अस्थिर स्वभाव थे डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल / रूपसिंह चंदेल
मार्च 1979 के दूसरे शनिवार ( 9.03.1979 ) का खुशनुमा दिन. मुरादनगर की ‘विविधा’ संस्था के सदस्यों को संस्था के वरिष्ठ सदस्य स्व. प्रेमचन्द गर्ग के सरकारी मकान में अपरान्ह चार बजे काव्य गोष्ठी के लिए एकत्रित होना था. सुभाष नीरव को छोड़ हम सभी वहां पहुंचे. नीरव सुबह दिल्ली गए थे और गर्ग जी को कह गए थे कि गोष्ठी प्रारंभ होने तक वह लौट आएगें.
आध घण्टा बीत जाने के बाद भी जब नीरव नहीं लौटे, गोष्ठी प्रारंभ कर दी गई. संतराज सिंह उसकी अध्यक्षता कर रहे थे. गर्ग जी बहुत विनम्र और मृदुल स्वभाव व्यक्ति थे. संतराज सिंह संस्था के संस्थापक सदस्यों में से थे और हमारी हर गोष्ठी में होते थे. गर्ग जी उनका विशेष खयाल रखते थे...उनके लिए वह कवि कम अफसर अधिक होते थे. उनका खयाल रखते हुए ही साढ़े चार बजे काव्य पाठ प्रारंभ कर दिया गया था. सुधीर अज्ञात के कविता पाठ पर चर्चा शुरू ही हुई थी कि एक बड़ा-सा थैला कंधे से लटकाए हांफते हुए सुभाष नीरव पहली मंजिल के उस मकान में पहुंचे. चेहरे पर थकान स्पष्ट थी. प्रस्थान के लिए उद्यत मार्च की उस ठंड की ठुनक के बावजूद बस और रिक्शा की लटक-पटक और धूल-धक्कड़ उनकी बरौनियों पर चस्पां थी.
कुछ देर के लिए कार्यक्रम स्थगित हुआ. सभी की नजरें नीरव के बैग पर टिकी हुई थीं. उस बैग में क्या था केवल मैं ही जानता था.
पानी पीकर नीरव ने बैग खोला और उसमें से ‘यत्किंचित’ की कुछ प्रतियां निकालीं. सबकी नजरें अब उस अड़तालीस पृष्ठों के कविता संग्रह पर टिक गयी थीं. मैं उसे हाथ में लेने के लिए विकल था. संतराज सिंह विचलित थे. उनका विचलन उनके चेहरे पर लटक आया था.
‘‘अरे वाह.....आप और चन्देल जी....आप दोनों को बधाई.’’ भारी बैठे हुए गले से गर्ग जी ने हमें बधाई दी. उनकी आवाज ऐसी ही थी.
नीरव ने एक-एक कर प्रतियां मित्रों की ओर बढ़ाईं- ‘‘यह मेरा और चन्देल का संयुक्त कविता संग्रह है.’’
प्रति हाथ में पकड़ उसे खोले बिना ही संजराज सिंह उद्वेलित स्वर में बोले, ‘‘यह क्या ढंग है पुस्तक भेंट करने का. हस्ताक्षर तक नहीं....’’ कुछ देर तक वह उलट-पलटकर उसकी साज-सज्जा देखते रहे फिर बोले, ‘‘ आप लोगों ने गुपचुप संग्रह छपवा लिया.....यह ठीक नहीं.....’’
हम दोनों हत्प्रभ संतराज सिंह के चेहरे की ओर देखते रहे थे.
‘‘संस्था में और भी लोग हैं ....आप लोगों ने जिक्र तक करना उचित नहीं समझा....’’ संतराज ने और भी बहुत कुछ कहा, जो आज याद नहीं. वह तेजी से उठे और किसी को कुछ कहने का अवसर दिए बिना ही सीढ़ियां उतरने लगे. गर्ग जी की परेशानी का अनुमान लगाया जा सकता है, जो उनके पीछे लपकते हुए सीढ़ियां उतर रहे थे. संतराज सिंह फैक्ट्री में गर्ग जी के अफसर थे.
