आंदोलनरहित समाज में कहानी का भविष्य / राकेश बिहारी
इक्कीसवीं सदी का पहला दशक जिसकी पगध्वनि पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में ही सुनाई पड़ने लगी थी, अब समाप्त हो चुका है। इन वर्षों में बहुत कुछ बदला है। मसलन समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, जीवन शैली, पर्यावरण और न जाने क्या-क्या? जाहिर है, जब बदलाव का प्रभाव क्षेत्र इतना व्यापक है तो इसकी बयार से साहित्य, यहाँ मेरा मतलब विशेष कर हिंदी कथा साहित्य से है, भी अछूता नहीं है। यदि हम पिछले पंद्रह-बीस वर्षों के दौरान हुए इन बदलावों पर गौर करें तो यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि सामूहिकता जैसे बीते दिनों की बात हो गई है। 'हम' और 'हमारे' जैसे शब्दों की अर्थध्वनियों पर 'मैं' और 'मेरा' की अति महत्वाकांक्षी आवाजों ने कब्जा कर लिया है।
लेकिन तसवीर का एक रुख और भी है जिसे इग्नोर नहीं किया जा सकता... सदियों से दलित-दमित और परिधि पर धकेल दिए गए समूह तमाम यथास्थितियों के बावजूद अब उतने बेचारे नहीं रहे। वे यथाशक्ति, वर्षों से अपने लिए निर्धारित कर दी गई चौहद्दी को अपनी मर्जी से पुनर्परिभाषित करना चाहते हैं। परिधि से केंद्र तक पहुँचने की उनकी ललक और इसके लिए उनके संघर्ष रोज तेज हो रहे हैं। कुछ लोग दलित, स्त्री, आदिवासी या कि इन जैसे हाशिए पर जीने को मजबूर अन्य सामाजिक समूहों की लड़ाइयों को लाख इग्नोर करें लेकिन हकीकत यही है कि पहचान की ये लड़ाईया निजी और सार्वजनिक जीवन में तेजी से बढ़ रही हैं। अस्मिता संघर्ष की बात उठते ही कई बार स्त्री लेखन, दलित लेखन, आदिवासी लेखन जैसी लेखकीय खाँचेबंदियों पर भी प्रश्न खड़े किए जाते हैं। स्त्री या दलित होने के नाम पर किसी लेखक को रियायत देने की बात अपनी जगह पर बेमानी हो सकती है, लेकिन कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो यह भी एक सत्य है कि सामाजिक और वर्गीय पृष्ठभूमियाँ लेखकीय परिणतियों की दशा-दिशा का निर्धारण भी करती हैं। यदि ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि स्त्रियों के लेखन में चाहे वह लेखिका खुद को स्त्रीवादी माने या कि न माने, अपने समय के पुरुष लेखकों की तुलना में स्त्री पात्र जेंडर से ज्यादा एक मनुष्य के रूप में चित्रित होती हैं?
आजादी के बाद भारतीय समाज और राजनीति को प्रभावित करने वाले कारकों में मंडल कमीशन की अनुशंसाओं का लागू होना बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या कारण है कि हमारे समाज की पूरी केमिस्ट्री को बदल देने वाले इस आंदोलन और इसके बाद की परिस्थितियों का जायजा लेने वाली कहानियों का हमारे यहाँ नितांत अभाव है? कहीं लेखकों की जमात में उस वर्गीय पृष्ठभूमि से आने वालों की कमी तो इसका कारण नहीं? यदि दलितों के लेखन को छोड़ दें तो हमारे साहित्य का कितना बड़ा हिस्सा उनकी तकलीफ, उनकी पीड़ा और उनके संघर्ष को रेखांकित करता है? ये कुछ ऐसे जरूरी प्रश्न हैं जिन पर बात किए बिना 'लेखन तो लेखन होता है' जैसी जुमलेबाजियाँ कुछ लोगों के विशिष्टता-बोध को भले ही एक तात्कालिक तुष्टि प्रदान करती हों, समाज के एक बहुत बड़े हिस्से के लिए अब भी किसी काम की नहीं हैं।
पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में घटित इन परिवर्तनों और रोजमर्रा की जिंदगी में उपस्थित नई जटिलताओं के फलस्वरूप उत्पन्न इन प्रश्नों की अनुगूँज इस बीच उभरकर आए कथाकारों की कहानियों में आसानी से सुनी जा सकती है।
अव्यक्त प्रेम की कहानियाँ: परिंदे का इंतजार सा कुछ
