अहमदाबाद में अशोक कुमार को आदरांजलि / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :23 अगस्त 2016
निदा फाज़ली के एक शेर का आशय है कि कोई पिता कभी मरता नहीं, वह अपनी संतान की सांसों में जीवित रहता है। 20 अगस्त को अहमदाबाद में शेर को मंचित होता देखने का सौभाग्य मिला, जब रूपा गांगुली वर्मा ने अपने पिता अशोक कुमार के जीवन की कुछ घटनाओं की जुगाली की। दरअसल, वे श्रोताओं से रू-ब-रू होते समय स्वयं से ही मुलाकात कर रही थीं। पिता की स्मृति ने उनके चेहरे पर जो मासूम-सी मुस्कराहट और आंखों में नमी पैदा की उसमें श्रोताओं को उनके पिता अशोक कुमार की झलक देखने का अवसर प्राप्त हुआ। उस अवसर पर प्रकाश डालते हुए स्वयं उनके द्वारा गाए गीतों का वीडियो भी दिखाया गया और इसे बनाने वाले मुंबई से आए कलाकार ने अथक परिश्रम और कल्पनाशीलता से यह काम इबादत की तरह किया था। अशोक कुमार द्वारा निर्मित व अभिनीत फिल्म 'महल' के दृश्य की तरह वह समां बांधा था कि कोई व्यक्ति एक अनजान महल में अपनी ही बनी पेंटिग्स देखकर आश्चर्य में पड़ जाता है। पुनर्जन्म का आभास देने वाली 'महल' की तरह ही उस आयोजन में यह भ्रम-सा हुआ कि अशोक कुमार अपने मौजूदा स्थान स्वर्ग से धरती पर उस शाम लौट आए हैं। उनकी साक्षात मौजूदगी का अनुभव बनाने में सफल रहा यह आयोजन।
संभवत: भारत में अहमदाबाद स्थित ग्रामोफोन क्लब एकमात्र ऐसी संस्था है, जिसके सदस्य पुरानी हिंदी फिल्मों के गीतों को बार-बार सुनते हैं और प्रतिवर्ष कम से कम चार आयोजन एेसे करते हैं, जिनमें इन यादों को पूजा की माला के मनकों की तरह बार-बार उंगलियों से घुमाया जा सके। ज्ञातव्य है कि माला में सौ दाने होते हैं परंतु उंगलियों से 99 को घुमाया जाता है और सौवां मनका है भी, घुमाया भी जाता है परंतु उसे गिनती में शुमार नहीं करते। कई लोगों का जीवन भी इस सौवें मनके की तरह होता है, जो घुमाया तो जाता है परंतु गिनती में शुमार नहीं है। ग्रामोफोन क्लब के सारे कर्मठ सदस्य भी इस मनके की तरह हैं, जो घुमाए जाते हैं परंतु गिनती में शामिल नहीं किए जाते। हमारे आम आदमी ऐसे हैं, जो गिने-गिनाए हुए हैं परंतु तथाकथित आर्थिक प्रगति का हिस्सा नहीं है। भारत का गणतंत्र कुछ खास लोगों के लिए विशेष लोगों के द्वारा चलाया जा रहा है परंतु आम आदमी के कष्ट जस के तस ही हैं। उनकी सतत परिवर्तनहीनता ही भारत के तथाकथित परिवर्तन की सच्चाई है।
जमशेदपुर में जन्मे अशोक कुमार का लालन-पालन मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में हुआ और इस स्नातक को अपने जीजा शशधर मुखर्जी द्वारा बॉम्बे टॉकीज की प्रयोगशाला में काम मिला परंतु हिमांशु राय की पारखी निगाह ने उन्हें देविका रानी के साथ बतौर नायक प्रस्तुत किया फिल्म 'जीवन नय्या' में। इसके बाद आधी सदी से अधिक समय तक वे अभिनय करते रहे और कुछ फिल्मों का निर्माण भी किया। अशोक कुमार फुर्सत के क्षणों में पेंटिंग भी करते थे और होम्योपैथी का विशद अध्ययन भी करते रहे। उन्हें हमेशा दिली अफसोस रहा कि उनकी दवा भी उनकी प्रिय सह-कलाकार मीना कुमारी को नहीं बचा पाई और बचाती भी कैसे जब मीना कुमारी उस दवा को शराब के साथ गुटक लेती थीं। इस 'छोटी बहु' (साहब, बीबी और गुलाम) ने ताउम्र आर्थिक एवं भावनात्मक शोषण को भुगता। याद आता है इंदौर के शायर कासिफ इंदौरी का शेर, 'सरासर गलत है मुझपे इलजामे बाला नोशी, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब।' शराब में पानी और बर्फ तो रस्मी तौर पर मिलाए जाते हैं, वह तो आंसुओं के साथ ही पी जाती है। स्मृति में कौंधती हैं जयशंकर प्रसाद की पंक्तियां, 'घनीभूत पीड़ा भी, मस्तिष्क में स्मृति-सी छाई। दुर्दिन में आंसू बनकर,वह आज बरसने आई।' यह स्मृति का हिरण ही है कि पंक्तियां सिलसिलेवार याद नहीं रहतीं। उनका कोलॉज बन गया है, एक सिरा पकड़ो तो दूसरा हाथ में फिसल जाता है, जिंदगी की तरह। खाकसार की लिखी 'कत्ल' में संजीव कुमार के साथ अशोक कुमार ने अभिनय किया था। घोर अनुशासित अशोक कुमार समय के पहले मेकअप लगाए तैयार होते थे और संजीव कुमार हमेशा की तरह तीन घंटे देर से आते थ।े हमारे लिए यह लज्जा की बात थी कि हमें सीनियर कलाकार को इंतजार कराना पड़ता था। अशोक कुमार ने स्वयं हमारी दुविधा यह कहकर दूर कर दी कि इंतजार करने में उन्हें कोई परेशानी नहीं है, क्योंि समय से उन्होंने मित्रता कर ली थी और वे अकेलेपन से विचलित नहीं होते थे। इस तरह वे सतत भीतरी शांति को महसूस करते थे। उन्हें दादा मुनि यूं ही नहीं कहते थे, वे सदैव स्थितप्रज्ञ रहने को साध चुके थे। अशोक कुमार की आंखों में आशा के दिये उन्हें सारा जीवन दीपावली की तरह बिताने का अभ्यस्त कर चुका था। 'राहों के दिये आंखों में लिए चल मुसाफिर चल।'