कुछ देर बाद गर्ग जी मायूस-से लौटे और मुंह के दोनों कोनों में झांक आए झाग में बुदबुदाते हुए बोले - ‘‘यह उचित नहीं हुआ.’’
स्थिति अप्रिय हो चुकी थी. गोष्ठी समाप्त कर दी गयी और वह विविधा की अंतिम गोष्ठी सिद्ध हुई थी. बाद में नीरव और मैंने इसका विश्लेषण किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उस क्षण संतराज सिंह का कुंठित कवि बोल रहा था....
‘यत्किंचित्’ हम दोनों की पहली पुस्तक थी जिसे हमने अपने पैसों से छपवाया था. हम दोनों उससे बहुत उत्साहित थे. मैं अपने को बड़े कवियों की पंक्ति में आरूढ़ अनुभव करने लगा था,लेकिन डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने मुझे वास्तविकता से परिचित करवाते हुए दो टूक शब्दों में लि -- ‘‘तुममें काव्य प्रतिभा नहीं है. तुम कुछ और भले ही क्यों न बनो लेकिन कवि नहीं बन सकते.’’
बच्चन जी का वह पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित है. लेकिन इस पत्र के मिलने से पूर्व हम दोनों कुंलाचें भरते हुए लोगों को पुस्तक की प्रतियां बांटते रहे थे. एक दिन मैंने नीरव से डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल के यहां जाने का प्रस्ताव किया. उन्हीं दिनों सारिका में उनका आत्मकथ्य प्रकाशित हुआ था, जिसमें उनके जीवन संघर्ष को पढ़कर मै उससे प्रभावित हुआ था. उनसे मिलने के लिए लखनऊ के मेरे एक परिचित ने 1978 में मुझे प्रेरित किया था. डॉ. लाल उनके बचपन के मित्र थे.
उसके बाद ही मैंने डॉ. लाल का साहित्य खोजकर पढ़ना प्रारंभ कर दिया था. हिन्दी कहानी पर उनका शोधग्रंथ चर्चित था. उन दिनों वह पत्र-पत्रिकाओं में धुंआधार लिख रहे थे....सारिका, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, दैनिक हिन्दुस्तान..... लेकिन चाहकर भी मैं उनसे मिलने नहीं जा सका अब ‘यत्किंचित्’ के रूप में उनसे मिलने जाने का हमारे पास एक आधार था.
एक दिन हम दोनों ईस्ट पटेलनगर उनके घर जा पहुंचे. जिस व्यक्ति ने हमारा स्वागत किया उनका कद लगभग छः फुट लंबा, शरीर हृष्ट-पुष्ट, बंट्टे जैसी बड़ी आकर्षक आंखे , चैड़ा गोल चेहरा और चेहरे पर पसरी मुस्कान.....वही डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल थे.
मिलने पर नहीं लगा कि डॉ. लाल हमें पहचानते नहीं थे. संग्रह देख बधाई दी, प्रशंसा की और नीरव से उनकी दो-तीन कविताएं सुनीं. सारिका के उनके आत्मकथ्य की चर्चा चलने पर विस्तार से अपने जीवन संघर्षों की उन्होंने चर्चा की. यह पूछने पर कि उन्होंने खालसा कॉलेज के प्राध्यापक पद से त्याग-पत्र क्यों दिया था, विस्तार से उन्होंने प्रमोशन में हुई धांधली और अपने साथ हुए अन्याय के विषय में बताया. उन्हें सुपरसीड कर उनसे जूनियर प्राध्यापक को रीडर बना दिए जाने पर उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया था. उसके बाद नेशनल बुक ट्रस्ट में सम्पादक से लेकर घनश्यामदास बिरला की जीवनी लिखने तक की यात्रा...कई चाहे-अनचाहे समझौते...आपात्काल के तुरंत बाद जयप्रकाश नारायण पर लिखी उनकी बहुचर्चित पुस्तक - ‘एक प्रकाश: जयप्रकाश’ आदि पर लगभग डेढ़ घण्टे तक हम चर्चा करते रहे थे. उस मुलाकात के दौरान जो स्मरणीय बात उन्होंने कही वह यह कि किसी भी साहित्यकार को स्वयं को पहचानना चाहिए कि वह वास्तव में क्या कर सकता है. उसे उसी दिशा में सक्रिय होना चाहिए. ‘‘क्या कर सकने से उनका आभिप्राय था कि वह किस विधा विशेष में अपनी लेखनी को सार्थकता प्रदान कर सकता है. उसे उसी में कार्य करना चाहिए. एक बात उन्होंने और कही थी, ‘‘हर साहित्यकार के अंदर एक सम्पादक होता है. उसे निर्ममतापूर्वक अपनी रचनाओं का सम्पादन करना चाहिए.’’
