आँगन से राजपथ-पवित्रा अग्रवाल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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'आँगन से राजपथ'-पवित्र अग्रवाल की लघुकथाएँ

लघुकथा कुछ संकुचित मानसिकता वाले लोगों के विरोध, उपेक्षा और अपने अन्तर्विरोधों के बावजूद आगे बढ़ रही है। अब यह हाशिये की विधा नहीं है। साफ़तौर से कहा जाए तो यह अब जनस्वीकृति की विधा बन गई है। यही कारण है कि उत्तर से दक्षिण तक यह शिक्षा-विभाग के पाठ्यक्रम में भी अपना स्थान बना चुकी है। समय के अभाव में केवल लघु होने के कारण ही लघुकथा पाठकों में अपनी स्वीकार्यता बना रही हो ऐसा नहीं है। लघुकथा की मुखरता, कसावट दो टूक बात कहने की इस विधा की शैली ही इसकी लोकप्रियता का मुख्य कारण है। इसके लिए कथ्य का चयन सबसे महत्त्वपूर्ण है और उससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है उस कथ्य की कलात्मक अभिव्यक्ति या अभिव्यक्ति की कलात्मकता है। सपाटबयानी या अभिधात्मक वर्णन लघुकथा को कमज़ोर करते हैं। लघुकथा का शीर्षक भी विशिष्ट महत्त्व रखता है। सीधा–सपाट और अभिधात्मक शीर्षक अच्छे और कसे हुए कथ्य को भी निष्प्रभावी कर सकता है तथा व्यंजनात्मक या लाक्षणिक शीर्षक साधारण कथ्य को भी बहुआयामी और बहुअर्थी बना सकता है। रमेश बतरा (सूअर, लडाई, दुआ) , सुकेश साहनी (ठण्डी रजाई, यम के वंशज, विजेता, प्रतिमाएँआदि) और सुभाष नीरव (बीमार, कमरा, धूप) , श्याम सुन्दर अग्रवाल (उत्सव, मरुस्थल के वासी) की लघुकथाओं में शीर्षक की ये विशेषताएँ देखी जा सकती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कथ्य में कुछ अनकहा रह जाता है। उस अनकहे का सूत्र कभी-कभी शीर्षक में निहित होता है। जहाँ शीर्षक में ही कथ्य का अन्त घोषित हो जाता है, वहाँ लघुकथा निश्चित रूप से कमज़ोर पड़ जाती है।

पवित्रा अग्रवाल कई वर्षों से लघुकथा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। घर-समाज पर उनकी गहरी पकड़ है। 'आँगन से राजपथ' उनकी ऐसी ही लघुकथाओं का संग्रह है। इनकी लघुकथाओं में घर–परिवार, सामाजिक सरोकार, जीवन के विषय में चिन्तन आदि दैनन्दिन की घटनाओं के द्वारा साधारण जन की सोच और उसके दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया गया है। पारिवारिक जीवन की लघुकथाओं में शुभ-अशुभ, आस्तिक–नास्तिक, , दायित्व, उलाहना, हक महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बात करती हैं। घर-परिवार में साधारण–सी लगने वाली ये बातें मन पर बहुत बड़ी खरोंच छोड़ जाती हैं। 'शुभ-अशुभ' में बच्चे का मासूम सवाल पड़ोस में हो रही तेरहवीं को लेकर है। माँ जो व्याख्या करती है वह बच्चे की बात का समाधान नहीं कर पाती। बीमार दादी के मरने पर तेरहवीं की दावत होगी, यह बात उसको समझाई जाती है। बच्चा जब बीमार पिता को देखकर पूछता है—" पापा मरेंगे तब भी दावत होगी? '

तड़ाक से एक चाँटा बच्चे के गाल पर पड़ा-" करमजले, अशुभ बातें मुह से निकालता है।"

