आँख ये धन्य है / नरेन्द्र मोदी

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आँख ये धन्य है (कविता संग्रह)

जिंदगी की आँच में तपे हुए मन की अभिव्यक्ति है - "आँख ये धन्य है"। गुजराती में यह संकलन "आँख आ धन्य छे" के नाम से २००७ में प्रकाशित हुआ था। हिंदी में इसे आने में यदि सात वर्षों का लंबा समय लगा तो इसकी अनेक वजहें हो सकती हैं किन्तु इतना निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की ६७ कविताओं की इस किताब में कई कविताएँ हैं जो काव्य कला की दृष्टि से अच्छी हैं। अधिकांश कवितायें देश भक्ति और मानवता से जुड़ी हैं। साथ ही एक वीतराग मन का आभास देती हैं। एक ऐसे व्यक्तित्व का भी- जो उच्च आदर्शों को समर्पित है। एक आत्मविश्वास है जो ईश्वर पर भरोसा रखने से पैदा हुआ है।

पुस्तक के फ्लैप पर उद्धृत कविता से ही इसका परिचय मिल जाता है।

सर झुकाने की बारी आये ऐसा मैं कभी नहीं करूँगा पर्वत की तरह अचल रहूँ व नदी के बहाव सा निर्मल ........ शृंगारित शब्द नहीं मेरे नाभि से प्रकटी वाणी हूँ ...............

मेरे एक एक कर्म के पीछे ईश्वर का हो आशीर्वाद ............ (प्रयत्न, पृष्ठ ६९)

कवि को खुद आश्चर्य है


अभी तो मुझे आश्चर्य होता है कि कहाँ से फूटता है यह शब्दों का झरना कभी अन्याय के सामने मेरी आवाज की आँख ऊँची होती है तो कभी शब्दों की शांत नदी शांति से बहती है (सनातन मौसम, पृष्ठ ९४) रोज- रोज की ये सभा, लोगों की भीड़, फोटोग्राफरों का समूह, भाषण - इन सबके बीच भी कवि अपना एकांत बचा लेता है।

इतने सारे शब्दों के बीच मैं बचाता हूँ अपना एकांत तथा मौन के गर्भ में प्रवेश कर लेता हूँ आनंद किसी सनातन मौसम का। (सनातन मौसम, पृष्ठ ९५)

सनातन मौसम - आतंरिक मौन का मौसम ही हो सकता है, अपने "स्व" भाव में स्थित व्यक्ति न तो बाह्य कारणों से विचलित होता है, न प्रभावित। यह भाव किसी योगी मन के पास ही होता है जो बहुत साधना के बाद प्राप्त होता है।

उन्होंने स्वीकार किया है-

दिल में तो देशभक्ति की ज्वाला है समुद्र में जलती अग्नि की तरह। ("मल्लाह" शीर्षक कविता पृ ष्ठ-९७)

इस कवि का जीवनधर्म/ कर्म क्या है? जानना चाहेंगे

भीड़ को मेले में बदल डालना ही है मेरा जीवन धर्म -मेरा जीवन कर्म। ........... (मिलने दो मेले में, पृ ष्ठ-८३)

ऐसा भी नहीं है कि यह व्यक्ति कभी निराश नहीं हुआ, दुखी नहीं हुआ, घबराया नहीं-

ठंडे हुए आँसू में पत्थर का भार है कोने पे सितार जिसके टूटे सब तार हैं। ( एकाध आँसू ,पृष्ठ ३५ ) या फिर ऊँचे पहाड़ को पाने की कशमकश की लेकिन पत्थर मिले अंत में जी ..............

सदियों से चाहा नदी को पाना लेकिन मिले मुझे बुलबुले जी (कशमकश, पृष्ठ ७३)

प्रेम के प्रति इस कवि की दृष्टि क्या है?

जल की जंजीर जैसा मेरा ये प्रेम कभी बाँधने से बँधा नहीं .............

