अविस्मरणीय अतीत / कमलेश पुण्यार्क

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वातावरण का यह परिवर्तन पिछले बारह बर्षों के बाद हुआ था। हाईयर सेकेन्ड्री तक की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी;और कॉलेज में दाखिला लेने वास्ते बंगाल का नीरस जीवन छोड़,नए वातावरण में आ गया था। पिछले सारे मित्र अब मात्र पत्र तक ही सिमट कर रह गए थे। नए नगर में आकर नवीन अनुभव के साथ कॉलेज का जीवन आरम्भ किया था। इसी बीच विगत कई बर्षों से टालते आ रहे अपने वैवाहिक बन्धन को अब और टाल पाना असम्भव सा प्रतीत होने लगा। घर का सामीप्य ऐसा कर पाने योग्य न रहने दिया। प्रस्ताव पर प्रस्ताव आने लगे। फलतः लाचार होकर गुरूजनों की आज्ञा की अवज्ञा न कर सका। दिल पर पत्थर रख कर मुंह पर मौन का मास्टर लॉक जड़ दिया।

किसी और बात की चिन्ता तो न थी,किन्तु कभी कभार दो चेहरे--पिछले दो सम्पर्क,याद आ जाते। उन्हें देने को कोई जवाब मुझे न सूझता। उनमें एक थी,इन्डोजापानी तथाकथित प्रेयसी... और दूसरी थी मीना। इस छोटे से नाम से मुझे वचपन से ही अजीब सा लगाव हो गया था,और अपने किसी आत्मीय को इस नाम-रूप में देखना चाहता था। संयोग वश ‘इस’ मीना से जब मुलाकात हुई तो फूला न समाया। ऐसा महसूस हुआ कि ऊपर वाले ने मेरी अप्रार्थित प्रार्थना सुन ली। हालांकि मीना से मात्र परिचय हुआ,किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं। किन्तु बाद में जब मैं स्वयं को जरा सा ढील दिया, तब शीघ्र ही परिचय प्रगाढ़ प्रेम में परिणत हो गया।

मीना से पहली मुलाकात कब,कहाँ,किस रूप में हुई थी, मुझे ठीक से याद नहीं। यह भी नहीं कह सकता कि वह किस प्रकार मेरे नेत्रमार्ग से प्रवेश कर हृदकोष्ठ में आसीन हो गई। मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि सामान्य सा परिचय दिन-प्रतिदिन विशेष बनता गया,और एक दिन पता चला कि हमदोनों किसी अदृश्य सूत्र से पूरी तरह बन्ध चुके हैं। इसके लिए सिर्फ मैं या वह ही नहीं बल्कि उसका परिवार भी उत्तरदायी है। उसकी माँ ने काफी मौका दिया था- हमदोनों के सम्बन्धों को दृढ़ होने में। स्थिति बहुत स्पष्ट हो चुकी थी,क्यों कि उस उम्र में भी कभी-कभार कल्पना लोक में टहल आते थे हमदोनों, सुदूर भविष्य की सुगन्द्दित वाटिकाओं में। और कुछ-कुछ प्रतिज्ञावद्ध भी

हो चुके थे। किन्तु क्या पता था कि हमदोनों की प्रतिज्ञाएँ, कचहरी में गीता पर हांथ रख कर ली गई प्रतिज्ञा हो जाएगी? इसे रघुकुल के वचन की मर्यादा नहीं मिल पाएगी?

हालांकि बालपन के खेल-खेल में किए गए वायदे को वचन या प्रतिज्ञा भी कहाँ तक कह सकता हूँ,जो जीवन के वास्तविक और व्यवहारिक अनुभवों से सर्वथा हीन होते हैं। नित्य नए सिद्धान्तों का बनना और बालुकाभीत की तरह धराशायी हो जाना- यही तो होता है,उस उम्र में। विवाह जैसा मधुर और पवित्र बन्धन विना किसी दृढ़

संकल्प और आस्था के टिक सकता है?

किन्तु इतना भावुक भी तो नहीं होना चाहिए। तो क्या सीधे स्वयं को दोषी मान लूँ और आजीवन जलता रहूँ आत्मग्लानि की ज्वाला में? इस प्रकार भी तो जीवन जीया नहीं जा सकता। या फिर इससे परे हट कर यह कहूँ कि एक मासूम का जीवन इतना अल्प मूल्य होता है?

