आंटी की अंटी / इन्द्रजीत कौर
बहुत पहले टी.वी. में विज्ञापन आता था कि एक अच्छी-खासी औरत को एक लड़का ‘आण्टी’ कहकर पुकारता है। वह सदमें में शीशे के सामने खड़ी हो जाती है। उसके मन में ‘आंटी’ जैसा भयावह शब्द बारंबार गूंजता है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ जब मैने पहली बार ‘आंटी’ शब्द सुना। आप यकीन नहीं करेंगें कि यह ढार्इ अक्षर का शब्द सुनने के बाद मैं पूरे ढार्इ घण्टे तक शीशे के सामने अड्डा जमाये रही। हकीकत से रुबरू होने के बाद भी मैं कश्मीर में पड़ोसी देश की सेना की तरह शीशे के सामने डटी रही। शीशा हमें मुँह चिढ़ाता रहा।
खैर, धीरे-धीरे मुझे यह सदमाऊ एहसास होने लगा कि अब कोर्इ घूरकर नहीं देखता। सीटी नहीं मारता। छींटाकशी नहीं करता, मुआ। समझ में नहीं आता कि यह सब मेरे साथ जब होता था तो भी मुझे समस्या लगती थी और आज नहीं हो रहा है तो और भी परेशानी। हम इंसानों की फितरत ही समस्याओं मे जीने, मरने, उठने, बैठने, चलने, फिरने की हो गयी है। समस्या न भी हो तो हम कहीं न कहीं से खोज निकालते हैं। फिर उसका हल ढूंढने में समय बहातें हैं।
मैने सोचा कि क्यूँ न इस ‘आंटी’ शब्द की अंटी निकाली जाय। एक अच्छे ब्यूटी पार्लर की खोज की जाय। मुझे पता था कि इस रास्ते पर चलकर मेरे पति के जेब की भी अण्टी निकलेगी ही पर जो ठान चुके थे सो ठान चुके थे। उधार ले लेगें, सोना गिरवी रख देंगें, चांदी बेच देंगें या किश्तों में ब्यूटी पार्लर की सेवा भी ले लेंगें पर आंटी का इलाज जरुर ढूंढेगें। यहाँ भी काम न बना तो ‘आण्टी’ शब्द के लिए सरकारी सहायता की गुहार लगायेंगें, आंदोलन करेंगें यहाँ तक कि ‘आंटी’ शब्द के बदले मुआवजा भी ले लेंगे।
इन सद्विचारों पर चिंतन करते हुये मैं ब्यूटी पार्लर पहुँच गयी। बड़े से शीशे के सामने अपने केश और चेहरे को निहारा। मेरा गला भर आया। आंटीपने की इस भीषण समस्या को मैंने ब्यूटीशियन के सामने उठाया। उसकी तो बांछे खिल गयी। मेरी समस्या को गहरार्इ से जानने के बाद वह बिल की गहरार्इयों में डूब गयी। बालों को रूखा और बेजान बताते हुये उसने अजीब सा मुँह बनाया और बालों को समस्याग्रस्त एरिया घोषित कर दिया। मुझसे अच्छा-खासा बजट स्वीकृत करवा लिया।
अगली बारी चेहरे की थी। दोनों गालों पर चिकोटी काटते हुये वह कायाकल्प की देवी मुझको त्वचा बचाने की हिदायतें देने लगी। ‘त्वचा बचाओ’ की आड़ में वह ‘गंगा बचाओ’ की तरह धन वसूलने का सोचने लगी। मुझे लगा कि अभी तक करोड़ों बहाकर भी गंगा नहीं बच पायी है तो हजारों रुपये में त्वचा कैसे बचेगी। खैर त्वचा पर भी उसके प्रयोग शुरु हो गये। कर्इ परियोजनाएं मेरे पूरे शरीर के साथ चलती रहीं। बाल डार्इ हो गये। फेशियल, ब्लीचिंग, वैक्सिंग, मसाज वगैरह कर कराके मुझे शीशे के सामने लाया गया। खुद को