अस्सी की एक शाम / देवेंद्र

Gadya Kosh से
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“चाक डोले, चकबन्ना डोले,

खैरा पीपल कबहीं न डोले।”

हमारे गांव के बाहर जो वाम्हनपार का सिवान है, वहीं एक दुबला-पतला पुराना पीपल हुआ करता था। पता नहीं अब वह पेड़ है या नहीं। बचपन में जब हम गाय-भैंसें चराने सिवान की ओर जाते थे तब उसी पेड़ के नीचे चिकई, कबड्डी या कभी-कभार ओल्हापाती खेला करते थे।

गांव में लोग ऐसा मानते थे कि हमारे सिवान का यह पीपल ही खैरा पीपल है। मां ने ही शायद कभी बताया था कि प्रलय के दिनों में जब सारी धरती डूब गयी थी, तब डरे हुए देवताओं और सप्तर्षिगण ने इसी पीपल पर शरण ली थी। हमारे गांव को तीन ओर से घेरने वाला गोधनी नाला उसकी जड़ों को छूकर ही आगे बहता था। हमें विश्वास था कि पूरे दुनिया के लोग इस पीपल को आदर और श्रद्धा के साथ, इसकी अनन्त अखंडता, इसकी पवित्र पुरातनता को प्रणाम करते हैं। कुछ अलौकिक किस्म के कौतूहल और रहस्य के रोमांच से अभिभूत हम उस खैरा पीपल को निहारा करते थे।

बाद में, मिडिल की पढ़ाई के लिए मैंने कस्बे के स्कूल में दाखिला लिया। सातवीं में हमारे साथ पढ़ने वाला मनोहर, जो किसी दूसरे गांव का था, उसने अपने गांव के पोखर के बारे में बताया कि श्रवण कुमार अपने अन्धे मां-बाप को पीने के लिए उसी पोखर से पानी ले रहे थे, तथा दशरथ ने उन्हें शब्दवेधी वाण से मार डाला था। जब मैंने अपने गांव का महत्व बताने के लिए उसे खैरा पीपल और प्रलय की बात बतायी तो, मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि वह खैरा पीपल के बारे में कुछ नहीं जानता। जबकि मां ने बताया था कि सारी दुनिया के लोग खैरा पीपल को जानते हैं।

‘काशी का अस्सी’ और अस्सी चौराहे के बगल में पप्पू की चाय की दुकान काशीनाथ सिंह का खैरा पीपल है। और काशीनाथ सिंह ही क्यों रामजी राय, तन्नी गुरू, सरोज यादव और डॉ. गया सिंह सरीखे आदि-इत्यादि ढेर सारे लोग अस्सी के महत्व पर उसी तरह अभिभूत रहते हैं। वरना, ग्वालियर का ‘बाड़ा’ हो या लखीमपुर रेलवे स्टेशन के सामने हसीन मियां की चाय की दुकान, प्रायः देश के हर शहर-पटना, मुंगेर, भागलपुर, मोतीहारी-में गप्पी-गपोड़ियों ने ऐसे अड्डे बना रखे हैं, ‘कामायनी’ के विश्लेषण में मुक्तिबोध ने भारत में अंग्रेजी राज के आगमन को प्रलय के रूप में ही देखा और परखा है। आज डब्लू.टी.ओ. और बाजारवाद के लगातार हो रहे विस्तार में जब देश संसदीय रास्ते से दूसरे प्रलय की ओर जा रहा है तब बातवीर गपोड़ियों के ये अड्डे, अपनी बन्द गुफाओं के भीतर कानों में उंगली डाले एक से एक ऊंची आवाज में शत्रु को ललकार रहे हैं। जबकि स्थिति यह है कि हमारे घरों की औरतें थकी-मांदी बाजार से लौट रही हैं। कोई ग्राहक नहीं मिला। चूल्हे पर क्या पकाया जायेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है। बात सिर्फ भोली आस्थाओं तक होती तो कुछ और थी। लेकिन...धूमिल की एक कविता है-”मेरे भीतर का भय, चीखता है दिग्विजय! दिग्विजय!!”

असहमति! लेकिन, इस अर्थतन्त्र में, शेयर बाजार की गन्दगी बटोर कर जिन्होंने अपने ड्राइंग रूम को सजा रखा है, जिनकी दिनचर्या बीवी के साथ शुरू होकर टी.वी. के साथ बीत जाती है, भद्र नागरिकता का लबादा ओढ़े जिन्होंने जीवन का व्याकरण कुलीनता के ‘फ्रेम’ में मढ़ लिया है, उन संवेदनहीन घोघा बसन्तों का तो जिक्र भी मैं नहीं करना चाहता। उनकी नियति है कि वे लोग जार्ज पंचम से लेकर जार्ज बुश के लिए तोरण पताकाएं और बन्दनवार सजाएं, अमरबेल की इन हरी-भरी लताओं ने हर आती-जाती बयार का गीत गाया है। इनके पास भाषा का छद्म है। भीतर गन्दगी और गजालत है। ऊपर ओढ़े हुए कुलीन संस्कार हैं। इन्हीं की प्रतिक्रिया में ‘काशी का अस्सी’ रचा गया है। अपनी पहली पंक्ति से लेकर आखिरी पंक्ति तक यह उपन्यास इसी मध्यवर्गीय भद्रलोक की ऐसी-तैसी करता हुआ भाषा के कुलीन छद्म को तहस-नहस करता है।

जो लोग बेटे का ‘बर्थ डे’ और गृह प्रवेश का संयुक्त उत्सव करते हैं, जिनके जीवन में हनुमान चालीसा से ज्यादा साहित्य की गुंजाइश नहीं है, होली की गुझिया भर है जिनका सामाजिक सरोकार, उन सारे भद्रजनों को कोट के बटन में गुलाब टांके नेहरू के दरबार में श्रद्धांजलि देकर हम चलते हैं ‘काशी का अस्सी’। नब्बे के दशक में जहां भारतीय समाज का समुद्र मंथन चल रहा है। मन्दराचल को लपेटे वासुकि के एक छोर पर देवतागण हैं और दूसरी ओर राक्षस। कमंडल और मंडल। क्या खूब है! जिनके पुरखों ने आदमी को जातियों में बांटा था आज उन्हीं के वंशज दूसरों को जातिवादी बता रहे हैं।