समकालीन युवा कथाकारों में सर्वाधिक चर्चित नीलाक्षी सिंह की कहानियों पर बात करते हुए समकालीन कथालोचना पर बिना कुछ बोले नहीं रहा जा सकता है। दुर्भाग्य से हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब चीजों को संपूर्णता में देखने की हमारी दृष्टि या तो छीन ली गई है या फिर जान-बूझकर हम एक समग्र और संपूर्ण दृष्टि से परहेज करने लगे हैं। आज की कथा आलोचना समकालीन कहानियों की एक व्यावहारिक और मुकम्मल मूल्यांकन करने के बजाय ऐसे साँचे में ढल गई है जो कभी तो थका देने वाले अबूझ शिल्प तो कभी सांप्रदायिकता, बाजार आदि के प्रायोजित प्रतिरोध, जिसे कुछ लोग 'बड़ा फलक' भी कहते हैं, को ही कहानी की सफलता या विफलता का नियामक मानते हैं। घाव पर नमक की स्थिति तो तब होती है जब कई बार किसी कहानीकार की खूबियाँ किसी पत्रिका विशेष में छपी कहानियों में ही दिखाई जाती है। नतीजतन ऐसे कथाकारों का समग्र मूल्यांकन होने की बजाय उनकी दो-एक रचनाओं के आधार पर ही उसके संपूर्ण लेखन पर एक खास तरह का लेबल चिपका दिया जाता है। मुझे लगता है कि इस एकांगी आलोचना की शिकार नीलाक्षी भी हैं। आदरणीय कशीनाथ जी की भी नजर इन पर तब गई जब इनकी कहानी तद्भव में आई (संदर्भ : यथार्थ का मुक्ति संघर्ष! नई सदी की कहानी, वागर्थ, दिसंबर 2005) जबकि सच यह है कि इससे पहले हंस और कथादेश जैसी पत्रिकाओं में इनकी कई महत्वपूर्ण और खूबसूरत कहानियाँ छपकर चर्चित हो चुकी थीं। नीलाक्षी सिंह की इस किताब को पढ़ते हुए बार-बार लगता रहा कि बाजार और सांप्रदायिकता के इस शोर में इनकी कहानियों के मूल स्वर पर ठीक से बात नहीं हो पाई है।
प्रस्तुत कहानी-संग्रह की कुल ग्यारह कहानियों में एक के केंद्र में सांप्रदायिकता है। जबकि दो कहानियों 'प्रतियोगी' (टेक बे त टेक न त गो) तथा 'उस शहर में चार लोग रहते थे' में बाजार आया है, जबकि सात कहानियों में किसी न किसी तरह प्रेम उपस्थित है। प्रेम नीलाक्षी की कहानियों का मर्म है, एक ऐसा प्रेम जो मिलने के बजाए त्याग या दूर हो जाने की नियति को प्राप्त होता है कई बार तो प्रेम करने वाला यह पात्र प्रेम की इस स्थिति से स्वयं भी अनभिज्ञ होता है या फिर अनभिज्ञता का स्वाँग करता है। प्रेम के अस्वीकार का यह मनोविज्ञान इन कहानियों में बहुत ही खूबसूरती से उतर आया है। संग्रह की एक कहानी 'धुआँ कहाँ है' भी एकतरफा प्रेम के इसी जद्दोजहद और उससे उबरने की कहानी है।
संग्रह की एक कहानी 'रंगमहल में नाची राधा' में एक जगह नीलाक्षी कहती हैं - 'हर औरत के मन के एक कोने में कोई रंगमहल होता है और हर औरत के मन में एक राधा होती है।' ये पंक्तियाँ इस कहानी का बीज वाक्य तो है ही, इस संग्रह की अधिकांश कहानियों को व उनके मिजाज को समझने का संकेत और सूत्र भी है। निश्चित तौर पर रंगमहल और राधा प्रेम की उत्कट अभिलाषा के प्रतीक हैं। 'रंगमहल में नाची राधा' की दीवानबाई नाती-पोतों वाली एक ऐसी स्त्री है जिसकी शादी कभी उसके प्रेम की अनदेखी कर उसकी इच्छा के विपरीत कहीं और कर दी गई थी। घर और बाहर की दुनिया में तालमेल बिठाती दीवानबाई का प्रेम एक दिन अचानक जाग पड़ता है, जब वह अपने विधुर प्रेमी के परिवार के सदस्यों की एक दुर्घटना में मारे जाने की खबर सुनती है। अधेड़ अवस्था में प्रेमी के एकाकीपन की कल्पना से उपजी दीवानबाई की विकलता और उसके किशोर प्रेम का वात्सल्य में बदलने का वर्णन कहानी का अद्भुत हिस्सा है। एक रात दीवानबाई अपने पति के आगे इस प्रेम का उद्घाटन करती है तो सुदामा प्रसाद न सिर्फ उसकी पिटाई करता है बल्कि उसका गला भी दबाने लगता है। खुद को बचाने के लिए दीवानबाई गले तक बढ़ आए पति के हाथ में दाँत काट लेती है और बिना अपनी नियति की परवाह किए घर छोड़ देती है। प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति की यह कहानी बिना किसी शोर-शराबे के स्त्री अस्मिता और स्वतंत्रता की बात भी करती है।
भाषा का संगीत, उसकी लय नीलाक्षी की जिन कहानियों में उभरकर सामने आती है, उनमें से एक है - 'उस बरस के मौसम'। इस कहानी की भाषा पाठक-मन पर एक अदृश्य जादू करती है। काव्यगत अनुभूति की सघनता इस कहानी के रेशे-रेशे में समाहित है। प्रेम की एक नाजुक छुअन आपके भीतर तक एक सिहरन पैदा करती है लेकिन जिस सूत्र को लेकर यह कहानी चलती है, वह भाषा की तमाम खूबसूरती के बीच कहीं उलझ जाती है। उत्कट प्रेम के बीच देह के रोमांचक अनुभव से गुजरने के बाद नायिका द्वारा प्रेम में देह की अनिवार्यता पर एक स्पष्ट प्रश्नचिह्न और उसी वक्त पूर्णता का अहसास, कहीं न कहीं लेखिका के अंतर्द्वंद्व को ही दर्शाता है।