देख मेरे तो होश फाख़्ता हो गये। अपने आप को मैने चिकोटी काटी कि कहीं यह सपना तो नहीं। नहीं, यह सच था। आंटी की अंटी निकल चुकी थी। मैं फिर से सोलह साल की बाला लग रही थी। मेरी ख़ुशी अपनी सीमा खो चुकी थी। हो भी क्यूँ न, जब मुकेश व अनिल की बीबीयाँ, हेमामालिनी ,रेखा आदि आंटी की अंटी निकाल सकती हैं तो मैं क्यूँ नहीं? मेरा दिल बल्ले-बल्ले कर रहा था। सैंकड़ों बार ब्यूटिशियन को थैंक्यू कहा और पैर भी छूये। सिर से पाँव तक मैं उसकी कृतज्ञ थी। उसके पैरों के नीचे की कालीन बन गयी थी मैं। इतनी कृतज्ञता तो उस भगवान के लिये भी नहीं प्रकट की होगी जिसने मुझे शरीर प्रदान किया। खूबसूरत घर-परिवार व दुनियाँ दी। ब्यूटिशियन ने मेरे इस भाव को भुना लिया। पर्स समेत पैसे उसने ले लिये। सोलह साल के दिखने के चक्कर में एक सोने की अंगूठी भी चली गयी थी।
पर जैसे ही मैं बाहर निकली, लोंगों के लिये बहार आ गयी। सबकी निगाहें मेरे ऊपर थी और कर्णप्रिय सीटियों की आवाजें भी आने लगीं। ‘आटो’ मेरे इस एक शब्द की आवाज से आटो वालों की भीड़ लग गयी। मुझे बिठाने के चक्कर में उनलोंगों में लड़ार्इ हो गयी। खैर किसी तरह सीटीयुक्त माहैाल का मन ही मन आनन्द लेते हुये मैं एक आटो में बैठ गयी। आटोवाला कोर्इ रोमान्टिक सा गाना गाते हुये मुझे ले जा रहा था। सोच रही थी कि घर पर बच्चे मुझे देख खुशी से झूम जायेगें। ‘उन्हें’ मेरे ऊपर फक्र होगा। पड़ोसने जलनें लगेंगी। हो भी क्यों न? पहले शीशे में देख लगता था कि मेरी जिन्दगी के सोलह साल बचे हैं( यदि अमूमन उम्र अस्सी साल मान लें तो) अब लगता है मैने सोलहवें साल में प्रवेश लिया है। धन्य हो ब्यूटी पार्लर वाली जी, आप खुद ब्यूटीफुल भलें न लगें। बच्चे भी देखकर डर जातें हैं पर दूसरों को ब्यूटी देने में तनिक भी नहीं हिचकिचातीं।
खैर इन्हीं आनन्दों और परमानन्दों को महसूस करते हुये मैने घर के अन्दर प्रवेश किया पर यह क्या? न बच्चे खुशी से झूमे न ‘उन्हें’ मेरे ऊपर फक्र हुआ। मैने मातम छाने का कारण पूछा तो पति बिफर पड़े- ’आज सोलह तारीख है। लाकर में एक भी पैसा नहीं है। खुद को सोलहवें साल की दिखने के चक्कर में अपने सोलह-सत्रह साल के बच्चों को बाकी दिन क्या खिलाओगी? खाना बाहर से क्या लाना, घर में बनाने तक के पैसे नहीं हैं।....बच्चे तुम्हारा थोबड़ा देख कर पेट भरेंगें क्या? ‘
इस सदमाऊ प्रतिक्रिया से मैं जड़वत हो गयी। पता नहीं क्यों पुराने सदमाऊ एहसास से नया वाला ज्यादा गहरा लगा। बच्चों के पेट पर लात मारकर मैने अपने ऊपर सीटियाँ बजवायीं। आंटी की अंटी निकालने के चक्कर में परिवार के पेट की अंटी निकल गयी। अम्बानी पत्नियों, हेमामालिनी, रेखा आदि की बात ही कुछ और है। उन्हें आंटी की अंटी निकालने के लिये बच्चों के पेट पर लात थोड़े ही मारना होता है।