आँखों देखा ईरान - 4 / अमृतलाल "इशरत" / राजेश सरकार

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नवीन गद्य

फारसी गद्य के विकास में तीन चीज़ों की शुरुआत काफी महत्त्व रखती है। पहला सफ़रनामों (यात्रा वृत्तान्त)की रचना और सम्पादन। दूसरा छापाख़ाने का आविष्कार। तीसरा पश्चिमी देशोंके साहित्य का अनुवाद। नए लिखने वालों के सामने काफ़ी बड़ा मक़सद था। उन्हें क़ानून औरलोकतन्त्र की आवाज़ दूर- दूर तक पहुंचाने के लिए एक ऐसी भाषा की ज़रूरत थी, जो आमऔर ख़ास दोनों के लिए असरदार हो। 1909 की क्रान्ति के पहले जो उपन्यास लिखे गए उस में ईरान के सामाजिक वातावरण की ख़राबियों को आलोचनात्मक रूप से उजागर किया गया है। इसमें सुधारवादी नज़रिया साफ़ तौर पर दिखता है। जैनुल आब्दीन का सियाहतनामा इब्राही-म बेग, मिर्ज़ा मालकम खान की दोनों रचनाएँ-अशरफ़ ख़ान व ज़मान ख़ान। तालबूफ़ की रचना ‘किताब अहमद’ इसी तरह के उपन्यास हैं। यही विषय मशफ़क़ काज़मी की रचना में पूरी तरह अपनाई गई है। ‘तेहरान मकूफ़’ इनका मशहूर उपन्यास है, जो तीन भागों में है, और सीधी साधीभाषा में लिखा गया है। उपन्यास में लेखक ने सरकार और हुकूमत की बुराइयों को बेनक़ाब किया है। लेखक के ख़याल में एक ज़बरदस्त क्रांति ही जनता के दुख दर्द दूर कर सकतीहै। मशरूतीयत आंदोलन (constitutional reform movement)के कुछ पहले ईरान में पश्चिम और पश्चिमी शैली के प्रभाव में बहुत से ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखे गए। पहले उपन्यास में मीर्ज़ा मुहम्मद बाक़िर का ‘शम्स तुगरा’ क़ाबिल ए ज़िक्र है। तीन जिल्दों के इसउपन्यास में मंगोल हमले के समय के शीराज़ शहर का वर्णन है।

शरीफ़ के नावेल “ख़ून बहाई ईरान” में प्रथम विश्वयुद्ध के हालात का बयान है। इसी सिलसिलेमेँ उपन्यास ‘इश्क़ व सल्तनत’बहुत मशहूर रही। शेख़ मूसा हमदानी के इस उपन्यास मेँ छठीशताब्दी के विश्वप्रसिद्ध ईरानी बादशाह कुरुष महान के ज़माने को प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह एक मशहूर सुधारवादी साहित्यकार जमाल ज़ादा हैं, जो फ़ारसी साहित्य मेँ तरह-तरह की कहानियों के रचनाकार हैं। इनकी कहानियों का पहला संग्रह ‘यकी बूद यकी नबूद’1920 ई.मेंबर्लिन से प्रकाशित हुई। इसमें कुल सात कहानियाँ हैं। इन कहानीकारों में सादिक़ हिदायत मसू-द देहाती का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। मसूद की रचनाएँ- “तफ़रीहात ए शब” (रातों की सैर) में बड़े और दौलतमन्द घरों के जवान लड़को की उन मौज मस्ती का जायज़ालिया गया है, जो सूरज के डूबने के बाद और सूरज निकलने के पहले होती है। उनके उपन्यास ‘दर तलाश मास’ में बेरोज़गारी और बेकारी की तस्वीर मौजूद है।