बच्चा नहीं समझ पाया कि दोनों के मरने में क्या अन्तर है। इस कथा में दादी के प्रति दर्शाया गया उपेक्षाभाव भी शामिल है। आस्तिक–नास्तिक भी इसी प्रकार की लघुकथा है। डौली को समझाने का भी वही तरीका है, जब वह पूछती है-" दादी माँ, आप भगवान को मानती हैं? 'दादी माँ के लिए भगवान को मानने का सबसे बड़ा सुबूत है रोज मन्दिर जाना। फूफा जी की मृत्यु के कारण बुआ को अशुभ कहकर घर से निकालना दादी के अनुसार अज्ञानता है, ग़लत है। उसी दादी से जब डौली पूछती है कि' भैया की मौत के लिए भाभी को दोषी ठहरा कर उन्हें उनके मॉ-बाप के घर क्यों भेज दिया? ' तो दादी आपे से बाहर हो जाती है। जीवन में यह दोहरा मापदण्ड परिवारों में अशान्ति पैदा करने वाला है। यह पूछने पर डौली को नास्तिक करार दिया जाता है। दादी के पास कोई तार्किक उत्तर नहीं था।

'दायित्व' लघुकथा में इस तथ्य की सुन्दर प्रस्तुति है कि 'मदर्स डे' केवल मनाने का दिवस नहीं बल्कि दायित्वबोध के प्रति संवेदनशील होने का कर्त्तव्य-पालन का दिवस है। 'उलाहना' और 'हक' लघुकथाएँ परिवार के महीन ताने बाने में प्रतिदिन आने वाली पारिवारिक उलझनों की ओर इशारा करती हैं, साथ ही इस बात पर भी बल देती हैं कि सास-बहू का रिश्ता इतना नाज़ुक है कि इसमें ज़रा–सी बात खटास पैदा कर सकती है। सास खाने पर बहू के आने का इन्तज़ार करे तो भी मुश्किल, न करे तो भी मुश्किल; यह द्वन्द्व परिवार में अव्यक्त घुटन पैदा करता है। सास जहाँ उलाहना देने से बचती है, बहू वह मौका चूकना नहीं चाहती। 'हक़' में पति देवेन्द्र के द्वारा चाय की फ़रमाइश करने पर सुषमा बड़बड़ाती है-" एक तो आफिस से थक कर आओ, आकर घर का काम धंधा सम्हालो। कोई ऐसा नहीं कि एक कप चाय भी पिला दे। '

माँ जब इस बात की सावधानी रखती है कि वह खुद इस काम को करके चिकचिक से बच सकती है और एक दिन कहती है-"सुषमा देवेन्द्र आगया है, तू उसके पास जा मैं चाय बना कर लाती हूँ।"

घूर कर देखते हुए बहू ने कहा " अपने घर में अपने पति के लिये एक कप चाय बनाने का हक भी मुझे नहीं है क्या? '

कहने का तात्पर्य यह है कि परिवारों की घुटन एक जैसी है। पवित्रा ने उस घुटन और अन्तर्द्वन्द्व का सुन्दर चित्रण किया है। पारिवारिक सन्तुलन के लिए सामंजस्य का अभाव है। यही अभाव अशान्ति पैदा करने वाला है।

संघर्ष की जितनी चेतना आर्थिक रूप से शोषित वर्ग में है, वह आराम का जीवन जीने वालों में नहीं। 'काहे का मरद' की कमलम्मा घरों में काम करके परिवार का पालन पोषण करती है। दारू के लिए पैसे न देने पर पति से मार खाती है। यह इनके लिए कोई नई बात नहीं। जाति-पाँति की बात कहकर काम छोड़ने को कहता है। कमलम्मा प्रतिरोध करती है। उसने पति का घर छोड़ दिया। वह दृढ़तापूर्वक कहती है-'अब तक बोत मार खाई, अब मार के देखे, हाथाँ तोड़ देती' यह कथा 'अच्छा किया' की लक्ष्मी की है। उसने भी अत्याचार करने वाले पति का विरोध ही नहीं किया, बल्कि उसका मुकाबला उसी की भाषा में किया। यह एक और अगला कदम है। लक्ष्मी की बेटी भी इस कदम का स्वागत और समर्थन करती है-'अम्मा यह काम तो उझको बोत पहले करना था। आज तक वह हमारे या तेरे वास्ते क्या किया?'