बहरहाल...‘काशी का अस्सी’ में अस्सी चौराहा एक जिन्दादिल चरित्र की तरह हर जगह मौजूद है। कभी तो देश-दुनिया, कभी नगर और कभी मुहल्ले में घटने वाली घटनाएं इस अस्सी के हाथ, पैर, मुंह, नाक-नक्श हैं जिसके बीच से इसकी आकृति उभरती और फैलती रहती है, यह अस्सी ‘टिपिकल’ नहीं, ‘टाइप’ है। जैसी बेफिक्र, मौजू और मस्त अस्सी की शाम, वैसी ही काशीनाथ सिंह की खिलंदड़ी भाषा। नामवर सिंह के अलावा इस त्रिलोक में ऐसा कोई नहीं है जो इस भाषा के प्रहार से, मुहावरों की नुकीली धार से, बचकर निकल सके। जैसे कोई नटखट शरारती बच्चा अपने क्लास-टीचर के सामने बिल्कुल आज्ञाकारी भाव से सिर्फ कान को सजग रखे रहता है, वैसे ही बड़े भइया के सामने काशीनाथ सिंह की खिलंदड़ी भाषा। तितली के पंख की तरह विमोहित, विहूल और स्निग्ध। छुट्टी का घंटा बचते ही रास्ते में सबसे पहले मिल गए-‘दन्त कथाओं में त्रिलोचन’ और फिर ‘काशी का अस्सी’ तक आते-आते अपने समूचे उछाह, जोश और तरन्नुम के साथ भाषा ने अपने सतरंगी पंखों को खोल दिया।

जब ‘हंस’ में इस उपन्यास की पहली किस्त छपी तो लोगों ने आरोप लगाया कि इसमें अश्लीलता है। गो कि, यह आरोप हिन्दी की कई महत्वपूर्ण रचनाओं पर पहले भी लग चुका था। काशीनाथ सिंह ने सफाई दी-अस्सी की यही भाषा है।-मैंने पहले ही कह दिया है कि इस उपन्यास का मुख्य और एकमात्र चरित्र अस्सी ही है।-‘टिपिकल’ अस्सी नहीं। ‘टाइप’ अस्सी। कुछ लोग नमक या हल्दी को ही दाल मान लेते हैं वही लोग अपने को इस उपन्यास का नायक मान बैठे हैं। अस्सी की यह जबान गया सिंह, तन्नी गुरू या रामजी राय के ही भरोसे नहीं है। शिवजी! शंकर बाबा की जबान का नमूना-”बे धरमनाथ! कहां है बे! गधे, सुअर, उल्लू के पट्ठे! निकल बे कोठरी से...चूतिए, मैंने बहुत बर्दाश्त किया रे। जहां मुझे रखा है, वह मन्दिर है कि माचिस?” -”पांडे़ कौन कुमति तोहें लागी’ में यह जबान गालियों के ‘माइक टायसन’ रामजी राय की नहीं है। इसीलिए मैंने नामवर सिंह को छोड़कर पूरे त्रिलोक की बात कही थी।

पिछले पच्चीस सालों से मैं काशीनाथ सिंह को देख रहा हूं। शायद ही बातचीत में उनके मुख से कभी किसी ने गाली का एक शब्द भी सुना हो। गांव का किसान अपने बैलों, बेटों, बेटियों और बहुओं के लिए प्यार और प्रसन्नता इसी भाषा में अभिव्यक्त करता है। जिन सफेदपोश शहरी लोगों की जिन्दगी में अश्लीलता और गन्दगी के सिवाय कुछ भी नहीं बचा है उनकी शिष्ट जबान में काशीनाथ सिंह की भाषा एक अश्लील उत्पात है। जब काशीनाथ सिंह ने यह उत्पात किया तो, पप्पू की दुकान में बेंच पर और सामने की सड़क पर महत्वाकांक्षाओं की छोटी-बड़ी सैकड़ों नागफनियां उग आयीं। गलियों, मुहल्लों के ढेर सारे शोहदे, जो पहले कभी भी इधर बैठकी नहीं करते थे, उन्होंने वहीं अड्डे बना लिए। विहिप में रहकर कौन ठिकाना, मुहल्ले स्तर का भी कोई पद मिले न मिले। सम्भव है किसी कहानी में मेरा भी नाम छप जाय। अजामिल, गीध, गणिका की तरह शायद जीवन का उद्धार हो जाय। काशीनाथ सिंह को देखते ही उन लोगों की भाव-भंगिमा ऐसी हो जाती है कि-

“हैूहें सिला सब चन्द्रमुखी।

परसे पद मंजुल कंज तिहारे।।

कीन्ही भली रघुनायक जू।

करुना करि कानन को पग धारे।।”

ये रामजी राय से भी ऊंचे सुरों में ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करने लगते। सचमुच इस उपन्यास ने अस्सी की भाषा को भी बदल दिया। भाषा का भाजपाई छद्म त्राहि-त्राहि कर उठा। प्रवीण तोगड़िया की संस्कृतिनिष्ठ तुकबन्दियों का जवाब देते हुए सोमनाथ चटर्जी या सोनिया गांधी के तर्क बाल भी बांका नहीं कर पाते। जबकि लालू यादव के ठेठ गंवई मुहावरे उनकी सही जगह, किसी कबाड़ी के कबाड़ में फेंक आते हैं।


हम न मरे मरिहै संसारा

दुनिया का सबसे पुराना और जीवित शहर बनारस है। जो लोग बनारस को जानते हैं वे लोग अस्सी को भी जानते हैं, तुलसीघाट, रीवां कोठी, मुमुक्ष भवन, मारवाड़ी सेवा संघ, लोलार्क कुण्ड आदि-आदि के साथ बर्फी की दुकान वाले सीताराम जादो, केदार और पप्पू की चाय की दुकानें अस्सी के आजू-बाजू को घेरे हुए हैं। ‘सुख’ कहानी के भोला बाबू डूबते सूरज के जिस सौन्दर्य पर अभिभूत हो गए थे, वह अस्सी की ही सांझ में है।

