाल थी, सिर्फ़ स्कूल, कालेज में पढ़ाई लिखाई और ग्रुप डिस्कशन में। वह किसी के प्रति अभी तक ऐसा कुछ भी महसूस नहीं किया था कि वह आकर्षित था।
'आपको कैसा लगा मेरा परफारमेन्स।' अचानक कविता उसकी तरफ मुखातिब होकर बोली वह अचकचाया और उसके मुॅंह से अचानक निकला 'सुपरलेटिव बहुत खूब।' वह हल्के से मुस्कुराई और शायद उसने थैंक यू कहा था और वह फिर कार्यक्रम देखने में व्यस्त हो गई थी और उसे अपने अवलोकनार्थ छोड़कर। कार्यक्रम की समाप्ति पर वह तीनों साथ-साथ घरों को वापस लौटे थे। वह लौट तो आया था परन्तु उसका दिल-दिमाग खो गया था कविता की खूबसूरती में। पहली बार उसे लगा कि बुरी तरह किसी पर आकर्षित हो चुका है और उससे मिला जाये, फिर मिला जाये और बार-बार मिला जाये। कविता से मिलने का कोई बहाना, कोई तरीका समझ में नहीं आ रहा था। कई दिन बीत गये थे और छटपटाहट बदस्तूर जारी थी। कई तरीके थे जिन पर वह जा सकता था, परन्तु शर्म संकोच आड़े आ रही थी। कई प्रतिक्रियायें इतनी लम्बी थी कि सोचकर उसका मन झुंझला जाता था उसे धैर्य नहीं था। वह सोचता था सारा प्यार और समूची पहचान इतनी देर में, इतने दिनों में, जाने कहॉं छिप चुकी होगी।
एक दिन एक रिफ्रेन्स बुक खोजने के संदर्भ में यूनीवर्सल बुक स्टोर गया हुआ था। निकलते हुये उसने कविता को दूर से देखा वह शायद अपनी मॉ के साथ थी। सुनिश्चित वह ही और एक झलक उसकी पाने हेतु वह लम्बे-लम्बे डग भरता, वह उसके पास से गुजरा था। तभी पीछे से आवाज आई, आवाज कविता की ही थी। वह ठिठक कर खड़ा हो गया था तब तक मॉ-बेटी एकदम पास आ गयी थी।
'इधर कहॉं जा रहे हो?' कविता की ऑंखंे मुस्करा रहीं थी और उसकी मॉ उसे निहार रही थी।
'कहीं नहीं, एक बुक खरीदने आये थे अब अपने घर ही जाऊॅगा।' यह कहकर उसने उसकी मॉ को प्रणाम किया था। कविता उसे पुकारने से पहले अपनी मॉं को सब-कुछ उसके विषय में बता रखा था। उसकी मॉं ने भी थोड़ा बहुत उसके विषय में रविकान्त से सुन रखा था। फिर कविता ने उसको कैम्पस सेलेक्शन के थू्र नौकरी में जाने की बधाई दी और अपनी मॉं से शिकायत की अभी तक मिठाई के दर्शन नहीं हुये हैं।
'अरे! अभी कहॉं? इस साल जब एम-टेक का लास्ट सेमेंस्टर क्लीयर हो जायेगा, तब कम्पनी से काल आयेगी, नौकरी तब होगी।' उसने रटा-रटाया वाक्य दोहराया, जो कि उसे कई बार घर परिवार और जान पहचान वालों से कहना पड़ता था।
'फिर भी आप लागों को तो मिठाई खिलाने का पक्का वादा, कहिये तो अभी खिला दें।' उसे बात करने में काफी दिलचस्पी आ रही थी। उसकी मॉं ने आशीर्वाद दिया और घर आने को कहा। इतना कहकर वह आगे बढ़ ली, साथ में कविता भी चल दी। वह थोड़ी दूर तब उनका साथ देता रहा। सोंच रहा था उसके सेलेक्शन की बात कविता के पास कैसे पहुॅंची। वह शायद स्मरण नहीं कर पा रहा था कि शायद उसने खुद रविकान्त को यह बात बताई थी। चलते-चलते उसकी मॉं उसके घर परिवार के विषय में पूछती रहीं थी। एक मोड़ पर वह अलग हो गये थे, दोनों घर का रास्ता अलग-अलग जाता था।
