असहयोग में─ बक्सर में / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
नागपुर से लौट कर मैं खगड़िया जाने को था। तय था कि वही हमारा कार्यक्षेत्र होगा। आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के कार्यालय में हमने अपना पता प्रतिनिधि की हैंसियत से वहीं का दिया था भी। हमारे साथ कुछ किताबें थीं जिन्हें हमने वहीं भिजवाया भी। लेकिन बक्सर (शाहाबाद) के कुछ परिचित मित्रों ने आग्रह कर के मुझे कुछ ही दिनों के लिए बक्सर चलने को इसलिए कहा कि कौंसिल के चुनाव क्षेत्र की एक जगह उस इलाके में खाली थी और महाराजा हथुवा उम्मीदवार थे। वर्तमान प्रांतीय असेंबलियों की ही जगह तब कौंसिलें थीं। कांग्रेस ने उनके बहिष्कार का निश्चय किया था। महाराजा हथुवा कांग्रेस की बात न मान कर खड़े थे। इसीलिए उनका विरोध करना जरूरी था, ताकि लोग वोट न दें। मैं तैयार हो गया। सोचा कि वह काम खत्म कर के खगड़िया चला जाऊँगा। फलत: बक्सर पहुँच कर काम में लग गया। देहातों में उनके विरुद्ध प्रचार शुरू कर दिया। बक्सर और भभुआ दो सबडिवीजनों से उनका चुनाव था। आरा शहर के लोगों ने कुछ दिल्लगी की और महाराजा के खिलाफ एक धोबी को खड़ा कर दिया। वह चुन भी लिया जाता और महाराजा हार जाते यदि धोबी के लिए कांग्रेस का कुछ भी प्रयत्न हो जाता, मगर बायकाट का सिद्धांत पास हो जाने के कारण हम लोग उस ओर इशारा भी कैसे कर सकते थे? फिर भी उसके खड़े रहने मात्र से ही महाराजा पूरे अपमानित एवं परेशान हुए।
मैं उस काम में पड़ा तो दिलोजान से। दिन-रात कोई दूसरा काम न था। देहातों में घूम कर कांग्रेस का संदेश सुनाता और बताता कि उसके अनुसार कोई भी न तो वोट दे और न खड़ा हो और अगर महाराजा नहीं मानते तो उन्हें एक भी वोट नहीं मिलना चाहिए। पर दिक्कत यह थी कि इतने लंबे इलाके में न तो ज्यादा घूमनेवाले थे और न पैसा या सवारी आदि का प्रबंध ही था। नागपुर से लौटते ही तो यह काम पड़ा और अभी लोगों में वह गर्मी आई न थी। वह भी तो कुछ दिन बाद आई। समय भी कम था। फलत: मुझे ही सब जगह और खास कर भभुआ के इलाके के रामगढ़ थाने में तथा दूसरी जगहों में जाना था बक्सर का काम पूरा कर के। लेकिन समयाभाव से कहाँ-कहाँ जाता?
