असद ज़ैदी के नाम पत्र / दूधनाथ सिंह
दूधनाथ सिंह, बी-7, ए.डी.ए. कॉलोनी, प्रतिष्ठानपुरी (नई झूँसी) इलाहाबाद-211019, फोन: 2569123, मो. 09415235357
दिनांक 01-07-2010
प्रिय असद,
भुवनेश्वर की 10 अँग्रेज़ी कविताएँ (10 ही मिली हैं या हैं। बाक़ी अगर होंगी भी तो नष्ट हो गईं या हो सकता है किसी के पास पड़ी हों।) तुम्हें भेज रहा हूँ। इनमें से पाँच का अनुवाद तुम्हें करना है। जिनके शमशेर जी द्वारा किए गए अनुवाद मेरी फ़ाइल में नहीं हैं। जिन पाँच कविताओं के अनुवाद शमशेर जी ने किए थे, उन्हें उन अनुवादों के साथ नत्थी करके भेज रहा हूँ। 'The mist of the eyes' के दो अनुवाद शमशेर ने किए थे। दूसरे अनुवाद में लाइनें उलट-पलट कर दी हैं। यानी जो अनुवाद में भी रचने का सुख है, बेहतर बनाने का आनन्द है, उस आनन्द में एक बड़ा कवि मुब्तिला है...अपने अकेले एकान्त में। भुवनेश्वर बीच-बीच में कई बार शमशेर के साथ रहे। पहले तब (सन् ’31 ’32) जब हम भी नहीं पैदा हुए थे। बाद में कब-कब, इसका ठीक-ठाक पता नहीं, लेकिन रहे। अक्सर वे अपना लिखा-पढ़ा लोगों के पास छोड़ जाते थे। कविताएँ लिखीं और खाने-पीने (‘पीने’) की एवज में छोड़ दी। या मस्ती, उदासीनता और अटूट अवसाद में। इनमें से तकरीबन पाँच-एक कविताएँ S.D. Hostel, August 5, 1936 को एक ही रात में लिखी गईं।
कानुपर में एक कॉलेज का हॉस्टल है। हॉस्टलों में रहने वाले छात्रों पर अपनी अँग्रेज़ी विद्वत्ता का रौब जमाकर भुवनेश्वर अक्सर वहाँ डेरा डाले रहते थे। शमशेर के पास भी पहली बार (सन् ’31) वे हिन्दू-बोर्डिंग हाउस’ में ही रहे। बाद में ‘जस्ट फ़िट’ वाले मकान में। और भी न जाने कहाँ-कहाँ। लखनऊ में कृष्ण नारायण कक्कड़ के साथ यूनिवर्सिटी (लखनऊ) हॉस्टल में। मजाज़ के साथ शराबख़ानों के बाहर सड़क पर, फुटपाथों पर — न जाने कहाँ-कहाँ। मजाज़ अगर मजाक में अपने की ‘रिचर्ड द थर्ड’ (शेक्सपीयर का एक नाटक, जिसकी थीम तुम्हें याद होगी) कहते थे तो भुवनेश्वर अपने को ‘रिचर्ड डेनफ़’ या ‘डफ’ जो न जाने कौन था, या था भी नहीं। कुछ अंग्रेजी कविताओं के नीचे कवि का नाम उन्होंने ‘रिचर्ड’ डेनफ़’ (या डफ़) दिया है, लेकिन बगल में बी०पी० (भुवनेश्वर प्रसाद) लिखना नहीं भूले हैं।
भुवनेश्वर दरअसल, प्रेमचन्द की खोज हैं। क्या यह अचम्भे में डालने वाली बात नहीं लगती। लेकिन नहीं, बड़ा लेखक अगर अपनी तरह लिखने वाले को ही पसन्द करता है तो वह बड़ा लेखक नहीं है। प्रेमचन्द ने हमेशा, (न जाने कैसे — हालाँकि यह भी महानता की कसौटी नहीं हो सकती) अपने से भिन्न लेखकों को ही, नौजवान लेखकों को ही पसन्द किया। भुवनेश्वर, जैनेन्द्र, अज्ञेय। और भुवनेश्वर को लगातार (जब भी उन्होंने लिखकर दिया) छापते रहे। प्रेमचन्द के मरने पर भुवनेश्वर द्वारा लिखी ‘ऑबीचुअरी’ शायद उतनी संक्षिप्त और ग्रेट...दुबारा नहीं लिखी जा सकती। या कि नाटकों में संजीदा प्रेम का धुआँधार मखौल, जो कि अर्न्तवस्तु है उनके नाटकों की। या वह एक शब्दचित्र ‘भाभी कॉम्प्लेक्स और मार्क्सवाद’ क्या गद्य है काटता हुआ। झूठ का बेलाग पर्दाफ़ाश ही भुवनेश्वर की ‘वस्तु’ है और व्यक्तिगत जीवन में अक्सर बेमतलब झूठ बोलते रहना। मुझे लगता है कि हिन्दी में सन् ’30 से ’60 तक तीन अलग-अलग क़िसम के ‘जीनियसेज’ काम कर रहे थे — भुवनेश्वर, मुक्तिबोध और निराला। और तीनों में कुछ भी मिलना-जुलना नहीं — सिवा बेसहारेपन, ग़रीबी और अटूट डिप्रेशन के। इस बात को मार्क किया जाना चाहिए। है कि नहीं? हिन्दी गद्य को किसने ‘आधुनिक’, ‘ख़ूबसूरत’ और ‘आवारा’ बनाया — सिर्फ़ भुवनेश्वर ने।...बहरहाल।
