अहसास का धागा / राबिन शॉ पुष्प

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आज से चालीस साल पहले उसने कहा था-" जंग में प्यार नहीं होता, लेकिन प्यार में जंग संभव है...इसलिए मैं तुमसे कहती हूँ, अगर तुम दुःखद हादसे को टालना चाहते हो, तो मेरी बात मान लो...।" ... तब मैं ' कैरम' का डिस्ट्रिक्ट और कॉलेज चैम्पियन था। फुटबाल का बेहतरीन खिलाड़ी... अपनी 'नवीन' टीम का कप्तान। हर मैच जीतकर, हाफ-पैंट और हरी सफेद जर्सी में, कंधे पर बूट लादे उसके यहाँ पहुँच जाता था। वह दरवाजे पर खड़ी मेरा इन्तजार करती थी...मैं दूर से अपनी जीत का इशारा करता था और वह खुशी से ताली बजाकर मेरा स्वागत करती थी...।

ऐसा ही कोई एक दिन था...वह गेट पर खड़ी थी प्रतीक्षारत मैने उसके करीब जाकर कहा था-

इस दरवाजे पर

मेरी आहट को रुकी तू,

कहीं गुजरें न

यहीं से कहारों के कदम...

कि मेले में-

हाथ छूटी बच्ची की तरह फिर

हर शाम मरेगी

हर उम्मीद तोड़ेगी दम!

अगर ऐसा हुआ...

तो समझ लूंगा मैं-

इस व्यापारी से जग ने,

इक और भरम दिया है...

वह गुमसुम मुझे देखती रही! साँप सूँघी!

" क्या हुआ गुड़िया? आज मैं फिर जीत कर आया हूँ। मेरा स्वागत नहीं करोगी, एक कप चाय से? "

" जंग में प्यार नहीं होता, लेकिन प्यार में जंग संभव है...इसलिए मैं तुमसे कहती हूं , अगर तुम इस दुःखद हादसे को टालना चाहते हो, तो मेरी बात मान लो।"

" मैं समझा नहीं!"

" तुम्हारे दोस्त तुमसे मांग करते हैं और लगभग हर मैच में तुम गोल दिया करते हो। तुम भूल जाते हो कि मैने भी तुमसे कुछ मांगा है।"

" क्या?"

" कहानियाँ और लाल चूड़ियां..."

" मुझे हरा रंग पसंद है। हरे कांच की चूड़ियां चलेंगीं?"

" नहीं। बस यूँ समझ लो, मैं कम्यूनिस्ट हूं। मुझे लाल रंग प्रिय है। अपना अधिकार मांग रही हूं, नहीं मिलेगा, तो छीनकर ले लूंगी...जंग में सबकुछ जायज है।"

और सचमुच, वह मुझसे कहानियां लिखवाने लगी...जब भी मेरी कोई कहानी छपती, उस लगता उसने एक किले पर कब्जा कर लिया...वह एक के बाद एक जंग जीतती गयी...कि अचानक एक दिन, वक्त के आतंकवादी ने कुछ इस तरह छल से हमला किया कि हम दोनों का प्यार लहूलुहान हो गया...उसकी शादी हो गई। उस रोज, कहानी छोड़कर मैने फिर एक कविता लिखी-

ये तू, कि जिसने-

मेरी पीड़ा को छांव दी,

अब होके अलग

अश्कों में ढली जाती है

ये तू नहीं-

हर औरत की कोई लाचारी है

जो सिक्के की तरह

हाथों से चली जाती है...

ये पंक्तियां और इस तरह की ढेरों पंक्तियां डायरी के पन्नों के बीच फूलों या पत्तों की तरह दबकर सूख गयीं...कहीं कोई खुशबू नहीं...कोई हरापन नहीं...मगर मुझे हरा रंग पसंद था, पसंद है और तबसे तो और भी, जबसे बुध की महादशा शुरु हुई...और लाल रंग?

अंतिम बार उसने कहा था " मेरी शवयात्रा में आओगे?"

" शवयात्रा?"

" वही, विदाई-समारोह...डोली उठने पर लोग रोयेंगे, जैसे अर्थी उठने पर रोते हैं...मुझे लाल रंग प्रिय है...तुम देख लेना, लाल साड़ी और लाल चूड़ियों में तुम्हारी यह कम्यूनिस्ट गुड़िया कैसी लगती है...।"

मैने, बस इतना कहा था-" हम दोनों के प्यार को सलीब दी गयी...लहू की टपकती बूंदों से हम तर हो गये...तुम तो कम्यूनिस्ट हो ही, जाते-जाते मुझे भी प्यार में कम्यूनिष्ट बनाकर जा रही हो...अब दोनों को, शेष जीवन, इस लाल रंग से मुक्ति नहीं मिलेगी...।"