वह फिर इन्तजार करने लगा था किसी आकस्मिक या प्रायोजित भेंट का। अपने भीतर वह साहस नहीं जुटा पाया था किसी भी ऐसे बहाने की जो तर्क संगत प्रतीत न होती हो। किन्तु वह यह महसूस करता था कि कविता की ऑंखे प्यार-भरी थी। उसमें एक प्यार भरा आमंत्रण था, उससे मिलने का। शायद वह भी इन्तजार कर रही होगी।
उसे याद आ रहा था, पढ़ाई की वजह की वजह से वह काफी रात जगा था और सुबह देर से उठा था। उठने पर उसे सरदर्द हो रहा था। उसका सरदर्द असहनीय हो रहा था, बिना कोई टेबलेट लिए नहीं जाने वाला था। अचानक उसके जेहन में एक विचार बिजली की तरह कौंधा। क्यों न रविकान्त के मेडिकल स्टोर से मेडिसिन ली जाय, शायद कविता का दीदार हो जायें।
उसकी कल्पना और संयोग एक हो गये थे। मेडिकल स्टोर पर रविकान्त अकेले बैठा था कोई ग्राहक भी नहीं थे और ऊपर बालकनी से कविता झांक रही थी। आंखे टकरायीं और वह बालकनी से गायब। रवि ने उसे दुकान के भीतर बुला लिया था और काफी दिनों बाद आने पर गिले-शिकवंे करने लगा। उसने कारण बताया, आने का। रवि ने मेडिसिन निकाली और पानी के लिए ऊपर आवाज दी। मानों कोई इन्तजार ही कर रहा हो, तुरन्त पानी के साथ कविता हाजिर थी और फिर वही सवाल 'मिठाई लायें हो।' रविकान्त ने मीठी डांट लगाई थी, मगर उसे कुछ देर ठहरना था, इस कारण बहस थोड़ी देर चली और वह खामोश हो गयी थी। उस खामोशी में वह अश्वस्त होता है कि कविता की ऑंखों में प्यार के गहरे बादल थे।
थोड़ी देर में कविता उठ गयी थी और वह रविकान्त से बेतुकी बातें कर रहा था। कुछ और ठहरनें के उद्ेश्य से। दुकान में ग्राहक आने लगे थे और वह चल दिया। आगे बढ़ा ही था कि गलियारे में कविता खड़ी थी, वह कुछ ठिठका कि अंगुल भर की पर्ची उसके पास पड़ी थी और कविता नदारत। उसने पर्ची उठाई और आगे चलते हुये उसने पढ़ा '5 बजे शुक्रवार संतोषी माता के मंदिर'। उसे मनचाहा, अनापेक्षित वरदान मिल गया था। वह अत्यधिक प्रसन्न हो उठा था। कदम जमीं पर नहीं पड़ रहे थे और सरदर्द छू-मन्तर हो गया था।
तय दिन और तय समय पर कविता आयी थी और साथ में थी एक सहेली सविता, उसके हर मामले की राजदार। सविता हर समय उसका साथ देती थी स्कूल से लेकर बाजार-हाट तक। उसने सोचा यह माध्यम ही मुफीद है अगर कविता से सम्बन्ध जारी रखना है। कविता से हर हफ्ते शुक्रवार को मुलाकात होने लगी थी। वह इंजीनिरिंग कालेज से लौटते वक्त आ जाता था। मध्यस्थ सविता चूंकि उसके घर से थोड़ी दूर पर ही रहती थी इसलिए संदेश आदान प्रदान का जरिया भी बन गयी थी किन्तु बेहद आवश्यक परिस्थितियों में ही।