आखिर चुनाव के ठीक पहले दिन मैं खीरी और वहाँ से मानिकपुर गया। फिर शाम को बैलगाड़ी पर बैठ रातों-रात रामगढ़ जाने की बात तय कर पाई। बैलगाड़ी भी वहाँ तक जा न सकती थी। सिर्फ दुमदुमा तक जा सकी। उसे वहीं छोड़ा पैदल दो-एक आदमियों के साथ चले और सुबह 8 बजे के करीब रामगढ़ पहुँचे। स्कूल में ठहर के कुछ खाया-पिया। फिर गाँव में गए। समय तो था नहीं। शायद 10 ही बजे से वोट होने को था। गाँववालों से मीटिंग करने को कहा। मगर मीटिंग होती कैसे? आखिरकार एक उपाय सूझा। एक ने कहा कि बीच गाँव में सभा स्थान पर एक धौंसा (नगाड़ा) रखा हैं और कायदा यह है कि उसे जोर से बजाने पर जो सुनेगा वही दौड़ कर पहुँचेगा। वह धौंसा खतरे की घंटी (Alarm) का काम देता था। वही किया गया। बस, बात की बात में लोग आ धमके हमने अपना मतलब उन्हें समझाया। फिर तो बिजली सी दौड़ गई। लोग वोट पड़ने की जगह थाने के चारों ओर कुछ दूर सभी रास्तों पर खड़े हो गए कि वोटरों को रोका जाए। मैं भी जा डँटा।
पुलिस तो निश्चिंत थी और समझती थी कि यहाँ तो कुछ होगा नहीं, सब ठीक है। जब उसने एकाएक यह रंग देखा तो घबराई। सब-इंस्पेक्टर ने चौकीदार या कान्स्टेबुल से कहलाया कि स्वामी जी यहाँ से चले जाए। परंतु मैं कब जानेवाला था? तब दारोगा स्वयं आए और चले जाने को कहा। धमकाया भी। मैंने कहा कि लिख कर आज्ञा दीजिए तभी सोचूँगा कि क्या करना चाहिएव। फिर तो वे सहमे और अपना सा मुँह लेकर चलते बनेव। मैं सदल-बल डँटा रहाव। जो भी वोटर या दर्शक आते, पहले मेरे ही पास कौतूहलवश आते जब मैं समझा देता तो सभी लौट जाते। मुझे ख्याल नहीं कि महाराजा को दो-चार भी वोट मिले या नहीं। हालाँकि मैंने उस समय भी देखा कि देहात के कुछ चलते-पुर्जे टुकड़खोर इसके लिए आकाश-पाताल एक कर रहे थे। यह ठीक है कि धोबी हार गया और महाराजा चुने गए। कहीं से कुछ-न-कुछ वोट तो मिल ही गए।
वहाँ से लौट कर मैं बक्सर आ गया। वहीं पर मास्टर साहब कहे जानेवाले श्री जयप्रकाश लाल जी के साथ ठहरा। अब मैं चाहता था कि खगड़िया चला जाऊँ। लेकिन कुछ विशेष परिचय हो जाने से, और कांग्रेस प्रोग्राम के अनुसार एक करोड़ कांग्रेस के मेंबर, एक करोड़ रुपए तिलक स्वराज्य कोष में और एक लाख चरखे, ये तीनों चीजें मुल्क में जुलाई मास बीतते-न-बीतते पूरी हो जाए यह प्रश्न आ जाने से कुछ ऐसा हो गया कि उसी में फँस कर जाना असंभव हो गया। मैं चरखे के काम में लग गया। सिमरी (डुमराँव) थाने से सस्ते-से-सस्ते चरखे बनवा कर बक्सर लाया और प्रचार जारी किया। इस समय बक्सर के कई बनिए उस काम में पड़ गए। उनने काफी सहायता दी। लेकिन बाबू भगवान दास में कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ कि वह मुझे अब तक भूला नहीं। वे बड़े ही शौकीन थे। कई बक्सों में उनने तरह-तरह के कीमती विलायती कपड़े भर रखे थे जिन्हें समय-समय पर अपने काम में लाते थे। लेकिन सब छोड़ कर खद्दर का व्रत कर लिया। उनने उन सब कपड़ों की होली जला दी।
उस समय तो गाँधी जी इस होली के बड़े ही हामी थे। उन्हें या उनके अनुयायियों को ऐसी बातों में हिंसा की गंध बिलकुल ही नहीं मालूम पड़ती थी। मगर आज तो जमाने ने ऐसा पलटा खाया है कि साम्राज्यवाद के नाश, पूँजीवाद के नाश तथा जमींदारी प्रथा के नाश में और इनके पुतले जलाने में भी उन लोगों को हिंसा की बू आने लगी है। मालूम होता है आजकल उन लोगों की नासिका बहुत ही तेज हो गई है! पहले ऐसी न थी! संसार परिवर्तनशील है!
