असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियाँ / रामचन्द्र शुक्ल

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संसार में कहीं भी जनसंख्या का व्यापारिक एवं अव्यापारिक श्रेणियों में विभाजन इतना स्पष्ट लक्षित नहीं है जितना भारत में। जाति की प्रथा ने मानवता के वंशानुगत प्रकारों के विकास को प्रभावित किया जो अंतत दो स्पष्ट समूहों में निर्धारित हो गए। ब्रिटिश शासन द्वारा उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थिति के बावजूद राजनीतिक एवं कृषक श्रेणियाँ आधुनिक वाणिज्यवाद की धूम के बीच अपने को व्यापारिक लक्ष्यों से अलग रखने में सफल रहीं। राज्य शासन के उद्देश्यों के निमित्त भारतीय शासकों ने अव्यापारिक राजनीतिक श्रेणियों को स्थायी रूप से भूमि से संबंध करके तथा उन्हें राजकीय सेवाएँ देकर उनके लिए एक पृथक् प्रभाव क्षेत्र को सम्पोषित किया। इस प्रकार समाज में पूरा संतुलन कायम रखा गया। जबकि व्यापारिक वर्ग धन संग्रह करने में लगे हुए थे, राजनीतिक एवं कृषक वर्ग उतनी ही आय से सन्तुष्ट थे, जो सत्तापूर्ण पद या उनके क्षेत्र का पार्थक्य कायम रखने हेतु यथेष्ट हो। अधिक प्रतिष्ठित कुटुम्ब अनुदानों द्वारा वशीभूत किए गए थे जबकि इतर जन उत्पादन के निमित्त उनसे भूमि खंड पाते रहते थे। व्यावसायिक श्रेणियों के लिए एक पेशे के रूप में कृषि बहुत पहले ही अपना आकर्षण समाप्त कर चुकी थी तथा अन्य लोगों के साथ राजनीतिक वर्ग की अपेक्षाकृत निर्बल श्रेणियों द्वारा सम्पादित की जा रही थी। साम्राज्यगत शक्ति युद्ध के समय जन एवं सामग्री के लिए इन्ही पर निर्भर रहती आई है, जैसा कि अंतत: इसने विश्वयुद्ध में किया।

जनसमुदाय एवं उनकी वृत्तियों का व्यापारिक एवं अव्यापारिक श्रेणियों में विभाजन आज भी उतना ही यथार्थ है जितना दो हजार वर्ष पूर्व था। अब भी अव्यापारिक वर्ग के जीविकोपार्जन का मुख्य स्रोत खेती या सरकारी सेवा है। पैतृक गाँव छोड़ने की प्रवृत्ति होने पर ब्राह्मण या क्षत्रिय शहर की गलियों में वस्त्र विक्रेता न होकर सरकारी नौकर होना चाहेगा। उसी प्रकार एक सेवारत कायस्थ जिसने संयोग से कुछ बचत कर ली है फुटकल परचून की दुकान खोलने के बजाय जमींदारी खरीदने का विचार करेगा (जैसा कि वह अब क्रय की वस्तु बना दी गई है)। वे या तो मिट्टी से संयुक्त रहना पसन्द करते हैं या वेतन के रूप में उसी के राजस्व अंश पर स्वयं को दावा करने योग्य बना लेते हैं। इसमें कुछ भी कौतूहलजनक नहीं है। पश्चिम के बड़े बड़े व्यावसायिक देशों में भी लोग व्यवसाय से धनोपार्जन करने के स्थान पर सरकार के अधीन कार्यरत देखे जा सकते हैं। भारत में एकमात्र अंतर यह है कि यह मनोवृत्ति यहाँ वंशानुगत है और जनसमुदाय के खास भागों में ही लक्षित होती है।