जिन लोगों ने बनारस को चैक की तंग गलियों से गुजरते हुए पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर खड़े होकर देखा, बरबस ही उनके मुख से फूट पड़ा-सुबहे-बनारस! और जिन्होंने चना-चबेना, गंगाजल, भांग और धतूरे में छनी पप्पू की चाय से जिन्दगी गुजारते हुए वहां सड़क पर लगने वाली संसद में शिरकत की है, वह उसकी सांझ के दीवाने होकर रह गए। सुभाष राय, कामता यादव और श्रीकान्त पांडेय की तरह वे लोग देश-विदेश जाने कहां-कहां गए और कहीं जी नहीं लगा तो आखिर में अस्सी लौट आये। वहीं दम तोड़ा। गया सिंह, रामजी राय, तन्नी गुरू आदि-आदि के लिए तो अस्सी ब्याहता है। जनम-जनम के इस बन्धन में ऊब, उमस और एकरसता चाहे जितनी हो, दूसरा ठिकाना ही इनके लिए कहां है?

मुहल्ले में, नगर में, देश-विदेश में कहीं कोई बड़ी घटना घटती है, उसे लेकर अस्सी पर हर सांझ बहसें होती हैं। यहां की संसद में ओसामा बिन लादेन और बुश के बराबर-बराबर वोट हैं। ज्योतिष, सेक्स, साहित्य और राजनीति की बहसों से गन्धाता अस्सी। आग चाहे कहीं लगे अस्सी के आकाश पर उसका धुआं फैल जाता। धूल और धुएं के गुबार में अलसाया अस्सी। शादी चाहे जिसकी हो, उसके साथ पहला हनीमून अस्सी ही मनाता है। यही है-‘काशी का अस्सी’। शब्द चित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज की कई मिलीजुली शैली में लिखा गया हिन्दी का नया और अनोखा उपन्यास।

एक क्षेपक-जिस रांड़, सांड़, सीढ़ी और संन्यासी के लिए बनारस जाना जाता है, बनारस अपनी जिन तंग और घुमावदार संकरी गलियों की वजह से जाना जाता है, उन सबका कोई ताल्लुक अस्सी से नहीं है। फिर भी आप सबकी सुविधा का ध्यान रखा गया है। रामजी राय-हमारे गांव में एक फुलेसरा बुआ थीं। रांड़। वह अक्सर, रात के सन्नाटे में, जब सारा गांव सोया रहता, जोर-जोर से दहाड़ मारकर रोने लगतीं। जितनी जोर से रोतीं उतनी ही जोर से किसी को सरापतीं और गरियाती भी थीं। रामजी राय जब भी जोर-जोर से बोलना शुरू करते, मुझे फुलेसरा बुआ की याद आती है। उन्हें सचमुच कोई दुःख था या बुआ सिर्फ चोरों की आहट पाकर सारे गांव को जगाने के लिए ऐसा करतीं, जैसा कि सब लोग कहते थे, यह बात मैं नहीं जान पाया। रहीं सीढ़ियां! वह तो अस्सी घाट पर हैं। संन्यासी-वीर रस के राष्ट्रकवि आदरणीय कौशिक जी देख रहे हैं। सामने सड़क के किनारे एक तरफ तीन-चार बेंचों पर संसद जमी है। संग्राम जोरों पर है। बाबा नागार्जुन की एक कविता का फिल्मांकन-

“टूटे सींगों वाले सांड़ों का,

यह अजीब सा टक्कर था।

उधर दुधारु गाय खड़ी थी,

इधर सरकसी बक्कर था।”

राजनारायण इसी बनारसी शैली के राजनेता थे। लालू यादव चाहे जहां पैदा हुए हों, उनका जनेऊ अस्सी पर हुआ है। उनका गंवई अन्दाज, ह्यूमर, विट और सब पर छा जाने की कला यह बनारसी शैली की खूबी है, जैसे संगीत में घराना चलता है उसी तरह राजनीति का भी घराना है। यह बात दीगर है कि अस्सी पर लालू के समर्थक सबसे कम पाये जाते हैं।

आज जहां पप्पू की चाय की दुकान है, हो सकता है दो-चार या दस साल के भीतर वहां कोई मल्टी स्टोरी, शॉपिंग काम्प्लेक्स बन जाय। सम्भव है, मारवाड़ी सेवा संघ किसी पांच सितारा होटल में तब्दील हो जाय। लेकिन तब भी अस्सी कहीं न कहीं मौजूद रहेगा। नाम और जगह बदलकर। यही अस्सी का महत्व है। क्योंकि आपाधापी की जिन्दगी में कुछ न कुछ ऐसे लोग बचे रहेंगे जिन्हें अपने लड़के को इंजीनियर बनाने के लिए रात-दिन हाय-हाय करते हुए अपने सुख-चैन, इत्मीनान और हंसी-ठिठोली को किसी साहूकार के यहां गिरवी रखना मुनासिब न लगे। वह लोग जरूर इस तरह भी सोच सकते हैं कि नालायक बेटा बाप का कमाया धन खाता है और डी.एम., एस.पी. जिले भर की विकास परियोजनाओं-अंधे, अपाहिजों के कल्याण का फण्ड, कोढ़ियों के इलाज का पैसा, मलेरिया उन्मूलन, साक्षरता प्रसार, बाढ़, अकाल, भूकम्प, महामारी इन सबके नाम पर करोड़ों-अरबों की रकम डकार जाते हैं। अब बताओ, लायक किसे कहोगे?

