असम्बद्ध भावों का रसवत् ग्रहण / रस मीमांसा /रामचन्द्र शुक्ल
असम्बद्ध भावों का रसवत् ग्रहण / रस मीमांसा /रामचन्द्र शुक्ल
अबतक भावों का जो वर्णन हुआ वह स्थायी संचारी रूप में संबद्ध मानकर हुआ है। पर, जैसा कह आए हैं; नियत प्रधान भाव और नियत संचारी दोनों अलग-अलग असम्बद्ध रूप में भी आते हैं। इस असम्बद्ध में भाव पूर्ण रस पर्यंत पुष्ट चाहे न माने जायँ पर उनका ग्रहण रस के समान ही होता है क्योंकि श्रोता या दर्शक के हृदय में उनके द्वारा किसी-न-किसी प्रकार का भावसंचार अवश्य होता है। जो 'प्रधान भाव' कहे गए हैं वे यदि संचारी आदि से रहित होकर भी आएँ तो आलम्बन के सामान्य होने पर अपना संचार श्रोता के हृदय में उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार संचारी आदि से पुष्ट होकर आने पर। किसी दुष्ट के अत्याचार का वर्णन करके यदि कोई शब्दों द्वारा ही क्रोध प्रकट करता हुआ दिखाया जाय, अनुभाव या संचारी न लाए जायँ तो भी श्रोता के हृदय में उस दुष्ट आलम्बन के प्रति क्रोध का अनुभव उत्पन्न होगा, बल इतना ही पड़ेगा कि अनुभावों और संचारियों के रहने से उसकी तीव्रता तक पहुँचने के लिए जो बना-बनाया मार्ग मिलता वह न मिलेगा। श्रोता अपनी तीव्र या मंद प्रकृति के अनुसार क्रोध का तीव्र या मंद अनुभव करेगा। आलम्बन को सामान्य रूप न प्राप्त होने पर भाव का साधारणीकरण तो न होगा जिससे श्रोता का ध्याान आलम्बन पर रहे और वह उसके प्रति उसी भाव का अनुभव करे जिस भाव को आश्रय प्रकट करता है पर आश्रय के भावात्मक स्वरूप का श्रोता को साक्षात्कार होगा जिससे उसके (आश्रय के) संबंध में वह अपनी कोई सम्मति या अपना कोई भाव स्थिर कर सकेगा। जैसे शकुंतला पर क्रोध करते हुए दुर्वासा को देख या पढ़कर शकुंतला के प्रति क्रोध का अनुभव पाठक या दर्शक को न होगा क्योंकि शकुंतला का ऐसा चित्रण नहीं हुआ है जिससे वह क्रोध का सामान्य आलम्बन हो सके, सबको उसपर क्रोध उत्पन्न हो सके। ऐसी दशा में श्रोता का ध्याआन शकुंतला (आलम्बन) पर न रहकर क्रोध करते हुए ऋषि (आश्रय) पर रहेगा। यदि वह विचारशील हुआ तो मुनि को क्रोधी समझेगा और यदि उद्वेगशील हुआ तो उनकी क्रूरता देख विरक्ति, जुगुप्सा या क्रोध का अनुभव करेगा। स्वतंत्र रूप में आए हुए संचारियों के द्वारा भी श्रोता को भावप्राप्ति इसी ढंग की होगी। वह उनका अनुभव न करेगा, उनके सहारे और दूसरे भावों का अनुभव करेगा।
उदय से अस्त तक भावों की तीन अवस्थाएँ मानी जा सकती हैं-उदय, स्थिति और शांति। ऊपर भावों की जिस अवस्था का उल्लेख हुआ है वह स्थिति की अवस्था है। पर साहित्य में भावों के उदय और भावों की शांति का प्रभाव भी श्रोता या दर्शक पर स्वीकार किया गया है और रसतुल्य ही माना गया है। किसी 'भाव' के संचार का आरंभ मात्र 'भावोदय' कहलाता है, जैसे-
(क) दास जू जा मुखजोति लखे ते सुधाधर जोति खरी सकूचाति है।
आगि लिए चली जाति सो मेरे हिये बिच आगि दिए चली जाति है॥
-काव्यनिर्णय, 4-46।
(ख) कामिनी के कटु बैन, सुनत पिय पलटि चल्यो जब।
छाँड़ी तीय उसास, नीर नयन झलक्यो तब॥ 1