शीर्षक कथा 'परिंदे का इंतजार सा कुछ' प्रेम के तरुण अहसास के बीच सांप्रदायिक कट्टरता के खिलाफ सौमनस्यता की कहानी है या फिर सांप्रदायिक तनाव के बीच एक प्रेम कथा, यह तर्क और विवाद का विषय हो सकता है लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह कहानी लगातार असहिष्णु और अमानवीय होते समाज में कोमल संवेदनाओं की उपस्थिति और उसकी जरूरत को रेखांकित करती है।
'प्रतियोगी' ('टेक बे त टेक न त गो') पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री अस्मिता के संघर्ष की कहानी है, जहाँ बाजार इस संघर्ष के साथी के रूप में नजर आता है। बाजार का यह चेहरा जिसमें प्रतियोगिता की शुरुआती स्थिति का वर्णन है निश्चित तौर पर आम आदमी के लिए चयन के कई विकल्प खोलता है। इस कहानी को बाजारीकरण के प्रतिरोध या विश्व बाजार के होड़ की तरफ संकेत करने वाली कहानी बताना, दूर की कौड़ी खोजना तो है ही, बाजारीकरण का आतंक दिखाकर अस्मिता और पहचान के संघर्ष को पीछे धकेलना भी है। प्रतियोगिता जो बाजार का एक (अकेला नहीं) पहलू है, इस कहानी में सुऔजार के रूप में प्रयुक्त हुआ है, जो यह भी साबित करता है कि संघर्ष के उपकरण, संघर्ष की जमीन और परिवेश के अनुकूल ही तय होते हैं। यही कारण है कि 'छक्कन प्रसाद एंड संस' के मुकाबले 'दुलारी जलेबी सेंटर' का बोर्ड टंग जाता है। कहानी के अंत में 'माइंड बिहाइंड द सीन' मिंटू उस्ताद की सीटी पर 'टेक बे त टेक न त गो' की धुन स्त्री अस्मिता की तात्कालिक जीत का जलसा और बाजार के विस्तार का सेलिब्रेशन दोनों साथ-साथ है। बाजार के विस्तार और स्त्री अस्मिता के संघर्ष की यह अभिसंधि तभी तक एक आदर्श स्थिति है जब तक बाजार का यह विस्तार बिना स्त्री-देह पर कब्जा जमाए उसके श्रम और मेधा की बदौलत उसे आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। अन्यथा यही बाजार जो इस कहानी में एक औजार है, स्त्री संघर्ष के रास्ते का रोड़ा बन जाता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बाजार को यह आदर्श स्थिति कभी मंजूर नहीं, वह हमेशा अपने विस्तार से स्त्री के अस्तित्व को ढक लेना चाहता है। बाजार का यही चरित्र इसी संग्रह की एक कहानी 'उस शहर में चार लोग रहते थे' में मजबूती से उभरकर आया है। कहानी का वह अंश जहाँ शहीद की पत्नी और उसका प्रेम विज्ञापन उद्योग के लिए एक प्रोडक्ट बन जाता है, सबसे प्रभावशाली पक्ष है। अन्यथा कहानी के चारों खंड में लेखिका द्वारा अंतःसूत्र बिठाने की तमाम कोशिशों के बावजूद ये चारों अलग-अलग कहानियाँ हैं।
नीलाक्षी इन कहानियों में जहाँ विज्ञापन और बाजार की भयावहता से आक्रांत हैं, वहीं उसकी चमक-दमक से अचंभित और उल्लसित भी। यही कारण है कि 'फूल' कहानी में प्रकृति का चित्र खींचते हुए उन्हें श्वेत शीर्ष मॉडलों के कैटवाक की तरह अदब से पैर रखती किरणों का उपमान मिलता है। एक तरफ विज्ञापन और बाजार की भयावहता और दूसरी तरफ उसकी लकदक चमक के प्रति एक विचित्र सम्मोहन नीलाक्षी ही नहीं प्रबुद्ध होती पूरी युवा पीढ़ी का अंतर्द्वंद्व है।
भाषा नीलाक्षी की शक्ति और सीमा दोनों है। नीलाक्षी की कहानियों में कविता पढ़ने का-सा आनंद मिलता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म वर्णन के सहारे दृश्य खींचना इनकी विशेषता है। चाहे परिवेश हो या व्यक्ति, वह उसका ऐसा बयान करती हैं कि वह आपकी आँखों के आगे किताब के पन्नों पर सदेह जीवंत हो जाएँ। लेकिन कई बार यही बारीकबयानी खटकने के हद तक ज्यादा हो जाती है। विस्तार से दृश्यों के खुलने के बीच कई बार अनकहे का भी बोलना जहाँ इन कहानियों की विशेषता है वहीं कभी-कभी भाषाई झालर बुनने के चक्कर में कथ्य का अनकहा रह जाना इनकी कमजोरी है। भाषा व भूगोल के चित्रण के चक्कर में ही कश्मीरी आतंकवादियों के बंधक रोहित की कहानी अतिनाटकीयता का शिकार हो गई है।
भाषा और परिवेश की रस्सी बाँटने के चक्कर में नीलाक्षी कई बार अपनी कहानियों को अच्छी शुरुआत नहीं दे पाती। लेकिन यदि आप थोड़ा धीरज रखें तो यही कहानी आपको बाँध लेगी। मुझे लगता है कुछ कहानियों में प्रयुक्त भाषा और कथ्य जिस तरह कहानी के मध्य और अंत में उभरते हैं, यदि यही खूबी कहानी के शुरू में आ जाती तो कुछ कहानियाँ शायद और बेहतर हो सकती थीं।