खैर अब इन बीती बातों की शिकवा-शिकायत से होना ही क्या है? इसे तो अतीत गह्नर में दबा देना ही उचित होगा,ताकि आगे के जीवन को सुख के ढाँचे में ढाल पाने में समर्थ हो सकूँ।

परिवेश परिवर्तन के कुछ काल बाद ही अचानक न जाने कैसे और क्यों पत्राचार सम्बन्द्द विच्छेद हो गया। वैवाहिक कार्यक्रम इतना जल्दी निश्चित हो गया कि वदन खुजलाने की भी स्थिति न रही। मेरी होने वाली पत्नी ,या अब यूँ कहूँ कि जो आज मेरी सर्वस्व हो चुकी है- सामान्य शिक्षिता,रूप गुण में भी सामान्य ही है। मैं भी

तो कोई विशेष नहीं हूँ,फिर किसी विशेष की आकांक्षा करना भी तो अनुचित ही होगा।

वैवाहिक समारोह की टीका टिप्पणी कर अनावश्यक वक्त जाया करना है। सिर्फ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि निर्धारित समय पर मेरी शादी सम्पन्न हो गई।

मिलनयामिनी-बेला मुझे आजीवन याद रहेगी,रहनी भी चाहिए,रहती भी है प्रायः सबको। हर सम्भव पूर्ण के बावजूद न जाने क्यों स्वयं को अपूर्ण सा महसूस कर रहा था। होंठ अनचाहे ही एक ही पंक्ति गुनगुनाए जा रहे थे - एक तूना मिली,सारी दुनियाँ मिली भी तो क्या,एक तूना खिली,सारी बगिया खिली भी तो क्या....। रात के बाद एकान्त में छिपकर उस दिन रोया था,सो सिर्फ मैं ही जानता हूँ। ऐसा लगता था कि मैंने शादी करके बहुत बढ़ा पाप किया है,और आगे कदम उठाकर एक और पाप करने जा रहा हूँ। मेरे इस पाप का प्रायश्चित ही क्या हो सकता है - इसी द्वन्द्व में जार-जार रोये जा रहा था।

नवोढा पत्नी को पाकर कितना प्रसन्न हुआ था उस दिन,शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता;किन्तु दूसरी ओर जो अन्य बातें हृदय में सूई सी चुभ रही थी। सुख-चैन लूटे जा रही थी; इसका भी कोई हल

नहीं सूझ रहा था। एक आँख में खुशी के ठण्ढे आँसू थे,तो दूसरी आँख में गम और ग्लानि के गरम आँसू लबलबा रहे थे।

अन्त में लाचार होकर लेटर पैड लेकर बैठ गया,और एक लम्बा-चौड़ा क्षमा-याचना पत्र लिख बैठा।

पत्र लिख तो लिया,परन्तु पत्र-पेटिका में डालने में हांथ कापने लगे। पुरानी बातें एक-एक कर दिमाग में आने लगीं। फिर भविष्य की कल्पना कर घबड़ा उठा। कहीं कुछ हो न जाए। पता नहीं इस पत्र की क्या प्रतिक्रिया होगी उस पर! एक बार फिर उसके भोले मुखड़े को याद कर दो बूंद आंसू लुढ़क आए कपोलों पर,और साहस बटोर

कर, कर दिया पत्र को पेटिका के हवाले। रास्ते भर सोचता रहा,मीना और नवविवाहिता की तुलना मंजे हुए आलोचक की तरह करता रहा--सामान्य कद,गेहुआं रंग,चमकीले काले घने लम्बे बाल,पतली कमर,मोहिनी चाल नजाकत भरे, बड़ी-बड़ी नशीली आँखें जिसके ऊपर काली घनी भौंहें. सुराहीनुमा गर्दन,और नारंगीनुमा...,गुलवदन इतना सुकुमार कि चांदनी में भी मुरझाने लगे,गुलाब की पंखुड़ी से भी खरोच लग जाए.....इतना कुछ भावात्मक कल्पना नहीं वास्तविकता थी। सौन्दर्य तो एक से एक देखे जाते हैं,किन्तु इतना कुछ था जो उस एक,मेरी प्रेयसी में मुझ सामान्य के लिए वह असामान्य थी।

