आँख का नाम रोटी / हरि भटनागर
अनिल जनविजय के लिए
बाहर कोई बच्चा रो रहा है। रोने की आवाज़ ऐसी कि लगता, बच्चा किसी तकलीफ़ में है चोट लगी है या कोई दूसरी पीड़ा है।
मैं अपने काम में लगा हूँ। आम काटने में। पिछले साल किसी झंझट की वजह से अचार नहीं डल पाया था। पत्नी कहती रह गई थीं लेकिन बात टलती चली गई थी। लेकिन इस बार मैं दस किलो आम ले आया था और अचार डालने का मसाला और तेल। पक न जाएँ इस लिहाज से काटने भी बैठ गया था।
लेकिन रोने की आवाज़ काम करने से रोक रही है। मैं टालता हूँ, दस-बीस आम और काट डाले, मग़र इसके आगे ख़तरा है। ख़तरा यही कि ध्यान रोने की आवाज़ की तरफ़ है। ऐसे में यदि चूक हो जाए तो अमकटना कोई रिश्तेदार तो है नहीं, वह तो अपना काम करेगा, इस लिहाज से मैं उठा और लुंगी से कुसली झड़ाता, दरवाज़ा ठेलता बाहर आ खड़ा हुआ।
दरवाज़े के सामने कोई न था। बाएँ हाथ की ख़ाली जगह की ओर बढ़ा। मजूर परिवार दिखा मजूर, उसकी घरवाली और चार-पाँच साल की एक बच्ची। कल शाम को ऑफिस से लौटते वक़्त मैंने इस परिवार को देखा था। तीनों ख़ाली पड़ी जगह में सहमे-से बैठे थे। शायद यह डर हो कि कोई टोक न दे कि यहाँ डेरा क्यों डाला, आगे जाओ। मुझे देखकर उनका डर बढ़ गया होगा लेकिन जब मैं कुछ न बोला तो उन्हें लगा होगा कि घबराने की ज़रूरत नहीं, बने रहो।
सामान के नाम पर इनके पास एक बड़ी-सी पोटली थी और मज़बूत लट्ठ जिसमें लम्बी डोरी के साथ पीतल का चमचमाता लोटा कसा था। मजूर तीस-एक साल का होगा। काला, पतला और काफ़ी लम्बा। टंटैया भील जैसा! मुँह चपटा और माथा छोटा। चेहरे पर फ्रेंच स्टाइल जैसी दाढ़ी-मूँछें जो काफ़ी गझिन थीं। आँखों के गटे सफ़ेद थे और उनके सिरों पर लालिमा थी जो संभवतः थकान या लम्बी धुपैली यात्रा के कारण थी। वह बहुत ही गंदा, चीकट होता बड़ा-सा साफा बाँधे था। बदन पर लम्बा बिना बटनों का कुर्ता था और उसके नीचे घुटनों तक खुटियाई धोती। पैरों में प्लास्टिक के काले, घिसे जूते थे। कुर्ता-धोती काफ़ी मैले और तेल के धब्बों से भरे थे। कुर्ते की आगे की जेब में वह एक लाल रंग के रुमाल जैसे कपड़े में बीड़ी-माचिस लपेटे था जिन्हें इस वक़्त कपड़े से निकाल रहा था। बीड़ी उसने मुँह के कोर में दबाई और माचिस हथेली पर रगड़ने लगा।
उसकी घरवाली चटख लाल रंग के काले किनार की धोती पहने थी। सिर से पल्लू सरका हुआ था। पैर घुटनों के नीचे खुले थे जिनमें मोटे-मोटे वज़नी कड़े थे और लच्छे जिनसे पैरों में घिट्टे पड़ गए थे। उँगलियों में अँगूठों को छोड़कर सभी में छल्लेदार बिछुए थे। सिर के बाल उलझे हुए लटों में बदल गए थे जिन्हें वह बेतरतीबी से बाँधे हुए थी। घुटने पर ठोढ़ी टिकाए बैठी वह बच्ची को देख रही थी, कातर-सी।