निश्चित तौर पर चुस्त, सधी और कोमल भाषा में बारीक डिटेल्स नीलाक्षी की पूँजी है। लेकिन कुछेक वैचारिक अंतर्विरोधों और दो-एक अपवादों को छोड़कर भयावहता के प्रतिरोध की अनुपस्थिति भी इन कहानियों में मौजूद है। हिंदी समाज ने जितने कम समय में नीलाक्षी को जो प्रतिष्ठा दी है, उसने उनकी चुनौतियों को भी बढ़ा दिया है। इन्हें न सिर्फ अपनी भाषा की कोमलता को अबूझ शिल्प के ताप से बचाए रखना है बल्कि सोच और विचार के कुछेक अंतरद्वंद्वों से भी लड़ना है।
नोक भर इतिहास और चुटकी भर उजास के बीच अवसाद का एकालाप : ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ
शशिभूषण द्विवेदी के पहले कथा-संग्रह 'ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ' में कुल ग्यारह कहानियाँ संकलित हैं। यदि इसी संग्रह की एक कहानी 'काला गुलाब' के कुछ शब्दों के सहारे इन कहानियों की गाँठ खोलने की कोशिश करें तो लगता है, ये कहानियाँ 'नोक भर इतिहास और चुटकी भर उजास' के बीच प्रेम की असफलता से उत्पन्न गहरे अवसाद और नैराश्य का एक लंबा एकालाप है। ऐतिहासिक उद्धरण, सूक्ष्म दर्शन, भाषा की काव्यात्मक कारीगरी और प्रायोजित बौद्धिकता के चौखटे के भीतर अपनी समग्रता में ये कहानियाँ प्रेम, संभोग, मृत्यु, आत्महत्या व निराशा का विविधवर्णी और बहुकोणीय कोलाज रचती हैं। शशिभूषण की कई कहानियों का समकाल इतिहास के साथ कदमताल करता चलता है। कथानक और इतिहास का यह गुंफन इन कहानियों में अनायास ही नहीं है। दरअसल असफल प्रेम और उसकी निराशा से उत्पन्न कोहरे में लिपटे उनके कई कथानक कदम-दर-कदम शशिभूषण को डराते हैं कि कही ये कहानियाँ फिल्मी न हो जाएँ। उनका यह भय कई कहानियों में बार-बार मुखरित होता है। बतौर उदाहरण कुछ पंक्तियाँ यहाँ भी उद्धृत हैं -
- यूँ तो सरसरी तौर पर यह एक सनसनीखेज फिल्मी पटकथा है जिसे पढ़ते हुए डर है कहीं लोग किसी ब्लू फिल्म का आनंद न लेने लगें। (विप्लव)
- और फिर यह दोयम दर्जे की फिल्मी कहानी चली। (विप्लव)
- यह सब कुछ किसी चालू फिल्म की तरह दो घंटे में घट गया। (सजा)
- नूर रोते हुए मुन्ना के गले लग गई। यानी पूरा फिल्मी क्लाइमेक्स। (शिल्पहीन)
- लगा जैसे किसी चालू फिल्म का कोई सीन चल रहा है और पहले से ही सारे संवाद तय हैं। (काला गुलाब)
वस्तुतः शशिभूषण की कई कहानियों में ऐतिहासिक घटनाओं और कथानक का गुत्थमगुत्था हो जाना, कहानी के फिल्मी हो जाने के इसी भय की बौद्धिक परिणति है। इन कहानियों में मूल कथा पर इतिहास का हावी हो जाना जहाँ पाठकों को उबाता और आतंकित करता है, वहीं दुरूह शिल्प को ही कहानी की सफलता का नियामक मानने वाले कथालोचक कहानियों के सिर पर लदे इस बोझ से इतने अचंभित और उल्लासित हो जाते हैं कि वे पाठकों को कथानक, चरित्र-चित्रण, वातावरण आदि के सूत्रों को छोड़कर अपने पढ़ने का अभ्यास बदलने की नसीहत दे डालते हैं।
शशिभूषण अपने सभी पात्रों को खुलने नहीं देते। यूँ तो संग्रह की एक कहानी 'अर्द्धपक्ष' अपने शीर्षक से ही घोषित रूप से एकपक्षीय है लेकिन 'अर्द्धपक्ष' का यह लेबल अघोषित रूप से इनकी अधिकांश कहानियों के साथ लटका हुआ है। आश्चर्य है कि यह दूसरा पक्ष लगभग हर जगह स्त्री है। 'अर्द्धपक्ष' की सुनेत्रा हो या फिर 'सरकारी क्वार्टर' की बुढ़िया और उसकी दो जवान बेटियाँ - संतो-बंतो, 'सोच' की शाहिदा आपा हों या काला गुलाब की प्रिया, 'विप्लव' की फ्रांसिसी लड़की हो या फिर 'एक बूढ़े की मौत' की सावित्री, किसी का चरित्र कहानी में खुलकर नहीं आता। अजीब स्थिति है कि सुनेत्रा का पक्ष कथाकार को पता नहीं है और प्रिया की पीड़ा कथानायक को तयशुदा फिल्मी संवाद लगते हैं जिन्हें वह अनसुना कर देता है। सावित्री के बारे में बस इतना ही पता है कि वह एक मजी हुई वेश्या है। संतो अपना पक्ष रखना ही चाहती है कि रोशनलाल उसे चोप्प साली की दहाड़ लगाकर चुप करा देता है। शाहिदा आपा बिना लड़े ही और आगे न लड़ने का फैसला ले लेती हैं। इन तमाम स्त्री पात्रों के मुँह पर लटके या कि लटका दिए गए ताले क्या महज संयोग भर हैं?
