आँसू / बालकृष्ण भट्ट

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मनुष्य के शरीर में आँसू भी गड़े हुए खजाने के माफिक है। जैसा कभी को कोई नाजुक वक्‍त आ पड़ने पर संचित पूँजी ही काम देती है उसी तरह हर्ष, शोक, भय, प्रेम, इत्‍यादि भावों को प्रकट करने में जब इंद्रियाँ स्‍थगित होकर हार मान बैठती हैं तब आँसू ही उन-उन भावों को प्रकट करे में सहायक होता है। चिरकाल के वियोग के उपरांत जब किसी दिली-दोस्‍त्‍ा से मुलाकता होती है तो उस समय हर्ष और प्रमोद के उफान में अंग-अंग ढीले पड़ जाते हैं, वाष्‍प गद्गद कंठ रूँध जाता है, जिह्ना इतनी शिथिल पड़ जाती है कि उससे मिलने की खुशी को प्रकट करने के लिए एक-एक शब्‍द मानों मनों बोझ सा मालूम पड़ता है। पहले इसके कि शब्‍दों से वह अपना असीम आनंद प्रकट करे सहसा आँसू की नदी उसकी आँख में उमड़ आती है और नेत्र के पवित्र जल से वह अपने प्राण-प्रिय को नहलाता हुआ उसे बगलगीर करने को हाथ फैलाता है। सच्‍चे भक्‍त और उपासक की कसौटी भी इसी से हो सकती है। अपने उपास्‍यदेव के नाम संकीर्तन में जिसे अश्रुपात न हुआ, मूर्ति का दर्शन कर प्रेमाश्रुपात से जिसने उसके चरण कमलों का अभिषेक न किया, उस दाम्भिक को भक्ति को आभासमात्र से क्‍या फल? सरल कोमल चित्त वाले अपने मनोगत सुख-दुख के भाव को छिपाने की हजार-हजार चेष्‍टा करते हैं कि दूसरा कोई उनके चित्त की गहराई को न थहा सके पर अश्रुपात भाव-गोपन की सब चेष्‍टा को व्‍यर्थ कर देता है। मोती सी आँसू की बूँदे जिस समय सहसा नेत्र से झरने लगती हैं उस समय उसे रोक लेना बडे़-बड़े गंभीर प्रकृति वालों की भी‍ शक्ति के बाहर होता है। भवभूति ने, जिनको प्रकृति का चित्र अपनी कविता में खींच देना खूब मालूम था, कई ठौर अश्रुपात का बहुत उत्तम वर्णन किया है, जिसमें यही आशय निकलता है यथा -

'अयन्‍ते वाष्‍पौघस्‍त्रुटित इव मुक्‍तामणिसरो।

विसर्पन् धाराभिर्लुठति धरणीं जर्जरकण:।।

निरुद्धोप्‍यावेग: स्‍फुरदधरनासापुटतया।

परेषामुन्‍नयो भवति च भराध्‍यातहृदय:।।'


'विलुलितमतिपूरैर्वाष्‍पमानं दशोक -

प्रभवमवसृजंती तृष्‍णयोत्तानदीर्घा।।

स्‍नपयति हृदयेश स्‍नेहनिष्‍यंदिनी ते।

धवलबहलमुग्‍धा दुग्‍धकुल्‍येव दृष्टि।।'

यदि सृष्टिकर्ता अत्यंत शोक में अश्रुपात को प्राकृतिक न कर देता तो वज्रपातसम दारुण दु:ख के वेग को कौन सम्‍हाल सकता। इसी भावार्थ का पोषक भवभूति का नीचे का यह श्‍लोक बहुत उत्तम है -

पूरोत्‍पीड़े तड़ागस्‍य परीवाह: प्रतिक्रिया।

शोकक्षोभे च हृदयं प्रलापैरेव धार्यते।।

अर्थात बरसात में तालाब जब लबालब भर जाता है तो बाँध तोड़ उसका पानी बाहर पानी देना ही सुगम उपाय बचाव को होता है - इसी तरह अत्यंत शोक से क्षोभित तथा व्‍याकुल मनुष्य को अश्रुपात ही हृदय को विदीर्ण होने से बचा लेने का उपाय है। बल्कि ऐसे समय रोना ही राहत है। जैसा भवभूति ने लिखा है -