उसे लगता था कि वह उसके प्यार की गिरफ्त में पूरी तरह जकड़ चुका है। एक दूसरे की प्रसंसा सारी हदें पार कर चुकी थीं। वादों, इरादों और प्रतिज्ञाओं के जाने कितने अलिखित डाकूमेंट्स हस्ताक्षरित किये जा चुके थे। जिनके एक मात्र गवाह वही मध्यस्थ सविता थी। कभी भी कविता से अकेले मुलाकात नहीं हो पाती थी। अन्तरंग से अन्तरंग क्षणों में भी कविता और उसके बीच की दूरी कभी भी एक फुट से कम नहीं होती थी। जब कभी अकेले मिलने की इच्छा व्यक्त करता था वह, तो कविता शैतानी से मुस्कराने लगती थी और उसकी आंखों में प्यार की गहराइयाँ और बढ़ जाती थीं किन्तु यह कभी सम्भव नहीं हो पाया था। फिर भी एक-दूसरे की चाहत और लगन का उन्माद बढ़ता ही जा रहा था।
शादी में सम्मिलित होने के लिये आने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी और चहल-पहल काफी बढ़ गयी थी। उसका दिल-दिमाग कविता के मोहपाश में जकड़ चुका था, वह एक झटके से उठा और इधर-उधर देखा और काफी स्टाल से एक काफी लेंकर वह निरउद्वेश्य देखने लगा। अभी तक कोई परिचित उसे दिखाई नहीं पड़ा और उसका दोस्त कपूर भी नजर नहीं आ रहा था। वह बाहर की ओर टहल लिया। सड़क पर निकलकर वह एक गहरी संास लेता था, सारी यादों को झाड़ देने के उद्वेश्य से।
टहलते-टहलते माल रोड की सड़कें नापते हुये वह कब संतोषीमाता के मंदिर में आ गया था, पता ही नहीं चला और तब उसे यह जगह याद आई, जहाँ पर आये हुये आठ-नौं साल हो चुके थें। परन्तु पुरानी स्मृतियाँ सजीव हो उठीं थी। हसीन, रंगीन और संगीन शामें भी। बेहद खूबसूरत और बेहद दुःखदायी। यहॉं की अतिंम शाम अत्यधिक निराशाजनक, अपमानजनक और अपराध बोध से भरपूर। उसे लगा उसका सर घूम रहा है और सीने में एक कील-सी ठुस गयी है, जिसे निकालना बेहद ज़रूरी है। वह मंदिर के चबूतरे पर निःसहाय बैठ गया, अपना सर पकड़ कर।
...कविता कई शुक्रवार से मिलने नहीं आ रही थी और घर जाकर पता करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उसने मध्यस्थ के पास जाकर पता किया। मध्यस्थ ने बताया आप-दोंनों को एक साथ कविता के किसी पडा़ेसी ने देख लिया था और उसने घर में बता दिया था। उसके कहीं भी आने-जाने में प्रतिबन्ध है स्कूल को छोड़कर। यदि फिर भी नहीं मानी तो स्कूल भी बन्द। उसके पापा ने उसका पक्ष लेने पर उस पर हाथ भी उठाया था। कविता ने वादा भी किया था उससे न मिलने का। उसने सविता से अनुनय-विनय किया, किसी भी तरह, किसी भी बहाने, कम से कम एक बार मिलवा दें। मध्यस्थ को उसकी दयनीय स्थिति को ध्यान में रखते हुये, प्रयास करने को कहा था।
कविता यहीं पर आयी थी। डरी, सहमी, उदास और बेबस सी. चौकन्नी-सी कोई देख तो नहीं रहा है।
'अब आती क्यों नहीं हो?'
'घर वालों को पता चल गया है और पापा ने कतई मिलने से मना किया है। अगर अब किसी ने देख लिया तो मेरी पढ़ाई भी बन्द। मेरा इण्टर भी नहीं हो पायेगा।'
'मेरा क्या होगा?' मैं तो बिना मिले रह नहीं पाऊंगा। ' कोई जवाब नहीं आया। एक खामोशी। वह कुछ आश्वस्त होता है।
'तो क्या मिलोगी?'
