आंदोलनकारियों की कोड भाषा / जयप्रकाश चौकसे

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आंदोलनकारियों की कोड भाषा
प्रकाशन तिथि : 09 सितम्बर 2019


हांगकांग में एक आंदोलन चल रहा है, जिसे महाशक्तिशाली चीन ने रोकने के बहुत प्रयास किए। आंदोलनकारियों की कुछ बातें मान ली गई हैं परंतु इस आधी-अधूरी विजय से आंदोलनकारी संतुष्ट नहीं हैं। बुझी हुई आग के नीचे कुछ कोयले अभी भी दहक रहे हैं। इस दौर में कोयलों को सीखना होगा कि बुझकर नहीं बुझ पाने की अदा का व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। किसी भी दौर में कोयले का राख हो जाना उसके अस्तित्व का अंत नहीं रहा। जैसे मनुष्य की मृत्यु जीवन वाक्य का अर्धविराम मात्र है।

गौरतलब है कि आंदोलनकारियों ने आपसी संवाद के लिए कोड भाषा बनाई थी, जिसे अन्य लोग समझ नहीं पाते थे। याद आता है कि जंगल में छूट गया बालक जानवरों के बीच पला था और उनकी भाषा समझ लेता था। जब वह एक स्त्री के संपर्क में आया और उसे प्रेम हुआ तो उसके द्वारा बोले हुए प्रथम दो शब्द थे- 'यू जेन, मी टार्जन'। प्रेम शब्दहीन संवाद है और खामोशी की भाषा है। बादशाह अकबर ने देखा कि लोग अलग-अलग भाषाओं में ऊपर वाले से प्रार्थना करते हैं। उसे यह जानना था कि ऊपर वाला किस भाषा को समझता है। यह जानने के लिए उसने एक प्रयोग किया। उसने आगरा से दूर जंगल में एक मकान बनाया, जिसमें एक विवाहित युगल को रखा गया। युगल और सेवकों को आदेश था कि वे एक शब्द भी नहीं बोले। उस महल में जन्मा बालक जो भाषा बोलेगा उसे ही स्वाभाविक माना जाएगा। कालांतर में शिशु का जन्म हुआ। जब वह 3 वर्ष का हुआ तो बादशाह अकबर दल-बल सहित वहां पहुंचे। थोड़ा पुचकारे जाने के बाद शिशु के मुंह से सियार, शेर और परिंदों की भाषा निकली। बादशाह ने जान लिया कि मनुष्य वही भाषा बोलता है जो अपने आसपास सुनता है। इस प्रयोग को 'गूंगा महल' का नाम दिया और कवि विष्णु खरे ने इस पर कविता भी लिखी थी।

जासूसों को प्रशिक्षण दिया जाता है कि वेश बदलकर अपनी पहचान छुपाकर जब विदेश जाएं तो नींद में अपनी मातृभाषा न बोलने लगें। मनुष्य के अवचेतन की भी डॉक्टरिंग की जा सकती है। महान फिल्मकार क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म 'प्रेस्टीज' में अवचेतन की डॉक्टर की बात को बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया गया। उनकी एक फिल्म में एक व्यापारी अपने प्रतिद्वंद्वी के अवचेतन से खेलता है। वह उसे गलत फैसले लेने की दशा में पहुंचा कर उसे दिवालिया बना देता है। वर्तमान कालखंड में भी सामूहिक अवचेतन के साथ खेला जा रहा है। माताएं ज़िद करते हुए शिशु को पानी से भरी थाली में चंदा मामा की छवि देखकर शिशु दूध पी लेता हैं।

बहरहाल, हांगकांग आंदोलनकारियों की कोड भाषा को चीन समझ नहीं पाया। प्राय: समय की दीवार पर लिखे संदेश को अवाम और व्यवस्थाएं समझ नहीं पाती। ज्ञातव्य है कि एक दौर में ठगों ने भी अपनी कोड भाषा बनाई थी। यात्रियों के दल में शामिल होकर वे अपनी कोड भाषा में अपनी मौजूदगी की जानकारी एक-दूसरे को देते। वे यह भी तय कर लेते थे कि किस स्थान पर यात्रियों की हत्या करनी है और उनका सामान लूट लेना है। ठगों का आतंक उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में अपने चरम पर पहुंच चुका था। जबलपुर के राजेंद्र चंद्रकांत रॉय के उपन्यास 'ठग अमीर अली की दास्तान' से प्रेरित 'ठग ऑफ हिन्दोस्तान' बनाई गई है। राय महोदय ने ठगों से संबंधित प्रचुर सामग्री एकत्रित की है और इस विषय पर लिखी किताबों का हिंदी में अनुवाद भी किया है। आज भी इन किताबों की प्रासंगिकता बनी हुई है, क्योंकि ठगी का नया दौर जारी है। व्यवस्था द्वारा मान्यता प्राप्त ठगी के ठाठ निराले हैं। गौरतलब यह है कि कोड की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है। अवाम और हुक्मरान खुलकर बात क्यों नहीं कर सकते। यह सच है कि रक्षा से संबंधित बातें गुप्त रखी जाती हैं परंतु सैटेलाइट जासूसी से सब को सब कुछ पता होता है। आज गूगल पर आप अपने घर को देख सकते हैं। आवाम को कोई बात गुप्त नहीं रखनी होती है। दुख है कि किसान, मजदूर और छात्र के शरीर के बहते पसीने का अर्थ व्यवस्था समझ नहीं पा रही है।