अस्वीकृति / गिरिराजशरण अग्रवाल
प्रिय मित्र, मेरा पत्र पाकर तुम्हें आश्चर्य तो होगा, कितु इसके माध्यम से कुछ ऐसी बातें बताना चाहता हूँ, जिन्हें किसी-न-किसी कारण से मैं अब तक छिपाए रहा। अब उन्हें छिपाए रखना न तो उचित होगा और न संभव ही। प्रायः मेरी स्थिति और मनःस्थिति से तुम सबसे ज़्यादा परिचित थे। पर, कभी-कभी लगता है कि परिचय का दायरा कितना ही विस्तृत क्याँ न हो, उसमें कहीं-न-कहीं अवरोध रह ही जाता है, ऐसा अवरोध, जिसे हम खोजने का प्रयत्न ही नहीं करते अथवा जो हमारी आँखों से सदैव ओझल बना रहता है।
हर आदमी के दो व्यक्तित्व होते हैं। एक जो सोचता है, आचरण की प्रेरणा देता है और दूसरा वह, जिसका मुखौटा चढ़ाकर व्यक्ति समाज में अपने को व्यक्त करता है, बड़े-बड़े भाषण देता है, स्वयं को जलसों व जुलूसों का बेताज बादशाह घोषित करता है। इस व्यक्तित्व की पूजा करने के लिए लोगों की बड़ी भीड़ अपना क़ी मती समय बर्बाद कर देती है। उसको देवदूत मानती है, अपना मसीहा स्वीकार करती है, जीवन की अपंगता का अपरिहार्य अंग मानती है और यह ऊपरी व्यक्तित्व सज-सँवरकर अपने सप़्ाफ़ेद और उजले कपड़ों के भीतर अपने अंदर के व्यक्तित्व को छिपाता रहता है। एक सीमा तक सफल हो जाता है। व्यक्तित्व का यह लवादा ही उसकी शान है। कितु आदमी कहीं-न-कहीं तो अपने को उघाड़ता है, अपने लवादे को उतारता है, अपनी वास्तविकता में झाँकने का प्रयास करता है। इन क्षणों में होनेवाले अनुभव से ही सही मानव की पहचान होती है।
जिन बातों को प्रकट में मैं तुम्हें नहीं बता पाया, जिन्हें बताने की हिम्मत भी अपने अंदर पैदा नहीं कर पाया, उन्हें पत्र में लिखते समय एक सिहरन तो ज़रूर हो रही है, कितु अब मैं सोचता हूँ कि इससे सरल और सुलभ माध्यम न मिल सकेगा। फिर जो बात मेरे अंदर घुमड़ रही है, वह अप्रकट ही रह जाएगी।
मुझे वे दिन अच्छी तरह से याद हैं, जब मैं जाति या वर्णभेद, संप्रदाय-भेद और वर्गभेद की काली और कलुषित दीवारों को खंडित करके उसके मलवे को धरातल में दबा देने के लंबे-चौड़े भाषण दिया करता था और अपनी धारा-प्रवाह वाणी से शब्दों के मजबूत जाल बिछाया करता था। मैं हमेशा कहा करता था कि अभेद, अद्वैत और विश्व-एकता की अद्वितीय भावना वाले देश में भेद-भावना का विष समाज पर गहरा प्रभाव डाले हुए है-लगता है, उसे गहरी नींद में सुला देना चाहता है, ताकि देश की पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस अभिशाप से ग्रस्त रहे।
मैं आज तक मानता हूँ कि जिस देश में जगद्गुरु शंकराचार्य ने चांडाल तक में उसी ब्रह्मतत्त्व के दर्शन किए, जो उनके अंदर था तो वह अस्पृश्य कैसे हो गया? क्या उसे अस्पृश्य मानकर हम स्वयं तो अस्पृश्य होने का दावा नहीं कर रहे हैं? वह हमको छू सकता है और हम हैं कि उससे दूर भागते हैं। तब अस्पृश्य तो हम हुए. जगद्गुरु ने भेदभाव मिटाने के लिए हमें अमर प्रकाश दिया और उनसे प्रकाश प्राप्त करने का दम भरने वाले हम अस्पृश्यता और भेदभाव को समाप्त करने में सोच-विचार का सहारा ले रहे हैं। सौ दौ सौ नहीं, करोड़ों की संख्या में। आख़िर क्याँ?