यहाँ पर यह कह देना अनुचित न होगा कि मैं कट्टर गाँधीवादी के रूप में ही कांग्रेस में और राजनीति में शामिल हुआ। अत: गाँधी जी के हर एक आदेशों का पालन अक्षरश: करता करवाता था ─ कम-से-कम करवाने की कोशिश भरपूर करता था। इसलिए स्वयं चरखा भी चलाना फौरन सीख कर कातना शुरू कर दिया। पीछे तो तकली शुरू कर दी। इस प्रकार चरखा चलाने की जो प्रतिदिन की पाबंदी अपने ऊपर रखी थी वह इससे अच्छी तरह पूरी होने लगी। मैं यह आशा करता था कि जो पढ़े-लिखे और समझदार लोग कांग्रेस में शामिल होंगे वह तो गाँधी जी के आदेशों और उनके बताए नियमों की पाबंदी अवश्य ही करेंगे। लेकिन पीछे जब जेल में गया तब तो भयं कर निराशा हुई थी। पर उसके पहले भी तिलक स्वराज्य कोष का धन एकत्र होते-न-होते असलियत का पता मुझे लगने लगा और मेरी आँखें खुलने लगीं।
काम की हालत यह थी कि जाड़ा, गर्मी और बरसात की परवाह कतई न कर दिन-रात गाँव-गाँव घूमता रहा। आज भी उन गर्मियों की जलती लू की घटनाएँ याद हैं। पाँव की हालत यह हो गई कि जूते मैंने छोड़ दिए। असल में चमड़े के जूते तो पहले से ही छूटे थे। रह गए थे रोपसोलवाले वह भी छूट गए। वह अच्छे मिलते भी न थे। जो मिलते भी थे वह इस घुड़दौड़ में टिकते कहाँ? दस ही दिन में खत्म हो जाते और इस प्रकार पानी की तरह जूते में रुपए कौन बहाए? जनता का पैसा इस प्रकार क्यों खर्च किया जाए? आखिर गाँधी जी का रास्ता तो तप का रास्ता ठहरा। तो फिर स्वयं कष्ट क्यों न भोगा जाए? बस, इन्हीं ख्यालों ने जूतों से भी असहयोग कराया। परिणाम यह हुआ कि गर्मियों के दिनों में भी पाँवों में लंबी दरार जैसी बिवाई फटी और चलना असंभव हो गया। कभी-कभी उसमें मोम डाल कर आग से सेंकता। इससे जरा दर्द कम होने से आराम मिलता। तब घूम-फिर सकता था। यह प्रक्रिया न जाने कितने महीने जारी रही। बेशक, सभी बातों में सिमरी के पं. रामदर्श पांडेय, पं. रामसुभग पांडेय आदि जवानों ने इस समय मेरा पूरा साथ दिया।
लेकिन हमने अनुभव किया इस असहयोग की पवित्र धारा में स्नान करने के लिए न जाने कितने पुराने पापी घुस आए। वह ऐसे बगुला भगत और महात्मा बन गए कि लोगों को आश्चर्य भी हुआ और भक्ति भी हुई। बहुतों ने समझा कि गाँधी जी के जादू ने काम किया जिससे इन भलेमानुसों के दिल भी पलट गए। ये लोग इतने अनशन और व्रत भी करने लगे कि ताज्जुब होता था। कितनों ने तो गैरिक वस्त्र धारण कर लिया! ठीक ही है। सामूहिक आंदोलन में सभी प्रकार के लोग आ ही जाते हैं। उन्हें रोक कौन सकता है? बहती गंगा में नहाना कौन नहीं पसंद करता? परिस्थिति का कुछ ऐसा प्रभाव भी हो जाता है कि पापियों की हिम्मत नहीं होती कि अपना पापाचार जारी रखें। वायुमंडल की यही तो खूबी है। लेकिन यह बात-यह जादू-यह असर ज्यादा दिन टिकता नहीं। आखिर श्मशान में मुर्दा जलाने के समय वैराग्य तो होता ही है। मगर वह स्थाई तो होता नहीं। ठीक यही बात वायुमंडल के वशीभूत हो कर काम करनेवालों की है। वह भी पीछे कुछ ही समय गुजरने पर दूसरा मार्ग-वही पुराना चिर-परिचित मार्ग-अपनाने लगते हैं। इसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती।