उनकी ये दोनों बातें हम आज तक नहीं भूले. डॉ. बच्चन और डॉ. लाल ने मुझे अंतर्मथन के लिए विवश किया और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मैं कवि नहीं कथाकार ही बन सकता हूं. लेकिन इन दोनों ने ही नीरव की पीठ ठोकी थी. खासकर बच्चन जी ने उनकी कविताओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें अपना आशीर्वाद दिया था.
डॉ. लाल के साथ नीरव की वह प्रथम और अंतिम मुलाकात थी, लेकन मैं गाहे-बगाहे उनके यहां जाता रहा. हर बार उनके नए स्वरूप के दर्शन होते मुझे. कभी वह बहुत प्रसन्न दिखते तो कभी उखड़े हुए. एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि वह नियम से लेखन करते हैं.....सुबह नौ बजे से दोपहर एक बजे तक ....फिर लंच के बाद कुछ विश्राम और चार बजे के बाद पुनः साहित्य....
उन दिनों कन्हैयालाल नंदन सारिका के सम्पादक थे. एक दिन उनकी चर्चा चलने पर मैंने कहा, ‘‘ नंदन जी ने उसी इंटर कॉलेज से हाई स्कूल किया था, जिससे मैंने और उनका गांव मेरे गांव से तीन मील के फासले पर है.’’
यह बात 1982 या 1983 की है.
‘‘फिर तुम्हारे उनसे अच्छे संबन्ध होगें.’’
‘‘नहीं. नंदन जी से मैं अब तक केवल दो बार मिला हूं. वे शायद ही मुझे पहचानते हों.’’
‘‘उनसे जब भी मिलना....गांव की चर्चा मत करना.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘गांव की चर्चा से वह बचते हैं.’’ डॉ. लाल देर तक चुप रहे, फिर बोले, ‘‘कल नंदन जी सपत्नीक मेरे यहां आए थे....लंच पर.’’ वह फिर कुछ देर चुप रहकर बोले, ‘‘मैं प्रायः एक बात सोचता हूं.’’ मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हिन्दी पत्रकारिता में तीन आश्चर्य हैं.’’ मुस्कान उनके चेहरे पर पूरी तरह फैल चुकी थी, ‘‘कन्हैयालाल नंदन, राजेन्द्र अवस्थी और जयप्रकाश भारती.’’
‘‘वह कैसे?’’
मेरे इस प्रश्न पर उन्होंने चुप्पी साध ली थी.
इन्हीं दिनों एक दिन दफ्तर में उनका फोन आया, ‘‘रविवार को क्या कर रहे हो?’’
‘‘आज्ञा दें डाक्टर साहब.’’
‘‘करोलबाग में पीतांबर पब्लिशिंग हाउस के यहां एक मीटिगं है.... तुम्हे आना है. ’’
मैं गया. वहां शीला झुनझुनवाला (उन दिनों वह साप्ताहिक हिन्दुस्तान की सम्पादक थीं ) के पति, जो कहीं इनकमटैक्स कमिनश्नर थे, सुरेन्द्र शर्मा के अतिरिक्त अन्य कई लोग उपस्थित थे. प्रकाशक की ओर से डॉ. लाल पर एक स्मारिका प्रकाशित की जानी थी और उनका अभिनन्दन होना था. स्मारिका के सम्पादन का कार्य मुझे सौंपा गया. अभिनंदन समारोह में मैं नहीं गया, लेकिन स्मारिका का संपादन करते हुए मुझे यह स्पष्ट हुआ कि साहित्यकार उनसे एक दूरी बनाकर रखना चाहते हैं. ये बातें बाद में समझ आयीं. उनके स्वभाव की अस्थिरता उसका सबसे बड़ा कारण था और दूसरा बड़ा कारण यह कि उनकी प्रसन्नता और नाराजगी अप्रत्याशित होते थे. स्वाभिमान अहंकार की सीमा चूमने लगता. श्रेष्ठता का भाव लोगों को उनसे दूर करता. संघर्ष के बाद उपलब्धियां प्राप्त करने वाले लोगों के साथ ऐसा ही होता है.