पहले पद्य में 'राग' का उदय और दूसरे में 'विषाद' का उदय समझना चाहिए। क्षुद्राशय पात्र में किसी प्रसंग के प्रभाव से सहसा किसी उदात्त भाव का उदय अत्यंत तुष्टिजनक प्रतीत होता है। सदा से दुष्ट कर्म में प्रवृत्त मनुष्य के हृदय में कुछ देख-सुनकर यदि अपने कर्म से घृणा उत्पन्न होती दिखाई जाय तो उसका प्रभाव बुरे कामों से जिंदगी भर कानों पर हाथ रखनेवाले किसी साधु की प्रकट की हुई घृणा के प्रभाव से अधिक मर्मस्पर्शी होगा। इसी से उपन्यासों में दुर्वृत्त लोगों का अंत में अपने कर्म पर पश्चात्ताप और लज्जा प्राय: दिखाई जाती है।
किसी 'भाव' का दूर होना भावशांति है, जैसे-
पायँन परि, मृदु बचन कहि, प्रिय कीनी मनुहारि।
नेकु तिरीछे चितै तब, दीने अँसुवा ढारि॥2
इसमें दृष्टिपात और अश्रुपात द्वारा मान या क्रोध की शांति व्यंजित की गई है।
भावशांति यदि सच्ची हो और उसका कारण कोई प्रबल भाव या वेग ही हो तो मनुष्य की प्रकृति पर उसका अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रभाव पड़ता है। बुद्धि या विवेक द्वारा निष्पन्न भावशांति काव्य के उतने काम की नहीं। हल्दीघाटी की लड़ाई में
1. साहित्यदर्पण में उदाहृत निम्नलिखित छंद से मिलाइए-
चरणपतनप्रत्याख्यानात्प्रसादपराङ्मुखे
निभृतकितवाचारेत्युक्त्वा रुषां परुषीकृते।
व्रजति रमणे नि:श्वस्योच्चै: स्तनस्थितहस्तया
नयनसलिलच्छन्ना दृष्टि: सखीषु निवेशिता॥ -तृतीय परिच्छेद, श्लोिक 267।
2. साहित्यदर्पण में उदाहृत निम्नलिखित छंद से मिलाइए-
सुतनु जहिहि कोपं, पश्य पादानतं मां,
न खलु तव कदाचित्कोप एवंविधोऽभूत्।
इति निगदति नाथे तिर्यगामीलिताक्ष्या,
नय जलमनल्पं मुक्तमुक्तं न किंचित्॥ -वही,
जब कुछ मोगल महाराणा प्रताप का पीछा किए चले आते थे और महाराणा अपने घोड़े पर नदी पार कर चुके थे तब उनके भाई शक्ति सहसा प्रकट हुए। उनका भ्रातृ-स्नेह उमड़ आया और वे सारा बैर-भाव छोड़ महाराणा के पैरों पर गिरकर रोने लगे। अनुचित भाव की शांति देख श्रोता या दर्शक को एक अपूर्व आत्मतुष्टि प्राप्त होती है। कभी-कभी तो जबतक ऐसे भाव की शांति नहीं दिखाई जाती तबतक श्रोता उसके लिए उत्सुक रहता है। राम के प्रति परशुराम के गर्व को देख श्रोता मन-ही-मन उसके परिहार के अवसर की प्रतीक्षा करता रहता है जिस समय राम परशुराम का दिया हुआ धनुष चढ़ा देते हैं और परशुराम नत होकर विनय करने लगते हैं उस समय पाठक या दर्शक के हृदय पर से एक बोझ-सा हटा जान पड़ता है। आख्यानरूप प्रबन्धकाव्यों में ऐसे स्थल बहुत आते हैं। अनिष्ट पात्रों के गर्व, आह्लाद आदि की और इष्ट पात्रों के विषाद, शंका, भय आदि की निवृत्ति के अवसर के लिए पाठक बराबर उत्सुक रहते हैं। मनुष्य के शीलनिर्माण में 'भावशांति' का दृश्य 'भावस्थिति' के दृश्य से कम प्रभावोत्पादक नहीं होता।
कभी-कभी दो या दो से अधिक परस्पर असम्बद्ध भाव एक ही प्रसंग में प्रकट किए जाते हैं। साहित्य के पंडित लोग ऐसे दो भावों के साथ को 'भावसंधि' और दो से अधिक भावों के संघात को 'भावशबलता' कहते हैं। चित्त की चंचलता से भिन्न-भिन्न पक्षों के अंत:करण में उपस्थित होने के कारण एक ही विषयप्रसंग में दो या कई भावों का क्रमश: संचार होना एक बहुत ही स्वाभाविक बात है। लोग ऐसा कहते बराबर सुनाई पड़ते हैं कि 'तुम्हारी बात पर हँसी भी आती है क्रोध भी आता है, दु:ख भी होता है।' ये भाव परस्पर जितने ही विरूद्ध होते हैं उतना ही चमत्कार जान पड़ता है। एक विषय पर ध्याकन के देर तक न जमने के कारण ऐसे भाव इतने अस्थिर होते हैं कि एक का अनुभव होते न होते दूसरे का उदय हो जाता है। दोनों के बीच अंतर बहुत सूक्ष्म पड़ता है। यह भावशबलता दो बातों पर अवलम्बित होती है-
