अष्टावक्र: मोंहि हँसे कि कोहरहिं / अमरनाथ शुक्ल

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एक ऋषि थे उद्दालक। उनकी पुत्री सुजाता अपने पति के देहान्त के पश्चात् अपने इकलौते छोटे से बेटे को लेकर पिता के आश्रम में आ गयी।

सुजाता का पुत्र दुर्भाग्य से टेढ़े-मेढ़े अंगों वाला था। उसके हाथ-पैर टेढ़े-मेढ़े थे, कद नाटा था, पीठ पर कूबड़ निकला था, चेहरा भद्दा था, इसीलिए उसका नाम अष्टावक्र रखा गया। पर माँ सुजाता का वही एक आसरा था, अतः उसी का मुँह देखकर आगे चलकर अपने अच्छे दिनों की आशा लगाये थी।

अपनी विधवा बेटी तथा धेवते को उद्दालक अपने आश्रम में बड़े आदर और प्यार से रखते थे, ताकि उनके मन में किसी तरह का दुख या हीन-भावना न आए।

अष्टावक्र शरीर से भले ही टेढ़ा-मेढ़ा तथा बेढंगा था, मगर उसकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। वह अपने नाना के आश्रम में पढ़ने वाले अन्य विद्यार्थियों में सबसे कम उम्र का था, पर पढ़ने में सबसे तेज था। अपनी तीव्र बुद्धि के कारण उसने थोड़ी ही उम्र में वेद-शास्त्रों तथा धर्म-ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन कर लिया।

अपनी माँ और नाना के प्यार में अष्टावक्र को यह सोचने का कभी मौका ही न मिला कि उसके पिता नहीं हैं और वह अपने नाना के आश्रित है? एक दिन संयोग से एक घटना घटी। आश्रम के सब विद्यार्थी छुट्टी पाकर अपने-अपने घर चले गये थे। अष्टावक्र अपने नाना की गोद में बैठा था। इतने में उद्दालक का अपना पुत्र श्वेतकेतु आया और अष्टावक्र को अपने पिता की गोद में बैठा देखकर बोला, “अष्टावक्र, तू यहाँ से हट। अपने पिता की गोद में मैं बैठूँगा।”

अष्टावक्र बोला, “मैं पहले से बैठा हूँ, मैं नहीं हटता।”

श्वेतकेतु अष्टावक्र का हाथ पकड़कर बोला, “यह तेरे पिता की गोद नहीं है, तू अपने पिता की गोद में जाकर बैठ।”

महर्षि उद्दालक को श्वेतकेतु की यह बात बुरी लगी। उन्होंने उसे इस व्यवहार के लिए डाँटा तथा अष्टावक्र को पुचकारकर बुलाया। मगर वह अपमानित मन से अपनी माँ के पास चला गया और बोला, “माँ! मेरे पिताजी कहाँ हैं?”

बेटे से आज पहली बार सुजाता ने यह सवाल सुना तो धक् से रह गयी। अपने को सँभालकर बोली, “महर्षि उद्दालक ही तेरे पिता हैं।”

“वह मेरे नाना हैं, गुरु हैं। मैं अपने पिता के बारे में पूछ रहा हूँ माँ!”

सुजाता ने प्यार से पूछा, “आज तुझे पिता के बारे में जानने की क्या जरूरत पड़ गयी?”

अष्टावक्र ने श्वेतकेतु से हुई सारी बातें माँ को बतायीं। सुनकर सुजाता की आँखें भर आयीं। अभी वह अपने बेटे को उसके पिता के बारे में कुछ बताना नहीं चाहती थी, पर अब बताना पड़ा।

“बेटा! तेरे जन्म से पहले की बात है। तेरे पिता एक बार कुछ धन-प्राप्ति के लिए राजा जनक के दरबार में गये। उनके दरबार में बन्दी नामक एक तार्किक शास्त्री रहता है। उस दुष्ट की यह आदत है कि जो भी उससे शास्त्रार्थ में हार जाता है, उसे वह जल में डुबोकर मार डालता है। दुर्भाग्य से तेरे पिता उसके कुतर्कों से हार गये। उस दुष्ट ने निर्दयता से उन्हें जल में डुबोकर मार डाला। जब भरण-पोषण का कोई सहारा नहीं रह गया तो तुझे लेकर मैं यहाँ अपने पिता के पास आ गयी। तब से आज तक यहीं हूँ।” कहते-कहते सुजाता की आँखों में आँसू भर आये।

अष्टावक्र बोला, “माँ! रोओ मत। क्या तुम बता सकती हो कि वह बन्दी अब कहाँ है?”