'मुमकिन नहीं, अब।'
'तुम ऐसा कैसे कर सकती हो। एक तरफा फैसला।' मैं नहीं मानता।
'नहीं, अब सब कुछ समाप्त। ये सब छोड़ना पडे़गा। मैंने पापा से वादा किया है और पापा कीे सर की कसम भी खायी है।' आज मैं सविता से नोट्स के लिए, यह बहाना करके आयी हॅंू। '
'और जो हमसे वादें किये थे। उनका क्या? वे सब झूठें थे।'
...कोई जबाब नहीं आया। सिर्फ़ बेबसी के ऑंसू आये थे। वह बे धीरज हो गया था। वह जबाब चाहता था। उसने कहा, 'घर के सभी लोग, विरोध में हैं। कोई नहीं चाहता। वह मजबूर है। अब मिलना नहीं हो पायेगा। हम लोग फिर एक-जैसे हो जाते हैं अनजान, अपरिचित।'
उसे जबरदस्त सदमा लगा था। वह बिफर पड़ा और फट पड़ा था। वह जोर-जोर से चीखने लगा था। वही जो असफल प्रेमी कहते हैं। 'तुम बेबफा हो, तुम्हारा प्यार धोखा था,' 'तुम प्यार के नाम' पर कलंक हो। मैं तुम्हें मार डालूंगा। आदि-आदि और ना जाने कितने फ़िल्मी-नान फ़िल्मी डायलांग। वह रोने लगी थी। मध्यस्थ सविता हतप्रभ थी। उसे उम्मीद नहीं थी कि उसके द्वारा प्रायोजित मुलाकात का यह हःर्सः होने वाला था और इतना लाउड घटित होगा। मंदिर में आने जाने वालों का ध्यान उस पर आकर्षित होना शुरू हो गया था। कविता रोते-रोते चल दी थी और साथ में सविता भी। वह और भी उद्देलित हो गया था और होश हवास खो बैठा। उसने उसका फिर रास्ता रोका और फिर वही प्रलाप। कविता का रोना बदस्तूर जारी था और कविता और मध्यस्थ अपमानित और प्रताणित महसूस करती जा रही थी। साथ में उसको वह इस रूप में अवविश्वनीय अपरचित नजर आ रहा था।
...घर वह देर से पहुंचा था। एक बीरान, सूनसान इलाके में रूककर वह अपने को शान्त कर रहा था। उसे आने आप पर विश्वास नहीं आ रहा था कि वह ऐसा कैसे कर सकता है? अपने नेचर से विपरीत आचरण कर आया था। अगर उसके इस व्यवहार के विषय में किसी को पता चल गया तो उसकी एक सभ्य, शालीन पढ़ाकू लड़के की ईमेज का क्या होगा? वह चिंतित और सहमा नजर आ रहा था कि उसे लगा कुछ परिचित फुसफुसाहट की आवाजें घर के गेट से आ रही थी।
रविकान्त था, बड़े भाई से कुछ कह रहा था। उसकी शिकायत ही होगी? करीब 10-15 मिनट वह कहता रहा था और भइया सुनते रहे थे सिर्फ़ हांॅ हंॅू करते दिखे थे। भइया ने कुछ आश्वासन देकर उसे रवाना किया था। भइया गेट बंद करके ऊपर आ रहे थे, उसके कमरे में आकर ठिठके थे परन्तु उसे पढ़ता देखकर वह फिर माँ के कमरे में चले गये थे। उसका डाउन होता बी.पी. रूक गया था और जान में फिर से जान आयी थी।
रात हो रही थी और वह किताब के हर्फ बिना मतलब देखे जा रहा था। वह सम्भावित घटना की आशंका से ग्रसित था कि कहीं माँ या भाई ने बाबू जी को बता दिया तो? वह वैसा ही चित्रलिखित-सा बैठा था कि माँ ने कमरे में प्रवेश किया था, उसकी तरफ संदेहात्मक तरीके से देखा और पीछे से अक्सर उसके सर पर स्नेह से हाथ फेरा था। उसकी आंखें फिर भर आयी आई थीं। 'कुछ खाना-वाना खाना है कि नहीं? कहॉं गये थे?' माँ ने कहा। वह उत्तर देने की स्थिति में नहीं था। सिर्फ़ माँ की तरफ देखा भर था। उसकी आंखें में ऐसा क्या था कि माँ ने कुछ नहीं पूछा और चल दी, यह कहते हुये 'जब भूख हो बता देना।' माँ ने जिद नहीं की थी जबकि खाने की जिद वह ज़रूर करती है। फिर भी नौकर के हाथों दूध भिजवा दिया था।