एक ओर वह और दूसरी ओर वर्तमान पत्नी जिसे रेनुका नाम से पुकारा जाना अतिशय प्रिय था। इन दोनों के बीच बैठा था मैं तराजू के स्टैंड की तरह।

शादी के बाद प्रथम बार ही दीर्घ सानिध्य मिला पत्नी का। इस दौरान हम दोनों ने एक दूसरे को समझने-जानने की भरपूर कोशिश की। देने के लिए था,बस प्यार का अमीयसार। देने के सिवा कुछ पाने की आकांक्षा न थी उन दिनों। होना भी नहीं चाहिए। दो प्रेमियों के बीच पाने जैसा कुछ होता है यदि, तो समझो कि सच्चा प्रेम है ही नहीं। क्यों कि प्रेम तो सिर्फ देने का नाम है,पाने और लेने का प्रश्न ही कहाँ? प्रेम सौदेबाजी नहीं है। बस हम दोनों एक दूजे को रिझाते रहे,एक दूसरे में खोते रहे।

सप्ताह भर बाद वह चली गयी मायके, और मैं वापस आ गया अपनी पढ़ाई पर।

दिन भर व्यस्त रहता कॉलेज और ट्यूशन में;किन्तु रात्रि के शुभागमन के साथ स्मृति पट खुल जाता,और आँखें अपलक निहारती रहती कल्पना लोक में दो चेहरों को --एक जिसे अपना न सका, और दूसरा,जिसे अपना कर भी दूर छोड़ आया हूँ।

उस दिन इनकमटैक्स का क्लास चल रहा था। चपरासी ने एक पुर्जे के साथ क्लास रूम में प्रवेश किया,जिसे एक नजर देखने के बाद व्याख्याता महोदय ने नाम पुकारा। पुकारा गया नाम मेरा ही था। प्रिंसिपल साहब याद कर रहे थे। मैं चौंक पड़ा। भीगी बिल्ली बना चपरासी के पीछे-पीछे चल पड़ा- यह सोचते हुए कि न जाने किस अपराद्द के आरोप में बुलाया गया है। कांपते कलेजे को सम्हालते हुए प्राचार्य-कक्ष का पर्दा हटाया ही था कि सर ने मुस्कुराते हुए कहा-‘ये देखो,मेडिकल कॉलेज हॉस्पीटल का फोन कब से तुम्हारा इन्तजार कर रहा है। ’

कानों पर यकीन न आया। मुझे, और बड़े अस्पताल से याद करने वाला कौन हो सकता है? कांपते हांथो से टेबल पर देर से पड़ा रिसीभर उठाया,और कान तक पहुंचने से पहले ही हड़बड़ा कर हेलो! कह बैठा।

उधर से अप्रत्याशित आवाज आयी। यह आवाज थी मिस्टर विक्रम सेन की। श्री सेन को मैं विगत दस बर्षों से जानता हूँ। सौम्य,सुसंस्कृत,प्रभावशाली व्यक्तित्त्व वाले श्री सेन मुझे हार्दिक स्नेह देते आ रहे हैं- विगत कई बर्षों से,किन्तु उनके स्नेह का प्रत्युत्तर मेरे पास न था तब,और न रह गया है अब। क्यों कि मैं तो उनका सर्वस्व विनष्ट कर चुका हूँ। फिर भी उनका स्नेह मेरे ऊपर बरस रहा है, जिसके लिए मैं मौन रूप से उनका सदा आभारी रहूँगा। श्रीमती सेन का व्यवहार भी अतिशय सराहनीय है। ये दम्पति ही मेरी प्रेयसी मीना के जनक-जननी हैं।

उस दिन जिस घटना ने उन्हें यहाँ ला पटका था,याद आने पर आज भी आँखों तले अन्धेरा छा जाता है। सच कहूँ तो इन सारे वारदातों की जड़ मैं ही हूँ। मेरे उस पत्र की प्रतिक्रिया ही है यह सब,जिसे मैं साधारण समझा था,वह इतना विकट हो गया।