“हाँ बेटा! अब भी वह राजा जनक के दरबार में रहता है, पर तू उसे जानकर क्या करेगा? अभी पढ़-लिखकर खूब विद्वान बन। उस पापी के पास जाने की जरूरत नहीं।”

“जरूरत है माँ! इस तरह के दुष्टों को उन्हीं की खोदी हुई खाई में गिराने से कल्याण होगा। मैं उससे अपने पिता की हत्या का बदला लूँगा।” यह कहकर अष्टाव्रक सीधा उद्दालक के पास पहुँचा।

“गुरुदेव! मुझे राजा जनक के दरबार में जाकर बन्दी से शास्त्रार्थ करने की आज्ञा दीजिए।”

महर्षि बोले, “बेटा! शान्त होओ। अभी तुम्हारी शिक्षा पूरी नहीं हुई है। तुम्हारे शरीर तथा उम्र को देखते हुए तुन्हें जनक के दरबार में कोई घुसने भी न देगा, शास्त्रार्थ तो दूर की बात है।”

अष्टावक्र बोला, “गुरुदेव! आप अपना आशीर्वाद दीजिए। आपकी कृपा से मैं बन्दी से शास्त्रार्थ अवश्य करूँगा।”

उद्दालक अपने धेवते की बुद्धि तथा वेद-शास्त्रों के गहन अध्ययन को जानते थे। उसका दृढ़ निश्चय देखकर कहा, “जाओ वत्स, तुम्हारी मनोकामना पूरी हो। ईश्वर तुम्हें सफलता दे।”

अष्टावक्र माँ तथा गुरु की आज्ञा लेकर चल पड़ा। जब वह नगर में पहुँचा तो संयोगवश महाराजा जनक उसी राजमार्ग से आ रहे थे। आगे चलने वाले नौकरों ने इसे देखकर कहा, “ऐ लड़के, एक तरफ हो जा। देखता नहीं, महाराजा इधर से पधार रहे हैं।”

अष्टावक्र बोला, “मार्ग पर चलने की प्राथमिकता अन्धे, बहरे, स्त्री, अपंग, असहाय तथा भारवाही व्यक्तियों को दी जानी चाहिए। राजा को अपने लिए ऐसी प्रथम सुविधा नहीं लेनी चाहिए।”

राजा जनक तब तक पास आ गये थे और अष्टावक्र की सारी बातें सुन लीं। वे विद्वान थे। सोचा, यह कुमार ठीक कह रहा है। उसे रास्ते से हटाये बिना वह एक किनारे से आगे बढ़ गये।

अष्टावक्र दूसरे दिन प्रातः राजदरबार में जाने को तैयार हुआ। राजमहल के द्वार पर द्वारपाल ने उसे रोककर पूछा कि वह कौन है और क्यों अन्दर जाना चाहता है?

अष्टावक्र ने अपना परिचय तथा आने का कारण बताया। सुनकर द्वारपाल बोला, “अभी तुम बालक हो। यज्ञ-वेदी पर वेद-पाठ करने की बजाय, किसी आचार्य के आश्रम में जाकर अध्ययन करो।”

“ज्ञान का उम्र से क्या सम्बन्ध! मेरी उम्र भले ही कम है, लेकिन मैंने वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया है। शरीर से मैं कुरूप हूँ, इसका अर्थ यह नहीं कि बुद्धि से भी मैं कुरूप हूँ, सेमल का वृक्ष बड़ा हो जाने पर भी शक्तिशाली नहीं होता। आग की छोटी-सी चिनगारी में भी किसी को जला देने की वैसी ही ताकत होती है जैसी आग के बड़े अंगारे में। कोई ऋषि बाल पक जाने से ही विद्वान नहीं होता। देवता भी युवक ऋषियों का आदर करते हैं। तुम मेरे आने की सूचना महाराजा जनक को दो।” अष्टावक्र ने बड़े आत्मविश्वास से कहा।

अष्टावक्र की जोर की आवाज दरबार में महाराजा जनक तक पहुँच रही थी। उन्होंने अपने एक सेवक को भेजकर उस तेजस्वी स्वाभिमानी ब्राह्मण को अन्दर आने की आज्ञा दी।

अष्टावक्र के राजदरबार में पधारते ही उसकी उम्र तथा टेढ़े-मेढ़े अंगों को देख कर सब दरबारी हँसने लगे। उन्हें हँसता देख अष्टावक्र भी बड़े जोर से हँस पड़े। राजा जनक ने उत्सुकता से पूछा, “ब्राह्मण देवता! आप क्यों हँस रहे हैं?”