थोड़े की दिनों के बाद मैंने देखा कि इस प्रकार के लोग अपनी करवटें बदलने लगे। अपने विकराल रूप की सूचना देना उनने शुरू कर दिया। लेकिन मेरा काम चलता रहा और सबों का सम्मिलित प्रयत्न नहीं रुका। आखिर में जून आते-न-आते तिलक स्वराज्य कोष की पूर्ति में सभी पिल पड़े। बक्सर ही तो मेरा कार्य क्षेत्र रहा। शहर छोटा है। वहाँ कोई व्यापार भी नहीं चमकता था। साधारण व्यापारी थे। फिर भी आरा शहर के सामने उसने बाजी मार ली। मुझे याद है कि आखिरी तारीख 31 जुलाई को श्री राजेंद्र बाबू का दौरा आरा और बक्सर में इसीलिए हुआ। अगर मैं भूल नहीं करता तो उन्हें आरे से प्राय: तीन सौ और बक्सर से आठ सौ या एक हजार रुपए मिले थे! ये रुपए तो उनके साथ ही चले गए।
मगर बीच-बीच में जो रुपए वसूल होते थे वह कुछ प्रांतीय ऑफिस में जाते और कुछ जिले, सबडिवीजन या थाने में ही रह जाते। मैंने देखा कि इन्हीं रुपयों को ले कर गड़बड़ी शुरू हुई। कुछ भलेमानसों ने ईधर-उधर उड़ाना शुरू कर दिया। यह बात मुझे बर्दाश्त न थी। मैं तो सार्वजनिक पैसे को सबसे अधिक पवित्र चीज मानता हूँ। लेकिन पैसे आते ही लोगों ने अपना रूप पलटा। फलत: मुझसे और वहाँ के अनेक कार्य कर्ताओं से तनातनी शुरू हो गई। उसका अंत तब हुआ जब मैंने ऊब कर नवंबर के अंत में बक्सर छोड़ ही दिया। मैं गाजीपुर चला गया। वहाँवाले बहुत ही पीछे पड़े थे। मैंने भी सोचा कि यहाँ रह के खटपट करते रहना और काम में बाधा देखना ठीक नहीं। वहीं चलो।
सन 1921 ई. के गर्मियों में मौलाना मुहम्मद अली के साथ-साथ गाँधी जी का दौरा युक्त प्रांत में हो रहा था। वह बिहार भी आने को थे। हमने बहुत आग्रह और तैयारी के साथ उन्हें बक्सर बुलाया। प्रांतीय नेता इस शर्त पर तैयार हुए कि मोटर से ही उन्हें आरा पहुँचाया जाए। कम-से-कम दो अच्छी मोटरें चाहिए थीं। बक्सरवालों ने बात-की-बात में कई सौ रुपए इसके लिए एकत्र कर लिए। दो मोटरें किराए की ठीक हो गई। कोशिश की गई कि स्टेशन पर वह कब उतरेंगे यह सूचना किसी को न दी जाए। बात भी ऐसी हुई। मगर अंदाज से ही लोग रात के 3 बजे ही स्टेशन पर आ डँटे। अपार भीड़ हो गई। वे लोग सभी ठहराए गए श्री चुन्नी राम जी के कोठे पर। सभा का प्रबंध शहर से हट के पूर्व बाग के उत्तर मैदान में था। अंदाज था कि सवेरे ही 8 बजे तक सभा कर के वहाँ से चले जाएगे। फलत: लोग आधी रात से ही सभास्थान में एकत्र होने लगे। सुबह तक भारी भीड़ हो गई। बिना पाखाना, पेशाब किए ही लोग प्रतीक्षा में थे कि जल्द खत्म होने पर लौटेंगे।
मगर गाँधी जी ने एकाएक वज्रपात सा कर दिया। उनने ठीक सुबह कह दिया है कि आज गुरुवार होने से चार घंटे तक 'नवजीवन और यंग इंडिया' के लिए लेख लिखेंगे। अत: सभा दोपहर के पूर्व न हो सकेगी। मेरे सिर पर आफत थी। लोग गर्मियों के कारण प्यास और भूख से तड़प रहे थे। तिस पर तुर्रा यह कि कितनों को नहाने-धोने या पाखाने तक का मौका न मिला था। स्थान से हटना असंभव था अगर हटते तो पीछे दूर खड़े होने के कारण दर्शन ठीक-ठीक कर न सकते। फलत: सबने मुझे ही कोसना शुरू किया कि आपने ही धोखा दिया कि सुबह सभा होगी। मेरी दलील तो कोई सुनने को रवादार न था। मैं भी कभी यहाँ कभी वहाँ दौड़ता था। धूप के मारे लोग जल रहे थे। मैं भी विवश तलमल कर रहा था। पर करता क्या?