बच्ची पोटली पर औंधी पड़ी रो रही थी। हथेलियाँ आँखों पर रखे। उसके बदन पर कसी-सी बनियान थी जो धूल और पसीने से बदरंग थी। बनियान छेदों से भरी थी। बनियान के नीचे ढीली-ढाली जाँघिया थी जिसका नाड़ा बाहर को लटका था। बाल उसके बेतरह लटियाए तार के गुच्छे जैसे लग रहे थे। लगता था कभी उनमें न तेल पड़ा है और न पानी के छींटे। वह गोल मुँह की थी खुश्की से भरी। रो रही थी और हथेलियों से बुरी तरह आँखें मले जा रही थी। रह-रह वह चीख़ पड़ती जैसे आँखों में दर्द हो रहा हो।
ऑफिस की थकान की वजह उस वक़्त मैं पल भर को ठहरा था और फिर अंदर आ गया था और भूल भी गया था कि कोई मजूर परिवार भी बग़ल में थका-हारा है। शाम को उसने खाना खाया, पानी पिया या नहीं मैंने ध्यान न दिया और खा-पीकर पड़ गया था।
लेकिन इस वक़्त मैं मजूर परिवार के सामने काफ़ी देर से खड़ा हूँ और इस टोह में हूँ कि बच्ची क्यों रो रही है। कल भी वह रो रही थी लेकिन आज कुछ ज़्यादा ही। हथेलियों से वह बुरी तरह आँखें मले जा रही थी, कहीं आँखों में तकलीफ़ तो नहीं। कुछ पता नहीं चल पा रहा था। बस वह रोए जा रही थी।
मजूर मुँह बाँधे बैठा है। आँखों में उसके सख़्ती है जैसे कह रहा हो, तकलीफ है बच्ची को, आपको क्या? आप जाइए यहाँ से। मुझसे मत पूछिए कुछ! उसकी घरवाली दीवार से टिकी है, निढाल-सी जैसे बच्ची के रंज में हो।
मुझसे रहा न गया। आगे बढ़कर मजूर से पूछा कि बच्ची क्यों रो रही है?
मजूर बीड़ी का धुँआ नाक से छोड़ता बीड़ी के टोंटे को तलुवे पर रगड़कर बुझा रहा था। बुझा टोंटा उसने कान में खोंस लिया। उसने मेरी बात का जवाब नहीं दिया। गर्दन झिटककर, गोया गुस्से में हो ज़मीन की ओर देखने लगा एकटक।
तुम्हीं से पूछ रहा हूँ हाथ लहराते हुए मैंने मजूर से पूछा बच्ची क्यों रो रही है?
मजूर के चेहरे पर वही ग़ुस्सा। आँखों में भी उसी का असर है। मेरे पूछने पर वह काठ बना रहा।
नालायक! अंदर ही अंदर गाली देते हुए मैं मजूरन से मुख़ातिब हुआ क्यों रो रही है छोरी? मेरी आवाज़ तीखी होती जा रही थी।
औरत ने गहरी साँस छोड़ी और मेरी ओर एक नज़र डालकर दोनों हाथों से सिर थाम लिया जैसे कह रही हो पूछकर क्यों परेशान करते हो साहब!
मैंने बच्ची को देखा जो बेतरह आँखें मले जा रही थी और रोये।
मैंने अग़ल-बग़ल नज़र डाली न चूल्हा, न राख ज़ाहिर था रात में सत्तू वग़ैरह खाकर भूख मिटा ली होगी या यह भी हो सकता है कुछ न होने पर भूखे ही सो गए होंगे। मजूर और मजूरन तो भूखे रह सकते हैं, लेकिन बच्ची? वह भूखी भला कैसे रही सकती? शायद इसीलिए रो रही है।
मैंने पूछा आप लोगों ने कल कुछ खाया या नहीं?
दोनों ने कोई जवाब नहीं दिया। दोनों का जवाब न देना मेरे लिए असह्य होने लगा। कैसे हैं दोनों कि कुछ बोलते नहीं!
यकायक मैं बच्ची के सामने बैठ गया उकड़ूँ। पुचकारते हुए उससे पूछा क्यों रो रही हो बेटा? मैंने आँखों पर से उसकी हथेलियाँ हटानी चाहीं लेकिन उसकी जकड़ इतनी मज़बूत थी कि हटा न पाया वह रोती रही।
मज़दूर के पास खड़े होते मैंने पूछा कहाँ से आए हो? घर कहाँ है?
उसका मुँह खुला, बोला बिलासपुर से!
