आँखों देखा ईरान - 2 / अमृतलाल "इशरत" / राजेश सरकार
कपड़ो पहनावों के मामले में ईरानी मर्द और औरत पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति कि राह पर हैं। लेकिन एक बात बड़ी दिलचस्प है कि अक्सर ईरानी अपने हाथ में तस्बीह (जपमाला)रखते हैं अमीर लोग बहुत क़ीमती एवं रात को चमकने वाली तस्बीह थामें रहते हैं। नए आए हुये के लिए यह नज़ारा अजीब सा दिखाई देता है, क्योकी अक्सर एक हाथ में जाम और दूस-रे हाथ में तस्बीह भी रहा करती है। सवाल करने पर मालूम होता है कि यह ईरानियों के सूफ़ी मिजाज़ को बयां करता है। इस का दीन ओ धर्म से कोई नाता नहीं है। शायद इसी लिए यहशेर भी प्रचलित है, जिसे जनाब नज़ीर बनारसी साहब कहा करते थे-
मय भी अपनी ज़ाहिदाना शान से ढलती रही।
जाम भी चलता रहा तस्बीह भी चलती रही।
ईरानी शेर ओ शायरी से बड़ी दिलचस्पी और लगाव रखते हैं। मौक़ो के हिसाब से महफ़िल में चुने हुये साहित्यिक वाक्यों का प्रयोग करना बड़ा प्रचलित है। शेर ओ शायरी कहना हर ईरानी की ख़ासियत है। आप किसी ऐसे आदमी को जानते हो, जो हर मौकों और माहौल के हिसाब से दो चार शेर हाज़िर कर सकता हो। इसकी बिना किसी लाग लपेट के तारीफ़ कीजिये फौरन कहेगा जनाब मैं शेरो शायरी कहाँ जानता हूँ। शायर होना ईरानी के लिए इतनी आसान बात नहीं है। ईरान में शायर होना इतना आसान नहीं समझा जाता है। हालांकि हर ईरानी के रग रग में शायरी भरी हुई है। ईरान में मुशायरे का रिवाज नहीं है, जो हमारे यहाँ है। किसी ख़ास कार्यक्रम में चयनित विषय पर शेर पढ़ने के लिए शायर को दावत दी जाती है। शायर मंच पर खड़े होकर अपना कलाम ज़ोर ज़ोर से सुनाता है। आवाज़ विषय के मुताबिक धीमी या तेज़ होती है। तरन्नुम (लय) में पढ़ने का रिवाज नहीं है। श्रोता हर शेर पर वाह वाह, सुबहान अल्लाह, मरहबा, आफ़रीन आफ़रीन नहीं कहते हैं। दाद देने के लिए शोर गुल से आसमान सर पर नहीं उठाया जाता है। अच्छे शेर से छत नहीं उड़ जाती। शेर को चुपचाप सुना जाता है और साहित्यिक सौन्दर्य पर विचार किया जाता है। कार्यक्रम की समाप्ति पर हर आदमी अपने हिसाब से शायर की तारीफ़ या बुराई करता है। कुछ लोग शायर को घेर कर खड़े हो जाएँगे और उसके अशआर पर बातचीत करेंगे। यहाँ पर गौर करने की बात यह है कि ईरानियों कीसमालोचना की कसौटी हमारे यहाँ से बहुत कुछ अलग है। आलोचना का मतलब बुराई बिलकुल नहीं है जिसे ईरान के प्रसिद्ध कवि हाफ़िज़ शीराज़ी ने इस तरह कहा है-
कमाल ए सिर्र ए मुहब्बत बबीन न नक़्श गुनाह
कि हरके बीहुनर उफ़्तद नज़र बी ऐब कुनद।
मुहब्बत के रहस्य के कमाल को देखो न कि गुनाह के नक़्शे को। जिसके अंदर कोई खूबी
नहीं वह हर जगह बुराई ही देखता है।
पैरोडी का बहुत रिवाज है। इस मामले में बड़े बड़े शायरों को भी माफ़ नहीं किया जाता है।
हाफ़िज़ शीराज़ी का मशहूर शेर है-
अगर आन तुर्क ए शीराज़ी बदस्त ए आरद दिल ए मारा।
बखाल हिन्दुअश बख्शम समरक़ंद ओ बुखारारा।