अनागत की आशंका से उसका डर कई गुना बढ़ गया था। मामला कहीं बाबू जी के पास तो नहीं रिफर हो जायेगा? भाई एवं माँ को तो वह किसी तरह झेल लेता मगर बाबू जी को। बाबू जी तो उसका क्रिया-कर्म ही कर देंगे। डर और भय उसके सामने नृत्य कर रहे थे।
उसकी किस्मत से बाबू जी देर से आये थे। वह अक्सर देर से ही आते थे। वह सभासद थे। नेता गीरी में बिजी रहते थे। वह जल्दी लाइट बंद करके सोने का अभिनय कर रहा था। नींद उससे दूर थी, सम्पूर्ण घटनायें पुनः-पुनः घटित हो रही थी और उसके दुःशपरिणाम उसे हताशा और निराशा के दलदल में घसीट रहे थे। हर हल्की खट से वह अस्तव्यस्त हो जाता था। उसके लगा कि किसी वक्त बाबू जी की दहाड़ सुनाई पडे़गी। मगर ऐसा नहीं हुआ। पूरी रात जागरण होता रहा। सुबह उसकी पेशी हो सकती है। प्रश्नोत्तर का अभ्यास चलता रहा, रात-भर।
अगला दिन भी शन्तिपूर्वक गुजर गया था। शायद माँ या भाई ने बाबू जी को कुछ नहीं बताया। उसने भी कसम खाई अगर यह घरेलू संकट टल गया तो वह सिर्फ़ पढ़ाई और पढ़ाई पर ध्यान देगा और उसने आने आप को पढ़ाई में झोंक दिया था। मगर जेहन में कविता हर रूप में मंडराती रहती थी। उसकी हंसी, चुलबुलाहट, शैतान मटकती आंखें उसकी सुन्दरता, उसकी बोलती आंखें फिर सुबकती हुई या जार-जार रोती कविता। रोती हुई कविता उसे आत्मग्लानि से भर देती, अपराध बोध कराती। हफ्ता-दस दिन गुजर गये थे और वह कविता-मीनिया से मुक्त नहीं हो पा रहा था। उसे लगा उसका सेमेस्टर इक्जाम चौपट हो जायेगा। इससे निजात पाने का एक ही तरीका है-कविता से मिलकर अपने कृत्य के लिए माफी मॉंग ली जाये।
वह मध्यस्थ से मिला और अपनी इच्छा जाहिर की। सविता ने इस प्रस्ताव को बुरी तरह नकार दिया था और इसे असम्भव करार दिया और अपने रोल को मॉंफ कर देने को कहा। उसने बताया कविता उस दिन रास्ते भर रोती रही थी और रोते-रोते ही घर पहुॅंची थी, जबकि वह साथ गई थी उसे छोड़ने के लिए और इस घटना की वजह से उसके घर वालों का उससे भी विस्वास उठ गया है। उस दिन उसे भी उसके घर वालों से प्रताणना झेलनें पड़ी थी। उसने यह भी कहा कि मॉंफी ही मॉंगनी है तो कविता के घर जाओ और कविता सहित सबसे माफी मांगों। वैसे भी अब इससे कुछ भी फर्क पड़ने वाला नहीं है। तुम्हारी असलियत उन सब को पता चल गयी है। वह कविता के घर जाने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाया था। वह निराश और हताश वापस लौट आया था और किसी भी तरह कविता को भूल कर अपनी स्टडी में ध्यान लगाने की कोशिश करने लगा था।