कितनी ही बार एकलव्य को ठुकराए जाने के लिए मैंने गुरु द्रोणाचार्य को भला-बुरा कहा था। रईसों और धनवानों के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें चित्रित किया था। कितना कुशल धनुर्धर केवल जाति और वर्ण के कारण अपमान का घूँट पीकर रह गया। उसने केवल इतना ही तो चाहा था कि गुरु द्रोणाचार्य उसे भी धनुष-विद्या सिखाएँ। ज्ञान किसी की बपौती नहीं होता, ज्ञान पर कोई बंधन नहीं लगाया जा सकता, बंधन लगाया भी नहीं जाना चाहिए. कितु गुरु ने राजकीय कारणों से अथवा साधनों के वशीभूत होकर राजपुत्रें को ही धनुष-विद्या सिखाने का बहाना लिया और उस भीलपुत्र को ठुकरा दिया।
उस भीलपुत्र ने हार न मानी। वह वास्तविक विद्या का अधिकारी था। एक दिन उसने गुरु तथा उनके राजसी शिष्यों को यह बता दिया कि वह किसी से कम नहीं है। हाँ, इसके पीछे उसकी संकल्प-शक्ति काम कर रही थी। विवेक ने उसका साथ दिया था, शील और गुणग्राहकता ने उसको अपनाया था। तभी तो गुरु के महान शिष्यों पर भौंकनेवाले एक कुत्ते का मुँह वह अपने बाणों से बंद कर सका। शिष्य ने फिर भी अपनी गुरुभक्ति और विनम्रता ही दिखाई. गुरु को आश्चर्य में डाल दिया उसने, परंतु गुरु ने उससे क्या माँगा? उसका सर्वस्व। वह तो सहारा माँगने आया था। सहारा देने के स्थान पर उसे ठुकराया गया, वह दास बना रहा तो उसकी याचना और विनम्रता को भुनाने में किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
अब मुझे लगता कि मैं आदर्शवाद के काग़जी सिद्धांतों की ओस चाटता रहा। मैं समझता था कि संसार को समानता, एकता और भाईचारे का सुकोमल संदेश देकर मैं अपने गांधीवादी चोले की सार्थकता सिद्ध कर सकूँगा_ कितु जब मेरी परीक्षा का क्षण आया तो मेरे सारे आदर्श और नारे, सिद्धांत और कर्म, विश्वास और धर्म, समानता और भाईचारे का दंभ, दलित और शोषित वर्ग के उत्थान में बहाए गए आँसू और लिखे गए लंबे लेख एक बार में ही काग़ज की नाव हो जाए.
तुम विक्रम के विषय में सब-कुछ जानते हो। दलित परिवार के उस बालक को विकास की सीढ़ियाँ चढ़ाने में मेरे योगदान के विषय में भी तुम बहुत कुछ जानते हो। तुम जानते हो कि मैंने उसे अपना पूरा प्यार दिया, अपने हर काम में उसे अपने साथ रखा, उसके कष्टों को अपना समझकर दुलराया, उसकी परेशानियों में उसे पूरी सांत्वना दी। मैं उसका अध्यापक था, संरक्षक भी था। उसके आँसुओं को मैंने अपनी धोती के छोर से पोंछा, उसके ताप में मुस्कान का चंदन लगाया, उसके शीत में गहरे विश्वास की ऊष्मा दी। अपने उस एकलव्य के लिए मैंने द्रोणाचार्य के धर्म का अनुसरण नहीं किया। फिर एक दिन हम कितने दूर हो गए, यह बताने के लिए ही मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ।
तुम्हें पता है कि मेरी दो पुत्रियों में एक विवाह के योग्य हो चुकी थी। अपने चारों ओर जुड़नेवाली भीड़ के कारण मैं अपने इस सामाजिक दायित्व के प्रति बेख़बर-सा हो गया था। नेहा की उम्र बढ़ती जाती थी, कितु मैं दुर्बोध सामाजिक दायरों में बँधता जाता था।
विक्रम की शिक्षा-दीक्षा और बुद्धि-विवेक ने उसे प्रगति की मंजिल की तरफ़ बढ़ाना आरंभ कर दिया था। उसने प्रथम श्रेणी में एम॰ए॰ किया। मेरी बेटी ने भी उसी के साथ विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। नेहा शोध करना चाहती थी और विक्रम किसी कंपटीशन में जाना चाहता था। दोनों अपनी-अपनी तैयारियों में लग गए. जब कभी मिलते, मैं उनकी प्रगति की चर्चा उनसे अवश्य करता। इस बीच मैं राजनीतिक उथल-पुथल में इतना व्यस्त हो गया कि विक्रम से उसी समय मिल पाया, जबकि उसने मुझे पकड़कर कहा-'सर, मैं आई॰ए॰एस॰ में सलैक्ट कर लिया गया हूँ। अब मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए.'
