अांसू पीने के दौर में शराबबंदी की फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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अांसू पीने के दौर में शराबबंदी की फिल्म
प्रकाशन तिथि :28 जनवरी 2017


फरहान अख्तर ने फिल्मकार ढोलकिया के निर्देशन में शाहरुख खान एवं पाकिस्तानी कलाकार मायरा अभिनीत, 'रईस' बनाई है, जिसमें गुजरात में शराबबंदी के बावजूद अवैध ढंग से शराब बनाने और बेचने का विषय लिया है। यह सर्वविदित है कि गुजरात से जुड़े मध्यप्रदेश के नगरों में शराब के सरकारी ठेके अत्यंत महंगे दाम में जाते हैं, क्योंकि तस्करी द्वारा शराब गुजरात भेजी जाती है गोयाकि गुजरात में उतनी ही शराब पी जाती है, जितनी उसके चारों ओर के उन प्रांतों में जहां शराबबंदी का नियम नहीं है। बताया जाता है कि अन्य प्रांत से गुजरात आया व्यक्ति शराब पीने का लाइसेन्स प्राप्त कर सकता है। इस तरह परमिट और बिना परमिट भी शराबखोरी गुजरात में जारी है। दरअसल, दुनिया के अनेक देशों में शराबबंदी का शिगूफा अाजमाया गया है और असफल रहा है। शराब पीना सेहत के लिए हानिकारक है, यह जानते हुए भी शराब पी जाती है। 'रईस' का नायक भी इसी धंधे में परिस्थितियों द्वारा ढकेल दिया गया है। इस तरह के धंधे में आपसी दुश्मनी भी होती है और साम्प्रदायिकता भी अनिवार्य रूप से आ जाती है। इस फिल्म का नायक साम्प्रदायिकता के खिलाफ है और उसे इसका लाभ उठाने की सलाह भी दी जाती है परंतु वह उसे अस्वीकार कर देता है। फरहान अख्तर ने ही 'डॉन' का नया संस्करण भी बनाया था। उनके पिता जावेद अख्तर ने सलीम खान की भागीदारी में अमिताभ बच्चन अभिनीत 'डॉन' लिखी थी। यह फिल्म शराब व्यापार के डॉन के बारे में बनाई गई है परंतु यह 'डॉन' की तरह भरपूर मनोरंजन देने वाली फिल्म नहीं है। इसमें 'खाइके पान बनारस वाला' जैसा कोई गीत नहीं है। ज्ञातव्य है कि कल्याणजी आनंदजी ने 'खाइके' देव आनंद अभिनीत 'बनारसी बाबू' के लिए रचा था परंतु देव आनंद को पसंद नहीं आया। गानों की भी किस्मत होती है, वे जिस कलाकार के नसीब में होते हैं, उसे ही मिलते हैं। बहरहाल 'रईस' एंटी नायक फिल्म है। स्वाभाविक है कि अवैध धंधे को चलाने वाले का मारा जाना तय है। शराब बेचने वाले के चरित्र के साथ इंस्पेक्टर का पात्र भी रचा गया है, जो उसका कट्‌टर शत्रु है। आम दर्शक की सहानुभूति विभाजित हो जाती है कि वे 'अनैतिक' नायक को पसंद करें या कानून के निष्ठावान अधिकारी को पसंद करें। इसीलिए क्लाइमैक्स में मारने वाले अधिकारी और मरने वाले शराब के व्यवसायी के बीच किसे दर्शक पसंद करें- यह दुविधा बनी रहती है।

फिल्म में मायरा ने एक सधे हुए कलाकार की तरह न्यूनतम अंग संचालन करते हुए दिल को छूने वाला अभिनय किया है। शाहरुख खान हमेशा की तरह अधिकतम प्रयास करते हैं और भावना की तीव्रता के साथ प्रस्तुत होते हैं परंतु उनसे सहानुभूति दर्शाना दर्शक के लिए थोड़ा कठिन काम है, क्योंकि उनका चरित्र-चित्रण अपराधी का है। और वैसी परिस्थितियां बनाई गई हैं कि उस पात्र को शहादत नामक पवित्र भावना के स्तर तक पहुंचाया जा सके। नायक के पात्र को रॉबिनहुड की शैली में अपनी आय का बड़ा भाग दान करते हुए दिखाया गया है। सच तो यह है कि अपराध जगत के लोग इस तरह का दान-धर्म निभाते हैं, जिसके द्वारा आम जनता उनके लिए अवैतनिक खबरची बन जाती है। इस फिल्म का नायक तो अपने दान-धर्म के कारण एक चुनाव भी जीत जाता है। चंबल के डाकू भी दान देते थे। दान देने से उनके गिर्द सुरक्षा कवच का निर्माण हो जाता है। फिल्म में दानवीर शराब तस्कर के प्रति सहानुभूति निर्माण का गंभीर प्रयास किया गया है।

निर्माता ने भरपूर साधन जुटाए हैं और गुजरात को एक जीवंत पात्र की तरह प्रस्तुत करने में निर्देशक ढोलकिया को सफलता भी प्राप्त हुई। गुजरात की लोकप्रिय पतंगबाजी का अच्छा खासा नाटकीय प्रयोग किया गया है अौर पतंग के साथ ही इश्क का पेंच भी प्रस्तुत किया गया है। फिल्म का तकनीकी पक्ष भी मांजे की तरह सूता गया है। पतंगबाजी के दृश्य में 'काई पो चे' भी संवाद में शामिल किया गया है। यह बताया गया है कि इस फिल्म का आधार सत्य घटना है। फिल्म से जुड़े लेखकों की टीम में पत्रकार भी है। विश्वसनीयता बनाने के लिए सारे जतन किए गए हैं। यह फिल्म छठे दशक की फिल्मों की शैली में गढ़ी गई है परंतु मायरा की मौजूदगी फिल्म को ताज़गी देती है।

न जाने क्यों शराबबंदी की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में कासिफ इंदौरी का शेर याद आ जाता है, 'सासर गलत है मुझपे इल्जामे बला नोशी का, जिस कदर आंसू पिए हैं, उससे कम पी है शराब।'