अस्सी के धर्मेंद्र शतक-वीर हों / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :08 दिसम्बर 2015
विगत माह लेखक सलीम खान अस्सी के हुए और आज धर्मेन्द्र अस्सी के होने जा रहे हैं। अगले वर्ष उनके पोते और सनी देओल के सुपुत्र की पहली फिल्म प्रदर्शित होगी। उनका मुंबई का घर फिल्म उद्योग में पंजाब का पिंड कहा जाता है। उनके पिंड से आने वाले हर मेहमान का वहां स्वागत होता रहा है और कुछ लोग एक दिन के लिए आकर वहां वर्षों टिके रहे हैं। आज धर्मेन्द्र के पास बहुत सम्पत्ति है। दशकों पूर्व उन्होंने खंडाला के निकट डेढ़ सौ एकड़ जमीन ली थी, जहां से अब हाइवे गुजरने के कारण वह अत्यंत मूल्यवान हो गई है। वहां उन्होंने अपने पिंड की तरह रचना की है। अनेक गायें और भैंसे हैं तथा फसल भी उपजाई जाती है। पंजाब का आदमी कहीं भी बसे, वह अपने पिंड को कभी नहीं भूलता तथा अपनी कमाई से जमीन जरूर खरीदता है। ये धरती पुत्र जमीन का महत्व समझता है। सितारा बनने के बाद जब धर्मेन्द्र ने बंगला खरीदा था। तब उन्होंने राज कपूर को आमंत्रित किया तो उनसे पूछा गया कि कितना बड़ा है बंगला? धर्मेन्द्र ने सोचते हुए कहा कि वे बता नहीं सकते परंतु पचास साठ मंजरी 'पलंग' तो बिछ ही सकते हैं गोयाकि सितारा होने के बाद भी उनकी मासूमियत कायम रही। लंदन के साउथ हॉल नामक इलाके में, जहां अनेक पंजाबी बसे है, लोग घर के बाहर मंजरी डालकर कुछ समय बतियाते जरूर हैं। आप पूरे साउथ हॉल को मिनी पंजाब कह सकते हैं। आज पंजाबी फिल्म का जो व्यवसाय पंजाब में होता है, उससे अधिक कनाडा और साउथ हॉल में होता है। इतना ही नहीं भारत के सभी हाईवे पर आपको कहीं न कहीं पंजाबी ढाबे अवश्य मिलेंगे और शहरों में पंजाबी रेस्त्रां अवश्य मिलेंगे।
बहरहाल, वर्तमान समय में धर्मेन्द्र और सनी देओल की फिल्में पंजाब में ही सबसे कम व्यवसाय करती हैं, क्योंकि वहां एकल सिनेमाघर समाप्त हो गए है। मल्टीप्लैक्स के दर्शक कुछ अलग किस्म की फिल्में देखते हैं। एक जमाना था कि धर्मेन्द्र अभिनीत फिल्में पंजाब में ही किसी अन्य प्रांत से अधिक व्यवसाय करती थीं। आज का पंजाब वह नहीं रहा, जो धर्मेन्द्र के जवान होने के दिनों में था। अब वहां न इतनी लस्सी पी जाती है, न उतने भंगड़े किए जाते हैं। हीर-रांझा वाला पंजाब अब केवल फिल्मों में ही देख सकते हैं। सबसे गहरा दु:ख तो इस बात का है कि अब पंजाब के अनगिनत युवा 'ड्रग्स' के आदी बना दिए गए हैं। ड्रग्स माफिया को संभवत: अपरोक्ष रूप से सरकारी मदद मिलती है और इस आशय की अफवाह ही सही, सब जगह फैली है। क्या इसी तरह के परिवर्तन को 'विकास' कहते हैं?
बहरहाल, धर्मेन्द्र किशोर अवस्था में अपने अनुशासन पसंद स्कूल शिक्षक पिता की चोरी से फिल्में देखने के लिए साइकिल पर मीलों जाते थे और यही जुनून उन्हें 1956 या 1957 के समय मुंबई ले आया जहां उन्होंने लंबा संघर्ष किया। कहते हैं कि एक बार एक गेस्ट हाउस में उन्हें बहुत भूख लगी तो अपने रूम पार्टनर का रखा इसबगोल उन्होंने पानी में घोलकर पी लिया। अगले दिन अनेक बार वॉश रूम जाना पड़ा तो उनका मित्र उन्हें डाॅक्टर के पास ले गया, जिसने कहां इसे दवा नहीं भरपेट भोजन की आवश्यकता हैं। अगर यह महज किस्सागोई भी हो तो भी यह सच है कि उनका भूख से परिचय निर्मम मुंबई में ही हुआ। लंबे संघर्ष और अनगिनत फांको के बाद उन्हें हिंगोरानी नामक निर्माता ने अवसर दिया तो धर्मेन्द्र ने हिंगोरानी की अनेक फिल्में लगभग मुफ्त में की थी। सबसे अधिक सफल सितारा होेने के बाद भी धर्मेन्द्र ही ऐसे एकमात्र सुपर सितारे थे, जिन्होंने भव्य फिल्मों में काम करते समय भी कमजोर निर्माताओं की फिल्में भी अभिनीत की। आज के सितारे तो केवल अपने मित्र निर्माताओं की फिल्में ही करते हैं। अब जितना अधिक सिमटे तो वह सितारा हैं, फैले तो मामूली है। धर्मेन्द्र ने अपने शिखर दिनों में अनगिनत कमजोर निर्माताओं की फिल्में अभिनीत की हैं। वे केवल 'शोले' बनकर नहीं दहके वरन उन्होंने फिल्म उद्योग के 'सांझा-तंदूर' को भी जलाए रखा।
सबसे दुखद बात यह है कि धर्मेन्द्र के शिखर दिनों की तरह अब समस्त वर्गों को खुश रखने वाली मसाला फिल्में ही नहीं बनती और इसी कारण एकल सिनेमाघरों की संख्या घट गई है, जिसके कारण फिल्म उद्योग का अस्तित्व ही संकट में आने वाला है और इस भयावह तथ्य से अनजान स्वयं फिल्म उद्योग और प्रांतीय सरकारें उदासीन है, जि्होंने सिनेमाघर के लाइसेंस को ही कठिन बनाए रखा है। कुछ प्रांतों ने छूट दी है तो उसका भी वर्गीकरण कर दिया है। कुछ ही वर्षों में फिल्मी अफसाने देखने वाले तो होंगे परंतु दास्तां (फिल्म दिखाने) सुनाने वाले नींद में गाफिल हो जाएंगे। हाल में सनी देओल ने 'घायल भाग दो' अत्यंत मनोरंजन और रोचक फिल्म बनाई है। क्या धर्मेन्द्र बायोपिक का विचार कोई करेगा? वह आज मजदूर, कृषक और सरल सीधे आवाम का नायक रहा है अब तो अवाम को ही बदला जा रहा है।