अहसास / प्रज्ञा
‘‘अबे हो कहाँ तुम? कितनी दफा फोन किया? मिस्ड कॉल भी नहीं देखते हो क्या? या ज़्यादा पर निकल आए हैं तुम्हारे? लगता है ट्रिमिंग करनी पड़ेगी फिर से। भूल गए क्या वो दिन? हो क्या जाता है रह-रहकर तुमको? लगता है कि बीच-बीच में संन्यासी होकर चले जाते हो किसी सुदूर यात्रा पर या फिर मौनव्रत धरण कर लेते हो।’’
‘‘नहीं भैया ऐसी तो कोई बात नहीं है। बस ज़रा...’’
‘‘अच्छा ठीक है। अब शर्मिंदा न होओ। बस मिल लो एक बार। अमां तुम्हारे मतलब की ख़बर है। जानते हो तुम्हारे अपूर्व भैया दिशा राष्ट्रीय के ब्यूरो चीफ हो गए हैं।’’
‘‘आं आं अरे ...कब ?’’ वर्षों बाद अपूर्व भैया के जि़क्र और उनसे जुड़ी इस अनपेक्षित ख़बर ने सुशांत को हिला दिया। शायद इसलिए कुछ हकलाते से अटपटे शब्द निकल पड़े उसकी जु़बान से।
‘‘अबे फोन पर ही जान लोगे सब? घर आ जाओ शाम को या...’’
‘‘ठीक है भैया, आज कॉलेज के बाद तीन बजे नाटक का एक स्पेशल शो है। देखने जाना है। बस खत्म होते ही आपके घर आता हूँ।’’ बातों का अंत होने पर भी मेरे कानों में दीपक भाई के कहे शब्द गूंजते रहे। अपूर्व भैया के अतीत को जानने वाले कभी भी उनके इस भविष्य की कल्पना नहीं कर सकते थे। उनकी तरक्की की ख़बर आज राहत पहुँचा रही थी। ‘‘कैसे पहुँचे होंगे वो यहाँ तक?’’ सुशांत सोचने लगा। राहत की बात यही थी कि चलो एक लंबे संघर्ष का अंत हुआ और वो भी इतना सुखद। सुशांत के दिमाग में आज भी लगभग पंद्रह वर्ष पहले की बात उस दिन की ही तरह ताज़ा है जब उसका परिचय अपूर्व और उनके लफंटरनुमा दोस्त दीपक से हुआ था। बी.ए. का वो आखिरी साल था। सारी मौज- मस्ती अपने चरम पर पहुँचकर शांत हो गयी थी क्योंकि नौकरी के बाज़ार के लायक अभी सुशांत के पास कुछ समय बाद मिलने वाली ऑनर्स की डिग्री के अतिरिक्त न कोई डिप्लोमा था न कोई अनुभव। पिताजी पूंजी लगाकर कोई छोटा-मोटा बिज़नेस शुरू करवा भी देते पर सुशांत ने कभी खुद को व्यापार के लायक समझा ही नहीं। उसके लिए एक और एक दो ही थे हमेशा से एक और एक ग्यारह करने की न तो साध थी न ही हिम्मत। पर पिफर करता क्या? इसी उधेड़बुन में एक दिन पता चला कि एक मासिक पत्रिका शुरू होने जा रही है और वहाँ कुछ ट्रेनी भी रखे जा सकते हैं। पूछते-पाछते दो-तीन बसें बदलकर पसीने से सराबोर जब सुशांत पत्रिका के दपफ्तर पहुँचा तो अब तक की सुकूनदायक कल्पनाएं हवा हो गईं। पत्रिका के भव्य, आरामदायक और सुव्यवस्थित से ऑफिस की जगह मिला दो छोटे-छोटे कमरों को एल्यूमीनियम के पार्टीशन से चार खानों में बांटता हुआ एक दड़बेनुमा ऑफिस। जहाँ तंग जगह में सिकुड़- सिमटकर काम चल रहा था।
कहने को तो उस दड़बेनुमा ऑफिस में रिसेप्शन भी था जहाँ एक खीजी-सी लड़की धड़ाधड़ कुछ टाइप करने में लगी थी और एक लंबे पॉज़ के बाद नए आने वालों के सवालों का जवाब भी दे रही थी। उसी जगह एक अन्य टाइपिस्ट भी एक विशिष्ट अंदाज़ में टाइपराइटर पर दनादन हथौड़े बरसा रहा था। उसके ठीक सामने संपादक जी का केबिन था और इनके आगे की तरफ एक लंबा गलियारा जिसमें पांच-सात लोग दीख रहे थे। पसीने से तरबतर सुशांत ने रिसेप्शनिस्ट से पानी मांगा तो उसने बाहर की ओर इशारा किया। ‘‘अरे गेट आउट नहीं कर रही है। बताना चाह रही है कि कोई पानी पिलाने वाला नहीं आने वाला है। पानी बाहर रखा है। उठो और पी लो। और फुर्सत में हो तो भैया हमें भी पिलाना।’’ ये उपहासात्मक टोन वाली आवाज़ दीपक की थी। सुशांत को सारा माहौल एकदम भिन्न लग रहा था। बी.ए. का एक पढ़ाकू-सा छात्र ये कहाँ आ फंसा? पानी पीने की जगह देखकर उसे और कोफ्त हुई। सीढि़यों के पास ही एक चरमराए से स्टूल पर ज़माने भर की धूल में नहाया और मैल की सिल्वटों से सजा मयूर जग रखा था जिसके नीचे उससे भी गंदी एक रिस्ती हुई बाल्टी शायद जग से टपककर गिर रहे पानी और जबरन डस्टबिन बना दिए जाने की दोहरी जि़म्मेदारी उठा रही थी। मयूर जग पर औंधे रखे गिलास में पानी पीकर सुशांत ने अपने बाल हाथों के कंघे से संवारे और ज़रा बाहर निकल आई शर्ट को सलीके से पेंट में डाला।
‘‘क्या संपादक जी अंदर बैठे हैं?’’ सुशांत के सवाल का जवाब रिसेपशनिस्ट की ओर से न आकर दीपक की ओर से आया ‘‘हैं तो सही पर मिलेंगे नहीं तुमसे। शाम तक का समय लेकर आए हो न?... तो बैठो इत्मीनान से।’’
‘‘बस करो दीपक...अच्छा क्या काम है तुमको? थोड़ी देर रुको अभी बुला लेंगे सर।’’ उदासीनता और उपहास के माहौल में ये पहली आत्मीय आवाज़ संपादक के केबिन के बाहर बैठे एक दूसरे आदमी की थी। ‘‘जगह तो चपरासी की है पर अंदाज़ और सूरत से चपरासी तो नहीं लग रहा। पर क्या पता चलता है आजकल?’’ --वाले भाव में सुशांत ने मन ही मन सोचा। अंदर साक्षात्कार की औपचारिकता एक ही केबिन को शेयर कर रहे दो व्यक्तियों ने निभाई। लकड़ी की तख्ती पर पद और नाम देखकर ही सुशांत ने संपादक महोदय को पहचाना। दूसरे सज्जन तकनीकी विभाग के वरिष्ठ थे जो शायद पद के अनुरूप स्थान न मिलने पर अपनी गरिमा की रक्षा के लिए संपादक की बगल में बैठ गए थे। इस ट्रेनिंग के एवज में सुशांत को कोई राशि नहीं मिलने वाली थी और सुशांत वैसे भी काम सीखने आया था तो फैसला जल्दी हो गया। ‘‘देखो बाहर अपूर्व बैठा है, काम समझा देगा। आज से ही सीखना शुरू कर दो।’’ संपादक महोदय ने दरवाज़े की ओर इशारा किया। बाहर चपरासी की जगह बैठा, आत्मीय स्वर वाला व्यक्ति ही अपूर्व था। उन्हें मेरी जि़म्मेदारी सौंपी गई तो ऐसा लगा इस माहौल में अब शायद मैं टिक सकूंगा।
‘‘आप ही अपूर्व हैं?’’ मैंने जवाब की प्रतीक्षा न करते हुए अपनी बात जारी रखी-’‘सर ने कहा है कि मुझे आपसे काम सीखना होगा।’’ जवाब सही व्यक्ति की तरफ से न आकर फिर दीपक की ओर से आया ‘‘चलो बेटा अपूर्व लग जाओ काम पर। बेबी सिटिंग का काम मिला है।’’ मेरी समझ से बाहर था कि इन जनाब को मुझसे आखिर क्या परेशानी है? पर एक तो उन सब अनुभवी लोगों के बीच मैं वाकई बच्चे -सा ही लग रहा था फिर पहले ही दिन खामखां किसी मामले को तूल नहीं देना चाहता था। आखिर गरज तो मेरी ही थी।
अपूर्व जिन्हें कुछ ही दिनों में सम्मानपूर्वक मैं अपूर्व भाई कहने लगा और वो मुझे प्यार से बाबू बुलाने लगे थे , उन्होंने ऑफिस के पहले हफ्ते में मुझे फाइलें बनाना सिखाया। ज़रूरी खबर को काटकर कागज़ पर चिपकाकर उसका हेडिंग डालो और पंच करके दिल्ली, राज्य, विदेश, खेल, राजनीति, संस्कृति, आर्थिक आदि नामों से बनी फाइलों में नियमित रूप से लगाते जाओ। इसके अलावा ‘‘कोई भी किसी काम को कहे मना नहीं करना है’’-- ये संपादक महोदय मुझे पहले ही समझा चुके थे। जो जगह इस काम के लिए निर्धरित थी वो भी कम अजीब नहीं थी। एक पतले- लंबे गलियारे को दो भागों में बांटा हुआ था। ज्य़ादा जगह