ग्रीष्मावकाश के अवसर पर सेन परिवार देशाटन पर निकला था। परिवार क्या,बिलकुल नियोजित – पति-पत्नी एवं एक पुत्री -मीना। यही था उनका संक्षिप्त संसार। एक दो बच्चे पहले भी आए थे,किन्तु प्रपंचलोक उन्हें भाया नहीं, फलतः असमय में ही प्रभु के पास चले गए। अब तो मात्र मीना है। इसे समय पर किसी सुयोग्य को सुपुर्द कर दम्पति वानप्रस्थी जीवन शिवनगरी काशी में बिताने के विचार में थे। मन ही मन सुयोग्य जामाता ढूढ़ भी लिए थे,किन्तु यहाँ मात खा गया उनका वुजुर्ग तजुर्बा ।

तूफान एक्सप्रेस अपना नाम सार्थक करते हुए ऐतिहासिक नगरी - पटना पहुँचने ही वाली थी। सेन साहब को एकाएक याद आया,तब झट कुरते की जेब टटोले,और कई दिनों से जेब में पड़ा एक लिफाफा निकाल कर मीना के हवाले किये, ‘ देखो न मैं भूल ही गया था। पढ़ो क्या लिखा है उसने?’ पत्र की उत्सुकता उसकी माँ को भी थी,कारण लम्बे अन्तराल पर मेरा पत्र पहुँचा था। आपसी व्यवहार बिलकुल किताब की तरह था- खुली किताब,जिसे पढ़ने में कोई झिझक नहीं। मीना पत्र पढ़ने लगी मन ही मन। पत्राशय क्या है मैं तो जान ही रहा हूँ,कोई और, न जाने तो ही अच्छा है। दो प्रेमियों के बीच का संवाद उन तक ही रहना चाहिए। माता-पिता की उत्सुकता शमन के लिए पलकें,होठ और चेहरे के भाव ही काफी हैं।

उस समय फोन पर सेन साहब ने सिर्फ इतना ही कहा कि मीना की हालत गम्भीर है...। आगे कुछ कहने की स्थिति में वे थे भी नहीं। गला भर आया था। विवश होकर फोन रख देना पड़ा।

मैं सीधे हॉस्पीटल पहुँचा- इमरजेन्सी वार्ड में। मुझे देख कर सेन दम्पति के मुरझाए चेहरे पर हल्की मुस्कान की रेखा सी बनी, जो मात्र औपचारिक था। बेड पर पड़ी मीना उस समय पूरे होशो हवास में थी। मुझे देखते ही उठने की कोशिश करने लगी। ऐसा लगा मानों दौड़ कर मेरी बाहों में समा जाना चाहती हो, और उलाहनों के बदले प्यार से ढक देना चाह रही हो। किन्तु मैं आगे बढ़ जल्दी से थाम लिया उसे यह कहते हुए, ‘नहीं....नहीं, उठो मत। ’

वस्तुतः वह उठने की स्थिति में थी भी नहीं। कहने को तो मात्र पैर की हड्डी में सामान्य सा फ्रैक्चर हुआ था,किन्तु सच्चाई यह थी कि फेफड़े और हृदय भी काफी हद तक चोट के शिकार हो चुके थे। फलतः सांस लेने में भी कठिनाई हो रही थी। माथे पर भी गहरी चोट थी। ग्यारह घंटों के संघर्ष और वरिष्ट चिकित्सकों के अथक प्रयास के बाद सुबह में ही आँखें खोली थी। स्थिति काफी सन्तोष जनक थी,फिर भी डॉक्टर चिन्ता मुक्त नहीं हो पा रहे थे। क्यों कि उनका अनुमान था कि सौभाग्य से इसे बचाने में सफल हो गए, फिर भी विकलांगता और मानसिक विकृति का सही निवारण नहीं सूझ रहा था।

मैं मीना के बेड पर ही बैठ गया। वह चाह रही थी,मुझसे अति समीप होना। उसके पास आँसु के सिवा शायद कुछ भी शेष न था,जो अनवरत ढरकते जा रहे थे।

श्रीमती सेन बतला रहीं थी- ‘........पत्र पढ़ने के बाद बिना कुछ कहे उठ खड़ी हुई। बाथरूम की ओर चल पड़ी। हमलोगों का ध्यान तो तब आया जब डब्बे में शोर मचा और किसी भलेमानस के चेन पुलिंग से गाड़ी खड़ी हो गई। नहीं कहा जा सकता कि उसने जानबूझकर ऐसा किया या....। ’

पत्राशय की उत्सुकता उन्हें अभी भी बनी हुई थी। काश! मैं निर्मूल कर पाता उनकी शंका को।