रात के अंधेरे में राहजनी करने वाले भी किसी मरीज को देखकर कहते हैं-निकल जाने दो। इसकी हालत खराब है-और शहर का डॉक्टर। कोट-पैंट और टाई में धुली-पुछी भद्र नागरिकता! उसका सारा पैसा, बीवी के गहने, इन्दिरा विकास पत्र सब एक-एक कर बटोर लेता है-‘अब जरा सोचो, कौन लायक है? इंजीनियरों की प्रतिभा और लायकियत के ऐसे गवाह हैं जिनकी आंखों में कीचड़ भर गया है। जो लुटे-पिटे, पथराये से सड़क के बीचोबीच चौराहे पर खड़े हैं।’

अगर लायक सन्तानों की यही करतूतें हैं जो जरूर कुछ लोग अपनी सन्तानों को लायक बनने से बचायेंगे। बे-औलाद मर जाना मुनासिब होगा उनके लिए। जीवन के मूल प्राकृतिक तर्कों के स्पर्श मात्र से-किताबों के, समाज के संस्कारों के सारे के सारे सच, जिन्हें हजारों साल से जतन पूर्वक सहेजकर धरोहर बनाया गया है-शीर्षासन करते दीखते हैं। शिक्षा और ज्ञान का सम्बन्ध महानता से नहीं है। महानता सरोकार से पैदा होती है। ऐसे ही सोचने वाले मैले, कुचैले, मस्त-मनमौजी और फक्कड़ लोगों की वजह से यह धरती बची रहेगी। ऐसे ही लोग बाजार-उदय प्रकाश के शब्दों में-‘जहां हर आदमी कमाऊ और हर औरत बिकाऊ हो गयी है’-के बीचोबीच खड़े होकर कह सकते हैं कि-”जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ।”

बीतती सदी का आखिरी दशक। डब्लू.टी.ओ. के रथ पर सवार एक क्रूर तानाशाह विश्वविजेता बनने के दंभ में हमारे घरों के भीतर तक बे-रोक-टोक घुसता चला आ रहा है। ‘व्हाइट हाउस’ में बैठा दुनिया का सबसे बड़ा गुंडा किसी तिलिस्म की तरह अपने हाथ बढ़ाता है और सात समुद्र पार हमारी बेटी के समूचे जिस्म को योनि में तब्दील कर देता है। किशोर सपनों में मौत का खौफ, हिंसा और घृणा के बीच रोपकर चुपचाप गायब हो जाता है। यह सारा नृशंस दृश्य अपनी लाचार आंखों से निहारने के अलावा हम कुछ नहीं कर पाते।-”यहां का समाचार यह है कि अंधेरा, कुहरे और धुन्ध का लाभ उठाकर किसी ने बूढ़े का सिर काट दिया है। सिर गायब है। खोज जारी है। सीमाएं सील कर दी गयी हैं। अंदेशा है कि इसके पीछे किसी विदेशी एजेन्सी का हाथ है।” -”कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।”

यही बीसवीं सदी का आखिरी दशक ‘काशी का अस्सी’ उपन्यास की मुख्य चिन्ता है। गो कि सारी दुनिया में होने वाली तबाही और युद्ध का अक्स इस उपन्यास में बाबरी मस्जिद ध्वंस का प्रतीक बनकर दिखाई देता है। नकारात्मक अफवाहों से अस्सी का समूचा वातावरण विषैले बारूदी गन्ध से भर जाता है। वह अस्सी, जिसे लेकर काशीनाथ सिंह को इत्मीनान था कि उत्सव, उल्लास से सराबोर मस्ती, फक्कड़पना और वर्ग विहीन समाज का जनतन्त्र यहां की मूल आत्मा है।-इस कदर प्रदूषित होता है कि अन्ततः वे चले जाते हैं-गंगा किनारे। अंधेरी सीढ़ियों पर सन्नाटा पसरा हुआ है। गंगा की लहरों में दंगाइयों के पद-चाप गूंज रहे हैं। चुपचाप और अकेले बैठ जाते हैं काशीनाथ सिंह थके-थके से। कर्फ्यू की आशंका से सारा शहर डरा हुआ है। ‘चमकती दूर ताराएं, ज्यों हों कहीं पार’-एक जोगी निर्गुण गा रहा है-‘देख तमाशा लकड़ी का।’

‘देख तमाशा लकड़ी का’ शीर्षक से ‘काशी का अस्सी’ उपन्यास की पहली किस्त जब ‘हंस’ में छपी तो उसमें हरिद्वार पांडेय (भाषण कला के बैजू बावरा) छाये हुए थे। आज पांडे जी का नामो-निशान भी अस्सी पर नहीं है। गया सिंह, रामजी राय, दीनबन्धु तिवारी वगैरह-वगैरह दूसरे-तीसरे परिच्छेदों से जुड़ते चले गए। यह लोग भी कल रहें, न रहें, अस्सी पर राई-रत्ती फर्क पड़ने वाला नहीं है। इसलिए कि अस्सी देश के किसी भी शहर में, किसी नुक्कड़ के कोने-अंतड़े में, अपनी जगह खुद-ब-खुद बना लेता है। अस्सी किसी एक की वजह से नहीं है। रामजी राय, गया सिंह, तन्नी गुरू सबको अस्सी ने रचा है।

चूंकि यह उपन्यास परम्परागत उपन्यासों से भिन्न जीवित और वास्तविक व्यक्ति चित्रों के ताने-बाने, हास-परिहास से ही बुना गया है, इसलिए हमें यह भी जानना चाहिए कि अस्सी वाले गया सिंह लहरतारा वाले कबीर की तरह नहीं हैं, जो घर फूंक तमाशा देखें। इनकी जड़ें बाबा कीनाराम के मठ, एक डिग्री कॉलेज में रीडर और सुदूर पहाड़ी इलाके के महाविद्यालय में बतौर प्रबन्धक, गहरे पैठी हुई हैं। अस्सी के जनतन्त्र में उनकी निरन्तर शिरकत एक बड़े जुगाड़ तन्त्र की देन है। कहां साबरमती का आश्रम और कहां हरियाणा का भोड़सी। खल्वाट खोपड़ी, बकौल काशीनाथ सिंह, जिसमें सिर्फ भूसा और गोबर भरा हुआ है। जुगाड़ तन्त्र में चौबीस घंटे ‘होलटाइमर’ है। घर वह लोग फूंकें जिन्हें नौकरी की उम्मीद में डिग्रियां खरीदनी हैं। गया सिंह सिर्फ तमाशा देखेंगे। इस उत्तर आधुनिक युग में धडल्ले से शिक्षा का व्यापार चल रहा है। हर शहर में कोई न कोई शिक्षा माफिया मिल जायेगा। अपनी-अपनी हैसियत और औकात! कोई माफिया और कोई छुटभैया! यह है ऊपर से दिखने वाली मस्ती, फक्कड़पन और भांग की गोलियों का आन्तरिक रहस्य। जुगाड़ तन्त्र।


“इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार”

हर सांझ अस्सी पर जुटने वाली संसद और उसके अनिर्वचनीय, अनाहूत सदस्यों के बारे में काशीनाथ सिंह बताते हैं कि-”हर गदरहा किसी न किसी पार्टी का सदस्य है। लेकिन बंधुआ किसी का नहीं है। इतनी गुंजाइश बराबर रखता है कि संकट की घड़ी में इससे उसमें, या उससे इसमें आ-जा सके। यही गुंजाइश लोकतन्त्र की ताकत है। और ये हमेशा उसे ताकतवर बनाने की फिराक में रहते हैं। जो इस गुंजाइश को नहीं समझता वह सिद्धान्त के मर्तबान में पड़ा-पड़ा अचार हो जाता है। राम वचन पांडे की तरह।”

अगर यही लोकतंत्र है तो लोकतंत्र का बहुरुपिया कैसा होगा? इस तरह तो अजीत सिंह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत कहे जाएंगे। ऐसे ही तर्कों से धरमनाथ शास्त्री ने अपनी पड़ाइन को बहलाया-फुसलाया और अंग्रेजिन को ‘पेइंग गेस्ट’ बनाकर शंकर बाबा को देश निकाला दिया था। अपने बेटों के हर गुनाह मानवीय लगते हैं। यही किया है काशीनाथ सिंह ने अपने गदरहों के लिए। अस्सी के प्रति अन्धी मोहासक्ति इन्हें इस हद तक जकड़ लेती है कि हू-ब-हू अपने पात्रों की तरह सोचने भी लगते हैं।

यह घोर प्रतिक्रिया है। ड्राइंग रूम की बन्द दीवारों के भीतर निरन्तर जोड़-घटाना लगाने वाले मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के दोगलेपन और उनके भाषाई छद्म से। या सम्भव है, घर के तनावों से आकुल-व्याकुल मन को यह सुकून देता हो! छायावादी कवियों के क्षितिज जैसा ही कुछ-कुछ प्रतीत होता है यह अस्सी।

लेकिन इन ढेर सारी इधर-उधर की फुटकल बातों के बावजूद, चाहे कोई रहे, न रहे, अस्सी रहेगा। बावजूद गया सिंह के अस्सी बचा रहेगा। भारत के हर शहर में कहीं किसी चाय की दुकान के आसपास जहां चार-छह लोगों के बैठने-बतियाने की जगह बची रहेगी, वहीं खानाबदोश जातियों की तरह अपना डेरा-डंडा डालकर अस्सी बस जायेगा। जो जीवन की ऊंचाइयां पाने के लिए प्रवासी हो गये हैं, उनके जेहन में लड़कपन की तरह अस्सी याद आयेगा। जो असफल रह गये, एक-एक कर जीवन के सारे मुकदमे हार चुके, लोगों को सुकून देने के लिए अस्सी बचा रहेगा। डी.एम., एस.पी. या कोतवाल, अस्सी को उपद्रव की तरह देखेंगे। तानाशाह के हुक्म से बार-बार तबाह किया जायेगा अस्सी। ‘इंक्रोचमेन्ट’ के नाम पर हल्लागाड़ी आयेगी और अस्सी को उजाड़कर शहर का व्याकरण दुरुस्त करेगी। फिर दूसरी सांझ किसी न किसी जगह अपनी मस्ती, अपनी बे-परवाही, अपनी हंसी की छटा बिखेरता, जिन्दगी के गीत गाता अस्सी दिख जायेगा। दीवाली और होली की तरह व्यापक है काशी का यह अस्सी। मां कहती थी-प्रलय के दिनों में जब सब कुछ डूब गया था तब भी खैरा पीपल बचा रह गया था। वही खैरा पीपल जहां हम लोग ओल्हापाती खेला करते थे।

आज गांवों में अलाव नहीं जलते। पता नहीं खैरा पीपल अब है या नहीं। पच्चीस-तीस साल होने को हैं। मैं इतनी देर के लिए गांव कभी नहीं गया कि जाकर खैरा पीपल का हालचाल ले सकूं। लेकिन गांव के बाहर दूर-दूर तक फैले ऊसर के टीले, जहां से ‘रेह’ ले जाकर हम अपने कपड़े फींचते थे, अब नहीं रह गये हैं। नागफनी के जंगल, महुवे के बाग और इन सबके बीच दूर-दूर तक फैले चरागाह, जहां हम गाय-भैंसें चराया करते थे, उनके नामो-निशान भी गांवों में नहीं रह गये हैं, अब उनकी यादें भी असम्भव हो गयी हैं। हरित क्रान्ति ने गांवों की शक्ल-सूरत बदल दी। व्यवसाय का पुश्तैनी और परम्परागत ढांचा बदल दिया।

अर्थशास्त्र जानने वाले कहते हैं कि गांव की तरक्की हो गयी है। समाजशास्त्र के विद्वान कहते हैं कि रिश्तों में दरार आ गयी है। गांव के लोग कहते हैं कि अब वह बात नहीं रही। बहुत उदास-उदास लगता है। यहां रहने का मन नहीं होता। लब्बो-लुबाब यह कि इतनी उदास, मनहूस और कर्ज में डूबी तरक्की। बैंकों की मदद से हमारे गांव में तीन लोगों ने ट्रैक्टर खरीदे और तीनों के आधे खेत बिक गये। टैªक्टर औने-पौने दाम मंें बेंचने पड़े। पता नहीं कर्ज चुकता हुआ कि नहीं? पंचायती राज में लोकतंत्र को गांवों तक ले जाने का कार्यक्रम बना। फिर तो, अपहरण, हत्याएं और मुकदमेबाजी। सारे के सारे गांव थानों और कचहरियों में जाकर कानून की धाराएं रटने लगे।

