असाधारण / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मुझे जोधपुर जाना था। बस आने में देरी थी। अतः बस-स्टॉप पर बस के इंतज़ार में बैठा था। वहाँ बहुत से यात्रियों का जमघट लगा हुआ था। सभी बातों में मशगूल थे, अतः अच्छा-खासा शोर हो रहा था।
अचानक एक आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। एक दस वर्षीय लड़का फटा-सा बैग
लटकाये निवेदन कर रहा था-"बाबूजी, पॉलिश करा लो।"
मेरे मना करने पर उसने विनीत मुद्रा में कहा-"बाबूजी, करा लो। जूते चमका दूँगा। अभी तक मेरी बोहनी नहीं हुई है।"
मैं घर से जूते पॉलिश करके आया था, अतः मैंने उसे स्पष्ट मना कर दिया।
वह दूसरे यात्री के पास जाकर विनय करने लगा। मैं उसी ओर देखने लगा। वह रह रहकर यात्रियों से अनुनय विनय कर रहा था-"बाबूजी, पॉलिश करा लो। जूते चमका दूँगा। अभी तक मेरी बोहनी नहीं हुई है।"
मेरे पास ही एक सज्जन बैठे थे। वे भी उस लड़के को बड़े गौर से देख रहे थे। शायद उन्हें उस पर दया आयी। उन्होंने उसे पुकारा तो वह प्रसन्न होकर उनके पास आया और वहीं बैठ गया-
"बाबूजी, उतारो जूते।"
उन्होंने कहा-"भाई, पॉलिश नहीं करानी है। ले, यह पांच रुपये रख ले।"
"क्यों बाबूजी?" उसने बड़े भोलेपन से कहा।
वे सज्जन बड़े प्यार से बोले-"रख ले। तेरी बोहनी नहीं हुई है, इसलिए."
लड़का झटके से खड़ा हुआ-"बाबूजी, भिखारी नहीं हूँ। मेहनत करके खाना चाहता हूँ। बिना पॉलिश किये रुपये क्यों लूँ?" यह कहते हुए वह आगे बढ़ गया।
पॉलिश करने वाले लड़के के चेहरे पर स्वाभिमान का असाधारण तेज देखकर लोग दंग रह गये।