इन कहानियों को पढ़ते हुए यह प्रश्न आपको लगातार परेशान करता है। यह भी कम चिंताजनक नहीं है कि बंद जुबान वाली ये महिलाएँ संभोग या बलात्कार के लिए लगभग हर दूसरी कहानी में मौजूद हैं। क्या संभोग और बलात्कार ही महिलाओं का एक मात्र परिचय है? कहानी-दर-कहानी होने वाला यह संभोग और बलात्कार कहीं सुनेत्रा के हमले (प्रेम में तथाकथित धोखा) का डीके को जवाब तो नही? क्योंकि उसी के शब्दों में, इसके पहले वह स्त्रियों का सम्मान करता था। (यहाँ इसके पहले पर गौर करने की जरूरत है) और बिना सुमित्रा का पक्ष जाने ही उसने उसे कभी चैन से नहीं जीने देने की धमकी भी दे डाली थी। फिर स्त्री से बदला लेने का इससे और बढ़िया तरीका हो भी क्या सकता है। साली, रंडी, छिनाल, रहस्यमय डाकिनी आदि विशेषणों से विभूषित इन मौन महिला पात्रों की भीड़ में आप खोजकर देख लें, इन कहानियों में पुरुष पात्रों के लिए इतनी मात्रा में गालियाँ नहीं मिलेंगी। माफ कीजिएगा, यह हमारे समय और समाज का वीभत्स चित्र नहीं, चीजों को देखने की पूर्वाग्रही और सामंती दृष्टि का प्रतिफल है यह।
प्रेम जिंदगी में एक नई ऊर्जा का संचार करता है। जीने का नया मकसद देता है और यही इसकी सार्थकता है। प्रेम के इस स्वरूप को भला कौन सेलीब्रेट नहीं करेगा। लेकिन यदि स्थिति प्रतिकूल हो तो इसे रास्ते का पत्थर समझकर आगे बढ़ना ही जीवन है। न कि इसके स्यापे में जीवन के आगामी पलों को नष्ट कर देना। बदकिस्मती से इन कहानियों में प्रेम के आते ही आदमी मृत्यु के अहसास से डूबने लगता है। मृत्यु जैसे प्रेम का दूसरा नाम हो जाती है। जीने की इच्छा और मृत्यु का भय शायद मानव जीवन की शाश्वत अनुभूतियाँ हैं इच्छा और भय की इस स्थिति को राजेश रेड्डी का एक शेर बहुत खूबसूरती से बयान करता है - 'अजब यह कैद है दुनिया का हर इनसान, रिहाई माँगता है और रिहा होने से डरता है।' जीने की इस हसीन तमन्ना के विपरीत मृत्यु शशिभूषण की कहानियों का स्थाई भाव है। 'काला गुलाब' कहानी में आया एक वाक्य - 'जीने की इच्छा से प्रबल होती है मरने की इच्छा' संग्रह की लगभग हर कहानी पर हावी है। जाहिर है, जहाँ जीने की इच्छा ही शेष न हो और मरने की इच्छा सदैव प्रबल हो, वहाँ संघर्ष का दूर-दूर तक नामो-निशान नहीं होगा और जर्रे-जर्रे पर पलायन का बर्चस्व होगा। तभी तो भागकर प्रेम विवाह करने वाला नसीम एक दिन आर्थिक तंगी से तंग आकर रेल से कट मरता है (खिड़की) और प्रेम में धोखा खाया डी.के. बिना लड़की का पक्ष जाने आत्महत्या कर लेता है। कभी की मजबूत शाहिदा आपा अचानक ही आ पड़े एक मजहबी सियासत से संघर्ष किए बिना जीवन में पहली बार नमाज पढ़ने बैठ जाती हैं और चौदह क्वार्टर का रोशनलाल पंखे से लटककर आत्महत्या कर लेता है। मानव क्लोन की अवधारणा से आतंकित जानकी बाबू भी आत्मघात ही करते हैं (एक बूढ़े की मौत) और करमू के ताल पर शुकना की लाश एक पेड़ से लटकी मिलती है (ब्रह्महत्या)। बर्फ की सफेद चादर धीरे-धीरे शरद को ही नहीं पूरी दुनिया को जकड़ लेती है।
लगभग हर जगह असफल प्रेम की यह नियति जो मृत्यु या आत्मघात में ही अपनी मंजिल ढूँढ़ती है, दरअसल जीवनानुभवों के कमी और संघर्ष के अभाव से उपजी है। यही कारण है कि इन कहानियों में अपनी खिड़की से दूर नहाती औरत की पीठ देखता व्यक्ति मिलता है, डायरी के मनहूस पन्ने मिलते हैं, बंद कमरे में उपस्थित कीड़े से भयाक्रांत व्यक्ति मिलता है (जिसके लिए यह एक अभेद्य चक्रव्यूह है), हर चेहरे पर एक दुख मिलता है, वर्षों पुराना खंडहर होता समय मिलता है, लेकिन जीवन संघर्ष को उद्धत दो बाँहें नहीं मिलती, जिजीविषा से भीगा कोई चेहरा नहीं मिलता। लगता है लेखक ने जीवन की खुरदुरी खूबसूरती देखी ही नहीं है। इतिहास के खंडहर खँगालता कहानीकार समकालीन यथार्थ से इतना कटा हुआ है कि वह किसिम-किसिम के शैंपू से फहराते इक्कीसवीं सदी के महनगरीय दफ्तर की लड़की के बाल में चमेली के तेल की खूशबू खोजता दिखता है।
