अशौच और उसका संकर / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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पूर्व परिशिष्ट में ब्राह्मण के जन्म और मरण के अशौच का साधारण विचार किया गया है। कभी-कभी ऐसा होता है कि दो-तीन अशौच एक साथ आगे-पीछे पड़ जाते हैं। उनके विषय में यद्यपि मनु जी का मोटा और साधारण सिद्धांत यही बताया गया है कि पहले अशौच के दस दिन के भीतर यदि दूसरा अशौच हो जावे तो पहले ही से दूसरे की निवृत्ति हो जाती है। तथापि उसके विषय में थोड़ा सा सूक्ष्म विचार भी कर लेना आवश्यक है। साधारणतया यही नियम हैं कि ब्राह्मण के सपिंड को दस दिन का और सो (समानों) दक को तीन दिन का अशौच होता है। जैसा कि मनु ने 5वें अध्याय में लिखा है - ‘दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते। 59। त्रयहादुदकदायिन:। 64। जन्मन्येकोदकानांतु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते। 79।’ जन्मे या मरे से सातवीं पीढ़ी तक पिता के वंश में और माता के कुल में पाँचवीं पीढ़ी तक को सपिंड कहते हैं और उसके बाद तो जहाँ तक कुल के किसी भी पुरुष के जन्म और नाम का ज्ञान हो वहाँ तक पिता पक्ष में सोदक कहलाते हैं। जैसा कि याज्ञवल्क्य और मनु ने कहा है :

पंचमात्सप्तमादूधर्वं मातृत: पितृतस्तथा॥ या. 53॥

समानोदकभावस्तुजन्मनाम्नोरवेदने। म. 5। 60॥

परंतु यदि पुत्र वा पुत्री नामकरण से प्रथम ही मर जावे तो स्नान मात्र से ही शुद्धि हो जाती है। उसके बाद और दाँत निकलने से पहले ही मरने पर यदि दाह करे तो एक दिन में और यदि न करे तो स्नान मात्र से ही शुद्धि होती है। दाँत निकलने पर प्रथम वर्ष में ही मुंडन से प्रथम ही मरने पर एक दिन में और उसके बाद मुंडन हो जाने पर तीन वर्ष पर्यन्त तीन दिन में पुत्र का और कन्या का तो वाग्दान से पहले मुंडन न होने तक स्नान मात्र से ही और मुंडन हो चुकने पर एक दिन में अशौच निवृत्त हो जाता है। पर, कन्या के विषय में सपिंडता वाग्दान से प्रथम तीन ही पुरुष तक मानी जाती है। यदि पुत्र का मुंडन तीन वर्ष तक भी न हुआ हो तो एक ही दिन का अशौच होता है। तीन वर्ष के बाद तो मुंडन न होने पर भी उपनयन पर्यन्त तीन दिन का अशौच होता है और उपनयन के बाद दस दिन का। वाग्दान (तिलक) के बाद और विवाह से पहले कन्या का अशौच पिता और पति दोनों कुल में तीन दिन का लगता हैं और विवाह हो जाने पर सिर्फ पति कुल को ही दस दिन का अशौच होता है। दाँत निकलने के बाद और तीन वर्ष पहले मरने पर दाह और पिंडदानादि करना, न करना अपनी इच्छा पर हैं। पर, बाद को तो करना ही होगा। दो वर्ष से कम अवस्थावाले का दाह न कर शुद्ध भूमि में गाड़ देना चाहिए। पर गंगाजल में निक्षेप करने के लिए कोई रोक-टोक नहीं है। जिसे चाहें फेंक सकते हैं। सभी अशौच मालूम होने पर ही होते हैं। न मालूम होने पर नहीं। यही मनु, याज्ञवल्क्य और मिताक्षरा आदि का निचोड़ है। जैसा कि :

आदंतजन्मन: सद्य आचूडान्नैशिकी स्मृता।

त्रिरात्रमाव्रतादेशाद्दशरात्रमत:परम्। या. प्रा. 23॥

ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं दिनधयुर्बान्धावा बहि:।

अलंकृत्य शुचौ भूमावस्थिसंचयवादृते॥ 68॥

नात्रिवर्षस्य कर्त्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया।

जातदंतस्य वा कुर्युर्नाम्नि वापिकृतेसति॥ 70॥

स्त्रीणामसंस्कृतानां तु त्रयहाच्छुद्धय्न्तिबान्धवा:।

यथोक्‍तेनैव कल्पेन शुद्धयन्तितु सनाभय:। 72॥ म.॥

प्राङ्नामकरणात्सद्य: शौचन्तदूधर्वं दंतजननादर्वागग्निसंस्कारक्रियायामेकाह:, इतर्था सद्य:शौचम्। जादंतस्य च प्रथमवार्षिकाच्चौलादर्वागेकाह:। प्रथमवर्षादूधर्वं त्रिवर्ष पर्यन्तं कृत चूडस्यत्रयहम् इतरस्यत्वेकाह:। वर्षत्रायादूधर्वमकृतचूडस्यापित्रयहम्। उपनयनादूधर्वं सवरेंषां ब्राह्मणादीनां दशरात्रदिकम्। अप्रत्तानांतुस्त्रीणां त्रिपुरुषी (सपिंडता) विज्ञायतइतिवसिंष्ठस्मरणादितिमिताक्षरा या.॥ प्रा.। 23-24॥