अगर वह शीराज़ की रहने वाली माशूका हमारा हाथ थाम ले। तो उसके दिलफरेब तिलों के ऊपर मैं समरक़न्द और बुख़ारा लुटा दूँ।
खुद उसकी मातृभूमि शीराज़ में इस शेर की कुछ इस तरह पैरोडी की गई है-
अगर आन की चीज़ मी बख्शद ज़ ज़ेब ए खीश मी बख्शद।
न चून हाफ़िज़ कि मी बख्शद समरक़न्द ओ बुख़ारारा।
वह जो कुछ भी बख़्श रहा है, वह अपनी ज़ेब से बख़्श रहा है। न की हाफ़िज़ की तरह जो समरक़न्द और बुख़ारा को लुटा रहा है।
श्रोता इस तरह के कार्यक्रमों से बहुत प्रभावित होते हैं। मैंने ऐसे कई कार्यकर्मों में भाग लिया है, मनुष्य की ऐसी स्मरण क्षमता देखी। जिसकी मिसाल मिलना कहीं भी मुमकिन नहीं। एक-एक शब्द पर हजारों शेर, क़सीदों पर कसीदे कहना ज़बान की नोक पर होता है।
इस सिलसिले में तेहरान विश्वविद्यालय के उन अध्यापकों के चेहरे नज़र में घूम जाते हैंजिनसे हज़ारों ईरानी और ग़ैर ईरानी छात्र फायदा उठाते रहे हैं। कक्षाओं में अक्सर यह लोग साहित्य की शिक्षा अपनी याददाश्त के बल पर ही देते रहे हैं। इन उस्तादों में सम्माननीय डॉ हुसैन खतीबी , डॉ मुईन, डॉ फिरोज़ाफ़र, डॉ सईदनफ़ीसी, दिवंगत डॉ रज़ा ज़ादा शफ़क़, डॉ ज़बी- हुल्लाह सफ़ा के नाम किसी परिचय के मोहताज नहीं है। ऐसा लगता है कि इन लोगों ने फ़ारसी साहित्य घोल कर पी लिया हो।
राजतन्त्र होने के बावजूद ईरानी जनता के शिक्षित वर्ग में लोकतान्त्रिक विचारों की मौजूदगी किसी अजनबी के लिए बड़ी दिलचस्प मालूम होती है। पहली बार यह बाते एक अंतर्विरोध मालूम होती है। लेकिन अगर वह गौर से देखेगा तो हक़ीक़त उसके सामने आ जाएगी। शाह रज़ा पहलवी एक आज़ाद खयाल और सुधारवादी व्यक्ति है। इसे ईरानी जनता की खुश- हाली और समृद्धि इसलिए भी पसंद है, कि वह अपने देश ईरान को विकसित देशो की क़तार में देखना चाहता है। लेकिन इनमें दोनों ओर से कुछ सीमाएं बंधी हुई है। जिसकी वजह से न तो ईरान की जनता हमेशा के लिए संतुष्ट हो सकती है, और न ही शाह। इसी लिए रज़ा शाह यदि किसी एक देश का साथ देना चाहता है, तो शिक्षित वर्ग लोकतान्त्रिक दृष्टि से शाह के पक्ष की तरफ़दारी करती हुई नज़र आती है।
ईरान के समाज में “तबक़ा ए मालिकीन” सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है। यह लोग बड़े बड़े जागीरदार और ज़मीदार हैं। इनकी संख्या देश भर में डेढ़ दो सौ परिवारों से ज़्यादा नहीं होगी शायद देश की पैदावार का आधे से ज़्यादा हिस्सा इन्हीं की जेब में जाता होगा। जनता उन्हें अयान, अशराफ़, रिज़ाल और गरदन ए गुलफ़्त वग़ैरा नामों से पुकारती है। यह लोग ख़ुद तो बड़े बड़े शहरों में रहते है। लेकिन उनके कारिंदे जागीरों ज़मीनों पर नियुक्त होते हैं, और खेत खलिहानों की आमदनी उनके खज़ानों तक पहुंचाते रहते हैं। कभी कभी ज़मीनों के साथ-साथ किसानों की भी अदला-बदली होती है, बिलकुल वैसे ही जैसे मवेशी, खेत-खलिहान। दूसरा वर्ग व्यापारियों का है। यह लोग भी बहुत दौलतमंद और पूंजीपति हैं। इनमें बड़े बड़े ज़मीदार भी शामिल हैं। उन लोगों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक संबंध उनमें उदार विचारों की की वजह बनते हैं। कभी कभी यह लोग मुल्लाओं के समर्थन में हो जाते हैं, तो देश के शासन में बहुत पहुँच बना लेते हैं।