काफी देर तक मैं जड़वत बैठा रहा। मन ही मन जगदम्बा से प्रार्थना करता रहा - यदि वे मीना को जीवन दान दे दें,तो मैं भी एक कठोर निर्णय ले लूँ। क्या होगा,यदि ऐसा कर ही लूँ? हाँ, एक म्यान में दो तलवार घुसेड़ने की बात आयेगी,देखा जायेगा।

परन्तु यह सौभाग्य मुझ भाग्यहीन को कहाँ मिलना था। सारा दिन वहीं रहा। मेरी उपस्थिति से सेन दम्पति को काफी सुकून मिला। तय है कि रात भी यहीं बितानी है। इस अवस्था में इन्हें छोड़ कर, मैं कॉलेज-हॉस्टल कैसे चला जाऊँ!

रात्रि विश्राम के लिए वे दोनों वहीं बाहर वरामदे में दरी डाल लिए। पिछली रात जरा भी आँख न लग पायी थी किसी की। आज मेरी उपस्थिति का लाभ पाकर करीब साढ़े नौ बजे ही कुछ खा-पीकर लेट रहे श्रीसेन दम्पति। मैं मीना के बेड पर ही ढासना लगाए उसके सोने का इन्तजार करता रहा। किन्तु उसकी आँखों में नींद कहाँ? चैन कहाँ?

रात्रि दश बजे वार्ड की अधिकांश बत्तियाँ बुझा दी गई। दो-एक डीम लाईट जलते रहे। मीना शायद इसी अवसर की तलाश में थी। रौशनी घटते ही हाथ मेरी ओर बढ़ा दी। थोड़ा समीप होने पर मैंने देखा उसकी रतनारी आँखें सजल हैं,प्रवहमान हैं। हृदय तेजी से धड़क रहा है। फेफड़े धौंकनी की तरह चल रहे हैं। पके कुन्दरू सरीके होठों का कम्पन कह रहा है कि भीतर शब्दों का भीड़ अकुला रहा है- बाहर आने को,परन्तु मर्यादा की कोई डोर उन्हें जकड़े हुए है।

मैं, इस अवस्था में मीना से आँखें मिलाने में स्वयं को समर्थ नहीं पा रहा था। उसकी यह द्वन्द्वात्मक स्थिति मुझसे देखी न गई, फफक कर रो पड़ा,और आहिस्ते से उठाकर बाहों में भर लिया। पवित्र और मर्यादित मिलन का यह प्रथम अवसर था। अब से पहले भी परम एकान्त के अनेक अवसर आए थे;परन्तु न जाने क्यों हाँथ

मिलाने तक का भी प्रयास और पहल न कभी किया था मैंने,और न उसने ही। परन्तु आज? आज वह मेरी बाहों में है सर्वस्व की तरह। आज मुझे कुछ अजीब सा लग रहा है। समझ नहीं आ रहा है कि क्या कहूँ,क्या पूछूं। कुछ देर वह यूँही पड़ी अपलक मुझे निहारती रही। फिर मेरा हाँथ खींच कर अपने सीने पर ले जाते हुए बोली-

‘‘जरा गौर करो,कितने जोरों से धड़क रहा है,बुझते दीये की लौ की तरह फफक रहा है क्यों कि ......। "

मैंने उसके पटपटाते होठों पर अपनी हथेली रख दी थी,यह कहते हुए- ‘मीनू तुम्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। तुम घबडा़ओ नहीं,मैंने तुम्हें पूर्णतया अपना लेने का संकल्प कर लिया है। ’

मेरी इस बात पर व्यंग्यात्मक मुस्कान विखेरती हुई धीरे से बोली- ‘‘यदि अपना ही लिए होते तो फिर यह सब.....’

‘मुझे माफ कर दो मीनू! अनजाने में,अनचाहे ही बहुत बड़ी भूल हो गयी है मुझसे। ’- मैंने कहा था। जिसे सुनकर वह एक बार फिर मुस्कुरायी। मगर यह मुस्कान व्यंग्य का नहीं,गाम्भीर्य के तल से उठ कर होठों पर आ टिका था। आम की फांकों सी बड़ी-बड़ी आँखें मेरे चेहरे की महीन सिलवटों को भी पढ़ने का प्रयास कर रही थी।

एक आदेशात्मक किन्तु अनुनय पूरित प्रश्न उभरा उसके होठों पर - ‘‘सजा कबूल है अपनी गलती की? प्रायश्चित मैं सुझाऊँ?’