अशौच में एक बात का और भी विचार रहना चाहिए कि वह दो प्रकार का होता है, एक तो स्पर्श की अयोग्यता और दूसरे कर्म की अयोग्यता। इनमें मरणाशौच में तो दोनों ही प्रकार का अशौच साधारणतया माना जाता है। परंतु जन्म में माता को तो दोनों प्रकार का होता है। परंतु स्नान के बाद पिता स्पर्श योग्य हो जाता है और अन्य सपिंड तो सदा ही स्पर्श योग्य होते हैं। परंतु कर्म की योग्यता नहीं रहती है जब तक कि पूरे दिन न बीत जावे। मनु जी का यही अभिप्राय नीचे के श्‍लोक से स्पष्ट है :

सर्वेषां शावमाशौचं माता पित्रोस्तु सूतकम्।

सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचि:॥ 5। 62॥

इसलिए जो कोई सपिंड विदेश में हो तो दशाह के बाद और एक वर्ष के भीतर जन्म या मरण की खबर मिलने पर तीन दिन तक कर्म अनधिकारी रहता है। मगर सवस्त्र स्नान के बाद छूने योग्य हो जाता है। मगर एक वर्ष के बादखबर मिलने पर तो सिर्फ स्नान कर लेने पर ही पवित्र हो जाता है। जैसा कि मनु ने कहा है :

अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।

सवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैववापो विशुद्धयति॥ 76॥

निदशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च।

सवासां जलमाप्लुत्य शुद्धो भवति मानव:॥ 5॥ 77॥

गर्भपात हो जाने पर जितने महीने का गर्भ हो उतने दिनों तक स्त्री अपवित्र रहती है। किसी का मत है कि तीन महीने के बाद के ही गर्भ का यह नियम है और छठे मास तक के ही लिए। इसके बाद तो पूरा अशौच लगता है। रजस्वला स्त्री तीन दिन तक अपवित्र रहती हैं और चौथे दिन स्नान कर शुद्ध होती है। जैसाकि मनु ने कहा है :

रात्रिभिर्मासतुल्याभि:गर्भस्रावे विशुद्धयति।

रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला॥ 5। 6॥

समान, असमान, सजातीय, विजातीय इस तरह अशौच चार प्रकार का होता है और इनमें से दो से अधिक यदि एक साथ या आगे-पीछे प्रथम की निवृत्ति के पहले ही पड़ जावे तो उसे अशौचसंकर कहते हैं। जिन अशौचों की दिन संख्या बराबर हो वे समान और जिनकी बराबर न हो वे असमान हैं। इसी तरह जन्म संबंधी सभी अशौच परस्पर सजातीय हैं और मरण संबंधी भी। परंतु मरण और जन्म एक दूसरे के विजातीय हैं। सजातीय अशौच का यह नियम हैं यदि अधिक दिनवाले के भीतर उसका सजातीय कम दिनवाला या बराबर वाला अशौच हो जावे तो पहले से ही दूसरे की भी निवृत्ति हो जाती है। परंतु यदि अधिक दिनवाला कम दिनवाले सजातीय के भीतर आ पड़े तो अधिक दिनवाले से ही कम दिनवाला निवृत्त होता है। जैसा कि याज्ञवल्क्य और उसकी मिताक्षरा में उशना का वचन हैं कि :

अन्तरा जन्ममरणे शेषाहोमिर्विशुध्यति। प्रा. 20।

स्वल्पाशौचस्य मध्येतु दीर्घाशौचं भवेद्यदि।

नपूर्वेणविशुद्धि:स्यात्स्वकालेनैव शुध्यति॥ उश.॥

विजातीय का यह नियम है कि चाहे मरण में जन्म हो या जन्म में मरण, पर, मरणाशौच की निवृत्ति से ही जनना शौच की भी निवृत्ति होती है। फिर चाहे मरण समान हो या असमान। जैसा कि अंगिरा का वचन है कि :