एक बार ग्वालियर में उनके नाटकों का मंचन था. लौटने पर मुलाकात हुई तो बोले, ‘‘रंग बरस रहा था ....रंग. लोगों की दृष्टि में मोहन राकेश बौने हो गए मेरे सामने. ’’
शायद राकेश का भी कोई नाटक वहां मंचित हुआ था.
उसके बाद अपनी व्यस्तताओं के कारण लगभग चार वर्षों तक मैं उनसे नहीं मिला. एक दिन एक पत्रिका में प्रकाशित उनके पते से ज्ञात हुआ कि वह ईस्ट पटेल नगर से पश्चिम विहार डी.डी.ए. फ्लैट में शिफ्ट हो गए थे. यह उनका अपना मकान था. 1988 में एक दिन मैं किसी कार्यवश पश्चिम विहार गया. लौटते समय उनके घर भी गया. चार वर्षों बाद मिलने की शिकायत....कहां रहे के उत्तर में कुछ मनगढंत कहानी....फिर लेखन आदि की चर्चा. बातचीत में उन्होंने पुनः अपनी वह सलाह दोहरायी जो उन्होंने 1983 के अंत में मुझे दी थी. उनकी वह सलाह भी मेरे लिए स्मरणीय रही. 1983 में मेरी पहली पुस्तक किताबघर से प्रकाशित हुई थी- ‘अपराध: समस्या और समाधान’. मैंने उन्हें पुस्तक दी थी . कुछ दिनों बाद मिलने पर उन्होंने कहा था, ‘‘विषय तो तुम्हारा नहीं है लेकिन तुमने परिश्रमपूर्वक शोधपूर्ण कार्य किया है. अपराध को अपने कथा साहित्य का विषय बनाओ. हिन्दी में ऐसे कथा-साहित्य का अभाव है.’’
संभव है उनकी यह सलाह अवचेतन में काम कर रही थी या वे पात्र ही इतनी प्रबलता से मुझे उद्वेलित करते रहे थे कि अनेक कहानियां और ‘पाथर टीला’, ‘नटसार’ और ‘शहर गवाह है’ उपन्यास अपराधी प्रवृत्ति के चरित्रों को केन्द्र में रखकर लिखे गए. ‘पाथर टीला’ और ‘नटसार’ पूर्णरूप से खलनायक प्रधान उपन्यास हैं. कई आलोचकों ने कहा कि अंग्रेजी में खलनायक प्रधान उपन्यास का प्रारंभ ‘गॉड फादर’ से माना जाता है जबकि हिन्दी में पहली बार ‘पाथर टीला’ में ऐसा प्रयोग किया गया है.
उन दिनों डॉ. लाल को एक हिन्दी टाइपिस्ट की आवश्यकता थी. मेरे कार्यालय में एक जैन साहब थे.... एल.डी.सी. उनसे चर्चा की. वह शनिवार-रविवार दस बजे से शाम पांच बजे तक उनके यहां काम करने के लिए तैयार थे. मैंने डॉ. लाल से बात की. उन्होंने जैन साहब को बुला लिया. महीने में आठ दिनों का भुगतान तय होने के बाद जैन ने विनम्रतापूर्वक उनसे किसी एक शनिवार को आधे दिन की मोहलत देने का अनुरोध किया जिससे वह गृहस्थी के लिए आवश्यक वस्तुएं खरीद सकें. यह सुनते ही डाक्टर लाल हत्थे से उखड़ गए. जैन को उन्होंने इतना डांटा कि वह बेचारे रुआंसे होकर उनके घर से निकले. अगले दिन मुझे बताया. मैं भी आहत हुआ. उनके घर कभी न जाने का निर्णय किया लेकिन दफ्तर में लगातार उनके फोन आने लगे. एक दिन जाना पड़ा.