साजिद हिदायत मौजूदा दौर का सबसे बड़ा अफ़सानानिगार (कहानीकार)है। इनकी कहानियों में-ज़िन्दा बगूर सह क़तरा ख़ून, साया रोशन, इस्फ़हान नस्फ़ ए जहान, सग वल्द गिर्द या गर्द, बूफ़ कूफ़ वग़ैरा। उपन्यास और कहानी के अलावा दूसरी तरह की रचनाओं पर भी ध्यान दिया गयाहै। इन रचनाओं की शुरुआत अल्लामा अब्दुल्लाह वहाब करबीनी ने किया और उसके बाद के लोगों ने उनकी नक़ल की। इन लोगों में सैयद जलालुद्दीन काशानी, मीर्ज़ा जहाँगीर ख़ान शीराज़ीमीर्ज़ा मुहम्मद हुसैन फ़रोगी, बहार, अल्लामा दहख़ुदा के नाम ख़ास तौर पर मशहूर हैं। शब्द-कोश (Dictionary)लिखने वालों में उस दौर में लिखी गई“लुग़तनामा ए दहख़ुदा” बहुत ही मश-हूर हुई। इसकी सौ से ज़्यादा जिल्दें प्रकाशित हो चुकी हैं। फ़ारसी साहित्य का इतिहास लिखने वालों में जलाल हयाली, डॉ रज़ा ज़ादा शफ़क़, डॉ मुहम्मद मुईन, डॉ ज़बीहुल्लाह शफ़ा, डॉ परवेज़ख़ानलरी, वगैरा। इसके अलावा बहुत से साहित्यकार ऐसे हैं, जिन्होनें हर तरह की रचनाएँ लिखीहैं। इनमें सैयद अहमद कर्बी, सैयद अब्दुल रहीम ख़लख़ाली, डॉ मुहम्मद मक़दम, डॉ सादिक़किया दुख़तर मुज़्तबा मीनबी, अब्बास इक़बाल, हुस्न तक़ी ज़ादा अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि वाले हैं।

नई शायरी

नई फ़ारसी शायरी काफ़ी हद तक पश्चिम के प्रभाव और सियासी जागरूकता से जुड़ी हुई है। तेज़ी से बदलते हुये राजनीतिक, सामाजिक माहौल से नए तजुर्बे ज़रूरी थे। इन तजुर्बों ने साहित्यकारों को दो भागों में बाँट दिया। एक गुट आधुनिकता के साथ साथ परंपरा का भी पक्षधर था। तो वहीं दूसरा गुट परम्परा को बुरा समझता था। नई शायरी देशभक्ति की भावना से भरी हुई थी। नए दौर का शायर इस सांस्कृतिक देश को तरक़्क़ी करते हुये क्रान्ति की राहोंमें देखना चाहता था। मजदूरों किसानों के लिए हमदर्दी और हिमायत। मुनाफ़ाखोरों, जमाखोरों, ज़मीदारों के खिलाफ़ गुस्सा। औरतों के लिए पूरी आज़ादी, देश की तरक़्क़ी के लिए बराबरी। ये सब जज़्बात आम हैं। नई शायरी में इश्क़ का ख़याल हाफ़िज़ शीराज़ी और सादी के इश्क़ से जुदा है। रूहानी इश्क़ के बजाय जिस्मानी इश्क़ दिखाई देता है। माशूक़ इसी दुनिया का होता है जिस्मानी मुहब्बत ज़रूरी समझा जाता है। दो प्यासी रूहों का जिस्मानी मिलन एक क़ुदरतीबात है। इस बात को तिलिस्मी व रूहानी बनाना हक़ीक़त को छिपाना हैं। मर्दो की तरह औरत को भी अधिकार है, कि वह अपने जज़्बातों व ख़यालातों का इजहार पूरी आज़ादी से करे। औरत कि ज़बान से इश्क़ व मुहब्बत का खुला इजहार नई शायरी की ऐसी खासियत है जिसकी मिसाल पुरानी शायरी में नहीं मिलती है। नई फ़ारसी ग़ज़ल पर पुरानी साहित्यिक परम्पराओं का असर ज़्यादा गहरा है। लेकिन फिर भी आज के शायरों ने पुराने रूपकों को नए नए लक्षण देकर एक नया रूप दे दिया है। इधर कुछ सालों से आज़ाद शायरी का बहुत रिवाज हो चला है। इस क़िस्म के शायरों में छोटे छोटे मिसरो की मदद से पूरा असर पैदा करने की कोशिश की जाती है। अक्सर इस क़िस्म की शायरी सीधी सपाट गद्य मालूम होती है। छंदों का भी ख़याल नहीं रखा जाता है। इस क़िस्म की शायरी पढ़े लिखो में ज़्यादा पसंद की जाती है। नई शायरी में ज़बान व बयान की सादगी की तरफ़ ख़ास ध्यान दिया गया है। आम तौर पर अरबी के भारी भरकम शब्दों से परहेज़ किया जाता है। नई शायरी में बोलचालकी ज़बान को बड़ी ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया जा रहा है। तेहरानी लहजे को इस शायरी में ख़ास अहमियत हासिल है। आज दौर के शायरों में कुछ नाम ख़ास तौर पर क़ाबिले ज़िक्र है