इतने में बलियावालों ने एक अलग तूफान बरपा किया।गाँधी जी का प्रोग्राम तो वहाँ के लिए था नहीं। पर, वे लोग खामख्वाह उन्हें ले जाने पर तुले थे। जब कुछ उपाय न देखा तो गाँधी जी के डेरे के सामनेवाली सड़क के दोनों छोरों पर सड़क घेर कर सैकड़ों आदमी लोट गए और कहा कि जब तक गाँधी जी चलने को वचन न देंगे हम न हटेंगे, उनकी मोटर जाने न देंगे।गाँधी जी माननेवाले थे नहीं। वे लोग भी सुननेवाले न थे। इससे सभा में और भी देर होने लगी। मेरे सिर और भी आफत थी। आखिर गाँधी जी ने जब यह वचन दिया कि बलिया जरूर चलेंगे, मगर पीछे, अभी नहीं, तब कहीं वे लोग हटे और वे सभा में जा सके। मगर दोपहर से ज्यादा हो रहा था और लोग ऊब चुके थे। फलत: गाँधी जी के सभास्थान में पहुँचते ही हो-हल्ला मचा। इससे किसी का भी भाषण न हो सका।
ठीक 17 नवंबर की बात है। बादशाहजादा साहब बंबई में जहाज से उतरनेवाले थे। उन्हें यहाँ उस नवीन विधान को लागू करना था जिसका बायकाट कांग्रेस ने किया था। इसलिए सर्वत्र हड़ताल की बात थी। बलिया (ददरी) के मेले में हम लोग थे। समस्या पेचीदा थी। मेले में हड़ताल हो तो हमारी सफलता समझी जाए। लेकिन मेला तो बहुत बड़ा होता है। फिर भी इतना प्रचार किया गया कि उस दिन एक दूकान भी न खुली! एक डिप्टी साहब सदल-बल घूम रहे थे यही देखने के लिए कि हड़ताल कैसी है। एक पानवाले से पान लेना चाहा तो उसने साफ इन्कार कर दिया। फिर चूड़ीवाली एक बुढ़िया के पास जा कर कपड़े के नीचे ढँकी चूड़ियों पर (क्योंकि हड़ताल के करते उसने उन्हें ढँक दिया था) उनने अपनी छड़ी से धीरे से ठोंका और कहा कि इन्हें बेचती क्यों नहीं? ढँक के क्यों रखे हैं? बुढ़िया ने इस प्रकार झल्ला कर जवाब दिया कि उन्हें काट खाएगी। फिर तो डिप्टी साहब भक्कू बन गए। हमने अपनी पूरी सफलता मानी। आखिर में तीसरे पहर के बाद मुनादी करवा दी गई कि अब दूकानें खुल सकती है और लोग खाने-पीने की चीजें खरीद-बेच सकते हैं। तब कहीं जा कर दूकानें खुलीं।