मुल्लाओं और उलमा वर्ग कभी कभार देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों के फैसलों में बहुत प्रभावशाली दिखाई देता है। सरकार की ओर से लगे प्रतिबन्धों के कारण पह- ले से उनकी माली हालत ख़स्ताहाल हो चुकी है। वक़्फ़ (धार्मिक आय)का ज़्यादातर हिस्सा अब सरकार को चला जाता है।
धर्म एवं सम्प्रदाय
ईरान के अट्ठानबे फीसदी लोग इस्लाम के मानने वाले हैं। उसमें लगभग चौरानबे फीसद लोग शिया और चार फीसद लोग सुन्नी हैं। आखिर में ज़िक्र किए जाने वाले लोगों में कुर्द हैं। कुर्द में शिया और सुन्नी दोनों हैं। लगभग पचास हज़ार आर्मेनियन ईरान के अलग अलग हिस्सों में बस गए हैं। यह लोग नसतूरी ईसाई हैं। कैथोलिक और प्रोटोस्टेण्ट ईसाई भी मिलते हैं लेकिन इनकी तादाद बहुत कम है। यज़्द और किरमान अब भी आतिशपरस्त (अग्निपूजक)औ- र ज़रतुशतियों (पारसी धर्म) के केंद्र हैं। लेकिन इनकी भी तादाद बहुत ज़्यादा नहीं है। तेहरान इस्फ़हान, शीराज़ में जरतुशती (पारसी)बाग़वानी और व्यापार के कामों में लगे हुये दिखाई देते हैं।
शियामत को सरकारी संरक्षण प्राप्त है, और संविधान के अनुसार शियामत ही राजधर्म है। ले- किन दूसरे धर्म-सम्प्रदाय के सम्मान का भी ध्यान रखा जाता है। ज़ाहिदान, तेहरान और दूसरे शहरो में हिन्दुस्तानी गुरुद्वारों के क़ायम करने की पूरी आज़ादी है। ज़ाहिदान का पुराना नाम नाम दुज़दाब था। हिन्दुस्तानी लोगों के ज़ुहद (संघर्ष) इबादत (प्रार्थना) और गुरुद्वारों के कायम करने की वजह से इस शहर का नाम ज़ाहिदान रख दिया है। तेहरान के ‘ख़याबाने बर्क’ नाम की जगह पर एक अच्छी ख़ासी तादाद सिख व्यापारियों की है, जिन्होने आपसी मदद से एक शानदार गुरुद्वारा बनाया है। यहाँ बिना किसी भेदभाव के यात्रियों के लिए ठहरनें का बढ़िया इंतज़ाम है। भारतीय आध्यात्मिक विचारों के प्रचार के लिए ऐसे पूजास्थल का क़ायम होना काफी लाभकारी हुआ है।
फ़ुनून ए लतीफ़ा (Fine Arts)
ईरानी हमेशा से हुस्नपरस्त होते आए हैं। बाग़, बगीचों, हरियाली, झरनों, नहरों से इस क़ौम को बहुत ज़्यादा इश्क़ रहा है। गुलो बुलबुल की कहानियाँ और शम्मा-परवाने के हुस्नो इश्क़ की दास्तानें सदियों से उनकी ज़बान पर हैं। फ़स्ल ए बहार (बसंत ऋतु) की रंगीनियाँ जिस अंदाज़ और जोश ओ ख़रोश से ईरानी बयान करता है, शायद ही इसकी मिसाल कहीं और मिल सके इसी हुस्नपरस्ती और खूबसूरती की चाहत में वह अपने देश को“किश्वर ए गुल ओ बुलबुल” यानी बाग़ और बुलबुल का देश कहता है। दूसरे देशों के मुक़ाबले में इसे“ईरान जन्नतुननिशा” यानी ईरान स्वर्गभूमि कहता है। यही हुस्नपरस्ती का जज़्बा है जो ईरान के फाइन आर्ट्स में भी बड़ी गहराई से दिखती हैं। और यहाँ की कलाओं और घरेलू चीज़ो को एक अलग ही अंदा- ज़ देती हैं। ग़ौर से देखने पर मालूम होगा कि यह जज़्बा