इदं विश्‍वं पाल्‍यं विधिवदभियुक्‍तेन मनसा।

प्रियाशोको जीवं कुसुममिव धर्म: क्‍लमयति।।

स्‍वयं कृत्‍वा त्‍यागं विलपन विनोदो s प्‍युसुलभ-

स्‍तदद्याप्‍युच्‍छ्वासो भवति ननु लाभो हि रुदितम्।।

कोई शूरवीर, जिसको रणचर्चामात्र सुन जोश आ जाता है और जो लड़ाई में गोली तथा बाण की वर्षा को फूल की वर्षा मानता है, वीरता के उमंग में भरा हुआ युद्धयात्रा के लिए प्रस्‍थान करने को तैयार है। विदाई के समय विलाप करते हुए अपने कुनबा वालों के आँसू की एक-एक बूँद की क्‍या कीमत है यह वही जान सकता है। वह शसपंज में पड़ आगे को पाँव रख फिर हटा लेता है। वीर और करुणा दो विरोधी रस अपनी-अपनी ओर से उमड़-उमड़ देर तक उसे किंकर्तव्‍यतामूढ़ किए रहते हैं। आँख में आँसू उन्‍हीं अकुटिल सीधे सत्पुरुषों के आता है जिनके सच्‍चे सरल चित्‍त में कपट और कुटिलाई ने स्‍थान नहीं पाया है। निठुर, निर्दयी मक्‍कार की आँखे, जिसके कट्टर कलेजे ने कभी पिघलना जाना नहीं, दुनियाँ के दु:ख पर क्‍यों पसीजेंगी। प्रकृति ने चित्‍त का आँख के साथ कुछ ऐसा सीधा संबंध रख दिया है कि आँख चित्त की वृत्तियों को चट्ट पहचान लेती है और तत्‍काल तदाकार अपने को प्रकट करने में देर नहीं करती। तो निश्‍चय हुआ कि जो बेकलेजे हैं उनकी बैल सी बड़ी-बड़ी आँखे केवल देखने ही को हैं, चित्त की वृत्तियों का उन पर कभी असर होता ही नहीं। चित्त के साथ आँख के सीधे संबंध को बिहारी कवि ने कई दोहों में प्रकट किया है यथा -

कोटि यतन कीजै तऊ, नागरि नेह दुरै न।

कहे देत चित चीकनो, नई रुखाई नैन।

दहैं निगोडे़ नैन ये, गहैं न चेत अचेत।

हौं कसि कै रिस को करौं, ये निरखत हंसि देत।।

मृतक के लिए लोग हजारों लाखों खर्च कर आलीशान रोजे, मकबरे, कब्रें संगमरमर या संगमूसा की बनवा देते हैं, कीमती पत्‍थर, मानिक, जमुर्रद से आरास्‍ता उन्‍हें करते हैं, पर वे मकबरे क्‍या उसकी रूह को उतनी राहत पहुँच सकते हैं जितनी उसके दोस्‍त आँसू के कतरे टपका कर पहुँचाते हैं?

इस आँसू में भी भेद है। कितनों का पनीला कपार होता है, बात कहते रो देते हैं अक्षर उनके मुख से पीछे निकलेगा, आँसुओं की झड़ी पहले ही शुरू हो जाएगी। स्त्रियों को जो बहुत आँसू निकलता है, मानो रोना उनके पास गिरों रहता है, इसका कारण यही है कि वे नाम ही की अबला और अधीर हैं। दु:ख के वेग में आँसू को रोकने वाला केवल धीरज है उसका टोटा यहाँ हरदम रहता है, तब इनके आँसू का क्‍या ठिकाना। सत्‍वशाली धीरज वालों को आँसू कभी आता ही नहीं। कड़ी से कड़ी मुसीबत में दो चार कतरे आँसू के मानो बड़ी बरकत हैं। बहुत मौकों पर आँसू ने गजब कर दिया है। सिकंदर का कौल था कि मेरी माँ की आँख के एक कतरा आँसू की कीमत मैं बादशाहत से भी चढ़कर मानता हूँ। रेणुका के अश्रुपात ही ने परशुराम से 21 बार क्षत्रियों का संहार कराया। कितने ऐसे लोग भी हैं जिन्‍हें आँसू नहीं आता। इसलिए जहाँ पर बड़ी जरूरत आँसू गिराने की हो तो उनके लिए प्‍याज का गट्ठा पास रखना बड़ी सहज तरकीब निकाली गई है। प्‍याज जरा सा आँख में छू जाने से आँसू गिरने लगता है।

"किसी को बैगन बावले किसी को बैगन पत्‍थ।।"

बहुधा आँसू का गिरना भलाई और तारीफ में दाखिल है। हमारे लिए आँसू बड़ी बला है। नजले का जोर है, दिन रात आँखों से आँसू टपकता रहता है, ज्‍यों-ज्‍यों आँसू गिरता है त्‍यों-त्‍यों बीनाई कम होती जाती है, सैकड़ों तदबीरें कर चुके, आँसू का टपकना बंद न हुआ। क्‍या जाने बंगाल की खाड़ी वाला समुद्र हमारे ही कपार में आकर भर रहा है। आँख से तो आँसू चला ही करता है आज हमने लेख में भी आँसू ही पर कलम चला दी, पढ़ने वाले इसे निरी नहूसत की अलामत न मान हमें क्षमा करेंगे।