मलिकुश्शोंअरा मुहम्मद तक़ी बहार (1822-1951)-ईरान के देशभक्त शायरों में से थे। उन्होने अपनी देशभक्ति की कविताओं और शायरी से बहुत जल्द ही अपने देश ईरान में प्रसिद्धि पा ली। बहार के ख़याल में नए विचारों की अभिव्यक्ति के लिए पुरानी कसौटी नए की अपेक्षाअधिक कारगार है। उनकी संस्था “अदबी अंजुमन ए दानिशकदा”उन्ही के विचारों को प्रोत्साहन देने के लिए क़ायम किया गया। बहार आधुनिक काल के सबसे बड़े शायर ख़याल किए जाते हैं। शब्दो के मामले में उन्होनें नए एवं पुराने शब्दो का इतना बढ़िया इस्तमाल किया है किकविता कि अर्थवत्ता बढ़ गई है। साहित्यिक कामों के साथ-साथ वह सियासी कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। यही वजह रही कि कभी तो वह देश के शिक्षामंत्री तक बनाए गए औरकभी जेल की सलाखों के पीछे भी रहना पड़ा। वह एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यकर्ता भी हैं। ‘जुग़द जंग’ उनकी बेहतरीन रचनाओं में से है। जंग कीबर्बादियों के साथ-साथ वह इसमें सामंतों, ज़मीदारों, पश्चिमी देशों के लीडरों के क़त्लो ग़ारतका बेबाक ख़ाका खींचते हैं।

अबुल क़ासिम लाहूती (1887-1957)नए ईरान के विद्रोही शायरों में एक थे। हुकूमत के खिलाफ़ बग़ावत फैलाने के जुर्म में उन्हे कई बार गिरफ्तार करने की कोशिश की गई। इनकी मौत देश से निर्वासन की हालत में रशिया में हुआ। लाहूती वामपंथी खयालात रखते थे। मजदूरो के एहसासों की अभिव्यक्ति में उन्हें बहुत सुख मिलता था। उनकी कविता सादगी और मिठास मेंबेजोड़ और असर मुकम्मल है। मास्को के शाही केन्द्र क्रेमलिन को देखकर उनके दिल में उम-डी हुई बगावत एक कविता के रूप में आई। जिसका शीर्षक उन्होनें’क्रेमलिन’रखा। क्रेमलिन कीएक-एक चीज़ उन्हे मज़दूर और दबे कुचले वर्ग की परेशानियों की याद दिलाता है। लाहूती ने रशिया के ज़ारशाही की ऐयाशी पर क़ुर्बान होती हुई जनता की हालत बड़ी बेबाकी से खीचते हैं।

अबुल क़ासिम आरिफ़ (1882-1932)- ये ग़ज़ल कहने वाले शायर थे। उन्होने ग़ज़ल को केवल हुस्न व इश्क़ तक ही सीमित नहीं किया। उनकी ग़ज़लें अपने समय की सामाजिक और राज-नीतिक कश्मकश की गवाह हैं। वह क़ौम और वतन के लिए बहुत कुछ क़ुर्बान कर चुके थे। लेकिन उनका ज़्यादातर समय दुख में गुज़रा। यह क्रान्तिकारी व्यक्तित्व के थे। ये अपनी ग़ज़लों में सामाजिक एवं राजनीतिक हालातों को पुरअसर अंदाज़ में पेश करते थे। लोग उनके गीतों को आंदोलन के वक्त समूहो में गाते थे। उनके ये गीत तसानीफ़ महली कहे जाते हैं, आम खास सभी में मशहूर है। मशरूतीयत आंदोलन (constitution reform movement)के दोबारा होने पर उनकी यह रचना हर जगह गाई जाती थी।

नीमा यूशीच नए ईरान के आधुनिकतावादी शायरों में से हैं। इनकी क्रान्तिप्रियता ने शायरों कीएक पूरी नस्ल को प्रभावित किया। शेरगोई (शेर कहने)में तक़लीदपरस्ती (अनुकरण) के खिलाफ़साहित्यिक क्रान्ति छेड़कर आज़ाद और छंदोमुक्त कविताओं को लोकप्रिय बनाने की कोशिश की। फ़ारसी साहित्य में शायरी का प्रारूप और शैली बदलने के लिए नीमा यूशीच ने अपनी पूरी क्षमता खर्च की, और प्रायः सफल भी रहे हैं।

ख़ानवादा, सरबाज़, मजलिस, अफ़साना अई शब, क़िस्सा ए रंग, परीदा वग़ैरा उनकी प्रसिद्ध ग़ज़लें हैं। ग़ज़लों शेरों में नए-नए प्रयोगो की वजह से कई परंपरावादी शायर उनका विरोध भी करतेरहे हैं लेकिन अपने इन्ही नए प्रयोगों की वजह से वह छाए भी रहे।