सूतके मृतकं चेत्स्यान्मृतकेत्वथ सूतकम्।

तत्राधिकृत्य मृतकं शौचं कुर्यान्न सूतकम्॥

परंतु माता-पिता के मरण के संकर में मिताक्षराकार ने लिखा है कि यदि माता के मरने पर बीच में ही पिता मर जावे तो पिता के ही अशौच की निवृत्ति से माता के भी अशौच की शुद्धि होती है। और यदि पिता के बाद माता मरी हो तो पिता के अशौच के बाद दो दिन और उनके बीच की रात बिता कर शुद्ध होता है। जैसा कि :

मातर्यग्रे प्रमीतायाशुद्धौ म्रियते पिता।

पितु: शेषेण शुद्धि:स्यान्मातु:कुर्यात्तु पक्षिणीम्।

यद्यपि पूर्व प्रदर्शित याज्ञवल्क्य के वचनानुसार और मनु ने भी लिखा है कि दस दिन के भीतर यदि दूसरा जन्म या मरण हो जावे तो तभी तक अशौच रहता है जब तक कि दस दिन पूरा नहीं होता। जैसा कि :

अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी।

तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तात्स्यात्तदनिर्दशम्॥ 5॥ 79॥

तथापि यही सिद्धांत किया गया है कि दस दिन के भीतर का अर्थ है नौवें दिन और रात के तीन पहर तक। इसलिए यदि उस समय तक कोई दूसरा अशौच आ जावे तो पूर्व से ही वह भी निवृत्त हो जावेगा। जैसा कि बौधायन ने प्रथम प्रश्‍न के पाँचवें अध्याय में कहा है :

अथ यदि दशरात्रात्सन्निपतेयुराद्यंदशरात्रामाशौचमानवमाद्दिवसात्। 124।

परंतु उसके बाद दसवें दिन की शाम तक दूसरे अशौच के हो जाने पर पहले के पूरा होने के दो दिन बाद शुद्धि होती है और शाम के बाद एक पहर रात रहे तक होने पर तीन दिन और बिताना पड़ता है। रात्रि का संस्कृत नाम त्रियामा है, जिससे तीन ही पहर की रात मानते हैं और शेष पहर प्रात:काल कहलाता है। यह बात गौतम, वसिष्ठ, शातातप स्मृतियों में लिखी है। जैसा कि :

रात्रिशेषे सतिद्वाभ्यांप्रभाते सति तिसृभि:। व. 4। 23।

रात्रिशेषे द्वयहाच्छुद्धिर्यामशेषेशुचिस्त्रयहात्। शाता.।

अशौच के अंतिम या दसवें दिन गाँव से बाहर स्नान करना, कपड़ा बदलना, दाढ़ी-मूँछ आदि बनवाना और नख कटवाना चाहिए, न कि उसके बाद या पहले। जैसा कि :

दशमेऽहनि संपाप्तेस्नानं ग्रामाद्वहिर्भवेत्।

तत्रत्याज्यानिवासांसि केशश्मश्रुनखानिच। देवल.॥

प्रेत (मरे) के लिए सोलह श्राद्ध किए जाते हैं जिनका नाम षोडशी है। जिनके नाम ये हैं -ऊन मासिक, प्रथम मासिक, त्रिपाक्षिक, द्वितीय मा., तृ. मा., च., पं, ऊनषाण्मासिक, षाण्मासिक, स., अ., न., दश., एका. ऊनवार्षिक, वार्षिक! यदि बीच में अधिमास हो जावे तो 17 और न्यूनमास हो तो 15 ही होते हैं। इनमें पहला एकादशाह को करते हैं और शेष यथासमय। प्राचीन नियम यही था कि वार्षिक श्राद्ध जो 12वें मास में होता है उसी के बाद सपिंडीकरण श्राद्ध किया जावे और बिना सपिंडी के कोई मंगल कार्य घर में न हो। मगर अब ऐसा नियम है कि साधारणतया एकादशाह को पहला श्राद्ध कर के शेष 15 को द्वादशाह के दिन करते हैं उसी दिन सपिंडन भी किया जाता है। अथवा सोलहों श्राद्ध एकादशाह को ही कर डालते हैं। सिर्फ सपिंडन द्वादशाह को करते हैं। दोनों प्रकार के वचन मिलते हैं। मगर फिर सपिंडन के बाद भी मासिक आदि श्राद्ध किए जाते हैं और उन्हें अवश्य करना चाहिए और पूरा वर्ष बीतने पर वार्षिक होना चाहिए, न कि बीच में ही, क्योंकि उसका नाम ही वार्षिक है। सब सपिंडन हो गया तो फिर मंगल कार्य करने में कोई हर्ज नहीं है। ब्रह्मभोज भी श्राद्ध के दिन ही होना चाहिए यही निचोड़ है।