आंच देंगे ये सर्द रातों में दुशालों की तरह / ममता व्यास
पिछले दिनों एक दोस्त के यहाँ से निमंत्रण-पत्र आया। विवाह की दसवीं सालगिरह को बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा था। विवाह के दस बरस सफ लता पूर्वक पूरे कर लिए ये बात उनके लिए बहुत गर्व की बात थी। क्या अब विवाह को निभा ले जाना इतना कठिन हो गया है?
अब विवाह के पचास साल होने पर बहुत हैरानी से देखा जाने लगा है। नयी पीढ़ी कहती है, ओ माय गॉड, ये कैसे पॉसिबल है? एक ही साथी के साथ पचास साल तक रहा जाए। कोई कैसे इतने दिन एक साथ रह सकता है? ऐसे बहुत से सवाल करेगी अगली पीढ़ी हम लोगों से, लेकिन गंभीर प्रश्न ये कि विवाह क्यों टूटने लगे। विवाह संस्था का रूप इतनी जल्दी विकृत कैसे हो गया? पुरुषों पे अक्सर आरोप लगते थे कि वो अक्सर दूसरी पत्नी के संग रहे हैं या रोजगार की तलाश में गाँव से शहर आये पुरुषों ने दूसरी पत्नी शहर में रख ली आदि, लेकिन आज की स्त्री अब खुद विवाह को तोडऩा चाहती है।
अपनी शर्तों पे, अपने तरीके से जीवन को जीना चाह रही है, लेकिन इसकी कीमत वो क्या चुकाएगी ये भी एक अहम् सवाल है।
वक्त बदला, परिस्थितियाँ बदली, हम बदले, सब बदले, लेकिन नहीं बदला तो अभी तक विवाह और विवाह के मापदंड। हमारे देश में हमेशा विवाह को एक संस्कार माना गया। व्रत कथाओं में त्यौहारों पर सभी जगह पति और पत्नी को एक साथ पूजा करनी अनिवार्य है और पूजा के बाद हमेशा सदा सुहागन रहो और सात जन्मों तक यही पति मिले का आशीर्वाद भी दिया जाता रहा है।
लेकिन अभी हाल के बरसों में स्थिति-परिस्थिति अचानक से बदली है। रोज बढ़ते तलाक, टूटते परिवार, दरकते रिश्ते, हत्या और आत्महत्या में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई है। परिवार-परामर्श केन्द्रों के पास रोज करीब पचास मामले आते हैं जो विवाह तोडऩा चाहते हैं।
हैरानी की बात ये है कि ज्यादातर मामलों में महिलाएं ही आगे आ रही हैं और वो घर की दहलीज लांघना चाहती हैं।
अजीब बात ये कि पुरुष घर बचाने की बात कर रहे हैं बच्चों की दुहाई दे रहे हैं और स्त्रियाँ घर तोडऩे पे आमादा हैं।
कुछ उदाहरण देखिये जो परिवार परामर्श केन्द्र भोपाल के अनुसार हैं।
“केस नम्बर एक... मिसेस नायडू उम्र 52 वर्ष, तीन बेटों की माँ हैं। एक दिन घर पर बिना कुछ बताये अपने प्रेमी के साथ चली गयी और छिप के रह रही हैं। अपने घर वापस नहीं जाना चाहती। पति और बेटे उन्हें सिर्फ घर की नौकरानी समझते है, सम्मान नहीं देते इसलिए वो पति से तलाक चाहती हैं, लेकिन इस उम्र में दूसरा घर भी बसाना चाहती हैं।
केस नम्बर दो-पूनम गिडवानी पेशे से पार्लर चलाती है उम्र 39 इक बेटे की माँ है, पति कुछ नहीं कमाते इसलिए दुखी है और दूर के रिश्तेदार (जो बहुत अमीर हैं)के साथ दूसरा घर बसाना चाहती है। पति और बेटे को छोड़ कर जाना चाहती है।
केस नम्बर तीन- नैना गुप्ता उम्र 38 खूबसूरत और पढ़ी-लिखी के पति किसी दुर्घटना में अपंग हो गए। अब वो कभी दैहिक सम्बन्ध नहीं बना सकते इसलिए नैना उन्हें छोड़ कर जाना चाहती हैं। तलाक चाहती है।
हैरानी की बात ये भी कि उक्त सभी मामलों में कोई भी महिला अपने पति के पास वापस जाना नहीं चाहती, लेकिन पति उन्हें घर वापस लाना चाहते हैं।
आखिर क्या हुआ अचानक से महिलाओं को? क्या वो अब ज्यादा व्यवहारिक हो गयी है या स्वार्थी? ज्यादा शिक्षित? आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर या आत्मकेंद्रित?
उसे व्यक्तिगत आजादी चाहिए या वो गैर जिम्मेदार हो रही है?
पाना तो चाहती है, लेकिन बदले में कुछ देना नहीं चाहती। घर बसाना तो चाहती है, लेकिन घर के काम उसे गुलामी क्यों लगने लगे और बच्चे बोझ? किससे आजादी चाहिए उसे अपने घर से? परिवार से? बच्चों से? समाज से?
और फि र जब आजादी चाहिए ही तो फि र दोबारा किसी सम्बन्ध में क्यों बंधना चाहती है? फि र से घर बसाना फि र साथी तलाश करना फि र किसी अन्य पर निर्भरता क्यों?
ये कैसी भटकन? या तो वो इतनी सक्षम हो कि अकेले रहने का साहस कर सके आत्म निर्भर हो और दूसरों का सहारा बने या फि र अपने परिवार में ही खुश रहे, एक घर तोड़ कर दूसरा घर बसा लेना क्या कोई अकलमंदी का काम है?
सबसे पहले स्त्री को खुद से सवाल करने होंगे की उसे आखिर क्या चाहिए? किसी पुरुष का सा? उसका धर्म? उसकी देह? उसका नाम? या उसका प्रेम? और फिर खुद से एक सवाल करना चाहिए कि बदले में वो उसे क्या देगी?
याद रखना होगा कि विवाह हो या कोई भी साथ (लिव इन ही क्यों न हो) ईमानदारी, पारदर्शिता और स्पेस तो आपको देना ही होता है एक दूजे को।
और हाँ, स्त्री होने के नाते आपका दायित्व है कि अपने प्रेम और समर्पण से हर रिश्ते को सहेजे। फि र वो पति हो बच्चे हों या लिव इन में रहने वाला साथी ही क्यों हो।
यदि आपसी समझ है प्रेम है और निस्वार्थ भाव है नींव में तो कोई भी रिश्ते की इमारत हिल नहीं सकती। दुनिया में कोई भी ऐसा रिश्ता नहीं जिसे प्रेम से नहीं सहेज सके हम, हर रिश्ते को संभालने की शक्ति है स्त्री में। सृजन के लिए बनी है वो, विध्वंस उसे शोभा नहीं देते। सिर्फ अपने बारे में सोचना और दोष सारा पुरुषों के मत्थे मढ़ देना भी ठीक नहीं। स्त्री को खुद को फि र से पहचानना होगा वो बाहर जो खोज रही है वो सब घर-परिवार में ही मिलेगा। जिस दिन ये समझ आ गया उस दिन विवाह भी बचेंगे और हर रिश्ते फ लेंगे-फू लेंगे। याद रखिये रिश्ते हमें जीवन देते हैं। किसी ने क्या खूब कहा है 'आंच देंगे ये सर्द रातों में दुशालों की तरह, मत तोडिय़े रिश्तों को कांच के प्यालों की तरह।