अश्लीलता और भोजपुरी / तुषार कान्त उपाध्याय
पिछले कुछ दिनों से गीतों और सिनेमा में द्विअर्थी और अश्लील और गीतों और संवादों को लेकर अचानक सक्रियता बढ़ गयी है। पहले भी सुगबुगाहट होती थी। पर इतना मुखर विरोध नहीं दीखता था। साफ-सुथरे और शास्त्रीयता से भरे गीतों, फ़िल्मो (छोटी और सन्देश देनेवाली) का विकल्प खड़ा करने जूनून नहीं दीखता था। शुरवाती दौर की भोजपुरी फ़िल्मे और गीत जितने सामाजिक सरोकारों भरे होते थे, इनका पतन भी अपने आप में समाज के पतन का बिम्ब सामने करता है। एक तरफ, बालेश्वर, कल्पना, पवन सिंह, खेसारी लाल जैसे लोकप्रिय लेकिन अश्लील गाने वाले उभरे तो दूसरी और भरतशर्मा, शारदा सिन्हा और चन्दन तिवारी जैसे उत्कृष्टता का प्रतिमान स्थापित करने वाले कलाकारों ने बाज़ार के दबाव में समझौता नहीं किया।
परन्तु असल में इस पतन के लिए कौन जिम्मेवार है। संघर्ष से थके, अनिश्चित भविष्य के आतंक में जीते, रातों रात अमिर बन जाने की लालसा में कुछ भी कर गुजरने वाले कलाकार और निर्माता या उनको बाज़ार मुहैय्या करने वाला समाज। 'सैंया के संग मडैय्या में' और 'निरहुआ रिक्शा वाला' जैसी फ़िल्मे व्यावसायिक तौर पर सफल होतीं है और इनसे जुड़े लोग स्थापित। परन्तु 'देसवा' जैसी शानदार फ़िल्मो को प्रदर्शन के थियेटर तक नहीं मिलते। आखिर क्यों? क्योकि इनको देखने वाले दर्शक नहीं। मनोज तिवारी जैसे सुलझे कलाकार जब 'बगलवाली जान मारेली...' और 'चट देनी मार डेली घीच के तमाचा ... ही-ही हंस देले ... रिन्किया के पापा ...' गाने को मजबूर हो जाते हैं। तो कहीं न कही पूरा समाज इसका जिम्मेवार है।
परिवार के सामने ये गीत सुनने में असहज लगने की बात करने वाले लोगों के घरों के उत्सवो में भी कल्पना के 'एगो चुम्मा ले ल राजा जी ... बनि जाई जतारा ...' बड़े आराम से बजता है। सार्वजनिक कार्यक्रमों में बजना तो इन गीतों का हक ही बनता है। चन्दन तिवारी और भरत शर्मा भी सुने जाते हैं, पर इनका दायरा बहुत छोटा है।
भोजपुरी क्षेत्र के किसी भी गाँव में जाईये, युवा शायद ही मिलें। कम पढ़े लिखे ये युवा अन्य राज्यों मजदूर बन गए हैं। उनके मनोरंजन का जरिया यही सस्ती फ़िल्मे और गीत हैं, जो बड़ा बाज़ार बनते हैं ऐसे गीतों और फ़िल्मो के. उनके इर्दगिर्द के लोग भोजपुरी का मतलब इन्ही अश्लील गीतों को जानते हैं। थिरकते धुनों पर बने गीतों को समझें या नहीं, पर ऑटो टैक्सी वाले इसे बजाते हर जगह मिल जायेंगे।
खतरा आने वाली पीढ़ियों के लिए है। होरी और संस्कार गीतों की समृद्ध परंपरा भाषा, अपनी मूल पहचान को देगी। बड़ी जिम्मेवारी सरकार की भी बनती है। पर कोई भी कोशिश सरकार की दिखती नहीं। न तो फ़िल्मो के विकास के लिए, न ही भाषा की समृद्धि के लिए. बिहार, ऊतर प्रदेश जैसे राज्य, जिनकी सबसे बड़ी आबादी भोजपुरी भाषियों की है, वहाँ की अकादमियाँ मृत पड़ी हैं। समाज और साकार को मिलकर कोशिश करनी होगी। एक और बेहतर सेंसर तो दूसरी ओर उत्कृष्ट विकल्प को प्रोत्साहन और समर्थन देकर।