हो सकता है असफल प्रेम या प्रेम में धोखा शशिभूषण का निजी अनुभव हो जिसकी तरफ उन्होंने वागर्थ में प्रकाशित आत्मकथ्य में इशारा भी किया है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि निजता का सामाजिकता में बदल जाना ही साहित्य सृजन है। निश्चित तौर पर निजी अनुभव हमारे साहित्य की जमीन तैयार करते हैं, लेकिन बिना निजता का अतिक्रमण किए यह जमीन उर्वर भी नहीं होती। दुनिया निज की खिड़के से बाहर भी है। यदि बच्चन जी की कुछ पंक्तियाँ उधार लूँ तो 'तेरे जीवन की क्यारी में कुछ उगा नहीं मैंने माना, पर सारी दुनिया मरुथल है बतला तूने कैसे जाना? क्या तेरे जग की सीमा तक इस जगती का आँगन समाप्त? क्या तुझ तक ही जीवन समाप्त?'
लेकिन तमाम निराशा और अवसाद के बीच इसमें कोई संदेह नहीं कि शशिभूषण को कहानी कहना बखूबी आता है, भाषा इनके इशारे पर नाचती है। यही इन कहानियों का चुटकी भर उजास है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इनकी आगामी कहानियों में इतिहास की नोक और अवसाद तथा निराशा का एकालाप इस उजास पर हावी नहीं होगा।
कथा के जरूरी प्रदेश में : कथा के गैरजरूरी प्रदेश में
' उनके दुख अथाह हैं। जब सुनाती हैं समुद्र का छोर नहीं मिलता। जब शादी होकर आई थीं तब के दुख। जब बच्चे पैदा हुए थे तब के दुख... मैंसेज के भीषण रूप धारण कर लेने पर भी डॉक्टर तक न पहुँचाए जाने का दुख। ऐसे में मृत्यु के सन्निकट होने पर संयोगवश किसी पड़ोसी के हस्तक्षेप से डॉक्टर द्वारा बचा लिए जाने पर बचे रह जाने का दुख... अपने ही आदर्शों और आशाओं का दुख। '
अल्पना मिश्र के पहले कहानी-संग्रह में संकलित कुल छह कहानियों में से एक 'बेतरतीब' से उद्धृत ये पंक्तियाँ दरअसल अल्पना की कथाभूमि को समझने का एक कारगर औजार हैं। स्त्री जीवन के परवश होने की दुखद विवशता इस संग्रह की कहानियों में अपनी संपूर्ण करुणा और जटिलता के साथ उपस्थित है।
अल्पना की कहानियाँ विमर्श के दवाब में किसी भाषाई उलझाव का शिकार नहीं होती बल्कि लययुक्त भाषा के साथ अपने कहानीपन को भी बचाए रखती है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि ये कहानियाँ सीधी सपाट किस्सागोई हैं। दरअसल इनका पाठ इतना आसान नहीं है। स्त्री जीवन के साथ-साथ समकालीन यथार्थ की जटिलताएँ अल्पना के कथा-विन्यास में कई-कई परतें जोड़ती है, नतीजतन कहानी के पीछे की कहानी और यथार्थ के पीछे का यथार्थ इन कहानियों के रेशे-रेशे में समाहित है। यह अल्पना के कथा-कौशल की खूबी है कि इन कहानियों को पढ़ते हुए इनके समानांतर कई-कई कहानियाँ आपके साथ चलने लगती हैं। गोकि अल्पना भाषा, शिल्प और कथ्य के नाम पर कोई नई जमीन नहीं तोड़ती हैं लेकिन अनुच्छेद विन्यास का एक टटकापन उनकी कहानी को एक स्वतंत्र पहचान देता है। दरम्याने पैराग्राफों के बीच अचानक ही एक-दो पंक्ति का कोई छोटा-सा पैरा कहानी में एक नई तरलता लेकर आता है। कई बार ये छोटे-छोटे अनुच्छेद कहानी को बढ़ाने के सूत्र होते हैं तो कई बार परिस्थितियों पर एक मारक टिप्पणी। कई बार इन्हें पढ़ते हुए कविता पढ़ने का कोमल सुख भी मिलता है तो कई बार इनसे एक मधुर हास्य का संचार भी होता है।
बतौर उदाहरण कुछ पंक्तियाँ - 'सबका साबुन बरामदे की रैक पर रहता। हम अपना-अपना साबुन वहीं से लेकर नहाने जाते और वापस लाकर वहीं रखते। बाथरुम में रखने की जगह नहीं थी। रत्नाजी ने कभी बाथरुम में रैक लगवाने की कोशिश नहीं की। भगवत शरण जी ने भी नहीं।
मानो घर रत्ना जी का न हो।
भगवत शरण जी का भी नहीं।
घर, तब भी घर बना रहता है।' (बेतरतीब)