और इसके साथ ही उसका इशारा था- तकिए के नीचे से कुछ निकालने के लिए। पता नहीं वहाँ कब से कहाँ से एक पुडि़या छिपा रखी थी। मैंने उसे बाहर निकाल कर उसके हांथ पर रख दिया,यह पूछते हुए कि क्या है इसमें। उसका उत्तर था- ‘‘इसमें है तुम्हारे पाप के प्रायश्चित का निवारण। घबड़ाओ नहीं। जहर नहीं है इसमें। इसमें है अतृप्त सुहाग रज। जिसे बड़े संजोकर रखी हूँ। काली बाड़ी का प्रसाद है। तुम इसे आज ही इसी क्षण भर दो मेरी मांग में,जगदम्बा की साक्षी में। तुम्हें पाप से मुक्ति मिल जाएगी और मुझे मेरी आकांक्षा। सोचने का वक्त नहीं है। उठाओ इस सिन्दूर को और पूरी कर दो मेरी अतृप्त लालसा। वस मेरे देवता! और कुछ नहीं चाहती मैं तुमसे। कोई शिकवा नहीं। कोई शिकायत नहीं। मेरा प्रेम यदि सच्चा होगा तो अगले जन्म मेंजरूर मिलूंगी। ’

मेरे हांथ कांप रहे थे। हृदय ‘तूफान मेल’ बन गया था। किसी दैवी प्रेरणा से स्फुरित मेरे हांथ जा लगे उसकी मांग से। सूनी मांग में समाकर सुहाग रज इठला उठा। क्षण भर में ही मैंने महसूस किया- सिर से कोई भारी बोझ उतर गया हो। आलिंगन एक बार दृढ़ हो गया। फिर हमने भी दिया और उसने भी,मात्र कुछ चुम्बन,जिन्हें पाने या देने का अवसर न आया,और न आया ही था पहले कभी।

रात के दो बज रहे थे। शान्त सुखद झपकी ले रहा था मैं बेड पर बैठे ही बैठे। अचानक आँखें खुल गई मीना के कर्कश चीख सुन कर। बरामदे में सोए सेन दम्पति भी दौड़े आए। चारों ओर शोर सा मच गया। अटेन्डेन्ट आया, नर्स आयी,डॉक्टर आए। नब्ज देखी,और भी कई तरह के निरीक्षण-परीक्षण किए। किन्तु अब क्या,कुछ नहीं। वह

चीख तो आँखरी थी। इसी बात की आशंका थी। मेरी गोद में पड़ा शरीर,जो कुछ पल पूर्व सौन्दर्य की साक्षात प्रतिमा थी,अब पत्थर की मूर्ति में बदल चुकी थी। विगत उन्नीश बर्षों की पहरेदार आँखें सदा-सदा के लिए बन्द हो चुकी थी।

सबेरा हो चुका था। हमसब बांसघाट पर गंगा किनारे गुमसुम खड़े थे। चिता सजायी जा चुकी थी। अन्तिम संस्कार दाह क्रिया शेष था। रूँधे गले से गम्भीर स्वर में श्रीसेन ने कहा- ‘‘मीना को बर्षों पूर्व ही मैं तुम्हें भावात्मक समर्पण दे चुका था। तुमने स्वीकारने में विलम्ब किया। यह तुम्हारी थी,तुम्हारी रही। जन्मान्तर में भी यह तुम्हारी

ही रहे,यही मेरी कामना है। तेरी बाहों में ही इसकी मौत हुयी,तेरी यादों को संजोए हुए। अतः दाह संस्कार करने का हक भी तुम्हारा ही है। वैसे भी पिता को यह अधिकार शास्त्रों ने नहीं दिया है। ’

मैं कह न सका- शास्त्रों ने यह अधिकार पति को भी नहीं ही दिया है,भले अज्ञान में सामाजिक चलन बन गया हो।

अगले ही पल चिता धधकने लगी थी। मैं पाषाण प्रतिमा सा अविचल खड़ा था। गोद से हटा कर चिता की अग्नि के हवाले कर दिया था,अग्नि परीक्षा हेतु। सीता तो वापस आ गई थी,पर मेरी मीना?