गांधीजी का अन्तिम आदमी, जो आजादी की लड़ाई का नैतिक तर्क और सम्बल था। आज उसके हाथों में एक तिरंगा है और वह भाग रहा है। ग्रामीण विकास बैंकों के दलदल में उसके पैर धंस गये हैं। सांस धौंकनी की तरह चल रही है। भारी-भरकम सिर पेट की अंतड़ियों में फंसकर फड़फड़ा रहा है। वकील, जज, अर्थशास्त्र के विद्वान प्रोफेसर, नेता, पुलिस अधिकारी सब उसे चारों तरफ से घेर रखे हैं। सबके हाथों में एक-एक फंदा है। सब उसे ही पुचकार रहे हैं-आजादी की आधी शताब्दी का महोत्सव जारी है। अपराध के अंधेरे में चारों ओर संशय और अविश्वास की फुसफुसाहटें फैल रही हैं। अपनी ही सांसों का बोझ ढोते गांवों की तरक्की की यही दास्तान है। कितना भयावह और डरावना है अंधेरे का यह एकाकी सफर।

एक मामूली-सी लगने वाली घटना, जिसे हम यूं ही हो जाने देते हैं, यह सोचकर कि इतने मात्र से क्या फर्क पड़ेगा, और वह देखते-देखते हमारे समूचे वजूद को तहस-नहस कर देती है। पंडित धरमनाथ शास्त्री अपने घर में एक अंग्रेजिन को ‘पेइंग गेस्ट’ बनाकर रखते हैं। पता भी नहीं चलता कब पड़ाइन उसी घर में, जहां मालकिन बनकर रह रही थी, नौकरानी बन जाती है। ईस्ट इंडिया कम्पनी का इतिहास भारत की प्रथम गुलामी का इतिहास है तो आज उत्तर आधुनिक युग में देश की दूसरी गुलामी का आख्यान है-‘पांडे कौन कुमति तोहें लागी।’

यह सब इसलिए कि आज इन गांवों के आसपास पंडित धरमनाथ शास्त्री के सपने की तरह कोई न कोई कस्बा समृद्ध हो रहा है। इन कस्बों में भी किसी न किसी दुकान पर एक अस्सी बस गया है। यहां भी लोग गप्पें हांकते हैं। गया सिंह, रामजी राय या तन्नी गुरू की ही तरह यहां भी लोगों के कोई सरोकार नहीं हैं। समय काटने के लिए अड्डे हैं ये। पूर्वांचल के ये कस्बे अन्तर्राष्ट्रीय आपराधिक तन्त्र की नर्सरी हैं। मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी हों या फिल्म इंडस्ट्री के गुलशन कुमार इन सबके खून के धब्बे इन गुमनाम कस्बों में बिखरे पड़े हैं। हवाला, दाउद, इब्राहिम, सउदी अरब, छोटा राजन, दुबई यहां की बातचीत के विषय हैं। यह भी अस्सी का ही दूसरा चेहरा है। गया सिंह, रामजी राय और तन्नी गुरू आदि-आदि से गुजारिश है कि अपने आपको इस उपन्यास का नायक न समझें। जो स्थान अस्सी का है उसे अस्सी के हिस्से रहने दें। जहां हर कोई नायक बनने लगता है उस देश की शक्ल विदूषकों जैसी दिखती है।

इतिहास के अलग-अलग कालखण्ड हैं, और जिन्दगी के अलग-अलग मंसूबे। कभी गांव में चौपालों और अलाव के इर्द-गिर्द बैठकर भी लोग बतकही किया करते थे। अब वह सब नहीं रहा। उस समय भी वहां एक प्रजाति पायी जाती थी, जिसके बारे में लोग कहा करते-”गंजेड़ी यार किसके? दम लगाये खिसके।” सुना है अब वह प्रजाति अस्सी पर बस गयी है। शहर में आकर थोड़ा-बहुत सभी बदल जाते हैं। गंजेड़ी और भंगेड़ी में अन्तर ही कितना होता है।

कभी गोदोलिया के ‘दी रेस्टोरेन्ट’ और पास में ही किसी माखन दा की दुकान हुआ करती थी। लोग वहीं घंटों बहसें किया करते थे। साहित्य और राजनीति की गम्भीर बहसें। इस परिवेश ने बनारस में चन्द्रबली सिंह और नामवर सिंह जैसी शख्सियत को पैदा किया। और आज रामजी राय या गया सिंह अन्त्याक्षरी। छिछले चुटकुले। जब सरोकार खत्म हो जाते हैं तो यही बचा रहता है। मस्ती और फक्कड़पन की शक्ल में बहुरुपिये मसखरे पैदा होते हैं। दूसरों का मजाक उड़ाने से ज्यादा क्रूर और अमानवीय कुछ नहीं होता। ‘काशी का अस्सी’ में जो सामाजिक पतनशीलता और व्यक्तित्व के विघटन के चिह्न मात्र हैं वही अपने आपको नायक होने का मुगालता पाल बैठे हैं। इनकी तुकबन्दियां, इनके तर्क, इनकी भाषा किसी चीज पर इन्हें खुद का भरोसा नहीं और चाहते हैं दुनिया इन्हें ही मसीहा मान ले।

अगर गया सिंह एक जीवित चरित्र नहीं होते और उनका वजूद सिर्फ ‘काशी का अस्सी’ उपन्यास में ही होता तो इतनी पड़ताल की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन संस्मरण से रिपोर्ताज और फिर उपन्यास तक का सफर पूरा करने वाली इस कृति की समीक्षा में इस गैर-साहित्यिक पद्धति का सहारा लेना पड़ रहा है। काशीनाथ सिंह की दिक्कत यह है कि वे रहजनों से ही ठिकाने तक पहुंचने का रास्ता बूझ रहे हैं। इस उपन्यास में काशीनाथ सिंह उस भावुक भक्त की तरह हैं जो जीवन के तनावों से ऊबकर भगवान को खोजते-खोजते किसी मन्दिर या मठ के पाखंडी पुजारी के आप्त वचनों से गद्गद होकर उसे ही जीवन का सन्देश मान लें। यह अजीब इत्तिफाक है कि डॉ. गया सिंह सिर्फ एक डिग्री कॉलेज में लेक्चरर और एक महाविद्यालय, जहां उनका छोटा भाई प्रिंसिपल है, के प्रबन्धक ही नहीं हैं, उनके जुगाड़ तन्त्र की आभा से कीनाराम मठ की भव्य दीवालें भी जगमगा रही हैं। किसी सिद्धान्त का सबसे बड़ा तर्क होता-जीवन जीने का वैसा ही मिलता जुलता ढंग वर्ना एक फ्राड पैदा होने की गुंजाइश बनी रहती है।


दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन

मध्यवर्गीय तनावों को लेकर काशीनाथ सिंह ने एक से एक बेहतरीन कहानियां लिखी हैं। ‘आखिरी रात’, ‘कविता की नयी तारीख’, ‘अपना रास्ता लो बाबा’ आदि-आदि। काशीनाथ सिंह का जीवन, जिसे उन्होंने भोगा और जिया है और जिसे करीब से देखने का अवसर किसी न किसी तरह मुझे भी मिला है-इन कहानियों में ज्यादा वास्तविक होकर झांकता रहता है-बनिस्बत अस्सी पर लिखे इस संस्मरणात्मक उपन्यास के।

‘सुख’ कहानी के भोला बाबू एक सांझ डूबते हुए सूरज के वृत्त की आभा देखकर इस कदर अभिभूत और चमत्कृत होते हैं कि हास्यास्पद लगने लगते हैं। जोड़-घटाने में रत्ती-रत्ती टूट और बिखर चुकी जिन्दगी को प्रकृति का एक अति परिचित मामूली दृश्य अलौकिक आभा से सम्मोहित कर लेता है। स्थितियों और पात्रों के मामूली हेर-फेर के साथ हर अच्छी कहानी किसी आत्मकथा का अंश प्रतीत होती है।

‘काशी का अस्सी’ का पहला परिच्छेद ‘देख तमाशा लकड़ी का’ जब ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ था तो संस्मरण जैसा कुछ था। उसमें काशीनाथ सिंह अपने जीवन की एक बात बताते हैं। उस बात की पुष्टि उनकी पत्नी ने की तब मैं जान सका कि वह एक हू-ब-हू घटना है। हुआ कुछ यूं कि एक दिन सवेरे-सवेरे जब वह घर से सब्जी लेने निकले थे, तहमत और कुर्ता डाले, तभी उनके एक मित्र मिल गए। वे किसी ‘टूर’ पर जा रहे थे। धर लिया काशी को। अभी और इसी तरह साथ चलो। डॉक्टर साहब ने आनाकानी की। “घर से कपड़े बदल आने दो। पत्नी को बता दूं।” मित्र ने समझाया-”काहे की हैं हैं और काहे की खट-खट। साथ तो जाना नहीं कुछ। फिर क्यों मरे जा रहे हो चौबीस घंटे। सारा कुछ जुटाये जा रहे हो। फिर भी किसी के चेहरे पर खुशी नहीं। यह नहीं है तो वह नहीं है। इसे साड़ी तो उसे फ्रॉक, इसे फीस तो उसे टिफिन, इसे दवा तो उसे टॉनिक, इसे...कुछ करो तब भी और न करो तब भी! यह दुनिया चल रही है और चलती रहेगी...प्यारे लाल अपनी भी जिन्दगी जियो, दूसरों की ही नहीं,-और सुनो! कार्यक्रम बनाकर जीने में तो सारी जिन्दगी गंवा रहे हैं हम!”

जब कई दिन बाद ‘टूर’ से लौटे तो घर में कोहराम मचा हुआ था। काशीनाथ सिंह लिखते हैं-

“मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि मोया-मोह के जंजाल में फंसा मैं-अस्सी का प्रवासी-इस दर्शन के काबिल नहीं।” असमर्थता है। लेकिन आकांक्षा बनी हुई है। काशीनाथ सिंह और भोला बाबू के दुःख और तनाव एक जैसे हैं। भोला बाबू के लिए एक सांझ का सौन्दर्य अलौकिक प्रतीत होता है और काशीनाथ सिंह को पप्पू की चाय की दुकान। भोला बाबू नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। काशीनाथ सिंह रिटायर होने के करीब हैं। अपनी जिन्दगी में सामर्थ्य भर नक्सलवादी आन्दोलन से भी जुड़े रहे। एक सपना था-शायद भारतीय समाज की मुक्ति और इस तरह अपनी भी मुक्ति का यह रास्ता हो सकता है। यह भी हो सकता है कि लेखकीय अनुभव में खतरों से खेलने के रोमांच की जरूरत महसूस हुई हो। इसी दौरान उन्होंने ‘सुधीर घोषाल’ कहानी भी लिखी। ‘अपना मोर्चा’ उपन्यास का ‘ज्वान’ उन दिनों के काशीनाथ सिंह और धूमिल का मिलाजुला रूप है। लेकिन युग तेजी से बदलता जाता है। कीर्ति व्यवसायियों के हमले से एक-एक कर सबकी कलई खुलती जाती है। ‘लाल किले के बाज’ और ‘वे तीन घर’ कहानियां प्रकाशित होती हैं। आस्थाएं एक-एक कर भहरा रही हैं। काशीनाथ सिंह चुपचाप सबको देख रहे हैं, कमी विचारधारा में नहीं, उसकी व्याख्या करने वाले संगठनों में है-वह सोचते हैं। ‘ग्लास्नोस्त’, ‘पेरेस्त्रोइका’! गोर्बाचेव का नोबेल प्राइज पर बिक जाना। बुद्धिजीवियों, कलाकारों की आस्था और विश्वास पर बीसवीं सदी का सबसे बड़ा हमला-समाजवादी सोवियत संघ का पतन। गले की हड्डी क्यूबा और वियतनाम के अपमान का धब्बा अपनी समूची बर्बर विरासत के साथ इराक पर टूट पड़ता है। खुली खिड़कियों से औपनिवेशिक बाजारवाद का प्रदूषण भीतर तक भरने लगता है।

