अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याएँ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शीमा माजिद द्वारा संपादित फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चुनिंदा अँग्रेज़ी लेखों का संग्रह ‘कल्चर एंड आइडेंटिटी : सिलेक्टेड इंग्लिश राइटिंग्स ऑफ़ फ़ैज़’ (ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2005) अपनी तरह का पहला संकलन है। इस संकलन में फ़ैज़ के संस्कृति, कला, साहित्य, सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेख इसी शीर्षक से पाँच खंडों में विभाजित हैं। इनके अलावा एक और ‘आत्म-कथ्यात्मक’ खंड है, जिसमें प्रमुख है फ़ैज़ द्वारा 7 मार्च 1984 (अपने इंतकाल से महज़ आठ महीने पहले) को इस्लामाबाद में एशिया स्टडी ग्रुप के सामने कही गई बातों को ट्रांसक्रिप्ट करके संकलित किया गया है। इस महत्वपूर्ण पुस्तक की भूमिका पाकिस्तान में उर्दू साहित्य के मशहूर आलोचक मुहम्मद रज़ा काज़िमी ने लिखी है। शायरी के अलावा फ़ैज़ साहब ने उर्दू और अंग्रेज़ी़ दोनों भाषाओं में साहित्यिक आलोचना और संस्कृति के बारे में विपुल लेखन किया है। साहित्य की प्रगतिशील धारा के प्रति उनका जगज़ाहिर झुकाव इस संकलन के कई लेखों में झलकता है। इस संकलन में शामिल अमीर ख़ुसरो, ग़ालिब, तोल्स्तोय, इक़बाल और सादिक़ैन जैसी हस्तियों पर केंद्रित उनके लेख उनकी ‘व्यावहारिक आलोचना’ (एप्लाइड क्रिटिसिज़्म) की मिसाल हैं। यह संकलन केवल फ़ैज़ के साहित्यिक रुझानों पर ही रौशनी नहीं डालता बल्कि यह पाकिस्तान और समूचे दक्षिण एशिया की संस्कृति और विचार की बेहद साफ़दिल और मौलिक व्याख्या के तौर पर भी महत्वपूर्ण है। इसी पुस्तक के एक लेख ‘कल्चरल प्राब्लम्स इन इंडरडिवेलप्ड कंट्रीज़’ का तर्जुमा हम पेश कर रहे हैं।
इनसानी समाजों में संस्कृति के दो मुख्य पहलू होते हैं; एक बाहरी, औपचारिक; और दूसरा आंतरिक वैचारिक संस्कृति के बाह्य स्वरूप, जैसे सामाजिक और कला-संबंधी, संस्कृति के आंतरिक वैचारिक पहलू की संगठित अभिव्यक्ति मात्रा होते हैं और दोनों ही किसी भी सामाजिक संरचना के स्वाभाविक घटक होते हैं। जब यह संरचना परिवर्तित होती है या बदलती है तब वे भी परिवर्तित होते हैं या बदलते हैं और इस जैविक कड़ी के कारण वे अपने मूल जनक जीव में भी ऐसे बदलाव लाने में असर रखते हैं या उसमें सहायता कर सकते हैं। इसलिए सांस्कृतिक समस्याओं का अध्ययन या उन्हें समझना सामाजिक समस्याओं अर्थात राजनीतिक और आर्थिक संबंधों की समस्याओं से पृथक करके नहीं किया जा सकता। इसलिए अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में यानी सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में रखकर समझना और सुलझाना होगा।
फिर अविकसित देशों की मूलभूत सांस्कृतिक समस्याएं क्या हैं? उनके उद्गम क्या हैं और उनके समाधान के रास्ते में कौन से अवरोध हैं?
