असली दोषी / रघुविन्द्र यादव
"चक्की मौसी, हमने आपका क्या बिगाड़ा है जो इतनी बेरहमी से हमें अपने दोनों पाटों के बीच रगड़ कर हमारा चूरा बना देती हैं?"
"देखो गेंहूँ! मैं पत्थर की बनी हूँ, जाहिर है मुझ में संवेदना नहीं होती। मैं तो खुद अपने ही पाटों को आपस में रगड़ कर घिस देती हूँ। इसलिए मुझे कोई दोष न दो। वैसे भी मैं कौन सा तुम्हें खुद अपने मुँह में डालती हूँ? यह तो संवेदना का ठेकेदार है जो तुम्हें मेरे मुँह में डालता है। वैसे दोषी तो तुम भी कम नहीं हो।"
"वह कैसे मौसी?"
"कहते हैं-'जैसा खाओ अन्न वैसा होता मन' फिर तुम्हें ही तो खाकर इंसान संवेदनाहीन हुआ है।"
"अरे मौसी, इसके लिए भी तो वही ज़िम्मेदार है। हमें बोने से पहले ज़हर में उपचारित करता है, उगते ही खरपतवार मारने के लिए स्प्रे करता है, थोडा बड़ा होते ही कीटनाशक छिडक़ देता है, पकने पर निकाल कर फिर कीटों से बचाने के लिए ज़हर डाल देता है। अब ऐसे में हम में भी तो ज़हर भर गया है और हमें खाकर इंसान में भी। असली दोषी तो वही है जो खुद को सभ्य और संवेदनशील कहता है।"