नादिर नादिरपुरी

नादिर नादिरपुरी की शायरी आधुनिकयुग के एक हारे हुये इंसान की फ़रियाद है। उनकी रचना में ज़िन्दगी के दर्दों ग़म पूरी तेज़ी से झाँकते नज़र आते हैं। शायर की निजी तकलीफ़ और नाकामियाँ जब शेर में ढलती है, तो पढ़ने वाले को अपने दुख-दर्द याद आ जाते हैं। शायर का दिल ग़म की पहचान करने में क़ाबिलियत रखता है। और वह ग़म से दूर रहने की बजाए ग़म की परश्तिस करता नज़र आता है। “शेर ए ख़ुदा” नाम की कविता में इश्क़, क़मार, ज़न, वग़ैरा।

संगीत और शराब को शैतान का के शेर कहा गया है और ख़ुदा को सिर्फ़ एक शेर का बनाने वाला कहा गया है और वह है ग़म।

इसी तरह फ़रीदून तवल्लुली, मुहम्मद हुसैन शहरयार, रही मोअर्ररी नए ईरान के मशहूर शायरहैं।

परवीन ऐतसामी-परवीन ऐतसामी आधुनिक फ़ारसी साहित्य में एक विख्यात महिला नाम है। इनका जन्म 16 मार्च 1907 ईस्वी को ईरान के तबरीज़ शहर में हुआ था। इनका परिवार बहुत पहले ही तेहरान में आ बसा। परवीन ने अरबी और फ़ारसी की प्राथमिक शिक्षा अपने पिता मिर्ज़ा यूसुफ़ ऐतसामी से प्राप्त की। 1926 ईस्वी में परवीन को पहलवी राजवंश जो किईरान का शासक था, की रानी के शिक्षकपद का आमंत्रण मिला, जिसे इनके द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। शादी के बाद वह किरमानशाह जा बसी। लेकिन यह शादी केवल और केवल दस सप्ताह तक ही रहा और वह वापस तेहरान लौट आई। परवीन का निधन 5 अप्रैल1941 ईस्वी को पैतिस साल की अल्प आयु में ही हो गया। परवीन को उनके पिता की क़ब्र के पास पवित्र शहर क़ुम में दफ्न कर दिया गया।

परवीन की प्रतिभा सात या आठ वर्ष की आयु से ही प्रकट होने लगी। 1921 ईस्वी में उनकी कुछ शुरुआती कवितायें फ़ारसी मैगज़ीन बहार में प्रकाशित हुई। उनके दीवान का पहला संस्करण 156 कविताओं के साथ 1935 ईस्वी में प्रकाशित हुआ। परवीन की पुस्तक का दूसरा संस्करण उनके भाई अबुल फ़ातहा ऐतसामी ने संपादित किया जो उनकी मौत के बाद 1941 ईस्वी में प्रकाशित हुआ। इनकी कुछ कवितायेँ ज़न दर ईरान (ईरान में औरत)अइ रंजबर (ऐ मजदूरों), गुरबेह (बिल्ली), सफ़र ए अश्क (अश्रु यात्रा) है। फ़ारसी काव्य की एकविधा मोनाज़रा (Debate)भी बड़ी मात्रा में परवीन के दीवान में मिलते हैं। इस विधा में 65 रचनाए 75 लघुकथाएं एवं पशुकथा शोकगीत विविध तरह की रचना की है। परवीन की रचनाएँ विशेष रूप सामाजिक न्याय, अधिकार नीति शिक्षा एवं ज्ञान के महत्त्व पर आधारित है।

फ़रुग़ फर्रूख़ज़ाद

इनका जन्म 1935 ईस्वी में तेहरान में हुआ था। इनकी प्राथमिक शिक्षा बहुत से वजहों से अधूरी रही। सोलह साल की उम्र से ही वह पुराने शायरों की तर्ज़ पर ग़ज़लें लिखने लगीं। इनका सामाजिक जीवन नियम क़ानूनों से आज़ाद था। इनका वैवाहिक जीवन और संबंध एक जगह टिके न रह सके। अपने बेटे की मौत और बार बार होने वाले तलाक़ ने इन्हे गहरे अवसाद में धकेल दिया। साहित्यकार होने के साथ-साथ वह फिल्मकार भी थी। इस सिलसिले में इन्हे ब्रिटेन इटली जैसे देशों की यात्रा भी करनी पड़ी। ईरान की इस विवादास्पदकवयित्री का का जीवन बड़ा ही उथल पुथल भरा रहा। इस उतार-चढ़ाव के साथ उनका जीवननौ वर्षों तक उनके अंतरंग पुरुषमित्र के साथ बीता।

1967 ईस्वी इन्ही विसंगतियों का सामना करते हुये फरवरी के महीने में मात्र 32 साल की उम्र में एक कार दुर्घटना में इनकी मृत्यु हो गई।