मोटे तौर पर तो ये समस्याएं मुख्यतः कुंठित विकास की समस्याएं हैं; वे मुख्यतः लंबे समय के साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी शासन और पिछड़ी, कालबाह्य सामाजिक संरचना के अवशेषों से उपजी हुई हैं। इस बात का और अधिक विस्तार से वर्णन करना ज़रूरी नहीं। सोलहवीं और उन्नीसवीं सदी के बीच एशिया, अफ्ऱीका और लातिन अमरीका के देश यूरोपीय साम्राज्यवाद से ग्रस्त हुए। उनमें से कुछ अच्छे-ख़ासे विकसित सामंती समाज थे जिनमें विकसित सामंती संस्कृति की पुरातन परंपराएं प्रचलित थीं। औरों को अभी प्रारंभिक ग्रामीण क़बीलाईवाद से परे जाकर विकास करना था। राजनीतिक पराधीनता के दौरान उन देशों का सामाजिक और सांस्कृतिक विकास रुक सा गया और यह राजनीतिक स्वतंत्राता प्राप्त होने तक रुका ही रहा। तकनीकी और बौद्धिक श्रेष्ठता के बावजूद इन प्राचीन सामंतवादी समाजों की संस्कृति एक छोटे से सुविधासंपन्न वर्ग तक ही सीमित थी और उसका अंतर्मिश्रण जन साधारण की समानांतर सीधी सहज लोक संस्कृति से कदाचित ही होता। अपनी बालसुलभ सुंदरता के बावजूद आदिम क़बीलाई संस्कृति में बौद्धिक तत्व कम ही था। एक ही वतन में पास-पास रहने वाले क़बीलाई और सामंतवादी समाज दोनों ही अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ लगातार क़बीलाई, नस्ली और धार्मिक या दीगर झगड़ों में लगे रहते। अलग-अलग क़बीलाई या राष्ट्रीय समूहों के बीच का खड़ा विभाजन (vertical division)। और एक ही क़बीलाई या राष्ट्रीय समूह के अंतर्गत विविध वर्गों के बीच का क्षैतिज विभाजन ( horizontal division), इस दोहरे विखंडन को उपनिवेशवादी- साम्राज्यवादी प्रभुत्व से और बल मिला। यही वह सामाजिक और सांस्कृतिक मूलभूत ज़मीनी संरचना है जो नवस्वाधीन देशों को अपने भूतपूर्व मालिकों से विरासत में मिली है।
एक बुनियादी सांस्कृतिक समस्या जो इनमें से बहुत से देशों के आगे मुंह बाये खड़ी है, वह है सांस्कृतिक एकीकरण की समस्या, नीचे से ऊपर तक एकीकरण जिसका अर्थ है विविध राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रतिरूपों को साझा वैचारिक और राष्ट्रीय आधार प्रदान करना और क्षैतिज एकीकरण जिसका अर्थ है अपने समूचे जन समूह को एक से सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर तक ऊपर उठाना और शिक्षित करना। इसका मतलब यह कि उपनिवेशवाद से आज़ादी तक के गुणात्मक राजनीतिक परिवर्तन के पीछे-पीछे वैसा ही गुणात्मक परिवर्तन उस सामाजिक संरचना में होना चाहिए जिसे उपनिवेशवाद अपने पीछे छोड़ गया है।
एशियाई, अफ्ऱीकी और लातिन अमरीकी देशों पर जमाया गया साम्राज्यवादी प्रभुत्व विशुद्ध राजनीतिक आधिपत्य की निष्क्रिय प्रक्रिया मात्रा नहीं था और वह ऐसा हो भी नहीं सकता था। इसे सामाजिक और सांस्कृतिक वंचना (deprivation) की क्रियाशील प्रक्रिया ही होना था और ऐसा था भी। पुराने सामंती या प्राक्-सामंती समाजों में कलाओं, कौशलों, प्रथाओं, रीतियों, प्रतिष्ठा, मानवीय मूल्यों और बौद्धिक प्रबोधन के माध्यम से जो कुछ भी अच्छा, प्रगतिशील और अग्रगामी था उसे साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने कमज़ोर करने और नष्ट करने की कोशिश की। और अज्ञान, अंधविश्वास, जीहुज़्ाूरी और वर्ग शोषण अर्थात जो कुछ भी उनमें बुरा, प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी था उसे बचाये और बनाये रखने की कोशिश की। इसलिए साम्राज्य वादी प्रभुत्व ने नवस्वाधीन देशों को वह सामाजिक संरचना नहीं लौटायी जो उसे शुरुआत में मिली थी बल्कि उस संरचना के विकृत और बर्बाद कर दिये गये अवशेष उन्हें प्राप्त हुए। और साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने भाषा, प्रथा, रीतियों, कला की विधाओं और वैचारिक मूल्यों के माध्यम से इन अवशेषों पर अपने पूंजीवादी सांस्कृतिक प्रतिरूपों की घटिया, बनावटी, सेकंड-हैंड नक़लें अध्यारोपित कीं।