डॉ. लाल ऐसे मिले जैसे कुछ हुआ ही न था. बिल्कुल प्रसन्न. उन दिनों वह 1857 पर अवध के किसी ताल्लुकेदार पर केन्द्रित उपन्यास की तैयारी कर रहे थे. देर तक उसकी चर्चा होती रही. मैंने उन्हें प्रतापनारायण श्रीवास्तव का बहुचर्चित उपन्यास ‘बेकसी का मज़ार’ पढ़ने की सलाह दी.
‘‘तुम्हारे पास है?’’
‘‘अपनी प्रति मैंने किताबघर के श्री सत्यव्रत शर्मा को दे दी थी उसके पुनर्मुद्रण के लिए. श्रीवास्तव जी की बेटी मेरे माध्यम से सत्यव्रत जी से मिल चुकी हैं. अनुबंध होते ही छप जाएगा.’’
‘‘मैं सत्यव्रत से ले लूंगा.’’
उन दिनों किताबघर से उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो रही थीं. उन्होंने शर्मा जी से वह उपन्यास ले लिया और मृत्युपर्यंत उसे वापस नहीं किया. वह उपन्यास पुनः मुद्रित नहीं हो सका.
उपन्यास पर चर्चा चल ही रही थी कि फोन की घण्टी बजी. डॉ. लाल लपककर दूसरे कमरे में गए. लौटे तब बहुत उत्तेजित थे.
‘‘तुम्हारी पीढ़ी के लेखकों को क्या हो गया है?’’
‘‘क्या बात हुई डाक्टर साहब!’’
‘‘शकरपुर से फोन था---साप्ताहिक अखबार से (उन्होंने लेखक का नाम बताया). मैं एक दस हजार रुपए के पुरस्कार का निर्णायक हूं---अकेला निर्णायक. इस युवा लेखक का आज यह चौथा फोन था---वह चाहता है कि पुरस्कार मैं उसे दूं .’’ वह कुछ देर चुप रहे, ‘‘मैंने उसे डांट दिया और दोबारा फोन न करने के लिए कह दिया.’’
और सच ही उस वर्ष उस लेखक को वह पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन उसके अगले वर्ष वह लेखक उस पुरस्कार को हासिल करने में सफल रहा था. उसके कुछ वर्षों बाद जब उसे मुम्बई (तब तक वह एक अखबार से संबद्ध होकर मुम्बई पहुंच चुका था ) के एक लेखक द्वारा अपनी पत्नी के नाम पर दिए जाने वाला दस हजार रुपयों का स्मृति पुरस्कार उसे मिला तब किसी को कतई आश्चर्य नहीं हुआ. ( आज उस पुरस्कार के साथ अंतर्राष्ट्रीय शब्द जुड़ चुका है.) पुरस्कार हासिल करने में उस लेखक को महारत हासिल है. उस लेखक की एक और क्षुद्रता का उल्लेख आवश्यक प्रतीत हो रहा है. हाल में एक दिन रात बारह बजे मुम्बई से एक युवा कवि का फोन आया. उनका पहला फोन था और पहली ही बार उन्होंने मुझसे लगभग एक घण्टा बात की और अपनी तीन कविताएं सुनाई. बातचीत प्रारंभ करते समय उस लेखक के विषय में उस युवा कवि ने बताया कि एक दिन उन्होंने उस लेखक से मेरी चर्चा की तो उसने मोटी भर्रायी आवाज में कहा , ‘‘राजेन्द्र यादव की सीढ़ियों पर सुबह से शाम तक बैठे रहने वाले लेखक का नाम है रूपसिंह चन्देल.’’
उस युवा कवि से अपने बारे में उस लेखक के उद्गार सुनकर मैं बिल्कुल हत्प्रभ नहीं था. मैंने युवा कवि से कहा, ‘‘आपने उनसे गलत समय में मेरे बारे में पूछा होगा. निश्चित ही उस क्षण वह कई बोतल शराब के नशे में रहे होंगे.’’