'स्त्री नाम नहीं हो सकती? कभी भी, किसी भी क्षण उसे बदल देना होता है अपना आप! पुराना पड़ जाता है नाम, इतना पुराना कि जीवन में उसका प्रवेश वर्जित हो जाए। यानी चोला उतारकर आना है जैसे आत्मा चोला उतारकर आती है।
शादी के विज्ञापनों में यह लिखा जाना चाहिए।
नहीं लिखा जाता
अंडरस्टुड होता है बहुत कुछ।' (उपस्थिति)
अल्पना पेशे से प्राध्यापक हैं और हृदय से कवि। इनकी कहानियों पर इन दोनों का प्रभाव है। रूई के फाहे-सी हल्की और नरम भाषा के बीच परिस्थितियों पर टिप्पणी करती प्राध्यापकीय दृष्टि इन कहानियों में सर्वत्र मौजूद है। काव्यात्मक भाषा और आलोचकीय दृष्टि से संपन्न कहानीकारों की कहानियों में कई बार मूल कथ्य का अनावश्यक कविताईकरण या भाषणबाजी में गुम होने का भय बना रहता है। उल्लेखनीय है अल्पना की कहानियाँ इन खतरों-आशंकाओं से मुक्त हैं। भाषा की पद्यात्मकता या परिस्थितियों पर टिप्पणियाँ यहाँ कथ्य पर हावी नहीं होते बल्कि उन्हें एक गति प्रदान करते हैं।
कोमल भाषा और कठोर परिवेश के बीच अपनी पहचान के लिए छटपटाती इन कहानियों की स्त्रियाँ किसी विमर्श का शोर भले न करती हों, एक खास तरह के विमर्श की गुंजाईश के लिए स्पेस जरूर रचती हैं। कुछेक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर आज हिंदी जगत में भले ही विमर्श के खिलाफ शोर-शराबा किया जाए, लेकिन देह और मन दोनों ही इस विमर्श की अनिवार्यता हैं। कारण साफ है - मन की बजाए देह खोलने की कुंठित हड़बड़ी में ऊब-डूब करता मर्दवादी सोच। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि स्त्री मन और देह दोनों पर समान रूप से पहरे बिठाए गए हैं। न तो स्त्री का मन अपना है न उसकी देह। अल्पना की कहानियाँ व्यक्तित्व की पहचान और उसकी स्वतंत्रता को जिस प्लेटफार्म पर उठाती हैं वहाँ मन और देह दोनों की बराबर की भूमिका है। स्त्री तन-मन पर लाद दिए गए बोझ को हटा फेंकने की एक अद्भुत हिम्मत और बेचैनी इन कहानियों में लगातार उपस्थित है।
'इच्छा होती है कोई प्यार से इन्हें देखे। आँखें-आँखों से मिलकर ठहर जाएँ। कोई, जो धीरे से छुए, धीरे से उनकी नाक पर अपने होंठ रख दे, उनकी गर्दन, उनके कंधे, उनकी पीठ, उनकी देह के एक-एक रोम-छिद्र पर किसी की गर्म साँस सिहरा जाएँ। कोई जो देरतक, बहुत देरतक उनके साथ हो... जाने कैसी है देह के भीतर उगी प्रेम की यह पागल इच्छा।' (कथा के गैरजरूरी प्रदेश में)
लेकिन विडंबना यह है कि इस नैसर्गिक इच्छा को व्यक्त करने का हक स्त्रियों को नहीं है। यदि किसी ने यह हिम्मत की भी तो उसे तुरंत चरित्रहीन करार दिया जाता है। यह विडंबना और त्रासद हो जाती है जब अपनी हवस मिटाने को बेताब पति (मर्द) के स्पर्श या बचपन के किसी यौन-कुंठित मास्टर साहब की स्मृति भर से ही स्त्री मन के किसी कोने में दबी इस रेशमी इच्छा की डोर टूट-सी जाती है। ऐसे में किसी ऐसे साथी या मित्र की अदृश्य जरूरत स्वयमेव रेखांकित हो जाती है जो देवता नहीं साझीदार हो, मालिक नहीं हमसफर हो।
स्त्री का अपना कुछ नहीं होता, न नाम, न जाति, न गोत्र। कल तक स्कूल जाती सीमा और रीमा कैसे शादी होते ही मिसेज श्रीवास्तव या मिसेज पांडे हो जाती है पता नहीं चलता। नामांतरण की यह सामाजिक प्रक्रिया दरअसल स्त्रियों पर आरोपित पहचानहीनता है। 'उपस्थिति' की सिमरन हो या 'अँधेरी सुरंग में टेढ़े-मेढ़े अक्षर' की राजरानी, दोनों पात्रों के नाम प्रकरण के बहाने अल्पना स्त्री अस्तित्व को नकारे जाने की तकलीफ और उससे उपजी बेचैनी को ही रेखांकित करती हैं।
