अष्टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–173
पुण्य की घोषणा निजी होनी चाहिए
अष्टावक्र ने कहा. विश्व स्फुरति यत्रेदं तरंग इव सागरे ‘जैसे आत्मारूपी समुद्र में यह संसार तरंगों के समान स्फुरित होता, वही मैं हूं-ऐसा जानकर..। सोऽहमस्मीति विज्ञाय……. ‘……. ऐसा जान कर। ‘ किं दीन इव धावसि। ‘. …….. फिर तू दीन की तरह दौड़ा जा रहा है!’ ज्ञान की घोषणाएं कहीं तुम्हारे अहंकार के लिए आधार तो नहीं बन रहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है, प्रीतिकर लगती हैं, इसलिए मान लीं? कड़वी बातें कौन मानना चाहता है! कोई तुमसे पापी कहे तो दिल नाराज होता है। कोई तुम्हें पुण्यात्मा कहे तो तुम स्वीकार कर लेते हो। और यह हो सकता है कि जिसने पापी कहा था, वह सत्य के ज्यादा करीब हो। टालस्टाय ने लिखा है अपनी आत्मकथा में कि एक दिन सुबह—सुबह मैं चर्च गया तो देखा गांव का सबसे बड़ा धनपति, सुबह के अंधेरे में चर्च में प्रार्थना कर रहा है। तो मैं तो चकित हुआ कि यह आदमी भी प्रार्थना करता है! मैं पीछे खड़े हो कर सुनने लगा। उस धनपति को कुछ पता नहीं था कि कोई और है अंधेरे में। वह धनपति कह रहा था, ‘हे प्रभु, मैं महापापी हूं। मुझ जैसा पापी इस संसार में कोई भी नहीं!’ वह अपने पापों का कन्फेशन कर रहा था, स्वीकार—भाव से सब प्रगट कर रहा था जो—जो पाप उसने किए थे। और शायद, भाव से कर रहा था। लेकिन तभी सुबह होने लगी। और उसको खयाल आया, मालूम हुआ कि कोई और भी पीछे खड़ा है। उसने देखा—और देखा टालस्टाय है। वह टालस्टाय के पास आया। उसने कहा, क्षमा करना, यह बात किसी और तक न जाए। यह जो मैंने कहा है, मेरे और परमात्मा के बीच है। तुमने अगर सुन लिया, अनसुना कर दो। यह बात किसी और तक न जाए, अन्यथा मान—हानि का मुकदमा चलाऊंगा। टालस्टाय ने कहा, यह भी खूब रही! तुम परमात्मा के सामने स्वयं घोषणा कर रहे हो, फिर आदमियों से क्या डरते हो? उसने कहा, तुम इस बात में पड़ो ही मत। अगर तुमने यह बात कहीं भी निकाली, और यहां कोई दूसरा नहीं है, अगर मैंने यह बात कहीं से भी सुनी, तो तुम्हीं पकड़े जाओगे। यह मेरे और परमात्मा के बीच निजी बात है। यह कोई सार्वजनिक बात नहीं है। तो हम पाप को तो चुपचाप स्वीकार करना चाहते हैं—परमात्मा और हमारे बीच—और पुण्य की हम घोषणा करना चाहते हैं सारे जगत में। करना चाहिए उल्टा। पुण्य की घोषणा तो निजी होनी चाहिए—वह परमात्मा और स्वयं के बीच। पाप की घोषणा सार्वलौकिक होनी चाहिए, सार्वजनिक होनी चाहिए।