अशोक शाह की रचनात्मकता का उत्कर्ष / स्मृति शुक्ला
बहुत पुरानी है हिंसा / आदिम है राग-द्वेष
क्रोध, लोभ, मोह कल की बात नहीं /
करोड़ों वर्ष पहले जब नहीं की पृथ्वी
ले चुके थे ये जन्म / तो बाद में आया आदमी
ओढ़कर चादर पुरानी / तब तक पृथ्वी काफ़ी ठंडी हो चुकी थी
विचार, वाणी, बुद्धि विवेक / हो चुके थे घटित
हिन्दी कविता में अपनी दार्शनिक और मानवीय संवेदनाओं से आपूरित कविताओं से अपनी अलहदा पहचान बनाने वाले हिन्दी के प्रख्यात वरिष्ठ कवि अशोक शाह का ग्यारहवाँ संग्रह है 'कहानी एक कही हुई' जो अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज से हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की कविताएँ स्वयं को खोजने, पाने और जानने की प्रक्रिया से उपजी़ हैं। एक मनस्वी, तत्वचिंतक और जीवन मर्म का साक्षात्कार करने वाले संवेदनशील कवि और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी की क़लम से निकली ये कविताएँ मनुष्य को अपने आध्यात्मिक उन्नयन हेतु एक रास्ता दिखाती हैं। इन कविताओं में निहित संदेश को समझने के लिये पाठक को इन कविताओं की अन्तर्आत्मा तक पैठना होगा, क्योंकि शब्दों के केवल शब्दकोशीय अर्थ को जानकर ही कविता के मर्म को नहीं जाना जा सकता। अशोक शाह एक ऐसे आत्मचेता, सजग कवि हैं जो अपनी कविताओं में आत्म साक्षात्कार और आत्मबोध से चिंतन की उस उच्चतर भावभूमि तक जा पहुँचे हैं जहाँ अपने-पराये का, सुख-दुख का, हर्ष-विषाद का और जीवन-मृत्यु का पार्थक्य समाप्त हो जाता है और मृत्यु का भय भी समाप्त हो जाता है-
पहर-दर-पहर फिसल, बीतता जा रहा आज
इससे बेहतर कुछ भी नहीं, सिर्फ़ मौत से मुलाकात थी
वह भी आज ही आ गई, अहा! यह कितनी सुन्दर
इस मृत्यु से था लगता क्यों, अब तक था इतना डर!
अशोक शाह ऐसे कवि हैं जिनका कवि कर्म परिवेश-स्थितियों, व्यक्तियों या प्रकृति के केवल बाह्य परिवेश तक सिमटा नहीं है वरन मनुष्य के चराचर परिवेश, चेतन, अवचेतन, भाव और विचार, काल और समय को भेदकर उस शून्य तक जाता है जहाँ से कविता का जन्म होता है। कवि की यह वही मनोभूमि है जहाँ कविता अपने अर्थ से आलोकित होती है। 'कहानी एक कही हुई' क्या है? कौन-सी कहानी है? इन प्रश्नों के उत्तर जानने की तीव्र जिज्ञासा इस संग्रह के शीर्षक से होती है। कवि अशोक शाह कविता में कहानी का शिल्प रचते हुए कहते हैं-
चन्द्रमा की किरणों के नीचे आधी रात
समय की अंतहीन पसरी पीठ पर खड़ा हूँ
मेरी सीध में एक अनिश्चित भविष्य है
पीछे वह सब कुछ जो बीत चुका-
इस बीतने में काल की अंतहीन यात्रा है, एक पौधा जो बढ़कर वृक्ष बन चुका है, एक बच्चा जो पैदा होकर चलना, दौड़ना सीखता है, युवा होता है, वृद्ध होता है और मर जाता है। हम सभी तरह-तरह की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए हैं जिनके सारे पात्र गुजरे हुए हैं, चाहे वह कपटी हत्यारा राजा हो या धोखे से मारा गया सत्यवादी मनुष्य है। कवि लिखते हैं-
धरती का सुन्दरतम पशु मारा गया बाघ है
उसकी खाल अतीत से ड्राइंग रूम में लटकी है
उसने अनेक कायर मनुष्यों को वीरता की
उपाधियों से विभूषित किया है
बीता हुआ सब कुछ है
उसमें बदलाव की नहीं कोई गुंजाइश
मैं सोचता हूँ
ज्योंहि एक क़दम बढ़ाता हूँ
घटनाएँ और दृश्य अतीत हो जाते हैं
समय उड़े हुए पंछी की तरह निकल जाता है
स्मृतियों के पंख शेष हाथों में रह जाते हैं।
इस स्थिर समय में मैं
चलता हुआ बीत जाता हूँ