आर्ट वर्क को दी गई थी और हम तीन ट्रेनी--मैं , अपूर्व भाई और उन्हीं का हमउम्र विनोद एक घिच्ची-पिच्ची सी जगह में सिकुड़-सिमटकर काम करते। हमारे ठीक सामने झूमा मैम अपने कम्प्यूटर के साथ आर्ट वर्क में व्यस्त रहतीं। हफ्ते भर में मेरा परिचय कई लोगों से हो गया। राज्य देखने वाले दुबे सर, आर्थिक पक्ष देखने वाले अरुण जी से, राजनीति देखने वाली अल्पना मैडम , संस्कृति देखने वाले सबसे स्टाईलिश नवेद आज़म और आर्ट वर्क देखने वाली झूमा गांगुली मैम से। वो तो जैसे इस ऑफिस की शान थी। पहनावे से ही नहीं लहजे से भी सभी लोग उनके आगे दरिद्र और दरिद्रतम जान पड़ते। उनकी टेबल पर रखा ऑफिस का एकमात्र कम्प्यूटर भी हमें मुंह चिढ़ाता था। हाँ केवल नावेद सर ही उनकी टक्कर के थे। यों कहिए कि अब मेरा मन यहाँ रमने लगा था। किससे कितनी बात करनी है? किसे क्या नहीं पसंद, किससे दूर रहना है काम सिखाते हुए अपूर्व भाई मुझे बतलाते रहते। थोड़े समय में मैं उनसे काफी खुल गया था और उनकी ओर से मुझे खुलने का पूरा अवसर और अधिकार दोनों हासिल थे। बस उनकी एक ही आदत मुझे नागवार गुजरती --तकलीफ चाहे जो हो दोष दिल्ली को देते रहते। ‘‘हाय! ये दिल्ली’’ उनका तकियाकलाम हो गया था जो दिल्लीवासी हाने के कारण मुझे काफी दुख पहुँचाता।
जो काम मुझे सौंपा गया था वह शुरू में तो सुविधाजनक महसूस हुआ पर कुछ दिन बाद मैं उबने लगा। अपूर्व भाई सब भांप रहे थे। ‘‘क्या बाबू काम में मन नहीं लगता है क्या?’’
‘‘ऐसी तो बात नहीं है भाई पर मैं तो सोचकर आया था कि डेस्क का काम करूंगा। कुछ अपना लिखूंगा।’’ धीरे से ही मैंने कहा था पर मार्किटिंग का काम देखने वाले दीपक के कानो में न जाने कैसे पड़ गया। मेरी गंभीर बात का उसने पूरे ऑफिस में तमाशा बनाकर रख दिया। ‘‘लो जी चार दिन हुए नहीं इन्हें बाईलाइन की छपास लग गई। अरे तुमसे सीनियर पड़े धूल खा रहे हैं। तुम हो किस गुमान में बच्चू?’’ मैं जानता था ये इशारा विनोद और खासतौर से अपूर्व भाई की ओर था। अब तक मैं ये भी जान गया था कि अपूर्व भाई को पत्रकारिता के क्षेत्र में आए काफी समय हो गया है पर हमेशा सर से या दुबे जी से काम मांगते रहते हैं। मैंने कई बार एक याचक की मुद्रा में भी उन्हें काम मांगते देखा। पर जिससे भी वह अपनी बात कहते वही ‘देखेंगे’ कहकर टाल देता। इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण अपूर्व भैया की ड्राइविंग और जी-हुज़ूरी से जुड़ा था। अपूर्व भैया कमाल के ड्राइवर थे और किसी काम को न कहना उनके स्वभाव में नहीं था। लिखने या रिपोर्टिंग की धुन उन्हें यहाँ खींच लाई थी पर लोगों ने उनके दूसरे हुनर को प्राथमिकता दी। उन्होंने भी सोचा अपने इस हुनर से ही संपादक का दिल जीत लूं। फिर क्या था, संपादक महोदय को किसी से मिलने जाना है--‘‘अरे कहाँ है अपूर्व? भेजो उसे।’’ किसी को कहीं पहुँचाना है, कुछ लाना है अपूर्व हाजि़र है। कई बार मेरे मन में आता ये अपूर्व भाई बाहर ड्राइवरी करके ही बेहतर कमा लेते। यहाँ जिस काम के लिए आए थे न वो काम मिल रहा है और न कोई पैसा। हाँ ये ज़रूर था कि उन्हें रहने के लिए संपादक साहब के परिचित के साथ कमरा मिला हुआ था। पर किराए के एवज में ड्राइवरी करनी पड़ती। फिर रात का कोई समय हो या दिन का कोई पहर अपूर्व भाई मना नहीं कर सकते थे। संपादक और उनके परिचित जमकर उनसे काम लेते। अक्सर उनकी आंखे नींद से भरी होने के कारण लाल रहतीं। ‘‘आपको गुस्सा नहीं आता ? कैसे नौकरों की तरह ट्रीट करते हैं आपको। चलिए उन्हें तो आपकी योग्यता का एहसास नहीं पर क्या आपको है?’’ मेरे सवाल के जवाब में वे ज़ोर से हँसते हुए कहते-’‘अरे मत तरस खाओ हम पर। सही जगह पहुँचने से पहले ना- नुकुर करना ठीक नहीं। और बाबू दिल्ली है, दिल नही है इसके पास जो हमको समझेगी। हर कोई हमारा इस्तेमाल करने में लगा है।’’ दिल्ली के नाम पर उगला ज़हर तो परेशान करता था पर मैं साफ देख पा रहा था कि मैं, अपूर्व भाई और विनोद इस तरह कहीं नहीं पहुँचने वाले। बिना पैसे के काम भी क्या सिखाया जा रहा है-फाइलिंग और पियूनगिरी।
अपूर्व भाई ने अपने प्रकाशित लेख और ख़बरें भी मुझे दिखाईं जो बिहार के क्षेत्रीय अखबारों में यदा- कदा छपी थी। खेल उनका पसंदीदा विषय था। क्रिकेट का चस्का दीवानगी की हद तक था उन्हें। अपने लेख दिखाते हुए उनकी आवाज़ का उत्साह और गर्मजोशी की मुद्रा बिल्कुल अलग होती। अक्सर कहते ‘‘बाबू डमी इशू निकल जाने दो पिफर तो हम भी लिखेंगे। अभी लांच के समय हम जैसे नयों को काम देकर संपादक कोई रिस्क लेना नहीं चाहते। फिर देखना हमारा असर। अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाएगी।’’ डमी निकलने में पूरे दो महीने को समय था। अपूर्व भाई ज़्यादातर संपादक जी के साथ बाहर रहते और मैं फाइलिंग का काम विनोद के साथ मिलकर जल्दी ही निपटा डालता। खाली समय में झूमा मैडम से ले आउट का काम सीखता या फिर दुबे सर की कृपा से प्रूफ रीडिंग। दोनों कामों में मेरा मन लग रहा था। अचानक एक दिन प्रूफ रीडर अशोक ने अपना काम मेरी तरफ सरकाया और दो बड़े लेख प्रूफ के लिए दे डाले। मेरे लिए एक चुनौती थी। मैंने काम पूरे मन से कर दिया। ‘‘वाह अशोक बड़ा बारीकी से देखा है तुमने दोनों लेखों को’’-थोड़ी देर बाद संपादक महोदय खुद अशोक के डेस्क पर आकर बोले। अशोक ने गर्वीली मुस्कान में ‘थैंक्यू सर’ कहा तो मेरा खून खौल गया। उसने एक बार भी न मेरा उल्लेख किया न ही मेरा शुक्रिया अदा किया। अपूर्व भाई को जैसे ही इस बात की ख़बर हुई एक भद्दी- सी गाली अशोक को देकर उसे और लगे दिल्ली को कोसने। उन्होंने संपादक महोदय के सामने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी। मुझे भीतर बुलाकर संपादक महोदय ने मेरी पीठ ठोकी।
‘‘एक बात समझ लो बाबू। ऐसे ही दान-पुण्य करते रहे तो लोग ठाठ करेंगे और तुम खून के घूंट पीकर धीरे धीरे इस सबके आदि हो जाओगे। फिर कोई बात बुरी नहीं लगेगी और एक दिन तुम्हारी सारी खासियतें दूसरों के नाम से हो जांएगी। इतना मीठा मत बनो कि सब घोलकर पी जाएं। ये दिल्ली है। ज़रा बचके।’’ अपूर्व भाई का दर्द मैं साफ समझ रहा था। पर आज की घटना ने मुझे ये समझा दिया था कि मैं अकेला नहीं हूँ और अपूर्व भाई मेरे साथ कोई अन्याय नहीं होने देंगे।