(1) प्रसंगगत विषयों के संयोग वैलक्षण्य पर,
(2) आश्रय के अंत:करण की स्थिति पर।
एक ही प्रसंग के भिन्न-भिन्न पक्ष लेने से विषयों का ऐसा संयोग हो सकता है कि उन सबकी ओर वृत्ति के उन्मुख होने से लगातार कई भावों का संचार प्राय: सब मनुष्यों के हृदय में हो सकता है। पर कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कुछ एक विषय तो सचमुच उपस्थित होते हैं और कुछ के लिए विषयों के रूप, अंत:करण की तात्कालिक या प्रकृतिगत स्थिति के कारण कल्पना आप-से-आप उसी एक प्रसंग में से निकालकर खड़ा करती है। विक्षिप्तों की कल्पना तो ऐसे विषयों को लगातार उपस्थित करने में क्षिप्र होती ही है। पर कभी-कभी वृत्ति की चंचलता के कारण और मनुष्यों की भी दशा ऐसी हो जाती है। बुद्धि की लगाम जितनी ही ढीली होगी भावों की यह घुड़दौड़ उतनी ही अधिक होगी। बुद्धि अपनी प्रधानता की दशा में ऐसे विषयों को जिनका तात्कालिक प्रसंग में कोई प्रयोजन नहीं, इतना टिकने ही न देगी कि वे कोई भाव उभार सकें। एक खास बनावट के दिमागवाला आदमी सिर पर दूसरे का बोझ ले जाते समय यह सोचकर गर्व कर सकता है कि मैं मजदूरी के पैसों से रोजगार करके धनी हो जाऊँगा फिर जो मेरे साथ हल्का व्यवहार करेंगे उनको मैं देख लूँगा, इत्यादि। पर अर्थकुशल लोगों की दृष्टि इस प्रकार लक्ष्ययुक्त नहीं हुआ करती। अत: धीर और संयत वृत्ति के पात्र में भावशबलता यदि दिखाई जा सकती है तो वहीं जहाँ एक ही प्रसंग के सचमुच ऐसे अनेक पक्ष हों जो भिन्न-भिन्न भावों के विषय हो सकें। उद्वेगशील जातियों में भावशबलता की संभावना अधिक होती है। हमारे बंगाली भाइयों के गर्जन-तर्जन और क्रंदन के बीच बहुत अल्प अवकाश अपेक्षित होता है।
किसी एक भाव के कारण भी कभी बुद्धि सिमटकर किनारे हो जाती है और कल्पना किसी एक ही प्रसंग में अनेक रूपों की उद्भावना करने लगती है। विक्रमोर्वशी में उर्वशी के स्वर्ग चले जाने पर पुरुरवा विरह वेदना से चंचल होकर कहता है-
'कहाँ यह निषिद्ध कार्य, कहाँ मेरा चन्द्रवंश! क्या वह फिर कभी दिखाई पड़ेगी? अहो यह क्या मैंने तो कामादि दोषों का शमन करनेवाले शास्त्र पढ़े हैं। अहा! क्रोध में भी प्रियदर्शन उसका मुखड़ा! भला निष्कल्मष कृतविद्य लोग मेरे इस आचरण पर क्या कहेंगे? हाय! वह तो अब स्वप्न में भी दुर्लभ है। हे चित्त! धीरज धर। न जाने कौन धन्य युवा उसका अधरपान करेगा।1
इस कथन में पहले वाक्य से वितर्क, दूसरे से उत्कंठा, तीसरे से मति, चौथे से स्मरण, पाँचवें से शंका, छठे से दैन्य, सातवें से धैर्य और आठवें से चिंता या ईष्या व्यंजित होती है। अब यहाँ पर यह जानने की इच्छा होती है कि एक भाव के कारण चित्त की ऐसी चंचल दशा से उस भाव की तीव्रता समझी जा सकती है या नहीं। यदि भाव का वेग तीव्र होगा तो ध्या न दूसरे विषयों की ओर जायगा कैसे? इसका उत्तर यह है कि भाव के अधिक तीव्र होने से कभी-कभी चित्तविक्षेप हो जाता है और उन्माद की-सी दशा हो जाती है जिससे चित्त एक पक्ष पर स्थिर न रहकर इधर-उधर दौड़ने लगता है। दूसरा प्रश्नस यह उठता है कि जब एक ही भाव के कारण सब भाव उत्पन्न हुए हैं तब सबके सब करुण विप्रलंभ रति के संचारी क्यों न माने