इनका पहला काव्यसंग्रह असीर (क़ैद)नाम से एवं दूसरा दीवार नाम से प्रकाशित हुआ। इनकी रचना इसियान (विद्रोह) एवं तवल्लुद ए दीगर (पुनर्जन्म)भी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। साहित्य के साथ-साथ ये फिल्मों मे भी जाना पहचाना नाम रही हैं। 1959 ईस्वी में इन्होनें A Fireनाम की फिल्म का सम्पादन किया। courtship नामक फिल्म में भूमिका निभाई और सहयोग किया। यह फिल्म ईरानी समाज के विवाहपूर्व सम्बन्धों पर आधारित है। इन्होनें ईरान केके प्रसिद्ध समाचारपत्र KAHAYAN के लिए बनी फिल्म Water and Heat में सहनिर्देशन का काम किया। इन्होने एक अंतहीन फिल्म The Sea में भी काम किया। इसकी पटकथा इनके पुरुष मित्र की लघुकथा Why did the sea become stormy? पर आधारित थी। कुष्ठ रोगियों की दशा पर बनी फिल्म House Of Black के लिए जर्मनी में आयोजित फिल्म समारोह में Grand Prize मिला। इनके शेरो का पहला संग्रह 1964 ईस्वी मे प्रकाशित हुआ। मौत के बाद भी इनका एक काव्य संग्रह 1974 में प्रकाशित हुआ।

ईरान और भारत के नए पुराने सम्बंध

ईरान और भारत के सम्बन्ध इतने प्राचीन हैं, कि इतिहासकारों की दूर दूर तक पहुँच जाने वाली निगाहें भी उनका सुराग लगाने में नाकाम रही हैं। हज़ारों साल पहले एक ही जड़ से निकली दो शाखाओं की तरह आर्यों के दो समूहों ने इन दोनों देशों को आबाद किया जो किएक ही तरह की संस्कृति रखते थे। और जिनकी भाषा सभ्यता और परंपरा में बहुत ज़्यादा अंतर नहीं था।

हम पहले ही लिख चुके हैं कि ईरान ‘ईर’ शब्द का बहुवचन है , और यह शब्द आर्य शब्द से निकला है जिसका अर्थ संस्कृत और अवस्ता में “पवित्र एवं स्वतंत्र” है। ईरान का पुराना नामईरान कीश्तर था, जो धीरे-धीरे ईरान शहर यानी आर्यों का देश हो गया।

इसी तरह भारतीय आर्यों ने अपने ईरानी भाईयों की तरह अपनी इस भूमि का नाम आर्यावर्तरखा और अपने इस नए भौगोलिक ढांचे में ढलने लगे। भौगोलिक परिस्थितियों और वातावरणकी भिन्नता ने दोनों को अलग ज़रूर किया, लेकिन आर्य बुद्धि- विचार सदियों तक न बदल सके। जरथुस्त्र की अग्निपूजा वैदिकों के यज्ञ से किसी भी प्रकार अलग न थी। जेंद ए अवेस्ता के श्लोक संस्कृत के मंत्रों से इस सीमा तक मिलते हैं कि उच्चारण के थोड़े से बदलाव से हीईरानी और भारतीय दोनों वेदों और अवेस्ता को पढ़कर लाभ ले सकते हैं। बौद्ध-जैन धर्म की मान्यता ईरान की जनता में इस सीमा तक पहुँच चुकी थी कि तीसरी शताब्दी ईस्वी में वहाँ स्थापित होने वाले मशहूर ईरानी पैग़ंबर मानी का धर्म “मज़हब ए मानवी” अहिंसा का ही प्रचार था।

सासानी वंश के राजा अपने समय के भारतीय राजाओं से संबंध मज़बूत करने में की कोशिश में लगे रहते थे। परम्परा में सुना जाता है कि सासानी राजा बहराम गोर, कन्नौज के राजा संगल से मिलने भारत आया। जहां उसने राजा संगल की लड़की से शादी भी की। इस रिश्ते से राजपूतों की जो शाखा निकली उसे ‘गृद्धबेल’ कहा जाता है। बहराम गोर संगीत से बहुत दिलचस्पी रखता था। कन्नौज के राजा ने अपने इस ईरानी दामाद के लिए बारह हज़ार लूरी संगीतकारों को ईरान भेजा। यह संगीतकार ईरान के जिस इलाक़े में जाकर बसे उसे लूरिस्तान कहा जाता है।