कवि ने इस महत्त्वपूर्ण कविता में तटस्थ साक्षी भाव से स्वयं को देखा है। मनुष्य स्मृतियों के माध्यम से बीते हुए समय में जाता है जिसमें किसी तरह के परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं होती। इस बीते हुए समय में जाना यानी स्वयं बीत जाना है। अशोक शाह की यह कविता एकदम पारदर्शी और निष्कवच है तभी तो कवि कह सका है कि-"समय की पीठ पर बीते हुए जीवन की बस फ़िल्में देख पाता हूँ।" 'कहानी एक कही हुई' संसार के ज्यादातर मनुष्यों की कहानी है जो तरह-तरह के विचारों और स्मृतियों में जीते हैं। हम सभी कभी वर्तमान में रहना पसंद नहीं करते अपने अतीत या भविष्य में विचरण करते रहते हैं। तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ते और सुनाते-सुनाते मनुष्य का जीवन भी एक कहानी की तरह बीत जाता है। इस कविता में विन्यस्त दर्शन को समझे बिना आप कविता के स्पंदन को अनुभूत नहीं कर सकते।
अशोक शाह की कविताएँ जीवन में ठहराव और गति का संतुलन बनाती हुई मनुष्य को धर्म, वर्ग, देशकाल, रूप-रेखा और आकार की सीमाएँ तोड़कर असीम होने का रास्ता दिखाती हैं। माजी और मुस्तकबिल के झूले में दोलते मनुष्य को वर्तमान में रहकर बीज के प्रस्फुटन अंकुरण अर्थात सर्जन के विभिन्न आयामों को विचार मुक्त होकर देखने की प्रेरणा देती हैं-
खड़े हो माँजी और मुस्तकबिल के बीच
वक्त मिले तो सुनना
सन्नाटे से आती गहराती आवाजें
धरती के रोते हुए मनुष्यों की तरंगे हैं उनमें
वक्त मिले तो सुनना
जैसे टूटता है पेड़ से पीला पत्ता
लहराता बलखाता गिरता ज़मीं पर
वहीं आवाज़ सुनना
उसके रचे जाने की मात्राएँ गिनना (सुनना, पृ.27)
कवि माजी और मुस्तकबिल के बीच खड़े हम सभी से सन्नाटे में गहराती उन आवाजों को सुनने को कह रहा है जिसमें इस धरती के दुखी मनुष्यों के रूदन का स्वर तरंगायित हो रहा है। पेड़ से गिरते पीले पत्ते की सूक्ष्म ध्वनि सुनने का मशविरा है इन पंक्तियों में। लेकिन ये ध्वनियाँ हमें सांसारिक कोलाहल में सुनाई नहीं देगी। इसके लिए हमें उस आंतरिक सन्नाटे को साधना पड़ेगा जो हमारे हृदय को इतना संवेदनशील बना दे कि हम दूसरों के दुख को महसूस कर सके। 'कहानी एक कही हुई' संग्रह की कविताएँ समकालीन कवियों की भीड़ से अलग अपनी पहचान सुरक्षित करती हैं क्योंकि इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ दर्शन और फिर अध्यात्म की राह पर चलते कवि का साक्षीनामा हैं-
वक्त की चादर में लिपटा, विचित्र हस्ताक्षरित
पूर्ण और अर्धविरामों सहित, धरती पर आया एक दिन
साथ ही आये, वक़्त के दुख
खुशी वक़्त की और एक लम्बी शृंखला आशा-निराशा की
XXX
चाहा कितनी बार रख दूँ कहीं, इस भीड़ को दुनिया के तल पर
पर निज गेह के तंतुओं में, ख़ुद ही उलझता रहा
एक पल का भी एकांत, नसीब न हुआ कभी
देख न पाया दर्पण में, अपनी ही छवि कभी
स्वयं को जानने की यह प्रक्रिया आसान नहीं है। इसके लिए प्रथमतः आत्मबोध होना आवश्यक है। कवि का कहना है कि मनुष्य तो कही हुई उन कहानियों के आनंद में गोते लगाता रहता है जो हमारी परंपराओं स्मृतियों कल्पनाओं और अतीत की घटनाओं और पात्रों के संयोग से मिलकर गढ़ी गई है। इन कहानियों में सुख के रेशमी धागे हैं तो दुख के पैबंद भी है। कवि का दार्शनिक चिंतन मनुष्य को आत्मचिंतन पर विवश करता है-
पत्तियाँ धूप से गढ़ती है छाया, वे पेड़ से निकलती है
और पेड़ पृथ्वी से, हमारी धरती छायादार है
बादल भी होते छायादार, वे सूरज के विरूद्ध उठते हैं
ढँक लेते दुनिया को, जाने से पहले वे पानी-पानी होकर
छिप जाते धरा के धानी आँचल में
कवि का मानना है कि प्रकृति के उपादानों की एक छाया है जिसकी उपयोगिता है लेकिन जो धूप के विरुद्ध खड़े नहीं होते उनकी कोई छाया नहीं होती। आदमी की छाया में न तो कोई जीव आश्रय ले सकता है न कोई बीज प्रस्फुटित हो सकता है। कवि ने सच ही कहा है-