1. क्वा कार्य, शशलक्ष्मण: क्व च कुलं, भूयोपि दृश्येत सा,
दोषाणां प्रशमाय न: श्रुतमहो, कोपेऽपि कान्तं मुखम्।
किं वक्ष्यन्त्यपकल्मषा: कृत धिय: स्वप्नेऽपि सा दुर्लभा,
चेत: स्वास्थ्यमुपैहि, क: खलु युवा धन्योऽधरं पास्यति॥
-साहित्यदर्पण, 3-267।
जायँ। इसलिए कि करुण विप्रलंभ यहाँ शब्द और अनुभाव द्वारा प्रधानता से व्यंजित नहीं है। इन भावों का विचार अलग ही हुआ है। रस पर्यंत पुष्ट विप्रलंभ रति के साथ यहाँ यदि ये संबद्ध माने जायँ तब तो सबका ग्रहण विप्रलंभ श्रृंगार रस के रूप में ही होगा पर आचार्यों ने इनके संघात को रसवत् माना है। सारांश यह कि असम्बद्ध रूप में अलग विचार करने से ये सब भाव मिलकर भावशबलता के उदाहरण होंगे और आक्षेप द्वारा रति भाव से संबद्ध मानने से करुण विप्रलंभ के संचारी होंगे।
ऐसा सिद्धांत न रखने से जहाँ कहीं किसी रस में दो संचारी हुए वहाँ भाव संधि और जहाँ दो से अधिक हुए वहाँ भावशबलता कहनी पड़ेगी। पर रस के प्रबल प्रभाव के सामने भावसंधि या भावशबलता के चमत्कार का विचार अनावश्यक होगा। अत: इन दोनों का प्रतिपादन रस के अंगरूप में नहीं होना चाहिए। भावसंधि आदि का विशुद्ध उदाहरण वही होगा जिसमें दो या कई भाव किसी एक ही स्फुट प्रधान भाव के संचारी के रूप में न होंगे, स्वतंत्र होंगे। इस दृष्टि से साहित्यदर्पणकार के इस उदाहरण से-
नयनयुगा सेचनकं मानसवृत्त्यापि दुष्प्रापम् ।
रूपमिदं मदिराक्ष्या मदयति हृदयं दुनोति च मे॥
-साहित्यदर्पण, 3-267।
'दास' का यह उदाहरण अधिक उपयुक्त है-
कंस दलन पर दौर उत, इत राधा हित जोर।
चलि रहि सकै न स्याम चित, ऐंच लगी दुहुँ ओर॥
पहले उदाहरण में हर्ष और विषाद रति के संचारी होकर आए हैं, पर दास के उदाहरण में उत्साह और रति दो परस्पर स्वतंत्र भावों की संधि है। साहित्यदर्पणकार के उदाहरण में हर्ष और विषाद के परस्पर अत्यंत विरूद्ध होने से चमत्कार अधिक है। पर हर्ष और विषाद दो अलग-अलग भावों के शासन में भी रखे जा सकते हैं। जैसे-
पीहर को न्योतो सुनत, पिय अनुरागिनि नारि।
बिहँसी, दीर्घ उसाँस पुनि लीनी कछुक विचारि।
यहाँ नायिका के हर्ष का कारण माता-पिता का स्नेह और विषाद का कारण नायक के प्रति अनुराग है। भिन्न-भिन्न आलम्बनों के प्रति होने से हर्ष और विषाद दोनों का कारण एक ही 'रति भाव' नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भावसंधि का एक गूढ़ उदाहरण दिया है। जब हनुमानजी ने अशोक के पेड़ से राम की मुद्रिका सीताजी के सामने गिराई तब-
चकित चितै मुँदरी पहिचानी। हर्ष विषाद हृदय उर आनी॥
-रामचरितमानस, पंचम सोपान।
यहाँ हर्ष तो राम के प्रति रति का संचारी है पर उनका विषाद रति के संचारी के भीतर नहीं है। इस विषाद का मूल वियोग नहीं है, घोर अनिष्ट की आशंका है। अत: यह उदाहरण भावसंधि का है। हर्ष और विषाद की परस्पर विजातीयता से इसमें चमत्कार भी पूरा है। इस संबंध में एक शंका यह उठाई जा सकती है कि हर्ष और विषाद की यह संधि भाव क्षेत्र में रखी जानी चाहिए या प्रेयस आदि अलंकारों में। ये भाव रसक्षेत्र के भीतर ही माने जायँगे क्योंकि ये किसी दूसरी वस्तु या भाव के अंग होकर नहीं आए हैं। केवल वाच्य द्वारा कथन होने से रसक्षेत्र से निकाले नहीं जा सकते।