अविकसित देशों के सामने इस वजह से बहुत सी सांस्कृतिक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। पहली समस्या है अपनी विध्वस्त राष्ट्रीय संस्कृतियों के मलबे से उन तत्वों को बचा कर निकालने की जो उनकी राष्ट्रीय पहचान का मूलाधार है, जिनका अधिक विकसित सामाजिक संरचनाओं की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजन और अनुकूलन किया जा सके, और जो प्रगतिशील सामाजिक मूल्यों और प्रवृत्तियों को मज़बूत बनाने और उन्हें बढ़ावा देने में मदद करे। दूसरी समस्या है उन तत्वों को नकारने और तजने की जो पिछड़ी और पुरातन सामाजिक संरचना का मूलाधार हैं, जो या तो सामाजिक संबंधों की और विकसित व्यवस्था से असंगत हैं या उसके विरुद्ध हैं, और जो अधिक विवेकवान, बुद्धिपूर्ण और मानवीय मूल्यों और प्रवृत्तियों की प्रगति में बाधा बनते हैं। तीसरी समस्या है, आयातित विदेशी और पश्चिमी संस्कृतियों से उन तत्वों को स्वीकार और आत्मसात करने की जो राष्ट्रीय संस्कृति को उच्चतर तकनीकी, सौंदर्यशास्त्रीय और वैज्ञानिक मानकों तक ले जाने में सहायक हों, और चौथी समस्या है उन तत्वों का परित्याग करने की जो अधःपतन, अवनति और सामाजिक प्रतिक्रिया को सोद्देश्य बढ़ावा देने का काम करते हैं।
तो ये सभी समस्याएं नवीन सांस्कृतिक अनुकूलन, सम्मिलन और मुक्ति की हैं। और इन समस्याओं का समाधान आमूल सामाजिक (अर्थात राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक) पुनर्विन्यास के बिना केवल सांस्कृतिक माध्यम से नहीं हो सकता। इन सभी बातों के अलावा, अविकसित देशों में राजनीतिक स्वतंत्राता के आने से कुछ नयी समस्याएं भी आयी हैं। पहली समस्या है उग्र-राष्ट्रवादी पुनरुत्थानवाद, और दूसरी है नव-साम्राज्यवादी सांस्कृतिक पैठ की।
इन देशों के प्रतिक्रियावादी सामाजिक हिस्से; पूंजीवादी, सामंती, प्राक-सामंती और उनके अभिज्ञ और अनभिज्ञ मित्रगण ज़ोर देते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा के अच्छे और मूल्यवान तत्वों का ही पुनः प्रवर्तन और पुनरुज्जीवन नहीं किया जाना चाहिए बल्कि बुरे और बेकार मूल्यों का भी पुनः प्रवर्तन और स्थायीकरण किया जाना चाहिए। आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति के बुरे और बेकार तत्वों का ही नहीं बल्कि उपयोगी और प्रगतिशील तत्वों का भी अस्वीकार और परित्याग किया जाना चाहिए। इस प्रवृत्ति के कारण एशियाई और अफ्ऱीकी देशों में कई आंदोलन उभरे हैं, इन सारे आंदोलनों के उद्देश्य मुख्यतः राजनीतिक हैं, अर्थात बुद्धि संपन्न सामाजिक जागरूकता के उभार में बाधा डालना और इस तरह शोषक वर्गों के हितों और विशेषाधिकारों की पुष्टि करना।
उसी समय नव-उपनिवेशवादी शक्तियां, मुख्यतः संयुक्त राज्य अमरीका, अपराध, हिंसा, सिनिसिज़्म, विकार और लंपटता का महिमामंडन और गुणगान करने वाली दूषित फ़िल्मों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, संगीत, नृत्यों, फ़ैशनों के रूप में सांस्कृतिक कचरे, या ठीक-ठीक कहें तो असांस्कृतिक कचरे के आप्लावन से प्रत्येक अविकसित देश के समक्ष खड़े सांस्कृतिक शून्य को भरने की कोशिश कर रही हैं। ये सभी निर्यात अनिवार्यतः अमरीकी सहायता के माध्यम से होने वाले वित्तीय और माल के निर्यात के साथ साथ आते हैं और उनका उद्देश्य भी मुख्यतः राजनीतिक है अर्थात अविकसित देशों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जागरू- कता को बढ़ने से रोकना और इस तरह उनके राजनीतिक और बौद्धिक परावलंबन का स्थायीकरण करना। इसलिए इन दोनों समस्याओं का समाधान भी मुख्यतः राजनीतिक है अर्थात् देशज और विदेशी प्रतिक्रियावादी प्रभावों की जगह प्रगतिशील प्रभावों को स्थानापन्न करना। और इस काम में समाज के अधिक प्रबुद्ध और जागरूक हल्क़ों जैसे लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की प्रमुख भूमिका होगी। संक्षेप में, कुंठित विकास, आर्थिक विषमता, आंतरिक विसंगतियां, नक़लचीपन आदि अविकसित देशों की प्रमुख सांस्कृतिक समस्याएं मुख्यतः सामाजिक समस्याएं हैं। वे एक पिछड़ी हुई सामाजिक संरचना के संगठन, मूल्यों और प्रथाओं से जुड़ी हुई समस्याएं हैं। इन समस्याओं का कारगर समाधान तभी होगा जब राष्ट्रीय मुक्ति के लिए संपन्न हो चुकी राजनीतिक क्रांति के पश्चात राष्ट्रीय स्वाधीनता को पूर्ण करने के लिए सामाजिक क्रांति भी होगी।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : भारत भूषण तिवारी bharatbhooshan.tiwari@gmail.com