युवा कवि ने हंसते हुए कहा, ‘‘शायद....शराब,चाटुकारिता और अवसरवादिता उनकी कमजोरी हैं.’’ क्षणिक चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, ‘‘और पीत पत्रकारिता भी....’’ क्षणभर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, “पिछले दिनों शराब के नशे में सड़क पर एक लड़की को छेड़ दिया और लोगों ने जमकर उनकी पिटाई कर दी.”
पिटाई की इस बात की तस्दीक बाद में मेरे पत्रकार मित्र आलोक श्रीवास्तव ने भी की. बहरहाल, उस लेखक और हमारी पीढ़ी पर देर तक बोलने के बाद डॉ. लाल जैन साहब के बारे में बोलने लगे थे. फिर लंबी चुप्पी....सन्नाटा....सन्नाटे को तोड़ता पंखे की हवा से फड़फड़ाता तिपाई पर रखा अखबार.... कुछ देर बाद उन्होंने पत्नी को आवाज दे चाय बनवाई और चाय पीते हुए वे बिल्कुल दूसरे ही डॉक्टर लक्ष्मीनारायण लाल हो गए थे. उन्होंने फिर अपने लिए फुल टाइम किसी टापपिस्ट की व्यवस्था कर देने के लिए कहा.
उन दिनों मैं शक्तिनगर में रहता था और आर.के.पुरम में नौकरी करता था. मेरे पड़ोस की एक महिला भी आर.के.पुरम में नौकरी करती थीं, और प्रायः शाम वह उसी बस में होतीं थीं जिसमें मैं होता. कई वर्षों तक संवादहीनता के बाद एक दिन उन्होंने वार्तालाप प्रारंभ की और उसके बाद सामने पड़ने पर हमारी ‘हलो’ ‘नमस्ते’ होने लगी थी. एक दिन उन्होंने मोहल्ले की एक लड़की का जिक्र करते हुए कहा कि उसके लिए किसी प्रकाशक के यहां टाइपिगं का काम दिलवाऊं. लड़की ने हिन्दी-अंग्रेजी स्टेनोग्राफी सीख रखी थी. मुझे डॉ. लाल की याद हो आयी. उनसे चर्चा की तो उसी शाम वह उस लड़की को मुझसे मिलवाने ले आयीं. मां और बड़ी बहन के साथ वह कुछ मकान छोड़कर किराए पर रहती थी. उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी. भाई नहीं था. वह डॉ. लाल के यहां जाने के लिए तैयार हो गयी.
आगामी रविवार को पड़ोस की वह महिला उस युवती को लेकर डॉ.लाल के घर गयीं. पगार, छुट्टी, समय ....काम... आदि तय हो गया और वह युवती दो बसें बदलकर उनके घर जाने लगी. एक महीना बीता. उसे पगार मिली और वह मेरे घर लड्डू देने आयी. दूसरा महीना बीता भी नहीं था कि पड़ोसी महिला ने बताया कि उस लड़की ने डॉ. लाल के यहां जाना छोड़ दिया था.
‘‘कहीं दूसरी जगह नौकरी मिल गयी?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘फिर?’’
कुछ देर वह चुप रहीं फिर बोलीं, ‘‘डाक्टर साहब उसे बहुत डांटते थे. टॉयलेट जाने तक के लिए टोकते थे....कामचोरी का आरोप लगाते थे.’’
मैं शर्मसार था. उस लड़की के दिए लड्डुओं की मिठास मुंह से मिटी भी नहीं थी और डॉ. लाल..... उन्होंने मेरे माध्यम से काम करने गए दूसरे व्यक्ति का अपमान किया था....और इस बार एक लड़की का . मुझे ऐसा लगा कि पड़ोसी महिला ने कुछ बातें छुपायी थीं. शायद इसलिए कि वह लड़की थी. मैं लंबे समय तक उनके सामने पड़ने से बचता रहा था. हालांकि वह सामान्य थीं. उसके बाद मैं डॉ. लाल के घर कभी नहीं गया और न ही मेरे पास उनका कभी फोन आया.