पत्रिका के लांच प्रोग्राम और पार्टी में दो नई बातें और घटीं। शायद दीपक का मन मेरे ठंडे स्वभाव के कारण भर चला था या उसे कोई नया शिकार मिल गया था पर उसने मुझे बख़्श दिया था। आज का दिन मेरे लिए राहत का दिन बन गया ,नहीं तो ऑफिस में घुसने से पहले मैं सारे भगवानों की चिरौरी करता कि आज मुझे दीपक से बचा लेना, प्लीज़। दूसरे आज के दिन मुझे मेरा पहला असाइनमेंट मिला। कॉलेज फेस्टीवल्स और सांस्कृतिक कायक्रमों पर फीचर तैयार करना था। दो महीने बाद जाकर लगा कि मैं भी कुछ हूँ। मेरी निगाहें बस अपूर्व भाई को खोज रही थी। ‘‘जियो यार ! सीध छक्का बाउंड्री पार।’’ वे मेरे लिए बेहद खुश थे ऐसे जैसे ये काम उन्हें वे मेरे लिए बेहद खुश थे ऐसे जैसे ये काम उन्हें मिला हो। उन्होंने बाकी लोगों को भी मेरे विषय में सूचित किया। मैं देख पा रहा था उनकी निश्छल- सी हंसी जिसके पीछे शायद यही एहसास था कि सुशांत दूसरा अपूर्व नहीं बनेगा। लांच के अवसर पर हम ट्रेनीज़ के लिए एक घोषणा भी हुई कि हमें मासिक रूप से कुछ धनराशि दी जाएगी। आज के दिन तो बल्ले बल्ले हो रही थी। बाद में पता चला संपादक महोदय ने अपूर्व भैया को ड्राइवरी के लिए अलग से भत्ता देना भी तय किया है। ‘‘अब तो दिल्ली बड़ी मोहक और लुभावनी लग रही होगी भैया?’’ मुझे जबाब उम्मीद से एकदम विपरीत मिला-‘‘दिल ऐसा दिल्ली ने मेरा तोड़ा एक ड्राइवर बना के छोड़ा...क्या बनने आए थे और क्या बन गए हैं? माया मिली न राम...’’ खुशी के लम्हों में दिल्ली की कोसा-काटी मुझे अखर गई।
‘‘आज नहीं अपूर्व भाई आज तो खुशी का दिन है। पता नहीं दिल्ली में रहते हुए भी उससे आपको कैसा बैर है? बजाय शुक्रगुज़ार होने के आप ...’’ कहते हुए मैंने अपनी ज़बान को काबू किया।
उस रात पहली बार मेरे घर अचानक अपूर्व भाई का फोन आया। ‘‘सुनो क्या तुम्हें पता है कि तुम्हें असाइनमेंट किसके अंडर में मिला है?’’
‘‘जी नहीं।’’
‘‘उस नवेद के।’’
‘‘ये तो अच्छा है अपूर्व भाई। संस्कृति पर उनकी कितनी पकड़ है और ये मेरा प्रिय विषय भी है।’’
‘‘बाबू सावधान... उसकी पकड़ केवल अपनी ही संस्कृति पर है तुम्हारी नहीं।’’
‘‘ये क्या कह रहे हैं भाई? नवेद सर तो...’’
‘‘छोड़ो अभी... मिलकर बात करेंगे।’’
अपूर्व भाई की बात ने रात भर मुझे सोने नहीं दिया। उनकी बात मुझे बड़ी ही अटपटी लग रही थी। नवेद सर के बारे में इतनी हल्की बात कोई कैसे इस कर सकता है ? और वो भी अपूर्व भाई। अब तक मैंने अपूर्व भाई के स्वभाव की कई विचित्राताएं तो भांप ली थीं। कुछ लोगों के प्रति खीज, कड़वाहट, गुस्सा तो उनके स्वभाव में था। कभी मुखर, कभी मौन। वे गाली भी दे सकते थे। मार-पीट भी सकते थे और किसी की खातिर पिट-पिटा भी सकते थे। भावुक थे इसलिए बिना सोचे-समझे तुरत प्रतिक्रिया भी कर देते थे। उनके सामने संपादक जी के बारे में कोई गलत बात बोलने की हिमाकत नहीं कर सकता था। एक तरह से वे उनके हनुमान थे। पीठ पीछे लोग कहते थे ‘‘संपादक ने अच्छे पद का चारा डाला हुआ है इसलिए किए जा रहा है बेगारी।’’ कई बार मुझे भी लगता कि आप यहाँ पत्रकार बनने आए थे तो क्यों योग्यता से समझौता किए चले जा रहे हैं? ये ऑफिस जब कागजों पर था तब से अपूर्व भाई इससे जुड़े रहे। मैं और विनोद बाद में आकर भी फाइलिंग के काम से बाहर निकलकर लिखने और रिपोर्टिंग के काम से जुड़ रहे थे तो क्या अपूर्व भाई को नहीं लगता होगा कि अब मुझे भी आगे बढ़ना चाहिए? और अब नवेद सर के बारे में ये उल-जलूल बातें।
अगले दिन लंच तक अपूर्व भाई से मुलाकात न हो सकी। मैं और विनोद भाई पास के एक रेस्टोरेंटनुमा ढाबे में खाना खा रहे थे। विनोद भाई ने अपनी विनोदपूर्ण शैली में कहा ‘‘क्या बच्चू आज बड़े चुप हो? घर में पापा से डांट खा कर आ रहे हो क्या बच्चे?’’
