असफल फिल्मी बम के आणविक विकिरण / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 26 अप्रैल 2019
करण जौहर ने घोषणा की है कि उनकी फिल्म 'कलंक' की असफलता के कारण वितरकों और सिनेमा मालिकों को जो घाटा हुआ है, उसकी क्षतिपूर्ति वे कुछ हद तक करेंगे। कुछ वर्ष पूर्व सलीम खान ने सलमान अभिनीत 'जय हो' की असफलता के बाद बड़ी रकम वितरकों और सिनेमा मालिकों को लौटाई थी। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' में वितरकों को हुए घाटे को 'बॉबी' के समय लौटाया था। शांताराम ने अपनी फिल्में हमेशा अपनी वितरण संस्थाओं द्वारा प्रदर्शित की थी। अतः सारा जोखिम वे स्वयं लेते रहे। इन्हीं परम्पराओं के कारण फिल्मोद्योग मात्र 15% सफलताओं के बावजूद गतिशील रहा है। दुख, दर्द और घाटे बांटे जाते रहे हैं। फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व करण जौहर के प्रचार विभाग ने कुछ लोगों को दावतें देकर उनसे फिल्म की प्रशंसा लिखवाई थी। अब ऐसे समालोचकों को भी पाठकों से क्षमा मांगनी चाहिए।
दिन-प्रतिदिन के जीवन को अगर हम एक मशीन मान लें तो खेद व्यक्त करना क्षमा मांगना उस मशीन में तेल की तरह है, जो उसके संचालन की रिदम को कायम रखता है। जैन समाज क्षमा पर्व मनाता है और हर सदस्य जाने-अनजाने हुई भूल के लिए क्षमा मांगता है। टीएस एलियट के 'वेस्टलैंड' में एक प्रसंग है कि हिमवत पर दिशा-निर्देश के लिए देवता, मानव और दानव गए थे। वहां तीन बार बादल गरजे और देवता ने धर्म के रास्ते पर डटे रहने का फैसला लिया। दानव ने दमन को ही धर्म माना। मनुष्य ने उस 'धा..धा..धा' ध्वनि का अर्थ यह लिया कि मनुष्य को दया करनी चाहिए। दया के विराट आकल्पन का ही हिस्सा है क्षमा मांगना और अपनी भूल पर पश्चाताप करना। पश्चाताप की अग्नि में बुराइयां जलकर नष्ट हो जाती हैं और मनुष्य कंचन-सा निखर जाता है। अहंकारी व्यक्ति क्षमा मांगने को झुकना और कमजोर होना समझते हैं। दयाविहीन शक्ति अर्थहीन हो जाती है।
आज के हालात में आम आदमी उस चींटी की तरह है जो अपने भार से 50 गुना अधिक भार उठाती है, क्योंकि जीवन यापन के लिए यह जरूरी है। एक चींटी हाथी के कान में घुस जाती है तो उसके दर्द की चीत्कार से पूरा जंगल कांप जाता है। फिल्म के प्रारंभ में एक डिसक्लेमर होता है कि पात्र काल्पनिक हैं और किसी तरह का साम्य महज इत्तेफाक हो सकता है। इस तरह का डिसक्लेमर भी एक क्षमा याचना ही है, क्योंकि पात्र और घटनाएं यथार्थ से प्रेरित होती हैं। कोई फिल्मकार इस तरह की सूचना दर्शकों को नहीं देता कि फिल्म के उबाऊ होने की प्रबल संभावना है और जोखिम उठाकर फिल्म देखें। साहिर लुधियानवी साहब ने 'फिर सुबह होगी' में गीत लिखा था 'जो बोर करे उस यार से तौबा, उस यार से तौबा तौबा'। खाकसार के घर के बाहर ही लिखा है कि इस घर के सभी पात्र काल्पनिक हैं। दरअसल, यह डोरमेट मुझे इंदौर की विभावरी संस्था के सुनील चतुर्वेदी, सोनल शर्मा और सुधांशु शर्मा ने भेंट स्वरूप दिया था। खैर कुछ लोग सभी बातें जानकर भी गलती करते हैं और क्षमा मांगते हुए गलती को दोहराते हैं। इस तरह क्षमा से उच्च जीवन मूल्य को भी खोखला कर दिया जाता है। राजकुमार संतोषी की फिल्म 'लज्जा'में विवाह के दृश्य में कन्या का पिता सारे समय बारातियों से क्षमा मांगता रहता है। उसने कोई गलती नहीं की है। विवाह खर्च में अपना सब कुछ लगा दिया है परंतु कन्या का पिता क्षमा मांगने के लिए मजबूर है। इस फिल्म के स्त्री पात्रों के नाम सीता के विभिन्न नामों से प्रेरित हैं जैसे वैदेही इत्यादि।
बहरहाल, कुछ फिल्मकारों ने घाटा पूरा करने का प्रयास किया है परंतु कोई सितारा अपने मेहनताने का एक अंश भी लौटाता नहीं है। वह सिर्फ लेना ही जानता है। हर क्षेत्र में सितारे होते हैं और वह भी कुछ लौटाते नहीं, न ही कभी क्षमा मांगते हैं।