मशहूर ईरानी बादशाह नौशेरवा आदिल ने अपनी लड़की की शादी राजपूत राजा बापादल से की। इसी बादशाह के ज़माने में भारतीय विद्वानों और ग्रन्थों का ईरान में स्वागत किया गया। इन ग्रंथो में पञ्चतन्त्र जैसी किताबे भी थी, जो नीतिशिक्षा और ज्ञान से भरी हुई थी। इन विद्वानों में बड़े बड़े वैद्य और चिकित्सक भी थे। जिन्होनें अपने ज्ञान से क्रांति ला दी। हमला ए इस्लाम के दौरान पारसियों का भारत में शरण लेना भी एक अहम ऐतिहासिक घटना है। यह शरण लेने वाले पारसी समय बीतने के साथ साथ भारतीय समाज में इस तरह घुल-मिल गए कि उन्हे अलग समझने का विचार ही नहीं आता है। आज हम भले ही उन्हे पारसी कहकर बुलाते हों लेकिन वह पारसी बनकर नहीं रहते बल्कि ख़ास भारतीयों की तरह इस देश के विकास में लगे हुये हैं।

यद्यपि भारत में इस्लाम अरबों के साथ आया लेकिन इसके प्रचार प्रसार का ज़्यादातर ज़िम्मा ईरानियों के हाथ रहा। मुहम्मद बिन क़ासिम हमला ए मुल्तान के वक़्त दक्षिणी ईरान से बहुत से ईरानियों को अपने साथ लाया था। उन्ही ईरानियों नें धीरे- धीरे सारे देश में फैलकर अपनी मातृभाषा फ़ारसी में इस्लाम के प्रचार में मदद दी। इसी कड़ी में दूसरी अहम बात महमूद ग़ज़नवीं और उसके लोगो का भारत आना था। सियासी नज़रिये से इसकी कोई अहमि-यत हो या ना हो लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से यह बहुत अहम बात थी। ईरानी सेना के साथ-साथ खुदापरस्त सूफ़ी-संत इसी ज़माने में खुरासान एवं मध्य एशिया से आए और इन सूफ़ी संतों ने अपने मुहब्बत का पैग़ाम पूरे देश में फैलाया। इनकी मातृभाषा फ़ारसी थी, जो किधर्म प्रचार के सिलसिले में उनके उपदेशों से घर घर में पहुँच गई। फ़ारसी भारत के ज्ञान-विज्ञान एवं राजकाज की भाषा बन गई। ईरान और हिंदुस्तान की जनता के इस मेल मिलाप के साथ प्राचीनकाल की तरह मध्यकाल में भी दोनों देशों के हुक्मरानों के सम्बन्ध बेहद खुशगवार रहे। एक दूसरे से पत्र व्यवहार करना, उपहार भेजना हमेशा से चला आता था। लेकिन सोलहवीं सदी में मुग़ल बादशाह हुमायूँ से ईरान के शाह तहमास्प का व्यवहार एक मशहूरऐतिहासिक घटना है, शेरशाह से भागकर जब हुमायूँ 1544 ईस्वी में इस्फ़हान पहुँचा तो ईरानी शाह ने ना सिर्फ हुमायूं का शानदार स्वागत किया बल्कि ईरानी फ़ौजे देकर उसे अपनी खोई हुई बादशाहत को पाने में पूरी मदद की। एक ईरानी सामंत शेख़ जाम की बेटी हमीदा बानू से हुमायूँ की शादी भी शाह तहमास्प के शासन काल की यादगार घटना है। इससे दोनों देशो को और नज़दीक आने का मौक़ा मिला। इस मेल-मिलाप का बेहतरीन नतीजा अकबर का स्वर्णकाल है। भारत और ईरान साहित्यिक भाषाई सम्बन्ध पर बहुत कुछ विस्तार से लिखा जा चुका है। फ़ारसी ग़ज़नवी और गोरी के साथ भारत में आई और थोड़े ही समय में यहाँ राजकीय धार्मिक और साहित्यिक नजरिये से बहुत अहमियत पा गई। मंगोल हमले के वक़्तईरान से भागे हुये शायरों, साहित्यकारों, सूफियों, विद्वानों के साथ साथ अलग अलग तबक़ों के लोगो नें भारत में इसे और फैलाया। और धीरे-धीरे भारत में इसे वही जगह मिल गई, जो कभी संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश को मिल चुका था। सोलहवीं सदी में इस भाषा की तरक़्क़ी की सब से बड़ी वजह मुग़लों का इसे दिया गया संरक्षण है। शायरों, साहित्यकारों, विद्वानों को बढ़ावा देने में भारतीय बादशाहों ने ऐसी दरियादिली का सुबूत दिया कि ज़्यादातर कलाकारईरानी दरबारों को सूना करके भारत कि चौखट पर आ खड़े हुये। जिन कलाकारों को मजबूरी में लौटना पड़ा वे रोते हुये गए। सारे रास्ते उनकी आंखे मुड़ मुड़ कर पीछे की तरफ देखती रही।