‘‘नहीं तो ऐसी बात नहीं है...ये बताइये अपूर्व भाई ,नवेद सर को क्यों पसंद नहीं करते?’’ मैंने कहा।
‘‘ओह तो तुम्हें भी पता चल ही गया बरखुरदार... झूमा ने कुछ कहा होगा ज़रूर।’’
‘‘उन्होंने तो कुछ नहीं कहा पर...’’ मेरी बात अधर में लटकाकर वे बोले ‘‘अरे किस्सा पुराना है। तब इस ऑफिस में मैं, नवेद, अपूर्व ही आए थे। फिर कुछ दिन बाद झूमा भी आ गई। अपूर्व को पहले ही दिन झूमा भा गयी थी। शुरूआत के दिनों में कोई काम न होने के कारण हम लोग काफी गप्पे मारते। यों भी झूमा का बिंदास और दोस्ताना व्यवहार सबको जोड़े रखता। इधर नवेद ने अपूर्व को संस्कृति पृष्ठ पर अपने साथ काम करने की बात भी की थी। अपूर्व बहुत खुश था, नवेद के साथ घंटों कई सारे विषय डिस्कस करता रहता। नवेद भी इतना सीनियर होते हुए अपूर्व को लगातार सुझाव देता रहता क्या लिखो, कैसे लिखो। अपने साथ कई जगहों पर ले भी जाता था लोगों से मिलवाने। झूमा का साथ और नवेद का आश्वासन उसे उत्साहित करता था। पर संपादक जी ने उसे कभी सीरियस्ली लिया ही नहीं। वे तो बस अपूर्व के ‘यस सर’ को अपना हक मानकर उसे उसके काम को छोड़ सभी पफालतू कामों में झौंकते रहे। फिर धीरे धीरे नवेद और झूमा की नजदीकियाँ बढ़ने लगीं। वैसे भी दोनों को देखकर लगता ही है कि एक-दूसरे के लिए ही बने हैं दोनों। कितने स्टाइलिश और अपने काम में परफेक्ट।’’ अब चौंकने की बारी मेरी थी। मुझे तो इस प्रेम-त्रिकोण का कभी पता ही न चला। विनोद भैया ने बताया कि झूमा और नावेद ने अपने भविष्य की कुछ योजनाएं भी बनार्इ हैं। आपिफस में नहीं पर बाहर अक्सर वे लोग साथ समय बिताते देखे गए हैं। उनकी मोहब्बत अपूर्व के गले नहीं उतरी। उसका मानना है कि हिंदू पर तो हिंदू का पहला हक है। अब मुझे झटका लगा।
विनोद भार्इ आप ये किस अपूर्व से मुझे मिलवा रहे हैं? ये तो...।
अमां यार यही तो जिंदगी है। ये तो प्याज़ है जितने छिलके उतारोगे नर्इ हकीकतें सामने आंयेगी और आंखें भी पनियाँएगीं। पर तुम अभी बच्चे हो। ज़रा आंख-कान खोलकर रहा करो।
उपमा बड़ी घिसी-पिटी थी पर बात सही थी। विनोद भार्इ की बातों से मुझे एक बात और पता चली कि झूमा और नवेद की नज़दीकियों के चलते अपूर्व भार्इ ने नवेद सर के दिए गए आफर को भी नकार दिया। बस एक ही जिदद ठान ली किसी तरह एक बड़ा पद हासिल करना है इस ऑफिस में और उनकी इस कमज़ोरी का सही फायदा संपादक जी उठा रहे थे। ये क्या कर रहे हैं अपूर्व भार्इ अपने साथ? अब दिल्ली और दिल का कनैक्शन भी मुझे समझ आ रहा था। फिर भी मन में यही हलचल थी कि अपूर्व भार्इ नाहक लोगों से नाराज़ हो रहे हैं और सबसे ज़्यादा बुरा अपने साथ कर रहे हैं। शाम तक अपूर्व भार्इ भी आ गए। काफी खीजे हुए लग रहे थे। आते ही सवाल दाग दिया तो क्या सोचा है तुमने? उस नावेद के साथ काम सीखोगे?