विचारधारा के क्षेत्र में उत्तर आधुनिक विमर्श का वर्चस्व। उधर शब्द अर्थ की गुलामी से मुक्त होते हैं और इधर लेखक संगठन विचारधारा के नाम पर कुछ संगठन कर्ताओं के ज्ञान दम्भ और ठगी से। जो यथार्थ हमारे आसपास वर्षों से हमें दिन-रात घेरे हुए थे, जिन्हें हम चोर निगाहों से निरन्तर देख और महसूस कर रहे थे। लेकिन प्रतिक्रियावादी होने के डर से लिख नहीं पा रहे थे, बाद के नये लेखकों ने उन्हें शिद्दत के साथ जद्दोजहद से अपनाया। हिन्दी कथा साहित्य का नया परिदृश्य जीवन की विविध छटाओं से भर गया। गुजरे जमाने के इसराइल, विजेन्द्र अनिल और सुरेश कांटक ने लिखना बन्द कर दिया। दूधनाथ सिंह ने धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे, नमोअन्धकारम और निष्कासन जैसी महत्वपूर्ण कहानियां या उपन्यास लिखे। काशीनाथ सिंह ने ‘अस्सी को एक चरित्र की तरह ‘ट्रीट’ किया और ‘रागदरबारी’ की तरह पठनीय, रोचकता से भरपूर अपना महत्वपूर्ण उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ लिखा।

रामजी राय और तन्नी गुरू इस उपन्यास में अपनी स्वाभाविक वेश-भूषा और जिन्दादिली के साथ उभरे हैं। इनके चरित्र में कोई विशेष काट-छांट भी सायास नहीं की गयी है। इनके जीवन का आनन्द, उत्सव और उल्लास अस्सी का वाकई मुखड़ा है। इनके अलावा कुछ और महत्वपूर्ण चरित्रों का अन्तर्सच बहुत कुछ छिपा-बचाकर प्रस्तुत किया गया है। अगर कथाकार काशीनाथ सिंह पर डॉ. काशीनाथ सिंह का प्रभाव पड़ने से बच गया होता तो निश्चित ही जनतंत्र के साथ-साथ हमारे युग और समाज की बहुत बड़ी समस्या जुगाड़ तन्त्र का भी चेहरा उभरा होता। लेकिन जो नहीं हो सका उसका क्या? आइए देखें-”वी.पी. के खिलाफ बोलने वाले का सिर फोड़ देने वाले रामजी सन् 92 में वी.पी. भक्त थे। जनता दली। वे गालियों के मामले में ही ‘माइक टायसन’ नहीं थे, इसलिए भी थे कि मन्दिर-मस्जिद के मुद्दे पर भाइपाई राधेश्याम के कान चबा गये थे। लेकिन इधर काफी बदलाव आया है उनमें, ऐसा सुना था...

-कहिए किस पार्टी में हैं आजकल? -वे हंसे मेरी मूर्खता पर।

-यह पर्चा लीजिए-”अबकी बारी, अटल बिहारी।”

नजरिया बदल जाता है। तीस-पैंतीस साल पहले इसी तरह के किसी रामजी राय पर काशीनाथ सिंह ने ‘आदमी का आदमी’ और ऐसी ही बहसों पर ‘चाय घर में मृत्यु’ कहानी लिखी थी।

आजादी के बाद नेहरू युग के सम्मोहन में नयी कविता और नयी कहानी के भीतर रोमानी तत्व उभर रहे थे। नामवर सिंह ने कहीं लिखा है, शायद मुक्तिबोध के सन्दर्भ में लिखा है कि उस युग का महत्वपूर्ण और सार्थक लेखन नेहरू युग के जादू से मुक्त होकर लिखा गया। सम्मोहन का खतरा अस्सी से भी है। लेकिन यह सम्मोहन ही तो इस उपन्यास की जान है। अगर यह नहीं होता तो न ही इस उपन्यास में भाषा का ऐसा उछाह होता और न ही अस्सी की इस मस्ती और फक्कड़पन का ऐसा मोहक संगीत होता, जो मिठाई लाल के कंठ से फूटकर देर तक और दूर तक हमारी आत्मा में बजता रहता है।

आज विश्वग्राम की अवधारणा है। हम चौराहे पर खडे़ हैं। भौचक्क और पथराये से हम। हमारे भीतर मुक्तिबोध का एक सवाल बार-बार गूंज रहा है-”कहां जायें? दिल्ली या उज्जैन।” एक सौदागरों की नगरी है और दूसरी कालिदास की। हम तय नहीं कर पाते और थक-हारकर टी.वी. के सामने बैठ जाते हैं। सूचनाएं! अतिसूचनाएं! और अतिशय सूचनाएं!! सूचनाओं का अम्बार लगा है। हम भौचक और भकुवाये हुए हैं। “कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।” ‘काशी का अस्सी’ इसी आशय का आख्यान है। कभी भविष्य में इतिहासकारों, विशेषकर ‘सबाल्टन’ इतिहासकारों को अगर बीसवीं सदी के आखिरी दशक का अध्ययन करना पड़ा तो ‘काशी का अस्सी’ सबसे भरोसे का उपन्यास लगेगा। क्योंकि डायरी के पन्नों की तरह यहां सब कुछ ज्यों का त्यों क्रमवार दर्ज है। नेहरू युग की सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं में आई पतनशीलता को आधार बनाकर जिस तरह ‘रागदरबारी’ लिखा गया था कुछ वैसे ही कथा विन्यास के लिए, वैसे ही रोचकता और पठनीयता से सन्तुलन साधकर लिखा गया यह उपन्यास अपने युग का प्रामाणिक दस्तावेज और आख्यान है।

आज काशीनाथ सिंह के पास हिन्दी की समृद्ध और लोकरंजक भाषा है। जो न सिर्फ भाषा के परम्परागत और शास्त्रीय ढांचे को तोड़कर विकसित हुई है, बल्कि समाज में जो भी कुलीन प्रभामंडल का छद्म फैला हुआ है उस पर वज्रपात करके पली-बढ़ी है। भाषा का ऐसा स्फुरण और ऐसी गतिमयता कि उसके संस्पर्श से, हजारी प्रसाद द्विवेदी या त्रिलोचन को छोड़ भी दंे तो कमला प्रसाद पांडेय जैसा व्याकरण निबद्ध भाषा और कठोर अनुशासन से निर्मित जीवन चरित भी कसमसाकर शुष्क सिद्धान्तों की मर्यादा रेखा लांघने को बेताब बन्द दरवाजों की सांखल खटखटाने लगता है।