क्यों आए यहाँ? मैंने पूछा तो उसका जवाब था पानी नहीं है साहब,
मजूरी के लिए आना पड़ा।
बच्ची क्यों रो रही है? मैं मुद्दे पर आया।
गहरी साँस छोड़ता वह बोला साहब, आँख पिरा रही है।
इतनी देर से पूछ रहा हूँ, अब बोली फूटी... मैं झल्ला पड़ा।
आँखें न मल बेटा कहता मैं बच्ची के आगे बैठ गया। बहलाते हुए मैंने उसकी हथेलियाँ हटाईं आँखों पर से। एक तो आँखें आई थीं, दूसरे बच्ची ने इतनी ज़्यादा मल ली थीं कि लाल भभूका हो रही थीं उनमें से पानी झर रहा था।
मैंने मजूर से कहा यहाँ बारह सौ पचास में सरकारी अस्पताल है, सीधी बस जाती है यहाँ से। चलो जाओ, दिखा दो, आँख का मामला है।
मेरे कहे का मजूर पर कोई असर न था। जैसे मैंने ग़ैरज़रूरी बात कह दी हो।
मजूरन आँखें सिकोड़े मुँह बिचकाए ऐसे बैठी थी जैसे मेरी बात उसे खल रही हो।
मैंने मजूर को समझाया देखो, मेरा कहा मानो, बच्ची को दिखा आओ, अस्पताल कोई दूर नहीं है, यही पाँच मील होगा!
मजूर ने गरदन हिलाई जैसे मेरी बात मान गया हो। बीड़ी सुलगाते हुए उसने बच्ची को देखा, पूछा चलेगी अस्पताल, साहब कह रहे हैं।
मुझे लगा कि मजूर मेरी बात मान गया, इसलिए मैं अंदर चला गया और ऑफ़िस के लिए तैयार होने लगा। तैयार होकर जब बाहर निकला मजूर, उसकी घरवाली पूर्ववत् बैठे थे। बच्ची आँखें मलते हुए अभी भी सिसक रही थी।
मैं समझ गया कि इसके पास अस्पताल जाने और दवा के लिए पैसे नहीं हैं, इसलिए यह अस्पताल नहीं जा रहा है।
मैंने पचास का नोट निकाला और मजूर को थमाता बोला लो, जाकर दिखाओ, ढील न करना।
मजूर के उदास चेहरे पर ख़ुशी की लहर तैर गई। वह उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर माथे पर लगाता मेरे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने लगा।
मैंने कहा कि इसकी ज़रूरत नहीं, तुम जाकर बच्ची को दिखाओ। आँख ऐसी चीज़ है कि कुछ गड़बड़ हुआ तो बिचारी कहीं की न रहेगी!!!
उसने हामी में सिर हिलाया।
मैं स्कूटर स्टार्ट करता ऑफिस की ओर बढ़ा।
शाम को ऑफिस से लौटा तो भारी प्रसन्न था और सीधे मजूर परिवार की ओर बढ़ा। बच्ची चुप थी और आँखें मीचे हुए पोटली से टिकी रोटी खा रही थी।
मैंने मजूर से पूछा क्यों, दिखा लाए?
मजूर मुस्कुराया, बोला कुछ नहीं।
मैंने बच्ची की आँखें देखीं पहले से ज़्यादा लाल, सूजी और कीचड़ से चिपचिपाई हुई थीं, दवा का नामोनिशान न था।
मैंने माथा सिकोड़ा, बिगड़ते हुए मजूर से कहा मैंने पैसे दिए, तब भी तुम अस्पताल नहीं गए! डॉक्टर को नहीं दिखाया, हद्द है!
मजूर सफ़ाई देता बोला साहब, रोटी खा ली है, आँख ठीक हो जाएगी!
रोटी खाने से कहीं आँख ठीक होती है! ग़ुस्से में हथेली पर मुक्का मारता हुआ मैं उसे कर्री निगाह से छेदता बोला।
हाँ, साहब, ठीक हो जाएगी आँख! रोटी जो खा ली है!!! कल से भूखी थी! मजूर सहज था।
मैं गुस्से में अलफ था रोटी का आँख से क्या ताल्लुक?
मजूर का जवाब था साहब, रोटी खा ली है, आँख ठीक हो जाएगी! पक्का जानें!!!
लड़की को देखता मैं अवाक् था।