अंग्रेजों के आगमन के पूर्व इन दोनों में से प्रत्येक समुदाय अपने-अपने क्षेत्र में सन्तुष्ट थे। एक समुदाय धनोपार्जन की निजी परियोजनाओं में पूर्णतया दत्ताचित्त था तो दूसरा समुदाय अपनी जीवनचर्या में राज्य को सैनिक तथा लोक-सेवाएँ अर्पित करने की यथेष्ट भूमिका निभाता था। दोनों की स्थिति एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न समझी जाती थी। शासक सौदागर नहीं हो सकता था, सौदागर शासक नहीं बन सकता था। इस युक्तिसंगत सिद्धांत से अनभिज्ञता अथवा इसकी उपेक्षा ने पुरातन क्लासिक्ल देशभक्ति के संकीर्ण विचारों के साथ जुड़ कर यूरोप के लगभग सभी राज्यों को बेरहम शोषकों के इतने अधिक समूहों में बदल दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में यूरोप के घृणित व्यापारवाद ने भारत में कदम रखा और समाज के द्विस्तरीय विभाजन के आधार पर जो सामंजस्य इतने दिनों से चला आ रहा था उसे अस्त-व्यस्त कर दिया। कंपनी अपने व्यापारिक प्रचार प्रसार के लिए बनियों पर आश्रित थी। इसलिए उसने केवल उन्हीं के अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की। कंपनी के गुमाश्ता और एजेन्ट की हैसियत से वृहत्तम लाभ कमाने के अतिरिक्त उन्होंने अपने क्रय के लिए ही दूसरों से खाली कराई गई जमीन भी हासिल कर ली। बड़े क्षेत्रों के राजस्व का कार्यभार उन्हें सौंपा गया, वे ही दीवान बनाए गए एवं अन्य अनेक उपायों से उन्होंने महत्व अवाप्त किया। इस नई राजनीतिक प्रतिष्ठा का उन्होंने क्या उपयोग किया यह इतिहास के विद्यार्थी को अज्ञात नहीं है। बर्क ने अपनी पुस्तक 'हेस्टिंग्ज का इंपीचमेंट' में इस स्थिति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया है। भूमि से कृषक श्रेणियों के संबंध का स्थायित्व सदा के लिए लुप्त हो गया और वे उत्तरोत्तर बढ़ती कंगाली की अवस्था में छोड़ दिए गए। लोभी वकीलों की सेना के साथ न्यायालयों ने उनकी बरबादी पूरी कर दी। कानूनी जटिलताओं के कारण मुकदमा भूमिगत हितों का ऐसा अपरिहार्य लक्षण हो गया है कि सरकारी माँगों के भुगतान के बाद औसत जमींदार के पास कुछ शेष नहीं बचता। वे भूमि पर अपना कब्जा बनाए रखना अब संभव नहीं पा रहे। उन शहरी महाजनों के हाथ में उनकी अधिकांश भूमि हस्तांतरित हो गई और अब भी होती जा रही है जो केवल अपने अतिरंजित शक्तिवर्धन के लिए भूमि ढूँढ़ते फिरते हैं। सरकारी भूराजस्व नीति बहुत हद तक जमीन के सच्चे अधिकारी एवं कृषक श्रेणियों की शोचनीय अवस्था के लिए उत्तरदायी है। जमीन और मिट्टी पर जनसंख्या के दबाव से उत्पन्न कठिनाइयों के अतिरिक्त भूमि अधिकारी या कृषक प्रत्येक अवसर पर किसी राजस्व कर्मचारी या अन्य को अपना उत्पीड़न करते हुए पाता है। व्यापारिक क्षेत्र के विरुद्ध इस प्रकार की कोई व्यापक तंत्र व्यवस्था नहीं है। व्यापारिक समुदाय के पक्ष में विदेशी व्यवसाय द्वारा उद्योग हेतु उत्पन्न विस्तृत सघन क्षेत्र शासन से एकदम अनदेखे गुजर जाते हैं और सरकार पुरानी रीतियों का अनुगमन करती हुई अब भी जमीन को राजस्व का मुख्य स्रोत मानती चली आ रही है। जमीन से जुड़े हुए वर्ग इतने बुरे तरीके से प्रभावित न होते यदि उनका मामला सरकार के सामने प्रस्तुत कर दिया जाता।

जमीन से जुड़े वर्ग जबकि प्रतिदिन इस प्रकार विनाश की ओर खींचे जा रहे हैं, नगरों के बनिया आयात निर्यात उद्योग द्वारा प्रचुरतम लाभ पैदा कर रहे हैं। स्वदेशी उद्योगों का विध्वंश उनके लिए अभिनदनीय हुआ। कलकत्ता, बम्बई तथा अन्य औद्योगिक केन्द्रों में मारवाड़ियों का विपुल आप्रवासन इस तथ्य का पर्याप्त संकेत करते हैं। सरकारी माँगों की बलपूर्वक वसूली जमींदारों से और उसके परिणामस्वरूप किसानों से होती है। इसकी तुलना में महाजन या उद्योगपति को अपने वृह्द लाभों में से कुछ नहीं देना पड़ता। जबकि एक वर्ग सरकार द्वारा अपने ऊपर लादी गई असुविधाओं के मातहत श्रम कर रहा है और दूसरा वर्ग ब्रिटिश संरक्षण के सारे आशीर्वादों का पूरा आनंद लेता हुआ उनका मजाक उड़ा रहा है। जितनी जल्दी यह विसंगति दूर की जाय उतना ही अच्छा है। चूँकि भारतीय जनसंख्या का प्रधान भाग गाँवों में बसता है, इसलिए सरकार के ध्यान पर इसके हित का सर्वप्रथम अधिकार है। आशा की जाती है कि उन सामान्य जनों के प्रति अनिवार्य कर्तव्य के पूर्ण बोध से सरकार शीघ्र ही जागृत होगी जिनके पास वह आपातकालीन स्थिति में स्वभावत: आशान्वित होकर धन, सामग्री एवं जनशक्ति के लिए पहुँचती है। उनकी प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना के लिए उनके पक्ष में राजस्व कर का पुनर्निधारण, संरक्षात्मक कानून, जमीन संबंधी कानूनों का सरलीकरण, ग्रामीण न्याय परिषदों की स्थापना तथा इसी प्रकार के अनेक उपाय आवश्यक हैं। उनकी संवेदना तथा भावनाओं का सम्मान करना होगा।