मगर एक दिन उसे इस रंग से मुक्ति मिल गई, जिस दिन उसके माथे का लाल रंग पोंछ दिया गया...! इन लम्बे वर्षों में न मैं उससे मिला, न वह मुझसे...मैं मुंगेर से पटना आ गया, वह व्याह कर मुंगेर से बेगूसराय चली गयी...हम दोनों अपने-अपने परिवारों में खो गये...। मैं कई बार साहित्यिक कार्यक्रमों के सिलसिले में बेगूसराय गया...उससे कभी नहीं मिला...वजह यह थी कि मुंगेर आने से पहले हम बेगूसराय में रहते थे...1954 में घर-बार बेचकर मुंगेर आ गये...मैने जे.के. हाईस्कूल से मैट्रिक और जी.डी. कालेज से इंटरमीडियट किया था...उसने कहा था-" यह कितना अजीब संयोग रहा! तुम लोग परिवार सहित बगूसराय से उजड़कर बसने के लिए मुंगेर चले गये और मैं मुंगेर से उजड़कर अपना घर बसाने बेगूसराय जा रही हूं...तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हम अपने-आपसे भाग रहे शरणार्थी जैसे हैं...।"

" अधिकतर धार्मिक उन्माद में ऐसे हालात बनते हैं, जब आदमी को शरणार्थी बनना पड़ता है...हमारे बीच धर्म की दीवार नहीं रही!" मैने कहा था।

वह मुझे देखती रही...फिर बोली-" जो पूरे मन और आत्मा की गहराई के साथ धारण किया जाये, वही 'धर्म' है...हम दोनों 'प्यार ' को धारण करके 'धार्मिक' बन गये...इसी प्यार के धर्म ने हम दोनों को बारह वर्षों तक विश्वास की तकली पर चढ़ाकर अहसास के धागे में बदल दिया है...पहले तुम रूई की तरह कहीं उड़ रहे थे, मैं कहीं और भटक रही थी...अब न तुम रूई रहे, न मैं... हम धागा बन चुके हैं...हमें अब कोई लग कर, फिर से रूई में तब्दील नहीं कर सकता...इसलिए ध्यान रखना, विश्वास की तकली पर काता गया यह अहसास का धागा तुम्हारी गलती से टूट न जाये...अहसास और सांस, दोनों के टूटने से मृत्यु होती है...!"

मेरा स्वर आपसे आप काँपने लगा-" तुम्हारे जाने के बाद, मेरा क्या होगा?"

" तुम...अब तुम कहां...और मैं, मैं कहाँ...'हम' बन चुके हैं...हम यानी विश्वास की तकली पर बारह वर्षों तक काता गया अहसास का धागा...याद रखना, अहसास और रिश्तों में फर्क होता है...रिश्ते में ज्यादातर लोग समझौता करते हैं, कभी झुकते हैं, कभी रिश्तों को झेलते हैं और कभी-कभी रिश्तों के बीच अहसास का पौधा भी जन्म ले लेता है...मैने तुमसे कहा न, सांस और अहसास दोनों के टूटने पर मृत्यु होती है...सांस टूटने से इन्सान मरता है, अहसास टूटने से 'प्यार'...।"

और यही वजह थी कि मैं बेगूसराय जाकर भी, उससे कभी नहीं मिला...हां, अहसास के उस धागे को रोजरी या जनेऊ की तरह धारण कर, मैं कभी 'धार्मिक' बन गया था... आज तक मैने 'धर्म' परिवर्तन नहीं किया...शायद इसीलिए, यह सुनकर कि वह अकेली हो गई है, अत्यंत दुःखी है...मैं अपने को रोक नहीं सका!

वह जहां रहती थी, मैने कई लोगों से उसके बारे में पूछा। कोई उसे नहीं जानता था। मन कांच की तरह चमक गया...हे प्रभु! इस शहर में, इस कदर अनजान-अनाम है मेरी गुड़िया!

एक आदमी ने कहा ग्रीन दीदी...ग्रीन मैडम...ग्रीन मेमसाहब...यहां उन्हें नाम से गिने-चुने लोग ही जानते हैं...हरदम हरी चूड़ियों से भरी कलाइयां, हरी साड़ी...सभी ने अपनी उम्र के हिसाब से उनका नामकरण कर लिया...मगर अब, सफेद सूती साड़ी...एकदम नंगी कलाइयां...!"

वह दरवाजा खोलती है...सफेद सूती साड़ी...नीम-नंगी कलाइयां- " तुम? ...आओ, भीतर आओ...!"