'स्टेटस' लघुकथा में पवित्रा ने दर्शाया कि जाति-पांति का भेदभाव अब आर्थिक स्थिति पर आधारित होता जा रहा है। सजातीय नौकरानी टी वी देखने के लिए सोफ़े पर बैठ गई. उसको टोक दिया कि सोफ़े पर नहीं कार्पेट पर बैठो। '

नौकरानी को सजातीय की इस तरह की सोच चुभ गई. उसने कहा-'तुम चार अक्षर पढ़ गये तो हम से ऊँची जाति के तो नहीं हो गये? ...नहीं करना तुम्हारा काम।' कहकर पैर पटकती हुई बाहर चली गई थी। इस टकराहट का परिणाम हुआ कि वह काम छोड़कर चली गई.

शिक्षा की नई रौशनी का स्वागत हो रहा है, तो दकियानूसी ख्यालात वाले विरोध करने पर भी आमादा हैं। 'एक और फ़तवा' की फ़रजाना इसकी चिन्ता न करके योग के कार्यक्रम में जाना स्वीकार करती है। योगा सेण्टर में कोई दबाव नहीं कि मन्त्र या ओम बोलना ही है। 'जन्नत' में अन्धी आस्था पर गहरा व्यंग्य है। बिना सोचे–समझे सन्तान पैदा करना कोई समझदारी की बात नहीं। जच्चगी में मौत हुई तो-तो सीधे जन्नत मिलेगी' जैसे ख्याल बहुत पुराने ही नहीं बल्कि स्त्री-विरोधी और डराने वाले भी हैं।

आजकल समाजसेवी संस्थाएँ कुक्कुरमुत्ते की तरह उगी हैं। कुछ तो इस समाजसेवा की ओट में पुण्य भी कमा रहे हैं और व्यापार भी चला रहे हैं। 'समाज सेवा' की संचालिका ज़रूरत मन्द महिलाओं से सस्ते दामों में कढ़ाई कराकर उस प्रोडक्ट को महँगे दामों में बेचकर मुनाफ़ा कमाती रही। इस तथाकथित समाज सेवा की एवज में सम्मान भी पा लेती है। यही भी शोषण का ही एक तरीका है।

'पॉल्यूशन चैक' सार्थक शीर्षक वाली लघुकथा है, जिसमें प्रदूषण का एक दूसरा रूप भ्रष्टाचार के रूप हमारे सामने आता है। कितने भी कानून बनाए लेकिन भ्रष्टाचार का उन्मूलन सम्भव नहीं। छोटे स्तर से बड़े स्तर तक फैला यह कैंसर लाइलाज है। 'सजा' लघुकथा में इसका दूसरा रूप है। जो अपने कार्य को बिना किसी भेदभाव के निष्ठापूर्वक अंजाम देता है, नियमानुसार काम करता है, उसे ही दण्ड भुगतने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है।

जनहित की अपेक्षा अपना घर भरने के लिए की गई लूट लूटखसोट ही जनसेवा बन गई है। 'लोकतन्त्र' लघुकथा में किसान सूखे की मार से पीड़ित हैं। चारे की किल्लत से मवेशी पालना भी दूभर हो गया है। सरकारी सहायता में पचास प्रतिशत छूट का ढोंग किया जा रहा है। बाज़ार भाव से भी दुगुने मूल्य पर चारा खरीदा गया है। लोग जागरूक हैं। सवाल खड़े करते हैं। सवालों का अन्त किस प्रकार होता है, देखिए-

फिर एक आवाज आई-" क्या आप बता सकते हैं सरकार ने यह चारा दुगनी कीमत में कहाँ से खरीदा है, क्या इसका बिल दिखा सकते हैं? '

सुनते ही अधिकारी अपना आपा खो बैठा और लात घूसे चलाते हुए चिल्लाया—" यू रास्कल, बास्टर्ड तुम होते कौन हो हम से हिसाब पूछने वाले? ...लेना है तो चुपचाप लो वरना चले जाओ यहाँ से। '

सवाल उठता है कि क्या यह लूटतन्त्र ही लोकतन्त्र है?

पवित्रा अग्रवाल की ये लघुकथाएँ आम आदमी के जीवन की रोज़मर्रा की व्यथाएँ और दुश्वारियाँ हैं, संकीर्णताएँ और उसके उपजे अन्तर्द्वन्द्व को प्रस्तुत करती हैं। इनका कैनवास घर–आँगन से लेकर राजपथ तक फैला है।

11 अक्तुबर, 2014