भारतीय की कलाप्रियता जब बड़े बड़े ईरानी कलाकारों को जब अपने चौखट पर सर झुकाने के मजबूर कर दिया तो फ़ारसी साहित्य ने स्थायी तौर पर यहीं अपना केंद्र बना लिया। इसकेंद्र की स्थापना शेख़ अली हजी इस्फ़हानी के 1765 ईस्वी में यहीं गुज़रने तक बड़ी अहमियत रखता है। इस अहमियत का सबसे पुख्ता सुबूत फ़ारसी साहित्य एवं काव्य में उस आंदोलन का उठना है जिसे ईरान में ”सब्क ए हिन्दी” (Indian Style)का नाम देते हैं। शीराज़ीआमली, काशानी , तबरीजी और इस्फ़हानी शायर भारत आए और “सब्क ए हिन्दी” को अपना कर काव्य की झड़ी लगा दी। इनमें से बहुत बहुत इसी मिट्टी के पैवंद हो गए और जो ईरान लौटे उन्होनें इस तरीक़े को सारे ईरान में फैला दिया। आज भी सादी और हाफ़िज़ के बाद वहाँ सब्क ए हिन्दी की प्रसिद्धि सबसे ज़्यादा है। भारतीय संस्कृति की एक गहरी छाप जो अब तक ईरानियों के दिलो-दिमाग और खयाल में मौजूद है, वह है वैराग्य, दर्शन एवं परमसत्य का प्रचा-र। यह भारतीय वेदान्त, भक्ति, उपनिषदों का संदेश ही था जिसने सूफ़ीयाना दर्शन के फलने फूलने में मदद दी जो बाद में तसव्वुफ़ के नाम से मशहूर हुआ। इसी साधना के कारण ईरानी सूफियों और भारतीय साधु संतों में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है। बौद्ध धर्म के मानने वालों के लिए वह ज़माना भी एक सुनहरी यादगार है, जब पुरुषपुर यानी पेशावर के बौद्ध भिक्षु ईरान होते हुये दमिश्क़ (सीरिया)जा पहुंचे। ये भिक्षु धर्म के अलावा भारत की कला-संस्कृति के तमाम पहलुओ पर रोशनी डालते थे। प्राचीन ईरानी घाटी बमियान में बौद्धविहार और महात्मा बुद्ध की विशालकाय मूर्तियाँ प्राचीन ईरान में भारतीय धर्म की मौजूदगी के साथ-साथ गांधार कला के विकास का भी सुबूत हैं। फ़ारसी भाषा का ‘बुत’ शब्द बुद्ध से निकला है, और यह इसी जमाने की देन है। यद्यपि आज ईरानी ज़िंदगी के हर पहलू पर पश्चिमी संस्कृति पर की छाप बहुत गहरी दिखाई देती है। लेकिन हक़ीक़त यह है, कि भारतीय पर्यटक बहुत देर तक ईरान के माहौल में अजनबीपैन महसूस नहीं करता है। पश्चिमी संस्कृति का असर भले ही रहन सहन पर हो लेकिन ख़याल, रीति-रिवाज और तहज़ीब के मामले में ईरानी आज भी उसी आर्यों कीसभ्यता का हिमायत करता दिखाई देता है जो दोनों देशों में एक सी है। पश्चिमी कपड़ो और तौर तरीक़ों को चाहने वाले बड़ी तादाद में मिलते हैं लेकिन बड़े-बुज़ुर्गों के सामने परंपरागतकपड़े ही सम्मान की पहचान हैं और दिल की बात अपनी भाषा में कही सुनी जाती है। अगरदस्तरख्वान पर बैठिए तो चिलो व पोलाव, बिरयानी, कोफ़्ता, कबाब की मौजूदगी से यूं महसूसहोता है कि आप तेहरान में नहीं बल्कि दिल्ली के मोतीमहल होटल में हो। यहाँ मेहमाननवाज़ीके मज़बूत रिवाज को कायम रखते हुये आप से बार बार खाने का आग्रह किया जा रहा हैकि हर चीज़ को ज़्यादा से ज़्यादा खाएं। मेज़बान और उसके दोस्त भारतीय अंदाज़ में अपने हिस्से के खाने में से अच्छी-अच्छी चीज़ें निकालकर आप को बार-बार पेश करते हैं जिससे मेहमान कि ख़िदमत में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया जा सके। घर के मालिक और साथियों के नाम इतने जाने पहचाने हैं कि भारतीय मेहमान अपने को दिल्ली या लखनऊ के किसी घर में लोगो से घिरा हुआ महसूस करता है। अहमद, हसन, नाहीद, नसरीन, यास्मीन, फ़ातिमा वग़ैरा सभी भारतीय नाम ही तो हैं। इसके अलावा सैकड़ो शब्द ऐसे सुनाई पड़ते हैं जैसे वो हिन्दी के हों।