मेरी क्या औकात है अपूर्व भाई ? ... मैं तो यहाँ कुछ सीखने ही आया था और मना करने की न मेरी हैसियत है न मन। पहली बार ज़बानदराजी करते हुए मैं साफ बोल गया। एक लंबी चुप्पी के बाद आखिर निकले न तुम भी दिल्ली वाले कहकर अपूर्व भार्इ बाहर निकल गए। आज मेरे बारे में भी उनका भ्रम टूट गया होगा, ऐसा मुझे लगा। थोड़े समय में मुझ पर वे एकाधिकार समझने लगे थे। इस घटना के बाद धीरे धीरे उन्होंने मुझसे भी एक दूरी बना ली। मैं काम सीखता रहा और पत्रिका में मेरा लिखा भी प्रकाशित होने लगा। अचानक एक दिन मैं जब ऑफिस पहुँचा तो माहौल कापफी गर्म था - एक प्रूफ रीडर होकर तू अपने आपको राजा समझ रहा है यहाँ का? दिमाग ठिकाने लगा देंगे तेरा। अपूर्व भार्इ अशोक पर चीख रहे थे। अशोक भी चुप न रहा मैं तो प्रूफ रीडर हूँ ,चल ठीक है, तू बता तू क्या है?...एक मामूली ड्राइवर ही न। इसके बाद बात हाथापार्इ पर उतर आर्इ। दोनों गुत्थमगुत्था हो गए। मजमा-सा लग रहा था। विनोद भार्इ नहीं थे पर नवेद सर सबको धकेलकर बीच-बचाव में उतर आए। क्या बच्चों की तरह लड़ रहे हो तुम लोग। बंद करो ये तमाशा। नवेद सर की सहजता से भरी इस बात के बाद ही असली धमाका हुआ। तुम कौन हो बोलने वाले? और तमाशा हम कर रहे हैं,या साले तुम? हिन्दुओं की लड़कियों पर नज़र रखते हो और हमें चाल-चलन सिखाते हो? कहाँ- कहाँ घुमा रहे हो उसे , सारी दुनिया जानती है। एक हाथ से अशोक की गर्दन कसते हुए और दूसरे से नवेद सर को धक्का देते हुए अपूर्व भार्इ हिस्टीरिया के दौराग्रस्त मरीज़ की तरह बोलते जा रहे थे। सब इस नए प्रकरण से स्तब्ध् थे। दो लोगों के प्रेम के व्यकितगत और स्वतंत्र निर्णय को अपूर्व भार्इ ने सांप्रदायिक रंगत दे डाली। संपादक भी बाहर निकल आए और तकनीकी वरिष्ठ भी। निकालिए सर इस मुसल्ले को...सारा माहौल खराब कर रखा है। आपा खोए हुए अपूर्व भार्इ ने सर से बड़े अधिकार से कहा। वे जैसे नवेद सर का पत्ता साफ करने की फिराक में थे।
रात-दिन सर के साथ रहने वाले अपूर्व भार्इ ने कभी सोचा नहीं था कि इस घटना के बाद नवेद को नहीं उन्हें ही ऑफिस से निकाल दिया जाएगा। ज़ाहिर सी बात थी संपादक को योग्य व्यकित की ज़रूरत थी। ड्राइवर तो आसानी से मिल ही जाते हैं। सो अपूर्व भार्इ को उनके अभद्र व्यवहार के कारण नौकरी से निकाल दिया गया। पर शायद अपूर्व भार्इ को ये बात समझ नहीं आर्इ। वे अगले दिन सही समय पर ऑफिस पहुँच गए। तुम यहाँ क्यों आए? आते ही संपादक महोदय ने टेढ़ी निगाह से पूछा। बात माफी मांगने की हद से पार चली गर्इ है अब जाकर उन्हें समझ में आया। और फिर एक दिन तो गजब ही हो गया जब अपूर्व भार्इ नशे में धुत्त ऑफिस में घुसे चले आए। हाथ जोड़कर सबसे माफी मांगने लगे, दुबे सर के पैर पकड़ लिए फिर अचानक संपादक महोदय को बेगारी कराने का दोषी सिदध् करते हुए भददी-भददी गालियाँ देने लगे। इसके बाद ऑफिस में उनकी एंट्री बैन हो गर्इ। अक्सर ऑफिस के नीचे बस स्टैंड पर घंटों बैठा करते। सूनी आंखों से उपर ताकते रहते।
नवेद सर वाली घटना ने मेरे और अपूर्व भार्इ के जीवन की दिशा ही बदल दी। मुझे लगा कि मैं यहाँ कहाँ फंस गया हूँ। अस्थिरता का ये आलम , उसके चलते शोषण, अपमान का चक्र, स्वार्थ और अवसरवाद की तहें और ये नीच लड़ार्इ -झगड़े मेरे बस की बात नहीं। सीधे तरीके से एम.