जिन व्यक्तियों के पास शासकीय सत्ता नहीं है या जो शासक परिवार के नहीं हैं उन्हें राजा महाराजा की उपाधि से विभूषित किए जाने को बहुसंख्यक हिन्दू अपने राष्ट्रीय गौरव के लिए अत्यधिक अपमानजनक समझते हैं। अब यह देखना है कि सरकार इस अपमानजनक उपहास को समाप्त करने का उपाय कब तक करती है। जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति जानता है, 'राजा' शब्द का अर्थ 'किंग' या कम से कम शासक राजकुमार है। क्या कोई 'किंग' की उपाधि से किसी अंग्रेज को या बादशाह की पदवी से किसी मुसलमान सज्जन को विभूषित करने का विचार कर सकता है? 'राजा' शब्द सम्पत्ति का नहीं वरन् शासकीय सैनिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। उत्तर प्रदेश और अवधा में क्षत्रिय परिवार हैं जिनके पूर्वज वास्तविक शासक रहे हैं। कब और कैसे वे सत्ता खो बैठे यह स्पष्टत: ज्ञात नहीं है। राजा की पदवी यदि इन परिवारों में कायम रहती है तो इसे विरासत माना जा सकता है जिससे उनके साथ संबंध निर्वाह करते रहने वाले राजकुमार भी ईष्या नहीं महसूस करेंगे। सामान्यतया वे प्राचीन अच्छे परिवारों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी रियासतें किसी मध्यकालीन अधिपति से प्राप्त अनुदान या किसी पर विजय की परिणाम रही हैं। (रिपोर्ट ऑन दी इंडियन कांस्टीच्यूशनल रिफार्म) उनकी स्थिति की खोजबीन के साथ उन सबके लिए सैनिक पेशे के दरवाजे खुले रखना आवश्यक है। रायल मिलिट्री कॉलेज, सैन्डहर्स्ट में अपने पुत्रों को भेज सकने का अवधा के तल्लुकेदारों द्वारा अभी हाल ही में प्राप्त विशेषाधिकार उनके सच्चे चरित्र का बहुत दूर तक पुनर्जीवन करेगा। रिसायतों के लिए सैनिक सेवाओं के आरक्षण का कानून बनाना सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है।

यह समझने के लिए कल्पना का अधिक प्रयास अपेक्षित नहीं है कि देश में अभी हाल में राजनीतिक क्रियाकलापों का जो स्वरूप उभर कर सामने आया है, वह बहुत हद तक व्यापारिक समुदाय के अचानक अंत:प्रवेश के कारण है। लगभग चार वर्ष पूर्व मुझे कलकत्ता का एक मारवाड़ी नवयुवक मिला था, जिसने अभी अपनी विद्यालयी शिक्षा भी नहीं पूरी की थी, किन्तु राजनीति के नाम पर तमाम तरह की अनर्गल बातें कर रहा था और रहस्यवादी शक्ल में मि. गांधी के व्यक्तित्व की विवेचना कर रहा था। मैंने निशक्त: उसके अंदर ऐसे व्यक्तियों के टाइप देखे जो राजनीतिक क्षेत्रों में तेजी से अपना मार्ग बना रहे हैं। मि. गांधी यूरोपीय आन्दोलनकारी के सारे युक्ति कौशल में प्रशिक्षित होकर दक्षिण अफ्रीका से आए हैं। आन्दोलनकारी के रूप में वे अतुलनीय हैं। भारत को उनके जैसे व्यक्ति की अत्यधिक आवश्यकता थी। किन्तु आन्दोलनकर्ता समस्त मामलों में एक अच्छा प्रशासक भी सिद्ध होगा, यह मेरे सामने उतना स्पष्ट नहीं है। मि. गांधी उन बिन्दुओं को अच्छी तरह जानते हैं जिन्हें स्पर्श किया जाय तो वे तीव्रतम उत्तेजना पैदा कर सकते हैं। उनके अर्ध धार्मिक अर्ध राजनीतिक प्रवचनों ने करोड़ों के हृदय झकझोर दिए। व्यापारिक समुदाय को तो लगभग मतान्धाता की ओर परिचालित कर दिया है। इसका ही यह परिणाम था कि कलकत्ता के विशेष काँग्रेस अधिवेशन में वयोवृद्ध एवं सम्मानित नेता केवल नगण्य ही नहीं हुए अपितु उनके अनुयायियों द्वारा वे खुलेआम अपमानित भी किए गए। हमें नहीं मालूम कि मि. गांधी सदैव यह अनुभव कर पाते हैं अथवा नहीं कि उनके शब्दों से कभी-कभी ऐसे परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, जो उनकी पकड़ से बाहर हैं। हमें तो यही दिखाई देता है कि उनकी अहिंसा किसी भी प्रकार शांति एवं व्यवस्था का पर्याय नहीं है।

मनोभूमि के जो ढाँचे अहिंसा के सिद्धांत से सहमत हुए, उनका संक्षेपीकरण इस प्रकार किया जा सकता है:-

1. पंजाब के नृशंस अत्याचारों के विरुद्ध सत्यनिष्ठ और सहज राष्ट्रप्रेम युक्त क्रोध तथा सरकार के प्रति विश्वास का ह्राश।