हम भारतीयों की तरह ईरानियों को भी संगीत से बहुत दिलचस्पी है। घरों बाज़ारों होटलोंरेस्त्रा हर जगह संगीत अपनी मौजूदगी का एहसास कराती रहती है। ईरानी संगीत की आम धुनें कुछ इस अंदाज़ में पेश की जाती है कि एक भारतीय संगीतकार को फ़ौरन अपने संगीत का वह रूप याद आ जाता है जिसे संगीत की परिभाषा में राग भैरवी कहा जाता है। ईरान में भारतीय बालीवुड की चाहत बहुत ज़्यादा है। भारतीय एक्टरों के यह लोग इस हद तक दीवानें हैं कि तेहरान कि गलियों सड़कों में अक्सर नरगिस ए राजकपूर की आवाज़ें सुनाई देती हैं पूछने पर मालूम होगा कि कोई लड़का नरगिस के फूल बेच रहा है, और उन फूलों को नरगिसे राजकपूर कहकर अपने ग्राहकों को लुभाने की कोशिश कर रहा है। बालीवुड की फिल्में गाने डायलाग फ़ारसी में डब कर लिए जाते हैं। इस तरह गली कूँचों में भारतीय धुने गूँजती रहती हैं। फिल्मों के जरिये ही हमारे रस्मों रिवाज तौर तरीक़े और पहनावें ईरान में पहुँच रहे हैं। भारतीय कपड़े यानी साड़ी और नाच गाने ज़्यादातर हिन्दी फिल्मों से ही जा रहे हैं।

ईरान की शासन प्रणाली भले ही हमसे अलग है लेकिन ज़्यादातर समाज हमारे लोकतन्त्र को सम्मान से देखता है। बुद्दिजीवियों में दुनियाँ के बेहतरीन कवियों के मुक़ाबले में रवीन्द्रनाथ टैगोर को तरजीह दी जाती है। ईरानी शोधकर्ता अरबी के साथ साथ संस्कृत की शिक्षा को भी ज़रूरी समझता है। भाषाई शोध के बारे में गुमशुदा कड़ियों का पता लगाने के लिए अरबी कीतरह संस्कृत की भी ज़रूरत पड़ती है। इसी लिए तेहरान विश्वविद्यालय में संस्कृत का एक स्थायी विभाग भी खोला गया है, जिसकी अध्यक्षता किसी वरिष्ठ भारतीय विद्वान को ही दी जाती है।

परिशिष्ट

मानी धर्म-यह ईरान में सासानी दौर में प्रचलित एक धर्म था। इसे फारसी में ‘आईने मानी’ या मज़हब ए मानी’ कहा जाता है। अँग्रेजी में इसके लिए Mainchaism शब्द प्रचलित है। इस धर्म की स्थापना मानी नाम के ईरानी महापुरुष ने की थी। इस धर्म मे बौद्ध ईसाई और पारसी धर्म के बहुत से तत्त्वों का सम्मिश्रण था। यह धर्म तीसरी से सातवी सदी तक प्रचलित था। मानी ने छह पुस्तके लिखी जिनमें छह सीरियाई में और एक मध्यकालीन फ़ारसी में थी। क़ाजार वंश-यह एक तुर्की नस्ल का राजघराना था जिसने 1785-1925 ईस्वी तक ईरान पर राज्य किया।

मारूफ़ और महजूल-यह फ़ारसी के यीये अक्षर की दो किस्में हैं। जो ईरान में अब एक ही इस्तेमाल होती है लेकिन भारत में दोनों इस्तेमाल की जाती है।

बहज़ाद-यह ईरान का प्रसिद्ध चित्रकार था। इसका नाम कमालुद्दीन था बहज़ाद इसका उपनाम था। यह हेरात का रहने वाला था। इसके गुरु पीर सय्यद अहमद तबरेज़ी थे। यह तैमूरी काल से सफ़वी के मध्य का था। शाह इस्माइल सफ़वी ने इसे हेरात से तबरेज़ अपने दरबार मेंबुलाया।

रज़ा अब्बासी –यह भी ईरान के बादशाह शाह अब्बास प्रथम के दरबार का चित्रकार था। आतिशपरस्त –यह ईरान के प्रसिद्ध धर्म पारसी जिसे वहाँ जरतुश्त भी कहा जाता हैं का उप संप्रदाय है। आतिशपरस्त का मतलब अग्निपूजक है। इसके और उपसंप्रदायों में मेहेरपरस्त (सूर्यपूजक) भी है।