हकीकत नहीं आदमी की छाया, मृगमरीचिका है
भटके हुए पथिक को, रेगिस्तान में दीखती
हमें मृगमरीचिका बनने से कवि बचाना चाहता है। अशोक शाह की प्रारंभिक संग्रहों में ऐसी अनेक कविताएँ हैं जो उनके दार्शनिक चित्त की गवाही देती हैं। दार्शनिकता उनके चिंतन में बद्धमूल रही है। उनके प्रथम संग्रह 'माँ के छोटे घर के लिये' में संगृहीत कविता की पंक्तियाँ हैं-" हर्षित कुछ विस्मित-सा मेरा दार्शनिक मन विकल' दार्शनिक मन की यह विकलता उत्तरोत्तर उन्हें अध्यात्म के उच्च धरातल तक ले जाती हैं। अशोक शाह की कविताएँ न तो यश प्राप्ति के लिखी गई हैं और न मनोरंजन के लिए अपितु सत्य के अन्वेषण के लिए लिखी गई हैं। ये कविताएँ हमें सार्थक और भयमुक्त जीवन जीने का रास्ता सुझाती हैं। अशोक शाह अपने को उन पलों का योग मानते हैं जहाँ शून्य से निकला जीवन शून्य में समा जाता है। सम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है केवल दृष्टा बचता है, दृश्य समाप्त हो जाते हैं-
घटाटोप अँधेरों में, दमकती हुई दामिनी संग
घनघोर जलपात हूँ, नदी वहीं से आकार लेती है।
पर्वतों-पठारों से उतरती, ऊबड़-खाबड़ पथरीली
मैं वहीं ढलान हूँ, नदी का रास्ता ऐसा ही होता है
XXX
दग्ध होते सूरज धरे, समेटता हरी तन्हाइयाँ
मैं ऋतुओं का पतझड़ हूँ, किसलय नये वहीं से निकलते हैं
XXX
पर राजपथ नहीं मैं, न मंदिर का सुघड़ पत्थर
दोस्तो माफ़ करना मुझे, तुम्हारी सहूलियत में शामिल नहीं
मैं किसी निर्दोष से किया गया झूठा वादा नहीं
उन पलों का जोड़ हूँ
जहाँ शून्य से निकलता
शून्य में समाता जीवन
'कहानी एक कही हुई' संग्रह की कविताओं में जीवन की बहुविध स्थितियाँ हैं, प्रकृति, पर्यावरण, जनवरी का पहला दिन है, पत्ता और पाइलट है, कैदखाना, संवादहीनता, प्रवंचना और मृगमरीचिका है, पोस्टर है, माफीनामा है, संतुलन है, ठौर है और कोयम्बटूर शहर है। अर्थात इस संसार की कोई भी ऐसी सच्चाई नहीं है जो इन कविताओं में शामिल न हो।
अशोक शाह की भाषा की खूबी उनकी कविताओं में बिम्ब विधान है। वे ऐसे दृश्य बिम्ब रचते हैं जो देर तक आँखों के सामने ठहरते हैं-
जिंदगी के आम्रवृक्ष पर
फेंका था जो डंडा
हरी इच्छाओं के पल्लवों के बीच अटका है।
कुछ बड़ी ज़िन्दगी हुई
अब समाज के वृक्ष पर
सपनों की तरह अटकी है।
इन पंक्तियों में हरी इच्छाओं के पल्लवों के बीच अटका हुआ डंडा में कवि ने गहरे आशय भरे हैं। हरी इच्छाएँ याने मनुष्य के मन में उठने वाली लालसाएँ जो कभी ख़त्म नहीं होती, कभी सूखती नहीं जीवन भर हरी रहती हैं। अशोक शाह ऐसे कवि हैं जिनके पास भाषिक सामर्थ्य हैं। उनके पास ऐसी भाषा है जो लोक संपदा से सम्पन्न है साथ ही तत्सम शब्दों का अकूत भंडार भी है। उर्दू के शब्द भी बीच-बीच में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। भावों के अनुकूल भाषा उनकी कविताओं की समग्र अभिव्यक्ति को नई अर्थदीप्ति देती है। प्रकृति, जीवन और दर्शन की संश्लिष्ट संरचना अशोक शाह के काव्य विधान का स्वभाव है। कविताओं में सूक्ष्म व्यंजना है जो कवि के अन्तरात्मिक कथ्य को उद्घाटित करने में सहायक है। कवि का तीव्र मानवीय बोध तथा समाज के प्रति दायित्व बोध इस संग्रह की कविताओं को स्पृहणीय बनाना है। कविताओं में अद्भुत लयात्मकता और भाषिक सौन्दर्य है। निष्कर्षतः कवि की ये कविताएँ मनुष्य को आत्मिक आनंद के उस छोर तक पहुँचाना चाहती हैं जहाँ वह पूरी सृष्टि से प्यार कर सकता हो जहाँ अंधकार और प्रकाश दोनों ही पूरी तरह से अनुपस्थित हों तब भी वह देख सकने का सामर्थ्य अर्जित कर पा रहा हो।