पंजाब में ढाए गए क्रूर नृशंस अत्याचार और इस जुर्म के कर्णधारों का बिना दंड पाए मुक्त घूमना प्रत्येक राष्ट्रभक्त भारतीय के हृदय को गहरे क्रोध से भर देता है। इन अन्यायों के विरुद्ध सशक्त प्रदर्शन में सम्पूर्ण देश सम्मिलित हुआ और वह अपनी माँगों को सुनिश्चित रूप देने जा ही रहा था, कि तभी मि. गांधी ने असहयोग की अनिश्चित योजना प्रारम्भ कर दी। इसने जो शोर और कोलाहल पैदा किया उससे मुग्ध होकर इसके असन्तुलित चरित्र को बिना सोचे विचारे लोग इसकी ओर दौड़ पड़े। किन्तु यह पूर्णतया स्पष्ट है कि कोलाहल का सृजन मात्र, जिसमें असहयोगियों ने निश्चितरूपेण उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है, किसी भी तरह अन्यायों का निराकरण नहीं कर पाएगा और न ही उनकी (अंग्रेजों की) ख्याति के अवसरों में कमी कर सकेगा। विभाजन के विरुद्ध बंगाल में जिस प्रकार आन्दोलन संगठित किया गया, उसी प्रकार अधिक सुनिश्चित एवं अधिक लक्ष्योन्मुख कार्य प्रदर्शन की आवश्यकता है। सत्याग्रह आन्दोलन की नियति देखकर मि. गांधी की प्रणाली के प्रति विश्वास डिग जाना चाहिए था, किन्तु व्यक्तित्वों के प्रति रहस्यवादी भक्ति भारतीय जन समूह की चारित्रिक विशेषता है। लोकमान्य तिलक की मृत्यु ने राष्ट्रवादियों के पूरे दल को मि. गांधी की अनुकंपा पर छोड़ दिया है। इसके बहुत से विचारशील नेता जिनमें महाराष्ट्रीय लोग भी सम्मिलित हैं, अपनी पीठ पर तमाम सामाजिक एवं आर्थिक विचारधाराओं की गठरी लादे हुए काँग्रेस की प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए चुपचाप असहयोगियों की कतार में शामिल हो गए। और स्पष्ट कहा जाए तो उन्होंने ऐसा इसलिए किया है, ताकि वे अनभिज्ञ एवं तरुण लोगों की हूटिंग से अपने को बचा सकें। देश का पूरा गौरव उन निर्भीक एवं विवेकशील नेताओं के कारण ही शेष है जो अपने विश्वास पर डटे हुए हैं। उनकी मन:स्थिति उन लोगों के साथ अपना अनुकूलन नहीं कर सकती जो अधिक तात्कालिक परिणामों की लालसा के समक्ष अपने प्रत्येक सिद्धांत मातहत कर देने के लिए तैयार हैं। सरकार की अनुदार नीति से क्षुब्ध एवं निराश कुछ नेता इस आन्दोलन द्वारा पैदा किए गए कोलाहल को तटस्थ और संभवत: कुछ हद तक सन्तुष्टि के भाव से देख रहे हैं, यद्यपि स्वयं आन्दोलन के लिए उनके मन में उपेक्षा का भाव है।

किन्तु उन्हें इस तथ्य को सामने रखना चाहिए कि जहाँ इस आन्दोलन में कुछ ऐसे नि:स्वार्थ एवं ईमानदार कार्यकर्ता हैं जिनका उदात्ता एवं राष्ट्रभक्ति पूर्ण बलिदान प्रत्येक सम्मान के योग्य है, वहीं ऐसे व्यक्तियों की संख्या भी किसी प्रकार कम नहीं है जो दूसरों की कीमत पर दोहरा खेल खेलना चाहते हैं और जनसंख्या के वृह्द भाग के विरुद्ध अपने क्रियाकलापों के क्षेत्र ढूँढ़ रहे हैं। कार्यरत अंतर्धाराओं को हमारे निरीक्षण से नहीं छूटना चाहिए। इस असहयोग आन्दोलन के ऐसे लक्ष्यहीन और असन्तुलित चरित्र को अनावृत्त करने तथा इसकी पताका के नीचे छद्मवेश में छिपी हुई दुष्ट शक्तियों का पर्दाफाश करने के लिए जनता के समक्ष स्पष्ट और सुनिश्चित स्वराज प्रचार (होम रूल) विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। क्योंकि अपने देश के दु:ख भोगों को देखते हुए जनता आलसी बनकर अलग नहीं बैठ सकती। वह करने के लिए कुछ चाहती है।

2. मिथ्या अहंकार एवं दंभ में मूलस्थ व्यक्तिवादी महत्व की अतिरंजित धारणा

पाश्चात्य शिक्षा ने हमारे नवयुवकों के मस्तिष्क को वैयक्तिक स्वतंत्रता के विचारों से भर दिया जो अधिकांश स्थितियों में इतने अस्पष्ट एवं असन्तुलित हैं कि वे सामाजिक एवं नैतिक अनुशासन के सम्पूर्ण बोध को निष्प्रभ कर देते हैं। उनके लिए अधिकार का अस्तित्व पारिवारिक, सामाजिक या राजनीतिक किसी भी क्षेत्र में और किसी भी रूप में घृणास्पद है। प्रशासन में ये मशीन को अधिकतम और व्यक्तित्व को न्यूनतम देखना चाहते हैं। वर्नाक्यूलर प्रेस की एक श्रेणी के विवेक शून्य लेखों ने उन्हें देशभक्ति के अर्थ के साथ इस मनोवृत्ति को मिला देने के लिए प्रेरित किया है। सच्ची एवं सृजनात्मक राष्ट्रभक्ति के स्वस्थ विकास के साथ यह भावना सम्पूर्णत: असंगत है। यह ऐसा तथ्य है जिसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।

3. सत्ता एवं शक्ति के प्रति पूँजी के दंभ से उत्पन्न द्वेष एवं एक व्यापक स्तर पर धन के साथ सत्ता को जोड़ देने की बलवती इच्छा जिसके द्वारा उन कृषक वर्गों को अपने प्रवाह के मातहत लाया जा सके जो अपने को स्वतंत्र रखते आए हैं अथवा जो सत्ता की स्थिति में हैं।