'मेरा आशीर्वाद! क्या कभी तुमने इसमें कमी पाई है!' मैंने उससे पूछा। 'क्या तुम्हें कभी लगा है कि मैंने तुम्हें पराया समझा हो। मेरा रोम-रोम तुम्हारी प्रगति को देखकर पुलकित है।'
मेरी बात सुनकर वह मेरे सामने सर झुकाए खड़ा रहा, जैसे वह कुछ और सुनना चाहता हो। मैंने मुस्कान-भरे कुछ वाक्य उसकी प्रशंसा में और दुहरा दिए. पर वह वैसे ही खड़ा रहा।
'क्या बात है विक्रम? क्या इस प्रगति से भी ख़ुश नहीं हो! चिता न करो, आगे भी उन्नति के बहुत चांस है। हम पूरी कोशिश करेंगे।'
'नहीं सर, वह तो सब आगे की बात है। मैं चाहता हूँ—।' वाक्य वह फिर भी पूरा नहीं कर सका और बीच में ही अटक गया। जैसे कुछ बात उसके मुँह तक आती थी और वह उसे कह नहीं पा रहा था। लगता था जैसे वह कोई असामान्य बात कहना चाहता हो। '
मैंने उसे धीरज-सा दिलाते हुए पूछा, 'हाँ, हाँ बताओ. क्या चाहते हो? तुम आज विचित्र-सा व्यवहार कर रहे हो?'
अचानक विक्रम का स्वर खुला, 'सर, कहना तो बहुत दिनों से चाहता था, कितु मन को तैयार करने और शक्ति को जुटाने में बहुत समय लगा। पहले तो सोचा, कहूँ या न कहँू? कहूँ तो कैसे कहूँ, बात को कहाँ से आरंभ करूँ? अब मैं विकास की उस सीमा-रेखा पर खड़ा हूँ, जहाँ पर मैं विराट् तो नहीं हो गया, कितु साहस का कोई अज्ञात पुंज मेरे शरीर में अवश्य प्रविष्ट हो गया है। सर, यदि आप मेरी सहायता करें तो नेहा के साथ—।'
मैं बीच में ही बोल पड़ा। नेहा का नाम आते ही मुझसे चुप न रहा गया। मैंने उससे पूछा-'हाँ, नेहा के साथ क्या प्रोग्राम है?'
'मैं नेहा के साथ विवाह करना चाहता हूँ।' वह इस बार एक ही साँस में अपने दिल की बात कह गया और मुझे अजीब से उद्वेलन में डालकर बैठक से बाहर चला गया।
क्या कहा विक्रम ने? क्यों कहा विक्रम ने? ऐसा क्यों सोचा विक्रम ने? नेहा के लिए मैंने तो कुछ भी नहीं सोचा। क्या दोनों इतना आगे बढ़ चुके हैं या यह केवल विक्रम के मन की मूर्खता है? मैंने विक्रम को सहारा दिया, मैंने कूड़े के ढेर से उठाकर उसे सही जगह पर बैठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, कितु उसने मेरे घर की दीवार में ही छेद कर दिया। यह क्या किया विक्रम ने? मैं कैसे स्वीकार कर सकता हूँ, इस सम्बंध को। आख़िर!
मैं जोर से चीख़ा, 'यह क्या बदतमीजी है?' मेरी आवाज घर के कोने-कोने को भेदकर मानो सड़क तक पहुँच गई. मुझे लगा कि उस निर्वस्त्र सड़क ने मुझे भी नंगा कर दिया।