ए. करता हूँ। आगे की बाद में देखी जाएगी। सुनने में आया साल भर बाद पत्रिका भी बंद हो गर्इ। सारी टीम बिखर गर्इ। नवेद सर एक बड़े चैनल के क्रिएटिव हेड हो गए। शादी करके आज वे और झूमा दोनों काफी खुश हैं इसकी सूचना मुझे विनोद भार्इ से मिल गर्इ थी जो अपनी तिकड़मी फितरत से एक अच्छी कंपनी में मार्किटिंग मैनेजर के पद तक पहुँच गए थे। हाँ अक्सर सुनने में आता कि फलां जगह अपूर्व दिखा था। क्या कर रहे हो? पूछने से पहले ही खुद बताता एक पत्रिका शुरू होने वाली है। कहा है बुलाएंगे मुझे। मेरा पत्रकारिता जगत से सीध नाता जो एक बार टूटा तो मैंने उसे जोड़ने की कोर्इ कोशिश दोबारा नहीं की। अपूर्व भार्इ के उस अक्षम्य व्यवहार ने मुझमें उनसे मिलने की कोर्इ उत्कंठा नहीं जगार्इं। इसलिए मैंने उनके बारे में किसी से पूछताछ करना भी सही न समझा। कभी-कभी फोन पर ही कोर्इ बताता बड़ी खराब है उसकी हालत। पैसा है नहीं, काम है नहीं। पर हर बार अपनी परेशानी और कुंठाओं को दबाकर यही कहता है बस जल्दी काम शुरू होने वाला है। काफी बड़ा प्रोजेक्ट है। अच्छा पद मिलने की पक्की उम्मीद है। मैं एक ही दिशा में बढ़ते हुए प्राध्यापक हो गया था। पर लंबे अर्से बाद , जब लोगों की बातचीत से अपूर्व भार्इ एकदम गायब हो गए और दुख के तीखे कोने समय के पानी में घिसकर गोलाकार होने लगे तो कर्इ बार अपूर्र्व भार्इ बेतरह याद आते।
उस दिन नाटक देखते हुए लगातार ये अतीत मेरे सामने गुजरता रहा। शो खत्म होने पर ठीक समय से मैं विनोद भार्इ के घर पहुँच गया। आओ बच्चू। अबे पढ़ाने क्या लगे हो तोप चीज़ हो गए हो। डांटने का उपक्रम करते हुए विनोद भार्इ ने मुझे गले लगा लिया। मैं अपूर्व भार्इ के बारे में जानने को उत्सुक था। बताइये न कहाँ मिले अपूर्व भैया? क्या सच में ब्यूरो चीफ हो गए हैं? इतने सालों से तो कोर्इ... मेरी बेसब्री भांपकर विनोद भार्इ बोले हमेशा से यहीं तो था अपूर्व। मेरे करीब। तुम्हें कभी नहीं भूला पर उस दौर के किसी भी व्यकित से मिलना ही नहीं चाहता था। बहुत कहा मैंने पर नहीं। वो तो मैं ही बेशर्म निकला कि उसका साथ न छोड़ा। मरने की भी कोशिश की पर...बच गया साला।
आपने तो कभी...अब कहाँ हैं? हैरान-परेशान हालत में मेरे उत्तेजित से स्वर में कुछ शब्द गूंजे। अंदर वाले कमरे की ओर इशारा करते हुए विनोद भार्इ बोले वहाँ ...मिलोगे? मेरा सारा शरीर उत्तेजना में झनझना रहा था। टांगों में एक अजीब-सा कंपन था। मन आगे धकेल रहा था पर टांगों में जैसे कोर्इ हरकत बाकी न थी। अपूर्व भार्इ एकदम सामने थे। कैसे हो बाबू? सारे शिकवे -शिकायतें इस आत्मीय सम्बोधन ने धो डाले और जो कसर बाकी थी वो इन बातों ने - माफ कर दो बाबू। नादानी थी हमारी। बचपने में सही-गलत पहचान नहीं पाए। सोचते थे जो कर रहे हैं एकदम सही है। जि़ंदगी की एक ठोकर ने सब बदल दिया। तुम ठीक कहते थे कि क्या हमें अपनी योग्यता का अहसास है? - जिस दिन से ये अहसास हुआ, रास्ते साफ होते गए। फिर किसी का तलुआ नहीं सहलाया। कम मिला गुजारा किया। कुछ भी आसान नहीं था। मर-मरकर कितनी बार जीना पड़ा। बहुत पापड़ बेले पर रहे पत्रकार बनकर। हाँ नवेद सर से माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाए हैं अब तक ...और न ही झूमा को भूले हैं।
अरे अपूर्व जब इससे मिलने की हिम्मत आ गर्इ तो माफी भी मांग लोगे उनसे एक दिन। विनोद भार्इ बोल उठे। एक चमत्कारिक-सी घटना मेरे सामने घट रही थी और मैं शब्दहीन, सम्मोहित श्रोता बना खड़ा था। बधाई नहीं दोगे अपने अपूर्व भार्इ को? इन शब्दों ने सम्मोहन को तोड़ डाला। वर्तमान में खड़ा मैं आज पंद्रह बरस पहले के उन्हीं अपूर्व भैया से मिल रहा था जिनके लिए मेरे मन में सम्मान था। टूटकर गले लगा तो मेरे बालों को सहलाते हुए बोले--बाबू तेरी दिल्ली ने बचा लिया नहीं तो मारा जाता। इस बार बहुत -सा अनकहा खुद को साकार कर गया।