अब हम देख सकते हैं कि असहयोग आन्दोलन ने व्यापारिक श्रेणियों के साथ इतनी अधिक पक्षधारता क्यों प्राप्त की और ऐसे बेमिसाल जोश के साथ उनमें से इतने अधिक लोग सिद्धांत का उपदेश देने क्यों अग्रसर हुए। सर्वप्रथम तो यह उनसे त्याग की लेशमात्र अपेक्षा नहीं रखता, जबकि अव्यापारिक श्रेणियों को जो कुछ अब भी उनके पास शेष बचा है, वह सब बलिदान कर देने को कहता है। यद्यपि असहयोग के कार्यक्रमों में 'बहिष्कार' भी एक है तथापि इतना समझने के लिए वे पर्याप्त चतुर हैं कि अव्यावहारिक घोषित हो जाने से बहिष्कार एक उपेक्षणीय इकाई हो जाता है जिसका दबाव किसी गंभीरता के साथ उन पर नहीं डाला जा सकता। इसकी व्यावहारिकता तो पूरी की पूरी अव्यापारिक श्रेणियों के पक्ष में लागू होती है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों से वापसी, राजकीय सेवाओं के त्याग, जमींदार और किसान के रूप में परस्पर एक दूसरे से युद्ध करते रहने से अधिक व्यावहारिक तथा विदेशी व्यापारियों के साथ किसी एक भी वस्तु की सौदेबाजी के त्याग से बढ़कर अव्यावहारिक और क्या हो सकता है? यह विषमता प्रतिदिन प्रमुख होती जा रही है। इसलिए जन सामान्य का दृष्टिकोण निश्चित रूप से कम सहिष्णु होता जाएगा। कोई चाहे तो कह सकता है कि जब नए ढंग से परिस्थितियों के संचालन की आवश्यकता होगी तब इसे पूरा करने में श्री गाँधी पूरी तरह से अवसर के अनुकूल होंगे लेकिन अभी हम वास्तविक स्थिति को ही लेते हैं।

दलाल, आढ़ती, सट्टेबाज, आयातक, निर्यातक एवं डीलर को अपना संबंधित व्यापार पूरे ऐश्वर्य एवं शानोशौकत के साथ जारी रखना है। यह तो केवल अव्यापारिक और राजनीतिक श्रेणी हैं जिन्हें अपने क्षेत्र से बाहर आना है और उस व्यापारिक समुदाय की शरण में अपने घुटने टेक देना है जिनकी पूँजी अभी तक उन्हें आकर्षित पर पाने में असमर्थ रही है। जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, जमीन से जुड़े वर्ग केवल अपनी अधिकांश जमीन से ही नहीं अपितु अपनी सम्पत्ति से भी वंचित हो गए जिसका काफी बड़ा भाग विदेशी सौदागरों को हस्तान्तरित करने के पूर्व मध्यस्थ बनियों ने ऐंठ लिया, बटोर कर जो सम्पदा उन्होंने जोड़ी उसके साथ ही कई जगह जमीनों का अधिग्रहण भी कर लिया जिसके परिणामस्वरूप उनके भीतर संरक्षक भाव से उन क्षेत्रों में भी घूमने की महत्वाकांक्षा पैदा हो गई जिन्होंने उन्हें सम्मानित दूरी पर रखा था। किसी भी दूसरे देश में ऐसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति सरल ही नहीं अपितु बिलकुल स्वाभाविक होती। किन्तु एक ऐसे देश में जहाँ समाज संगठन में वंशानुगत अभिरुचियाँ महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं स्थितियों ने भिन्न मार्ग ग्रहण किया है। अव्यापारिक तथा राजनीतिक श्रेणियों के सदस्यों ने जमीन से जुड़े रहने की सुरक्षा अब आगे संभव न पाकर अंग्रेजी शिक्षा का लाभ उठाया, सरकारी नौकरी पर टूट पड़े और इस प्रकार व्यापारिक वर्ग के आक्रमणों के विरुद्ध अपनी प्रतिष्ठा एवं आत्मसम्मान की रक्षा की। 1

1. हिन्दू की ऊँची श्रेणियाँ।

शासकों की राष्ट्रीयता कोई भी हो, पीढ़ियों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ तथा कुछ अन्य लोग भारत के प्रशासकीय ढाँचे के अंग रहे हैं। ब्रिटिश शासन के प्रवेश एवं विकास ने इन श्रेणियों को नई परिस्थितियों के अधीन अपने वंशानुगत पेशों को जारी रखने के निमित्त अपने को सक्षम बना लेने के लिए प्रोत्साहित किया। (रिपोर्ट ऑन इण्डियन कांस्टीच्यूशनल रिफॉर्म) स्पष्ट कहें तो ब्रिटिश शासन द्वारा प्रस्तुत प्रतिकूल स्थिति के बीच से इस प्रकार किसी भी किस्म का मुआवजा वसूल कर लेने का उनकी तरफ से यह एक दयनीय प्रयास है। कृषक एवं राजनीतिक भूमिधर श्रेणियों के वंशज ही हैं जो अधिकांशत: सरकारी नौकरियों में लगे हुए हैं। शक्ति उनके जीवन का सार है और जब तक वे इसे कायम रख पाते हैं, धन की परवाह नहीं करते। उनके लिए सम्पत्ति शक्ति नहीं है, वरन् शक्ति ही सम्पत्ति है। वे उस वृह्द भाग का निर्माण करते हैं जिसे शिक्षित मध्यवर्ग कहा जाता है। वे अपनी सैनिक और नागरिक शक्ति के कार्यान्वयन में देश की सरकार के साथ सहयोग करना अपना अधिकार समझते हैं। सहयोग के भीतर ही उनके असहयोग के लिए क्षेत्र निहित होता है। उनमें से अधिकांश की भूमि संबंधी स्थिति समाप्त हो गई और उन्होंने शहरी आदतें अर्जित कर ली हैं। यदि उनके पुत्र सरकारी नौकरी में प्रवेश नहीं करते तो वे उनके लिए जीविकोपार्जन का कौन सा साधन खुला पाएँगे? उन्हें सम्पत्ति के सम्मुख उसी प्रकार नतमस्तक होना पड़ेगा, जिस प्रकार उनके पिता आज उस सत्ता के आगे झुके हैं जिसका ढाँचा पूँजी बनाती है और जब तक संसार अस्तित्व में है इस साष्टांग दण्ड्वत का निर्माण करती चली जाएगी। क्या यही नैतिक भविष्य सम्भावना है उनके सामने। यदि हम मान लें कि यह श्रेणी आत्मसम्मान के समस्त बोध से पूर्णतया रहित है, यद्यपि कठिनाई से ही ऐसा सोचा जा सकता है तो क्या यह माना जा सकता है कि हमारे व्यापारिक कर्णधार अपनी परिकल्पनाओं में इतने दूर्गामी हो सकते हैं कि वे पूरे देश में कार्यालयों और संस्थाओं का जाल बिछा दें जैसा कि सरकार ने किया है और शिक्षित मध्य वर्ग की एक भी पीढ़ी का निर्वाह कर दें?