मैं कमरे में दाखिल हो गया। वह भीतर चली गयी। मैं सोचने लगा कभी इस लड़की ने कहा था- "जंग में प्यार नहीं होता, लेकिन प्यार में जंग संभव है...इसीलिए मैं तुमसे कहती हूँ, अगर तुम इस दुःखद हादसे को टालना चाहते हो तो मेरी बात मान लो...मुझे चाहिए कहानियां और लाल चूड़ियां...!"

" मुझे हरा रंग पसंद है। हरे कांच की चूड़ियां चलेंगीं ?"-मैने कहा था।

" नहीं! बस यूँ समझ लो, मैं कम्यूनिस्ट हूं। मुझे लाल रंग प्रिय है। अपना अधिकार मांग रही हूँ, नहीं मिलेगा, तो छीनकर ले लूंगी ...जंग में सब कुछ जायज है।"

वह चाय लेकर आ जाती है।

मैं देखता हूँ...नंगी कलाइयां और सफेद रंग की सूती साड़ी...सफेद रंग! यह रंग उसने कब चाहा था! उसे तो लाल रंग प्रिय था...।

"क्या सोचने लगे? चाय पीओ, ठंडी हो जायेगी।"

मैने प्याली लेकर, पहली चुस्की ली। वह चुपचाप मुझे देखती रही। फिर धीरे से बोली-"तुम अपना ध्यान नहीं रखते हो...तुम्हारे बाल कितने सफेद हो गये हैं।"

" और तुमने बहुत ख्याल रखा है अपना! ...अपनी जिन्दगी के खूबसूरत रूमाल के एक कोने में, तुमने जो अहसास का धागा सहेज कर रखा था, उसे क्यों कीड़ों के हवाले कर दिया?"

" यह सच है, इस घर में आते ही, मेरी देह और मेरी इच्छाओँ को, वक्त की दीमक धीरे-धीरे चाटने लगी...अब...अब कुछ भी शेष नहीं...।"-वह अचानक फफककर रोने लगी।

अपने को जब्त करते हुए मैने कहा- " गुड़िया, हम ये समझे थे, होगा कोई छोटा-सा जख्म, तेरे दिल में बड़ा काम रफू का निकला...।" फिर उसके आँसू पोंछने के लिए मैने हाथ बढ़ाया, तो वह खड़ी हो गयी- " न, मेरा स्पर्श मत करना, न मुझे 'लाचार' या 'बेचारी' समझना... कल मैं उसकी पत्नी थी, आज उनकी विधवा हूँ...साँस टूटने से इंसान मरता है, रिश्ता नहीं-चाहे वह झेला गया हो या समझौते पर टिका हो...मैने 'विधवापन' को धारण किया है, मुझे कभी अधर्मी बनाने की कोशिश मत करना...।"

मैने एक पल उसे देखा...वह सफेद सूती साड़ी के आँचल से आँसू पोंछ रही थी...फिर मैं, अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोलने लगा...दरवाजे के करीब आकर, मैने कहा-" अच्छा ग्रीन...अब चलता हूँ...।"

वह निकट आ गयी-" तुम्हें मेरा नया नाम मालूम हो गया...अच्छा हुआ...यह सच है कि ब्याह के बाद मैं हमेशा हरी चूड़ियां और हरे रंग की साड़ियां पहनती रही...बस, इसलिए कि वक्त के आतंकवादी ने, मुंगेर में छल से जो जख्म दिया था हमेशा हरा रहे...पति के होने और प्रेमी के न होने के अहसास को मैने भरपूर जिया है...हाँ, ये कुछ रुपये तुम मेज पर भूल गए थे...।"

"रख लो, शायद काम आ जायें...।"

" कुछ लोगों का उसूल रहा है-मुहब्बत करो, खाओ-पियो और मौज करो। ऐसे लोग मुहब्बत को, सिक्के की तरह एक दूसरे के जिस्मों पर खर्च करते हैं और आकिरी वक्त में एकदम कंगाल हो जाते हैं। कुछ लोग मोहब्बत को बेशकीमती सिक्का समझकर , बड़ी ही खामोशी से दिल क बैंक में हमेशा के लिए रख छोड़ते हैं...तब वह रकम बढ़ती जाती है...बढ़ती जाती है...मैने भी कभी यही किया था...अब तुम खुद ही अन्दाजा लगा लो कि मैं कितनी अमीर हूँ...और तुम कितना...वर्षों का बहीखाता तो तुम्हारे पास होगा ही...।"

बिना किसी तरफ देखे, मैने हाथ बढ़ाया...उसने हथेली पर सारे रुपये रख दिये...फिर दरवाजा बन्द हो गया।

मैने देखा, घर की खपरैल छत टूटी हुई थी...दीवारें दरक गयी थीं...बावजूद इसके, वर्षों का बही-खाता खोलने पर पता चला, इस दरवाजे के उस पार एक बेहद अमीर औरत रहती है...।