सदियों से ईरान की सामाजिक री- ति रिवाज और परम्पराओं में शामिल रही है। तेरहवीं सदी में एक मशहूर ईरानी सूफ़ी संत शेख महमूद शबिसतरी ने हुस्न को अल्लाह की ज़ात (स्वरूप)से जोड़ा है। ईरानी कलाकारों ने ने इसी नज़रिये को अपना विश्वास बनाया। ईरानी कलाकारों और फ़नकारों का फ़न अपने गर्दो पेश के माहौल में गहराई से शामिल रहा है। ज़िंदगी को खुशी से गुज़ारने का ख़याल उसे खूबसूरतियों की ओर खींचती हैं। हाफ़िज़ शीराज़ी और उमर ख़ैयाम उसे धार्मिक उदारता का रास्ता दिखाते हैं। फ़िरदौसी से वह शाही ठाठ बाट, तिलिस्म के अलावा देशभक्ति का भी का पाठ पढ़ता है। इन सबसे बढ़कर उसके ज़हन में अहुरमज़्दा की वह प्रकाशमय आस्था भी मौजूद है जो उसे बुराई और अंधकार से दूर रहने की शिक्षा देती है। पैदाइश ए हुस्न कोई आसान काम नहीं है। ईरानी अपना पूरा दिमाग़ और नाज़ुककारी इसी सोच में खर्च करता है हमेशा बेहतर से बेहतर की तलाश में रहता है। यही वजह है कि जब उसके सामने हुस्न को शक्ल देकर खड़ा किया जाता है तो उसके मुँह से सिर्फ़ यही निकलता है –“बद नीस्त” यानी बुरा नहीं है। इससे भी बेहतर के तलाश में खो जाएगा। यह रिवाज शुरू से चला आ रहा है। और ईरानी शिल्पकला (फाइन आर्ट्स) की बुनियाद की सोच भी यही है। इस्फ़हान के कलाकार लकड़ी के डिब्बो, औरतों के ज़ेवर रखने डिब्बों, सिगरेटकेस पर अलग-अलग रंगों के इस्तमाल से मौसम ए बहार (बसंतऋतु), इस्फ़हान की इमारतों, उमर ख़ैयाम के साक़ी और पुलों वग़ैरा की तस्वीरें जब बनाते हैं, तो सदियों से दबी हुई कला की आत्मा यह कहती हुई महसूस होती है, कि इससे पहले मैंने खुद भी अपने रूप पर यह निखार नहीं देखा था। रज़ाकारी ख़ातिमकारी और नाज़ुककारी के नाम से यह रिवायत ईरानी कलाकारों का दबदबा क़ायम किए हुये है।
क़ालीन और ग़लीचे पर ईरानी फिदा हैं। शहरों, होटलों, दफ़्तरों, घरों में हर जगह तरह तरह की क़ालीने आँखों को सुकून देती दिखाई देती है। क़ालीनों के नाम उन शहरों एवं उन क़स्बों से जुड़े हुये हैं, जहां वह बनाए जाते हैं। काशानी, इस्फ़हानी, शीराज़ी वग़ैरा। हर शहर के अलग अलग रंग और स्टाइल हैं जिस वजह से उन्हें पहचानना मुश्किल नहीं है। अराक शहर में एक बहुत बड़ा सेंटर बनाया गया हैं। जहां तरह तरह की क़ालीनें जमा होती हैं और वहाँ से उन्हे यूरोप भेजा जाता है। इन कारखानों में बहुत से आदमी काम करते हैं। सबसे पहले काग़ज़ पर इस का नमूना और तस्वीर वग़ैरा तैयार किया जाता है। इसके बाद आठ दस आदमी मिलकर करघे पर काम करते हैं। एक निरीक्षक रंग और गांठ बनाने की हिदायत करता रहता है। क़ालीबाफ़ी, यानी क़ालीन बुनने की कला बहुत मेहनत का काम है। एक अच्छे दर्जे की क़ालीन महीनो में तैयार होती है। बड़े क़ालीनों के तैयार होने में साल भर से ज़्यादा का समय भी लग जाता है। धागों का रंग पक्का करने के लिए उन्हें तरह तरह के मसालों में उबाला जाता है। कच्चे रंग का इस्तेमाल करना अच्छा नहीं समझा जाता है। देहाती औरतों को क़ालीबाफ़ी