धूप तो किसी दिन मुठ्ठी में आएगी नहीं बहती पवन को पिंजरा भी रास नहीं बहुरूपी बादल सा फिरता यह प्रेम कभी स्वीकारने से स्वीकृत हुआ नहीं। ( प्रेम, पृष्ठ ७२)

सौंदर्य चाहे प्रकृति का हो, या व्यक्ति के गुणों का, या नारी का, इस कवि ने जीवन के सौंदर्य का अनुभव किया है, उसे सराहा है - धन्य, मन्त्र, विषम सौंदर्य आदि कविताएँ इस श्रेणी में रखी जा सकती हैं। अधिकांश कविताओं में स्पष्टवादी कवि की स्पष्ट भाषा के दर्शन होते हैं किन्तु तब भी कई बिम्ब सराहनीय हैं। उदाहरण के तौर पर "प्रतीक्षा" कविता को लिया जा सकता है। सूरज के फूल बन कर उगने की प्रतीक्षा भला किसे न होगी जब तपता सूरज जीवन की गति रोक रहा हो -

आकाश में पत्थर जैसा सूरज उगा जूट जैसा सारा दिन बिलकुल खुरदुरा .......


सारी रात सूरजमुखी करती है प्रतीक्षा आने वाले कल के सूरज की कि कभी तो सूरज फूल बनकर उगे!

(प्रतीक्षा, पृष्ठ-६७)

भारत की जनता भी क्या सूरज मुखी की तरह रात के गुजरने और सूरज के फूल बन कर उगने के लिए प्रतीक्षारत नहीं? नरेंद्र मोदी की कविताओं का फलक विस्तृत है जो जीवन के विविध रंगों -हर्ष- विषाद, जय- पराजय, प्रकृति और मानव प्रेम के बीच फैला हुआ है किन्तु इस पूरी किताब में जो दो स्वर सर्वोपरि हैं वे हैं देशप्रेम और आस्था के। आस्था- ईश्वर के प्रति, जीवन के प्रति, आस्था मनुष्य मात्र को लेकर। इन कविताओं में एक दृढ़ संकल्पवान व्यक्ति के दर्शन होते हैं जो एक विशिष्ट लक्ष्य को लेकर वीतराग भाव से गतिमान है। वह अपनी कविता में पहले ही कह चुका है - तुम मुझे मेरी तस्वीर या पोस्टर में ढूढ़ने की व्यर्थ कोशिश मत करो मैं तो पद्मासन की मुद्रा में बैठा हूँ अपने आत्मविश्वास में अपनी वाणी और कर्मक्षेत्र में। तुम मुझे मेरे काम से ही जानो


तुम मुझे छवि में नहीं लेकिन पसीने की महक में पाओ योजना के विस्तार की महक में ठहरो मेरी आवाज की गूँज से पहचानो मेरी आँख में तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब है। (तस्वीर के उस पार, पृष्ठ ५६) और अब हम क्योंकि जानते हैं कि यह कवि भारत का प्रधान मंत्री है तो उसकी आँख में भारत की आम जनता का प्रतिबिम्ब मात्र बना ही न रहे वरन सुस्पष्ट हो, वह अपने सत्कार्यों में, अपने उद्देश्य में सफल हो, भारत का भाग्य जागे, यही कामना की जा सकती है।

कविताओं में अनुवाद की गंध नहीं आती तो उसका श्रेय अंजना संधीर जी को जाता है। जो खुद एक समर्थ कवयित्री हैं। बहु भाषाविद अंजना संधीर से यही अपेक्षा भी थी कि वे सहजता से गुजराती में लिखी इन कविताओं की आत्मा में उतर जाएँगी। यही हुआ है!

पुस्तक का कवर सुन्दर है और साज सज्जा आकर्षक। प्रूफ रीडिंग की अशुद्धियों से कोई भी किताब मुक्त नहीं होती किन्तु इस किताब में बहुत कम अशुद्धियाँ हैं, इसके लिए विकल्प प्रकाशन बधाई के पात्र हैं।

- इला प्रसाद ५ जनवरी २०१५