...तब से अब तक गंगा में कितना पानी बह गया होगा। आठ साल बीत गये थे और वह मंदिर भी वैसा कहॉं रहा था। अब तो इससे भीड़ भी नहीं होती और नौ बजे तो बीरानी-सी छा जाती है इसमें। मानसिक पीड़ा से वह त्र्रस्त हो चुका था और समय भी हो गया था, जिस काम से वह इस शहर में आया था उसे कहीं मिस ना कर दे और उसका सहकर्मी कपूर भी तो तलाश रहा होगा। वह लम्बे-लम्बे डग भरता विवाह स्थल तक पहुंच गया था।
यहाँ पर काफी भीड़ हो गई थी, गहमा-गहमी थी, बातचीत थी शोलगुल था व्यस्तता का वातावरण था और धीमें-धीमें संगीत भी पसर रहा था। भूख... पता नहीं लगी है या नहीं। कपूर आ गया था और फिर जबरदस्ती उसे कुछ खिलाया था, चांट आदि और फिर व्यस्तता में खो गया था।
अभी तक उसे कोई पहचान का व्यक्ति नहीं मिला था जिससे वह टींसने वाली यादों से महरूम हो पाता। वह एक ऐसे स्थान पर खड़ा हो गया था जहाँ से वह आने वाले लोंगों का निरीक्षण और अवलोकन कर पा रहा था और निरउद्वेश्य उनकी तरफ तक रहा था। एकदम अनमने भाव से।
तनहा खड़े-खड़े उसमें अजीब-सा खालीपन भर गया था। अचानक उसकी दृष्टि एक आने वाली एक खूबसूरत नवयौवना पर टिक गई. वह अतीव सुन्दर थी और चाल भी मनमोहने वाली थी। दृष्टि जो टिकी तो हटने का नाम नहंी ले रही थी वह अपलक उसे निहारे जा रहा था, अविचिलित। उसने उसे देखा और वह घायल कर देने वाली मुस्कराहट के साथ उसी की तरफ बढ़ ली थी और वह पास आकर खड़ी हो गयी थी।
अरे! येे तो कविता है। हाँ कविता ही है। वह ऑंखे फाड़े देखता ही रह जाता है।
'कैसे हो?' उसकी आवाज में विनम्रता एवं अपनापन था। वह आवाक और स्तब्ध था। अकल्पनीय एवं अवर्चनीय सुख से ओत-प्रोत।
'देख लो! ठीक ही हॅू।' उसके स्वर में उपहास था। कहना चाह रहा हो, तुम्हारे वगैर मर तो नहीं गया। उसने उसके अन्दाज को अन्यथा नहीं लिया और उससे सामान्य लहजें में बातचीत में संलग्न हो गयी। उसे यह जानकर काफी आश्चर्य हुआ कि वह दोनों करीब आठ साल बाद मिल रहे है, परन्तु कविता उसके विषय में सब जानती थी। कब वह सर्विस में गया। कब उसने शादी की। उसके कितने बच्चे हैं। उसकी पत्नी कैसी है, आदि आदि। अन्त में यह कहकर बात को उसके ऊपर ढ़ाल दिया। 'यहॉं से जाने के बाद कितनी ही बार आये हो, कभी मेरी खोज खबर लीं। कुछ मेरे विषय में पता है?' यह तोप का गोला छोड़कर बिना उसके जबाब के, वह चल दी, शादी के मुख्य समारोह में सिरकत करने।
उसने उसे कोई मौका नहीं दिया था अपनी सफाई में। वह कहना चाहता था कि तुमने तो शादी कर ली थी या कर दी गई थी, जब वह पढ़ाई और उसके गम में व्यस्त था। उसे तो पता ही नहीं चलता अगर उसके मोहल्ले के एक मित्र ने नहीं बताया होता। मध्यस्थ ने भी खबर नहीं दी थी। शायद सब डरते होगें, कही कुछ लफड़ा न हो जाये।
