आंखें खोलो ! / ओशो

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प्रवचनमाला

धर्म एक है, सत्य एक है और जो उसे खण्डों में देखते हों, जानें कि जरूर उनकी आंखें ही खण्डित हैं।

एक सुनार था। वह राम का भक्त था। भक्ति उसकी ऐसी अंधी थी कि राम के अतिरिक्त उसका किसी और मूर्ति पर कोई आदर न था। वह कभी किसी और मूर्ति के दर्शन नहीं करता था। दूसरी मूर्तियों के सामने वह अपनी आंखें बंद कर लेता था! एक दिन देश के राजा ने कृष्ण की मूर्ति के लिए जड़ाऊ मुकुट बनाने की उसे आज्ञा दी। वह सुनार बहुत धर्म संकट में पड़ा। कृष्ण की मूर्ति के सिर का नाप वह कैसे ले? किसी भांति आंखों पर पट्टी बांधकर वह मूर्ति का नाप लेने गया।

लेकिन, कृष्ण की मूर्ति का नाप लेते समय उसे ऐसा अनुभव हुआ कि वह अपनी जानी-पहचानी राम की मूर्ति को ही टटोल रहा है! उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा और उसने एक ही झटके में अपनी आंखों की पट्टी निकालकर फेंक दी। इस घटना में उसकी बाहर की ही नहीं, भीतर की पट्टी भी दूर फिंक गई।। उसकी आंखें पहली बार खुलीं और उसने देखा कि सभी रूप प्रभु के हैं, क्योंकि उसका तो कोई भी रूप नहीं है! जिसका कोई रूप हो, उसके सभी रूप नहीं हो सकते हैं। जिसका कोई रूप नहीं है, वही सभी रूपों में हो सकता है।

यह कहानी सत्य है या नहीं, मुझे ज्ञात नहीं। लेकिन, मंदिरों, मस्जिदों और गिरजों में जाते लोगों की आंखों पर मैं ऐसी ही पट्टियां बंधी रोज देखता हूं। मैं उनसे इस कहानी को कहता हूं। वे मुझसे पूछते हैं कि क्या यह कहानी सत्य है? मैं कहता हूं कि अपनी आंखों पर बंधी पट्टीयों को टटोलें, तो आधी कहानी तो सत्य मालूम होगी ही और यदि उन पट्टियों को निकाल भी फेंकें तो शेष आधी कहानी भी सत्य हो जाती है!

आंखें खोलो और देखो। अपने ही हाथों से हम सत्य की पूर्णता से स्वयं को वंचित किए बैठे हैं। सब धारणाएं और आग्रहों को छोड़कर जो देखता है, वह सब जगह एक ही सत्ता और एक ही परमात्मा का अनुभव करता है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)