असभय नगर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जंगली कबूतर जब बरगद की डाल छोड़कर शहर में निवास करने के लिए जाने लगा, तब उल्लू से नहीं रहा गया। उसने टोका–"जंगल छोड़कर क्यों जा रहे हो?"
"मैं बेरहम और बेवकूफ लोगों के बीच और नहीं रह सकता। तंग आ गया हूँ मैं सबसे।" कबूतर गुस्से से बोला।
"कहीं शेर हिरन पर झपट रहा है, कहीं भेडि़या खरगोश के प्राण लेने पर तुला है। कितने क्रूर एवं असभ्य हैं सब! उल्लू को सारी दुनिया बेवकूफ मानती है।"
"शहर में भी तुम्हें इनकी कमी नहीं अखरेगी।" उल्लू हंसा। कबूतर सुनकर झुँझलाया और शहर की तरफ उड़ गया।
दो दिन बाद वही कबूतर उसी बरगद की डाल पर गर्दन झुकाए उदास बैठा था। उल्लू पास खिसक आया–"शहर में मन नहीं लगा क्या?"
लज्जित–सा होकर कबूतर बोला–"मेरा भ्रम टूट गया। शहर में आदमी को आदी जब चाहता है, कत्ल कर देता है। रोज के अखबार हत्या, बलात्कार, लूटपाट, आगजनी के समाचारों से भरे रहते हैं। आदमी तो जानवर से भी ज़्यादा जंगली और असभ्य है।"
उल्लू ने कबूतर को पुचकारा–"मेरे भाई, जंगल हमेशा नगरों से अधिक सभ्य रहे हैं। तभी तो ऋषि–मुनि यहाँ आकर तपस्या करते थे।"