गोविन्द ने उस पर टांट कसा था। 'यार' ! आज तो तुम्हारी प्रेमिका की शादी है, तुम्हें कुछ खबर है? कुछ गम है कि नहीं। गम ग़लत करोगे, नहीं। ' उसे यकीन नहीं आया था इतनी जल्दी। अभी उसकी उम्र ही कितनी है? वह सुनिश्चित करने के लिए सविता के पास गया था। इस बार भी मध्यस्थ ने उससे ढ़ग से बात नहीं की थी सिर्फ़ शादी की पुष्टि भर कर दी थी। उसे शायद अफसोस के साथ क्रोध भी रहा होगा कि इतने महीनों बाद आया था कविता के विषय में कुछ जानने, जबकि आज सब कुछ समाप्ति की ओर जा रहा था। उसने महसूस किया कि मध्यस्थ भी उसे सबका जिम्मेदार मानती है।
वह पूरी तरह से टूट चुका था। निराश था। उदास और हताश था। उसने गम को सेलीब्रेट करने का मन बना लिया और गोविन्द की शरण में आ गया था। उसने शराब का सहारा लेकर गम-गलत किया और गोविन्द ने उसके गम का लुफ्त उठाया था। उसने गमोपदेशक का रोल निभाया और यह अवधारणा स्थापित की सभी लड़कियाँ बेवफा होती हैं और उसने भी सर हिलाकर अपनी सहमति व्यक्त की। उसने गोविन्द से कहा, "यार। देखते है कि उसका दुल्ला कैसा है? क्या हमसे अच्छा है?" दोनों चुपके से उसके वर का अवलोकन करने उसकी शादी स्थल में पहुंच गये थे। वह सामान्य था, शायद 28 या 30 वर्षीय। वह यह जानकर सन्तुष्टि महसूस कर रहा था कि उसका वर उसके सामने कुछ भी नहीं है, ऐसा गोविन्द ने जोर देकर कई बार कहकर उसे अहसास कराया था और वह अपने को गर्व से भरा पाया था और कविता के घर वालों की बेवकूफी पर हंसा था।
...गाजे-बाजें के शोर से उसका सपना टूटा। बारात आ चुकी थी। बेपनहा शोर हो रहा था। उसका मन भारी है। अकेलेपन का नागपाश और कस रहा हैं। वह जबरदस्ती अपने को भीड़ का हिस्सा बनाता है। वह कपूर के साथ बारात के स्वागत में शामिल होता है और बारात की प्रक्रियाओं में बेमन से भाग लेता है। द्वारचार के बाद वह जयमाल के कार्यक्रम को एक जगह बैठ कर देखता रहता है। उसे लगता है कि उसका शरीर झनझना रहा है। ऐसा लगता है कुछ बुखार या हरारत-सी है।
वह ऑख बन्द किये, कुछ देर शुन्य में ताकना चाहता है। निर्विकार अविकल, सबसे परे एक खामोशी अपने भीतर चाहता है। तभी किसी ने उसे छूकर उसकी तंद्रा भंग की। आंखे खोल कर प्रकृतिस्थ होता है। देखता है कि कविता खड़ी है।
'इतने साल पुरानी प्रसंगों का अफसोस मना रहे हो। गया वक्त नहीं आने वाला और उनमें सुधार भी नहीं किया जा सकता। वर्तमान में पर्दापण करो मिस्टर' राज'। कविता ने उसको वर्तमान में ला पटका था।
'नहीं, ऐसा कुछ नहीं'। वह खिसियाई हंसी हॅंसा था।
'तो क्या अनसन करने का इरादा है।' वह चहकी थी। और उसने उसे हाथ पकड़कर उठाया था। वह हाथ पकड़े-पकड़े ही चल दी थी जैसे कोई बच्चे की अंगुली पकड़ कर चलता हो। वह झेंपता हुआ उसके साथ खाने की तरफ चल दिया था।
खाते हुये वह सोचता रहा था कि जब उसका प्यार सक्रिय था, मूर्तरूप में था, तब कभी भी उसको प्यार में स्पर्श सुख नहीं मिला आज जब उसका प्यार निष्क्रिय रूप में है, तो स्पर्श सुख का अनुभव हुआ। उसे संतोष, सुख के साथ, प्राप्ति सुख का अहसास उसके जेहन में भरता जा रहा था। ...