असल मुद्दा स्वदेशी व आत्मविश्वास है / जयप्रकाश चौकसे
असल मुद्दा स्वदेशी व आत्मविश्वास है
प्रकाशन तिथि : 19 जुलाई 2012
विगत साढ़े छह महीनों में १०० करोड़ से ऊपर व्यवसाय करने वाली सिताराजडि़त 'अग्निपथ', 'राउडी राठौर', 'बोल बच्चन' के प्रदर्शन के साथ ही सिताराविहीन कम बजट की 'कहानी', 'पान सिंह तोमर' और 'विकी डोनर' जैसी सार्थक फिल्में भी सफल हुई हैं। इसके साथ ही एक विशेष क्षेत्र में 'शंघाई' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की भी चर्चा हुई और वे बनाई ही गई थीं इस उद्देश्य से, अत: उन्हें भी सफल माना जा सकता है। सैफ अली खान अपनी महंगी और फूहड़ 'एजेंट विनोद' के बाद हिल गए थे, परंतु 'कॉकटेल' ने उनका आत्मविश्वास लौटा दिया है, गोयाकि मनोरंजन क्षेत्र में सफलता का दौर चल रहा है। इसके साथ ही देश में महंगाई और सामाजिक अन्याय बढ़ता जा रहा है तथा दलों की राजनीति महज कीचड़ उछालने की रह गई है। कोई शासन के नाम पर स्वांग कर रहा है, कोई विरोध के नाम पर रिवायती तौर पर विरोध कर रहा है। अत: मनोरंजन उद्योग में हरियाली छाई है, तो देश में खिजा का मौसम है। वर्षा भी अनेक क्षेत्रों में औसत से आधी रह गई है। इस विरोधाभास को समझने के लिए गालिब का एक शेर हमारी सहायता कर सकता है - 'उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्जां गालिब, हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है।' जब गरीबी के कारण घर का रंग-रोगन नहीं हो पाता तो दीवारों में बन गई दरारों में कोंपलें उग आती हैं, हरी काई जम जाती है। यह गालिब की असाधारण प्रतिभा है कि उन्होंने एक गहरी मार वाला व्यंग्य रचा है और 'सब्जां' तथा 'बहार' को शब्दकोष के परे जाकर नया अर्थ दिया है। उनका एक शेर और इस तरह है - 'कोई वीरानी-सी वीरानी है, दश्त (जंगल) को देखके घर याद आया।' वर्तमान हिंदुस्तान को कबीर और गालिब की सहायता से ही समझा जा सकता है।
बहरहाल, गौरतलब यह है कि देश में संकट है और मनोरंजन जगत खुशहाल है। जो अवाम मुफलिसी के दौर से गुजर रहा है, वो फिल्में देखता जा रहा है। क्या यह उसका पलायन है? एक पक्ष यह है कि आबादी के एक भाग पर समस्याओं का कोई असर नहीं हो रहा है। बढ़ती हुई कीमतें उन्हें परेशान नहीं करतीं। संवेदना इतनी घट गई है कि उन्हें कोई चीज छू नहीं सकती। एक ऐसा भी वर्ग पनपा है, जो ढेर सारी जलती हुई चिताओं को भी रोशनी का स्रोत मान रहा है। याद आती है दुष्यंत कुमार की पंक्तियां- 'वो देखो उस तरफ उजाला है जिधर रोशनी नहीं जाती। यह जिंदगी हमसे यूं जी नहीं जाती।' यह 'शायद' में गीत की तरह इस्तेमाल किया गया है।
वर्तमान में देश की मिक्सी में विपरीत स्वभाव की चीजें मथी जा रही हैं। इसे सागर मंथन भी कह सकते हैं, परंतु इससे जहर ही जहर निकलेगा और अगर चंद बूंदें अमृत की निकली भी, तो वे चोरी चली जाएंगी। यह कैसा अजीब मंजर है कि विदेश की पूंजी भारत के विकास में लगने का प्रारंभ नरसिंह राव सरकार और तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था, परंतु आज इसकी गुहार वे लोग कर रहे हैं, जिन्होंने इसका विरोध किया था। इसी तरह अमेरिका से आणविक संधि का विचार अटल बिहारी वाजपेयी का था, परंतु संसद में उनके दल ने इसका विरोध किया। सचमुच वर्तमान के जामेजम (क्रिस्टल बॉल) में इतनी छवियां गड्डमड्ड हो गई हैं कि यह कांच की दूरबीन बन गया है, जिसमें रंगीन टुकड़े आकृतियां गढ़ रहे हैं।
अनेक विचारक यह मनन कर रहे हैं कि उदारवाद द्वारा भारत में सामाजिक विसंगतियों का जन्म हुआ है। यूरोप में समाजवाद की वापसी के संकेत उभर रहे हैं। अनेक लोग यह विश्वास करने लगे हैं कि गांधीजी के सुझाए रास्ते ही सही हैं। 'स्वदेशी' एकमात्र मार्ग है। आज सरकार किसी भी प्रकार की महंगाई नहीं रोक सकती, क्योंकि सारी संरचना ही बेलगाम घोड़े की तरह भाग रही है। विदेशी पूंजी आने से शेयर बाजार में रौनक आती है। वह गालिब के शेर में प्रस्तुत 'सब्जां' और 'बहार' की तरह है।
दरअसल मार-धाड़ वाली मसाला फिल्मों के साथ सार्थक 'कहानी' की विजय के अजीबोगरीब मंजर में ही देश के आर्थिक विकास के संकेत भी हैं। दोनों ही किस्म की फिल्में ठेठ भारतीय फिल्में हैं। हॉलीवुड की ओर से दृष्टि हटाएं तो बहुत कुछ दिखेगा। वशेष बात यह है कि मसाला फिल्में हों या सार्थक, बनाने वाले का आत्मविश्वास उन्हें सफल बना रहा है और देश का आत्मविश्वास ही टूट गया है।