अष्टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–151
तुम्हारे अंतरतम में भी उठेगी सुगंध!
फ्रायड की सीमा थी वह पूरब से परिचित न था। वही सीमा मार्क्स की भी थी, वह भी पूरब से परिचित न था। दोनों ने धर्म—विरोधी वक्तव्य दिए। उनके धर्म—विरोधी वक्तव्यों का बहुत मूल्य नहीं है, क्योंकि वे अपरिचित लोगों के वक्तव्य हैं, वे परिचित लोगों के वक्तव्य नहीं हैं। उन्होंने कुछ जान कर नहीं कहा है; ऊपर—ऊपर से, जो सतही परिचय हो जाता है, उसके आधार पर कुछ कह दिया है। उन्होंने गहरी डुबकी न ली। वे पूरब की गहराई में उतर कर मोती न लाए। बुद्ध से उनका मिलन नहीं हुआ। लाओत्सु से साक्षात्कार नहीं हुआ। कृष्ण की बांसुरी उन्होंने नहीं सुनी। ये सीमाएं थीं, अन्यथा शायद फ्रायड उस सिंथीसिस को, उस परम समन्वय को भी उपलब्ध हो जाता, जो वीतरागता का है। पर जो बात उसने मृत्यु—एषणा के संबंध में कही, वह सच है। हम तो उसे जानते रहे हैं। हमने उसे मृत्यु—एषणा कभी नहीं कहा था, यह बात भी सच है। हमने उसे कहा था वैराग्य— भाव। मगर क्या अर्थ होता है वैराग्य—भाव का? अगर राग का अर्थ होता है : और जीने की इच्छा, तो वैराग्य का अर्थ होता है : अब और न जीने की इच्छा—बहुत हुआ, पर्याप्त हो गया, हम भर गए, अब हम विदा होना चाहते हैं। नहीं, आधुनिक मन की कोई विकृति नहीं है; आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा पुराने वैराग्य को नया नाम दिया गया है। शुभ है! मेरे लेखे, फ्रायड की मृत्यु—एषणा का गहन अध्ययन होना चाहिए! वह उपेक्षित है, उसका बहुत अध्ययन नहीं किया गया। जैसे हम मृत्यु की उपेक्षा करते हैं, वैसे ही हमने मृत्यु—एषणा के सिद्धात की भी उपेक्षा की है। तो फ्रायड के लिबिडो, कामवासना का तो खूब अध्ययन हुआ है, बड़ी किताबें लिखी जाती हैं; लेकिन मृत्यु—एषणा का बहुत कम अध्ययन हुआ है। बड़ी मूल्यवान खोज है वह, और जीवन के अंतिम परिपक्व दिनों में उसने दी है—इसलिए मूल्य और भी गहन हो जाता है। इतना ही स्मरण रखो कि जीवन में सब चीजें द्वंद्व हैं। द्वंद्व से चलता है जीवन। जिस दिन तुम द्वंद्व से जाग गए, जीवन रुक जाता है। जिस दिन तुम द्वंद्व से जागे, निर्द्वंद्व हुए, तब तुम भी कहोगे जनक जैसे : आश्चर्य कि मैं इतनी बार जन्मा और कभी नहीं जन्मा, और इतनी बार मरा और कभी नहीं मरा! आश्चर्य! मुझको मेरा नमस्कार! इतने जन्म, इतनी मृत्युएं आईं और गईं और कोई रेखा भी मुझ पर नहीं छोड़ गईं! इतने पुण्य इतने पाप, इतने व्यवसाय इतने व्यापार, आए और गए और सपनों की तरह चले गए, पीछे पदचिह्न भी नहीं छोड़ गए! आश्चर्य मेरी इस आत्यंतिक शुद्धता का! आश्चर्य मेरे इस क्वांरेपन का। धन्यभाग! मेरा मुझको नमस्कार! ऐसा किसी दिन तुम्हारे भीतर भी, तुम्हारे अंतरतम में भी उठेगी सुगंध! लेकिन ध्यान रखना, आना है निर्द्वंद्व पर। जहां तुम्हें द्वंद्व दिखाई पड़े, वहीं साक्षी साधना। द्वंद्व को तुम सूचना मान लेना कि साक्षी साधने की घड़ी आ गई, जहा द्वंद्व दिखाई पड़े—प्रेम और घृणा—तो तुम चुनना मत, दोनों के साक्षी हो जाना। क्रोध और दया—तो तुम चुनना मत, दोनों के साक्षी हो जाना। स्त्री और पुरुष—तो तुम चुनना मत, दोनों के साक्षी हो जाना। सम्मान—अपमान— चुनना मत, दोनों के साक्षी हो जाना। सुख—दुख—साक्षी हो जाना। जहां तुम्हें द्वंद्व दिखाई पड़े, वहीं साक्षी हो जाना।