तुम शमशेर जी के अनुवाद देखो। कैसे हैं, ये तुम जानो। अपनी इन कविताओं में भुवनेश्वर बेहद नर्म-नाज़ुक और कोमल-कान्त लगते हैं। अपनी कातरता की खिल्ली उड़ाते हुए। ‘ईसा का जन्म’ वाली कविता क्या क्रिश्चियन वर्ल्ड में कभी लिखी जा सकती है? मुझे नहीं लगता। ईश्वर के द्वारा किए गए कलाकार की कल्पना अद्भुत है। कैसे एक बड़ा कवि सोचता है ! क्या उसे इस तरह नहीं सोचना चाहिए? जैसे हमारे यहाँ वेदव्यास ने योनि से कर्ण की पैदाइश ही बदल दी। कान से पैदा हुए कर्ण। कैसी पवित्र खुराफ़ात है सोचने में। लेकिन भुवनेश्वर जो जख़्म और लहूलुहान एड़ियों का जिक्र करते हैं। और ‘द चाइल्ड ऑफ़ शेम’...किस दिमाग की उपज है यह कविता — किस धरातल पर, किस दुनिया में बैठकर एक मिथक पर पड़े पर्दे को चीड़-फाड़ देना है।
मैंने बस तुम्हें यह सब यों लिखा कि तुम्हें कभी नहीं लिखा। मैं ढेर सारे तरह-तरह के काम इस बुढ़ापे में लिए बैठा हूँ और आस लगाये हूँ कि सब पूरे हो जाएँ। कैसी अजीब स्थिति है। जवानी थी तो लगता था जवानी तो जाने से रही और टाइम गँवाना सबसे प्रिय खेल था। मारे-मारे फिरना...आवारागर्दी, तमाशाबीन और तमाशा दोनों संग-संग। कितना दुःख है, अब जो समय नहीं है, हाथ दुःखते हैं, कन्धे और आँखें और सब कुछ को एक अजब-सा डर घेरे रहता है। अपने ही बच्चे अजनबी-से लगते हैं। जीवन का साधारण व्यवहार भी नहीं चलता, नहीं निभ पाता। नसें तड़कती हैं और यह सोचते-सोचते दिन — पूरा दिन — निकल जाता है कि कहाँ से शुरू करूँ। फिर सिर्फ़ रोने को मन करता है और ऐसा सोचते ही मर्दानगी भी बाहर निकलकर फुँफकारने लगती है। स्वस्थ रहना कितनी बड़ी नियामत है, जो अब पता चल रहा है। लगता है कि वैसा क्यों नहीं किया — नाप-तौलकर, क़ायदे से। मुस्कुराते भी हैं लोग तो क़ायदे से, बोलते भी हैं तो क़ायदे से। अपने से स्कीमें कभी नहीं चलीं। अब क्या चला लूँगा? कैसे पता करूँ ! छोड़ो इस किस्से को। जितना होगा, होगा। मैं दुनिया का कोई अन्तिम आदमी थोड़े हूँ। लेकिन यह क्यों लगता है कि जो बैठान मेरे जेहन में है, जो शब्द, जो रूप, जो एमेण्डमेण्ट, जो व्यवस्था, जो तोड़, जो नष्ट-भ्रष्ट करके बनाने की कला...जैसे मेरा सुर सधा है, जिस तरह — उस तरह कोई और कैसे करेगा, कैसे कर सकेगा ! लोग मुझसे बेहतर करेंगे या मुझसे ख़राब...इसकी गारण्टी किससे लूँ। और क्यों लूँ? तो जाने दो और थकान को हावी होने दो।
मुझे लगता है तुम ठीक-ठाक होगे।
अगर ऐसा हो तो यह ख़ुशी की बात है।
तुम्हारे पास उम्र है और खम, सधा हुआ हाथ और बातों को कहने की निराली कला है। वह अनोखी कला सिर्फ़ इस वक्त हिन्दी कविता में तुम्हारे ही पास है। शायद तुम ऐसी जगह बैठे हो जहाँ कोई नहीं बैठा। और एक कवि को कुछ इसी तरह, इसी रंग में होना चाहिए। लेकिन यह मत सोचना कि ये बातें बतौर ख़ुशामद हैं। अगर तुम जो हो — वैसे ही हो...
तुम्हारा
दूधनाथ सिंह