सौदागरों को जो अब शक्ति को संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं, स्मरण रखना चाहिए कि ब्रिटिश शस्त्रो के संरक्षण के सहारे ही वे इतने लंबें समय तक सोना, चाँदी बटोरने और रखने में सामर्थ रहे हैं। उनके बहुत से गंभीर बन्धुगण इस तथ्य के प्रति पूर्णत: सचेत हैं और अपने महत्व के मिथ्या मूल्यांकन द्वारा उन्होंने अपने को विचलित नहीं होने दिया। शिक्षा क्षेत्र के हमारे नवयुवकों को यह समझ रखना चाहिए कि देश में कोई भी संवैधानिक व्यवस्था लागू हो, किसी राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का सत्ता में समस्तरीय अधिकार नहीं हो सकता है। मैं इस स्पष्ट तथ्य की ओर उनका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। मनोवेग के अनुपालन में ज्यादा जोश में आकर उन्हें स्वयं को ऐसी स्थिति से प्रतिबद्ध नहीं करना चाहिए जहाँ से किसी भी समय उन्हें अपने कदम पीछे लौटाने के लिए बाध्य होना पड़े।

मि. गांधी की युक्तियों में बोलशेविज्म का स्पर्श लोकप्रिय (पापुलर) कल्पना को तभी तक आकर्षित कर रहा है जब तक इसका तरीका पक्षधार है। थोड़े से भी चिन्तन से वे यह देखने में समर्थ हो जाएँगे कि यह असहयोग केवल एक सतही विद्रोह है जिसमें बहुत से परस्पर विरोधी असन्तुलनीय तत्व स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमें इस आन्दोलन में ऐसे व्यक्ति मिल जाएँगे जो यूरोप के किसी नवीनतम उन्माद को मानव प्रगति का चरम बिन्दु समझ कर स्वीकार कर लेते हैं और प्रत्येक वस्तु का पूरा सफाया कर देना चाहते हैं जो अतीत से उपलब्ध हुई है, साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति भी इसमें सम्मिलित हैं जो प्राचीन भारत के स्वप्नचिन्तन में निरत हैं एवं पुरातन अवशेषों की प्रत्येक वस्तु के पुनरुत्थान का विचार कर रहे हैं, इस आन्दोलन में लगे हुए ऐसे व्यक्ति भी हैं जो अपनी जन्मभूमि के देश के प्रति भक्ति के आधुनिक बोध से ओतप्रोत हैं, साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति हैं जो जाति, धर्म या मत के आधार पर एकता के विचारों को दृढ़ता से पकड़े हुए हैं। ये सभी व्यक्ति समूह इस विश्वास से अभिप्रेरित हैं कि वे अपने भिन्न आदर्शों एवं उद्देश्यों की पूर्ति की ओर बढ़ते जा रहे हैं। इस प्रकार का विलक्षण् सम्मिश्रण अपने विभिन्न घटकों को अधिक दिन एक साथ नहीं रख पाएगा। अतएव मि. गांधी के स्वराज संबंधी विचार कल्पना विलासी हैं। वह या अन्य कोई भी महात्मा इस प्रकार की परस्पर विरोधी चीजों में सामंजस्य लाने का चमत्कार नहीं दिखा सकता।

उपर्युक्त तीन मनोभूमियों में से अंतिम दो ऐसे हैं जिनका असहयोग के बहुसंख्यक अनुयायियों पर अधिक प्रभुत्वपूर्ण प्रभाव है और वे राष्ट्रवाद की एक नई किस्म की मानसिकता का निर्माण करते हैं। इसका अनुमान उन आक्रमणों से लगाया जा सकता है जो ऐसे परिक्षेत्रों के विरुद्ध किए जा रहे हैं जिन्हें सम्मान प्राप्त है अथवा जो किसी प्रकार की सांस्कृतिक, सामाजिक या राजनीतिक शक्ति कायम रखे हुए हैं।