की खास ट्रेनिंग करवाई जाती है। इन क़ालीनों पर उमर ख़ैयाम की शायरी, मौसम ए बहार का मंज़र छापने का बहुत रिवाज है। आम तौर पर इस तरह की क़ालीने देखने में आती हैं- क़ालीन नक़्श ए दरख़्त ओ बाग़ (पेड़ो बगीचो के चित्रों वाला) क़ालीन ब नक़्श ए गुलदानी, (गुलदस्तों के चित्रों वाला), क़ालीन ब नक़्श ए शिकारगाह (शिकार के चित्रों वाला), क़ालीन ब नक़्श अशआर ए फारसी (फारसी के शेर ओ शायरी वाला) क़ालीन ब नक़्श ए साक़ी (साक़ी और जाम के चित्रों वाला)।
ईरानी संगीत से बहुत ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं। हिन्दुस्तानी संगीत की तरह उनके संगीत में भी राग रागिनियाँ मौजूद हैं। राग को’ दस्तगाह’ और रागिनी को ‘गोशा’ का नाम दिया गया है। लेकिन हमारे संगीत की तरह समय , माहौल-मौसम की पाबंदी ज़रूरी नहीं समझी जाती यानी सुबह दोपहर शाम और दूसरे मौसमों के लिए कोई ख़ास राग नहीं है। दस्तगाह और गोशों के नाम अलग-अलग जगहों से जुड़े हुये हैं। जैसे-आहंगदस्ती, दस्तगाह ए इस्फ़हान वग़ैरा। संतूर एवं तार को भी बहुत पसंद किया जाता है। सितार के तार को भी मिज़राब से बजाते हैं। लेकिन ईरान के सितार में बहुत कम तार होते हैं। संतूर भी तारों वाला एक साज़ हैं, जिसको दो छोटी छोटी छड़ियों की मदद से बजाया जाता है। इस साज़ से ईरानी संगीत में काम लिया जाता है, जो हमारे यहाँ सारंगी से लिया जाता है। यानी कि गाने वाले की ख़ास मदद यही साज़ करता है। गाने वाले जब एक मिसरे या तान को अदा करके छोड़ देते हैं तो संतूरनवाज़ इसी चोट को बहुत पुरसोज़ अंदाज़ में दोहराता है। संतूर से ऐसी धुन निकलता कि सुनने वाले दंग रह जाते हैं। अक्सर वायलिन से भी यही काम लिया जाता है। लेकिन जो बात संतूर में होती है, वो वायलिन में नहीं हो सकती है। ईरान में संतूर के सबसे बड़े और मशहूर उस्ताद हुसैन मलिक हैं। उस्ताद की उम्र पैतीस से चालीस साल के बीच में है उन्होनें यह कला लगातार रियाज से सीखी है। एक लम्बे वक़्त तक यूरोप और पाकिस्तान में रहकर उन्होनें पूर्वी (भारतीय)और पश्चिमी दोनों तरह की संगीत सीखी है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भी उन्हें अच्छी जानकारी है। तेहरान के ब्रिटिश दूतावास में भी उन्होनें अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। जहाँ मुझे (लेखक) सुनने का मौक़ा मिला है। उस्ताद हुसैन मलिक ने हमारी राग-रागिनियों को बजाकर अपने देशवासियों को हैरान कर दिया। अच्छे गाने वालों में आक़ाई गुलपायगानी, आक़ाई दीगन, दिलकशखानुम, मर्जिया खानुम और मर्जिया खानुम बहुत मशहूर हैं। ईरानी संगीतकारों में “चहचहाज़नी” और “कोफ़न” बहुत मशहूर है। गाने के बीच से ज़ोर की तान इस आवाज़ से उठाते हैं कि, अक्सर बादल की गरज़ और बि- जली की कड़क भी इसके आगे फीकी पड़ जाती है। चहचहा मारने वालों में आक़ाई गुल पा- यगानी का जवाब नहीं। लोकगीतों को भी बहुत पसंद किया जाता है। जैसे तस्नीफ़ महली शीराज़, तस्नीफ़ महली तबरीज़ वग़ैरा।