अष्टावक्र ने उसी तेजस्विता से कहा, “मैं तो यहाँ यह समझ कर आया था कि यह विद्वज्जनों की सभा है और मैं बन्दी से शास्त्रार्थ करूँगा, पर मुझे लगता है कि मैं मूर्खों की सभा में आ गया हूँ। राजन्! मैंने अपने हँसने का कारण तो बता दिया, अब आप अपने मूर्ख विद्वज्जनों से पूछिए कि वे मोहि हँसे या कोहरहिं? अपनी इस शारीरिक दशा का कारण मैं नहीं हूँ। कारण तो वह कुम्हार (ईश्वर) है, जिसने मुझे ऐसा बनाया है। पूछो, किस पर हँसे वे सब?”

उन्होंने अष्टाव्रक को आसन पर बैठने के लिए आदर देते हुए कहा, “ब्राह्मण कुमार! मुझे तथा मेरे दरबारियों को इसके लिए क्षमा करें। मेरा एक निवेदन है। अभी आप बन्दी से शास्त्रार्थ करने में वयस्क नहीं हैं। बन्दी से शास्त्रार्थ करना कठिन है। उससे शास्त्रार्थ में हारने वाले को जल-समाधि लेनी पड़ती है। अभी आप और विद्या अध्ययन करें।”

“राजन्! मैंने गुरु के चरणों में बैठकर जितनी शिक्षा प्राप्त की है, बन्दी जैसे शास्त्री से शास्त्रार्थ करने को वह पर्याप्त है। हारने पर मृत्यु का क्या भय? किसी अच्छे उद्देश्य के लिए प्राण भी देना पड़े तो डरना नहीं चाहिए।” - अष्टावक्र ने विश्वास से कहा।

बन्दी बुलवाया गया। शास्त्रार्थ शुरू हुआ। बन्दी के प्रश्नों और तर्कों का उत्तर अष्टावक्र बड़ी सरलता से दिये जा रहा था। अपने कठिन तर्कों और प्रश्नों का उत्तर पाता हुआ बन्दी घबराने लगा। उसे लगा कि शायद मुझे ही जल-समाधि लेनी पड़ेगी। थोड़ी देर बाद जब अष्टावक्र ने प्रश्न पूछने शुरू किये तो बन्दी उत्तर न दे सका। अन्त में उसने अपनी हार मान ली और शर्त के अनुसार स्वयं जल-समाधि लेने के लिए तैयार हो गया।

अष्टावक्र ने कहा, “बन्दी! मैं ऋषि काहोड़ का पुत्र हूँ। तुम्हें याद होगा, तुमने अपने कुतर्कों से शास्त्रार्थ में उन्हें पराजित कर जल-समाधि दे दी थी। मैं भी तुम्हें शर्त के अनुसार जल-समाधि दे सकता हूँ, पर मैं वैसा करूँगा नहीं। जीवन लेना सहज है, पर जीवन देना बड़ी बात है। ज्ञान मानवता के विकास के लिए होना चाहिए, न कि उसको नष्ट करने के लिए। तुम्हें आज मुझे यह वचन देना होगा कि इस प्रकार तुम गर्व में आकर किसी के जीवन को नष्ट नहीं करोगे।”

बन्दी का घमण्ड चूर-चूर हो गया था। दौड़कर अष्टावक्र के चरणों में गिर पड़ा और बोला, “प्राण लेने से भी बड़ा दण्ड दिया है आपने मुझे। मैंने अहंकार में अब तक जो कुछ पाप किया है, उसका प्रायश्चित्त आपकी सेवा से करूँगा। बाल ज्ञानी! मेरे अपराधों को क्षमा कर मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।”

अष्टावक्र ने कहा, “मैं गुरु नहीं बन सकता। तुम्हारा दण्ड यही है कि तुम अपने शास्त्र-ज्ञान से दूसरों को पराजित कर उसका जीवन नष्ट करने की बजाय, उन्हें अच्छे उपदेश देकर ज्ञानी बनाओ। मनुष्य और मानवता के विकास में सहायक बनो। शास्त्र को शस्त्र मत बनाओ। शास्त्र-ज्ञान जीवन का विकास करता है। जबकि शस्त्र जीवन का विनाश करता है। ज्ञानी होने के अहंकार ने तुम्हारी बुद्धि दूषित कर दी है। भविष्य में तुम्हें मृत्यु-पर्यन्त कभी भी ज्ञानी ऋषियों की प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी।”

ऐसा कहकर अष्टावक्र महाराजा जनक की सभा से बाहर चले गये।

- (विष्णुपुराण)