असफल फिल्म का पोस्टमार्टम ? / जयप्रकाश चौकसे

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ये दास्तां कहां शुरू कहां खत्म
प्रकाशन तिथि : 27 मई 2013


प्राय: फिल्मकार अपनी असफलता को सरेआम स्वीकार नहीं करते और मन ही मन भी कभी नायक को दोष देते हैं। कभी यह कहते हैं कि उन्होंने अपने समय से आगे की फिल्म बनाई है और आज का दर्शक उसे समझ नहीं पाया। अगली फिल्म में नायक बदलते हैं, कभी संगीतकार बदलते हैं, परंतु वे स्वयं को निर्दोष समझते हैं। जेपी दत्ता का यह ख्याल था कि उनकी दर्जनों सितारों से सजी 'एलओसी कारगिल' को तत्कालीन सरकार ने असफल कराया, जो उन दिनों पाकिस्तान तक समझौता एक्सप्रेस चला रही थी। दरअसल, किसी फिल्म को असफल या सफल बनाने की ताकत किसी सरकार में नहीं होती। सरकार फिल्म का प्रदर्शन रोक सकती है, जैसे इंदिरा गांधी के चाटुकारों ने 'आंधी' को रोक दिया था और इंदिराजी के पास शिकायत पहुंचने पर उन्होंने फिल्म देखकर उस पर लगा प्रतिबंध हटाकर उसके पुन: प्रदर्शन का पथ प्रशस्त किया था। आमिर खान ने नर्मदा विस्थापितों के पक्ष में बयान दिया तो जाने किसके इशारे पर गुजरात के सिनेमाघरों ने फिल्म 'फना' का प्रदर्शन ही नहीं होने दिया।

बात सीधी और सरल है कि केवल दर्शक ही फिल्म को सफल या असफल बनाते हैं। यह दावा कि समय से आगे की फिल्म है, में कोई दम नहीं है। दर्शकों ने अनेक साहसी फिल्मों को सफल बनाया है। हाल ही में 'पानसिंह तोमर' चली है, जबकि निर्माण संस्था ने ही विश्वास की कमी के कारण फिल्म का प्रदर्शन लंबे समय तक रोके रखा था। यह संभव है कि कई बार बुरी फिल्में चल गई हैं, परंतु ऐसा कम ही हुआ है कि अच्छी फिल्म न चली हो।

बहरहाल, पंकज कपूर में साहस है कि उन्होंने अपनी 'मौसम' को स्वयं असफल फिल्म करार दिया और उन्हें अफसोस है कि उन्होंने फिल्म के संपादन के लिए कम समय दिया और कम परिश्रम किया। उन्हें लगता है कि उन्होंने फिल्म के प्रदर्शन की तारीख तय करते समय गलती की। उन्होंने स्वयं को फिल्म के दोष देखकर संपादन की मेज पर उसे सुधारने की कोशिश ही नहीं की। वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि आधा घंटा फिल्म कम की जा सकती थी। उन्हें यह भी लगता है कि जो संदेश वे देना चाहते थे, वह दर्शक तक नहीं पहुंचा। 'मौसम' मूलत: एक प्रेम-कथा थी और प्रेमी मिल नहीं पाते, क्योंकि कुछ राष्ट्रीय घटनाएं उन्हें मिलने नहीं देतीं, मसलन बाबरी मस्जिद ढहने के बाद कुछ शहरों में दंगे हुए। अत: नायिका का परिवार अन्य शहर चला गया। कारगिल युद्ध के कारण भी नायक को फौज से छुट्टी नहीं मिली। गुजरात के दंगों ने भी उन्हें मिलने नहीं दिया। घटनाओं की पुनरावृत्ति की शिकार हुई 'मौसम'। पंकज कपूर ने सही कहानी का चयन किया। कर्णप्रिय संगीत रिकॉर्ड किया। कलाकारों से अच्छा काम कराया, परंतु वे अपने काम के नशे में गाफिल रहे। घटनाओं का दोहराव वे हटा सकते थे। राष्ट्र में हुई घटनाएं आम जीवन को प्रभावित करती हैं। दंगा-फसाद प्रभावित करते हैं और शहर का बंद होना भी लोगों को जुदा कर सकता है। ट्रैफिक जाम के कारण गंभीर रोगी अस्पताल समय पर नहीं पहुंच पाते। पंकज कपूर लिखने की मेज और संपादन की मेज पर मात खा गए।

पंकज कपूर ने अपनी निर्देशित फिल्म 'मौसम' की गलतियां देखीं, परंतु अपने मित्र विशाल भारद्वाज की 'मटरू की बिजली का मंडोला' के बचाव में उसकी मौलिकता की दुहाई देते समय यह भूल जाते हैं कि फिल्म में उनके पात्र के रात में शराब पीने पर दिलदार होना और दिन के समय होश में रहने पर दान के वादे भूल जाना कोई मौलिक बात नहीं थी। चैपलिन दशकों पूर्व यह कर चुके हैं।

फिल्मकार के लिए तटस्थ होना बहुत कठिन है, क्योंकि वह भावना की तीव्रता से काम करता है और उसे अपने हर शॉट से प्यार हो जाता है। किसी दृश्य को काटते समय उसके फिल्मांकन में लगा परिश्रम और पैसा ध्यान में आने लगते हैं और अपने मोह के कारण उसकी कैंची नहीं चलती। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' का पुन: संपादन प्रथम प्रदर्शन के सोलह बरस बाद एक वितरक के आग्रह पर किया। दृश्य को काटते समय उन्हें उसे शूट करने का परिश्रम याद आया और फिल्म काटते समय उनके चेहरे पर ऐसी वेदना थी मानो अपना अंग ही वे काट रहे हैं और इस भावना सर्जरी में कोई क्लोरोफॉर्म भी नहीं है। चार घंटे की 'मेरा नाम जोकर' से एक घंटा काटकर पुन: प्रदर्शन १९८६ में हुआ और फिल्म ने भारी सफलता अर्जित की।

फिल्म उद्योग में भव्य फिल्म की असफलता के बाद उसका पोस्टमार्टम वही लोग करते हैं, जिन्होंने दोषपूर्ण फिल्म रची थी। पांच अंधे मिलकर हाथी का वर्णन करते हैं। प्राय: फिल्मकार महानगर में अपनी फिल्म देखत हैं, उन्हें दोष नजर नहीं आते। पोस्टमार्टम में छोटे शहरों के आम दर्शक को बुलाना चाहिए, जिसने फिल्म को नकारा है। शाहरुख को आज तक यकीन नहीं है कि उनकी 'रा-वन' नापसंद की गई है। उन्हें कौन समझाए कि उनकी फिल्म की विधवा नायिका खलनायक के साथ 'छम्मक छल्लो' पर ठुमक रही है। उनका पड़ोसी मित्र विधवा पर डोरे डाल रहा है। वीडियोगेम से निकला पात्र विध्वंस कर रहा है। लोग छाया की माया पर कैसे यकीन करते? बहरहाल, आत्म-केंद्रित, चमचा आधारित फिल्म उद्योग में पंकज कपूर की साफगोई काबिले तारीफ है। असफलता अनाथ होती है, सफलता के दस बाप होते हैं।