अहमद अली के नाम / प्रेमचंद

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पत्रांक 1

बनारस

27 फरवरी 1936

बिरादरम,

तस्लीम,

"शम्मू"1 मिले, पढ़ गया। कबूतरबाजों की इस्तिलाहें (पारिभाषिक शब्दावली) और उनकी बाजारी गुफ्तगू आपने खूब लिखी है, लेकिन हिन्दी में तो एक बाकायदा ग्लासरी लिखनी पड़ेगी। मद्रास का जाँगलू देहली के मुहावरे क्या समझे। आप अपना हिन्दी मजमूआ मुझे जरूर भेजें, मैं उस पर जरूर लिखूँगा। शम्मू खाँ में कोई जान डालने वाली चीज न निकली, हाँ उस तबके के दो आदमियों के मजाक और दिफा (सुरुचि और प्रतिरक्षा) का नक्शा खिंच गया। उसके साथ ही कोई इमोशन पर करने वाली बात भी होती तो किस्सा बेहतर हो जाता। मैं तो 20 फरवरी को बवक्त तीन बजे सेपहर (तीसरे पहर) मिस्टर सज्जाद जहीर के दौलतखाने पर हाजिर हुआ था। मैंने उन्हें लिखा भी था कि अनकरीब (शीघ्र) इलाहाबाद में आपसे मिलूँगा तब अपनी स्कीम के मुताल्लिक कुछ गुफ्तगू होगी। मगर हजरत मिले ही नहीं। शायद लखनऊ गए हुए थे। आपके मकान का मुझे पता न था। मैं तो समझ रहा था कि आप लखनऊ में हैं मगर अब मालूम हुआ कि आप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में आ गए हैं। क्यों नहीं मिस्टर रघुपति सहाय2 को अपनी स्कीम में ले लेते। उनके मशवरे से मुझे फायदा होगा हालाँकि अमल के ऐतबार से उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं।

दुआगो

प्रेमचंद

अहमद अली (1910-1994) - 1932 से 1946 तक लखनऊ, इलाहाबाद आदि विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के व्याख्याता रहे। 1944 से 1947 तक प्रेजीडेंसी कालेज, कोलकाता में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष रहे। देश विभाजन के उपरान्त नेशनल सैन्ट्रल यूनिवर्सिटी, नानकिंग, चीन में व्याख्याता रहे, फिर पाकिस्तान जाकर 1948 में विदेश प्रचार के निदेशक रहे। 1950 में पाकिस्तान विदेश सेवा में कार्यरत हो गए। सज्जाद जहीर के साथ प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में सहयोगी। ‘अंगारे’ के एक कहानीकार।

1. अहमद अली की एक कहानी का शीर्षक।

2. रघुपति सहाय (1896-1982) -1919 में सिविल सर्विस छोड़कर देश कार्य में जुट गए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लम्बे समय तक अंग्रेजी के व्याख्याता रहे और वहीं से सेवानिवृत्त हुए। फिराक गोरखपुरी के उपनाम से उर्दू के सुप्रतिष्ठित शायर। पद्म भूषण, ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी सम्मानों से विभूषित।