हमने यह सोचने की आदत डाल ली है कि जमीन से जुड़ी श्रेणियाँ शिक्षित लोगों के क्रियाकलापों पर निरन्तर अंकुश के रूप में कार्यरत हैं। लेकिन मैं बलपूर्वक कहता हूँ कि नगर के कोठीवालों की तुलना में ये दूसरों का कहीं अधिक ध्यान रखते हैं तथा स्वार्थपूर्ण प्रभावों के प्रति कहीं कम नमनशील हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जो कुछ सुन्दर है उसका पूर्ण तिरोभाव तथा इनके सतत अपमान की प्रक्रिया से शहर के पूँजीपति तथा महाजन के अहंकार का जितना मनोरंजन हो सकता है उतना किसी अन्य वस्तु से नहीं। उन्हें उन शहरी पूँजीपति तथा महाजन वर्गों के विरुद्ध एक सामान्य उद्देश्य बनाना चाहिए जो अपनी अनुकूल परिस्थितियों का नजायज फायदा उठा कर उन्हें यथासंभव निम्नतम स्तर तक गिराने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि किसान और जमींदार के बीच कोई अभेद्य दीवार नहीं है। एक किसान जमींदार हो सकता है और एक जमींदार किसान हो सकता है। वे स्वयं देख सकते हैं कि इन चीजों का वास्तविक उद्देश्य सम्पूर्ण ग्रामीण जनसंख्या को अधिक कमजोर, दीन किसानों में इस प्रकार बदल देना है जिससे उनमें से किसी के पास सामाजिक गौरव एवं प्रतिष्ठा अर्जित करने का कोई अवसर शेष न रह जाए। शहरी व्यावसायिक भद्रता को ही देश में एकमात्र भद्रलोक होना है। अभी यह देखना बाकी है कि भारत जैसा कृषि प्रधान देश इसे कैसे सहन कर सकता है। यह आशा की जाती है कि हाल की घटनाएँ जमीन से जुड़ी श्रेणियों को व्यावहारिक असहयोग के अभिप्राय से अपनी भूमिका में संयुक्त कार्यक्रम की आवश्यकता के प्रति जागृत करेंगी।

गाँव की जनसंख्या में जमींदार, किसान और मजदूर होते हैं। इन तीनों में सर्वाधिक अनभिज्ञ और सहज विश्वासी मजदूरों की अधिकांश जनसंख्या के बीच आन्दोलनकारी अपने उत्तेजक भाषणों से सबसे अधिक अशांति उकसाने में व्यस्त रहे हैं। वस्तुत: उनकी आतंकवादी, बर्बर गतिविधियों से किसान और जमींदार समान रूप से उत्पीड़ित हुए हैं। ऐसे समय में जब श्रम का अभाव गरीब कृषकों में पहले ही गंभीर चिंता उत्पन्न कर रहा है और कृषि उत्पादनों में अत्यधिक व्यव्धान डाल रहा है, वहाँ जाकर उनके लिए समस्याओं को और अधिक जटिल बना देना क्या मानवोचित है? जमींदार शब्द से हम प्राय: बड़े भूमिपति का अर्थ लेते हैं और उन छोटे काश्तकारों के विषय में कभी नहीं सोचते जो अपनी कुलीनता के प्रति जागरूक होते हुए भी अपनी न्यून आय में बड़ी कठिनाई से अपना जीवन निर्वाह कर पा रहे हैं। वे भी उसी प्रकार से उत्पादक हैं जिस प्रकार उनके आसामी। यह वे हैं जो हमारे आन्दोलनकारियों की उदारता के शिकार हुए हैं। शहरों में महाजनों की गद्दियों में श्रमिक जनसंख्या के वृह्द भाग को खींच लिया। इसलिए किसान और जमींदार इस बात से चिन्तित हैं कि कृषि कार्य कैसे चलाया जाय। जाति का कठोर नियम उच्चतर श्रेणियों को हल पकड़ने की अनुमति नहीं देता। स्थिति को समझ कर मेरे एक मित्र दस वर्षों से बड़ी बहादुरी से इस नियम के विरुद्ध आन्दोलन चला रहे हैं। तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह समझ लेना कठिन नहीं है कि जिनके चैम्पियन के रूप में ये आन्दोलनकारी अपने को प्रस्तुत करते हैं, उन किसानों के लिए श्रम की आपूर्ति सम्पूर्णत: भंग कर देने का प्रयास कितना विनाशकारी है। क्या हम इस प्रकार के आन्दोलनकारियों को अधिक बलपूर्वक नगरीय जनों के एजेन्ट नहीं कह सकते जो एकमात्र उनके ही उपभोग में लाने के लिए ही ग्रामीण शक्ति को गाँवों से उखाड़ने के लिए वचनबद्ध हैं?

शासक राजकुमारों पर आक्रमण की नियमित योजना

केवल उक्त उद्देश्य से एक हिन्दी साप्ताहिक आरंभ किया गया है। आक्रमण का पहला निशाना मारवाड़ी समुदाय का घर राजपूताना है। स्पष्टत: देशी शासक वर्ग ने अपने जनतान्त्रिक चरित्र को सिद्ध नहीं किया। समय आ गया है जब रियासत के प्रमुख अपने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के साथ सामने आएँ और स्वयं को जनता की सुख सुविधा के लिए समर्पित कर दें जिससे लोक निन्दा के लिए कोई आधार न मिले। इसी प्रकार से वे उस डिजाइन को विफल करने में सफल होंगे जो द्वेष के द्वारा विगत कुछ वर्षों से उनके विरुद्ध गुप्त रूप से बुनी जा रही है। उन्हें प्रभावी ढंग से इस बात को साबित कर देना चाहिए कि वे अपने दायित्व को उनसे अधिक समझते हैं जो उनकी त्रुटियों पर ऑंख टिकाए हैं और ब्रिटिश भारत के नगरों से उन पर आक्रमण करने में आनंद ले रहे हैं। उन्हें अपने चारों ओर जनतान्त्रिक कार्य प्राकारों (डेमोक्रेटिक बुल वक्र्स) का निर्माण करना चाहिए और सरकार के उस स्वरूप का पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने उदात्ता आचरण के उदाहरण से उन्हें यह दिखा देना चाहिए कि शक्ति और अधिकार के साथ शील, समानता, करुणा, क्षमाशीलता, नि:स्वार्थता एवं अन्य उच्च गुण किस प्रकार चमक सकते हैं। देशी रियासतों की जनता को भी व्यक्तित्व के मशीनीकरण् के प्रति अपने को सावधान रखना चाहिए। उन्हें अपनी शिकायतों को स्वयं समझना चाहिए। पूर्वाग्रहग्रस्त एवं स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा आशंका से उठाई गई झूठी चिल्लाहट के सामने नहीं झुकना चाहिए।

इन प्रयत्नों एवं असहयोग के प्रति आकर्षण के मध्य एक समानान्तरवाद स्पष्ट है। हम स्पष्टत: उस दिशा को लक्षित कर सकते हैं जिस ओर ये क्रिया कलाप उन्मुख हैं। इनमें किसी को विश्व आन्दोलन की प्रतिध्वनि भी सुनाई पड़ सकती है। किन्तु यह खेद का विषय है कि इसमें ऐसा कुछ नहीं है। पश्चिम के राष्ट्र अपने को जिससे मुक्त करने की चेष्टा कर रहे हैं, उसी पूँजीवाद की ओर यह एक बढ़ता कदम है। यह पूँजी बटोरने और समाज में व्यक्तिवादी जीवन मूल्यों के क्षुद्र अमेरिकी मानदण्ड स्थापित करने का प्रयास भर है।

सम्पूर्ण स्थिति का सर्वाधिक आतंककारी पहलू यह है कि सारा हिन्दी प्रेस व्यापारिक समुदाय के चंगुल में आ गया है। राष्ट्रवादी हिन्दी समाचार पत्रो में से अधिकांश अपने अस्तित्व के लिए इनकी पूँजी पर आश्रित हैं अथवा अपने प्रचार प्रसार के लिए इस पूँजी के मोहताज हैं। कलकत्ता के हिन्दी दैनिक 'बड़ा बाजार' के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हैं। इसका कारण वर्नाक्यूलर साहित्य का बहि:प्रवाह है जो सामाजिक सुव्यवस्था एवं अनुशासन के सभी नियमों का विरोध करता है। ऐसी स्थिति में अव्यापारिक समुदाय को ऐसे राष्ट्रीय अंगों की आवश्यकता है जो अस्वस्थ व्यापारिक प्रभावों से मुक्त हो और जो भारतीय जीवन के प्रत्येक स्तर के साथ सुसंगत राष्ट्रवाद का आदर्श निर्मित करने में सक्षम हो। सिद्धांतों का प्रतिपादन एवं मानदण्डों को निर्धारण करना होगा। जब तक देश के प्रत्येक भाग में इस प्रकार के समाचार पत्र नहीं प्रारम्भ किए जाते तब तक गैर जिम्मेदार उत्साहियों के विसंगत प्रस्तुतीकरण् से अव्यापारिक, राजनीतिक एवं कृषक श्रेणियों के हितों को हानि होती रहेगी। असहयोग सिद्धांत के गुणों अवगुणों पर बहस प्रारम्भ करना या इसकी स्थापनाओं एवं परिकल्पनाओं में से किसी पर प्रश्नचिह्न लगाना मेरा उद्देश्य नहीं है। मेरा लक्ष्य सिर्फ उस पक्षधर तरीके की ओर इंगित करना है जिसके द्वारा इसका उपदेश दिया जाता है और व्यव्हार किया जाता है। यदि अव्यापारिक राजनीतिक श्रेणी को राजकीय सेवा से अपने को हटा लेने का निर्देश दिया जाता है तो व्यापारिक श्रेणियाँ भी ब्रिटिश या विदेशी वस्तुओं के साथ अपना समस्त व्यापार छोड़ देने को तैयार रहें। जब असहयोग राजस्व का भुगतान न करने की सीमा तक जा सकता है तो भूमि अधिकारी या कृषक वर्गों के पास क्या गारन्टी है कि जिस समय उनकी भूमि नीलामी पर रखी जाएगी उस समय व्यापारिक समुदाय के सदस्य उनकी जमीनों को खरीद लेने के लिए आगे बढ़कर भागदौड़ नहीं करेंगे। दोनों वर्गों द्वारा समान त्याग का सिद्धांत असहयोगियों की नीति एवं चरितार्थ होना चाहिए। यदि वे वास्तव में सरकारी कार्यतंत्र को बन्द कर देने एवं ब्रिटिश व्यवसाय को पंगु बना देने में अपने को सक्षम समझते हैं तो उन्हें अपने कर्म में अनिवार्यत: एक वृहत्तर दृष्टिकोण अपनाना होगा। अब तक किए गए गौरवपूर्ण बलिदान अव्यापारिक श्रेणियों तक ही सीमित रहे हैं। व्यापारिक वर्ग उदारता के अत्यन्त न्यून प्रदर्शन के साथ केवल कोलाहल और भागदौड़ में सम्मिलित हुआ है। इसके कुछ सदस्य ऐसे हैं जो असहयोग के मंचों पर गला फाड़ रहे हैं, किन्तु उनकी साझेदारी ही असहयोग आन्दोलन के चरित्र को उन लोगों की दृष्टि में संदिग्ध बना देने के लिए काफी है जो उन्हें पहचानते हैं। ऐसे लोग जितनी जल्दी अपनी सीमा में लौटाए जा सकें असहयोग आन्दोलन के लिए उतना ही अच्छा है।

अनुवादिका- क़ुसुम चतुर्वेदी, (एक्सप्रेस, बांकीपुर, पटना, 1922)

[ चिंतामणि, भाग-4 ]