संग्रह की तमाम कहानियों की केंद्रीय पात्र एक स्त्री है। लेकिन संकेतों में ही सही कुछेक कहानियों में स्त्री के खिलाफ स्त्री खड़ी नजर आती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की ये कहानियाँ 'औरत की दुश्मन औरत ही होती है' के पारंपरिक जुमले को बल देती हैं। बल्कि स्त्री-स्त्री के बीच के बहनापे की जरूरत को रेखांकित करती है। संग्रह की कहानी 'बेतरतीब' का अंतिम वाक्य अपनी करुणा और व्यंग्य के बीच 'ग्लोबल सिस्टरहुड' की इसी परिकल्पना की ओर इशारा करता है...। 'रत्ना जी, दुख की इस नदी से दूर इधर क्या करती रहती है? ऊबती नहीं हैं? किसी बूढ़ी औरत से बतियाने जाइए।'
अल्पना की कहानियों में पुरुष पात्र बहुत कम आते हैं। कई बार आते भी हैं तो बहुत हद तक भूमिकाहीन। शायद यही कारण है कि कई बार ये कहानियाँ दुखों का लंबा एकालाप भी लगती हैं। पुरुष पात्रों की कुछ और संजीदा उपस्थिति इन कहानियों में छिपे विमर्श को और व्यापक बना सकती थी।
वर्तमान और अतीत के बीच आवाजाही अल्पना की कथा शैली का एक अभिन्न हिस्सा है। इन कहानियों की यह विशेषता पाठकों से एक अतिरिक्त सतर्कता या चौकन्नेपन की माँग करती है, वरना इस आवाजाही में कथानक के फिसलने का अंदेशा बना रहता है। कई बार वर्तमान और अतीत की यह आवाजाही अपनी बहुलता के कारण एक घालमेल का रूप धारण कर लेती हैं। ऐसे में परिस्थितियों की जटिलता कहानी के पाठ को दुरूह बना देती है। अल्पना को इस आवाजाही के क्रम में अतिरिक्त सतर्कता बरतने की जरूरत है ताकि पाठकों पर अनावश्यक प्राणायाम का बोझ नहीं पड़े।
इस संग्रह की प्रायः सभी कहानियाँ स्त्री-मन की उस खिड़की में झाँकती है जहाँ डर है, घुटन है, बेचैनी है लेकिन इस स्त्री को बाहर का कुछ नहीं पता। आर्थिक और शैक्षणिक संवेदना से संपृक्त आधुनिक समाज में, स्त्री-जीवन में जो सार्थक बदलाव आ रहे हैं उसका संकेत इन कहानियों में नहीं मिलता। टूटन और छटपटाहट की कई-कई कथा-अंतर्कथा के बीच इस अँधेरे से बाहर निकलने का प्रयास करती स्त्रियों की अनुपस्थिति इन कहानियों को पढ़ते हुए जरूर खटकती है। अल्पना ने अपने इस संग्रह को अँधेरे से जूझती स्त्रियों के अनवरत प्रयास और अदम्य इच्छाओं के नाम समर्पित किया है। इन कहानियों में अँधेरे से घिरी स्त्रियाँ तो हैं लेकिन इस अँधेरे से बाहर आने का कोई ठोस प्रयास नहीं है इसी कारण संत्रास की तल्खियों का यह बयान कई बार दुख झेलती स्त्री का व्यथालाप भर बन कर रह जाता है। इसके विपरीत अल्पना की समकालीन अन्य कथा-लेखिकाओं यथा - नीलाक्षी सिंह, कविता, वंदना राग, अंजलि काजल, पंखुरी सिंहा, आदि की कहानियों में आधुनिक स्त्री-जीवन में घटित हो रहे नए बदलावों को भी रेखांकित किया जा सकता है।
ऐसा इसलिए भी है कि पंखुरी, कविता, नीलाक्षी, अंजलि आदि की कहानियों के केंद्र में कैरियर के लिए संघर्षरत आज की अविवाहित लड़कियाँ हैं, जबकि अल्पना की कहानियों की स्त्रियाँ चूल्हे-चौके में झोंक दी गई गृहस्थिनें हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं कि अल्पना की कहानियाँ अपने समकालीनों के बीच कमतर हैं। मात्रा में कम कहानियाँ लिखकर भी इन्होंने अपनी भाषा-शैली और सूक्षम संवेदनाबोध से एक अलग और उल्लेखनीय पहचान बनाई है। जहाँ तक यहाँ उठाए गए कुछ सवालों का प्रश्न है, उन्हें अल्पना की कहानियों की कमी के बचाए उनकी आगामी कहानियों के एजेंडा के रूप में देखा जाना चाहिए। स्त्री-मन के पारंपरिक और वर्जित दोनों कोणों को एक विशिष्ट शैली में खोलती-खंगालती ये कहानियाँ समकालीन कथा का जरूरी प्रदेश है।
बदलते समाज की स्वप्नधर्मी गवाहियाँ: मेरी नाप के कपड़े
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'मेरी नाप के कपड़े' कविता का पहला कहानी-संग्रह है। कविता अपनी कहानियों के लिए कही दूर नहीं जातीं बल्कि अपने आसपास और परिवेश में बिखरे पड़े छोटे-छोटे पात्रों, उनकी मनःस्थितियों और उनकी दैनंदिनी की घटनाओं में से ही कुछ सूत्र तलाशते और उन्हें खुरचते-परखते हुए अपना बनाकर बड़ी सहजता से कहानी की शक्ल में पुनसृजित कर हमारे सामने रख देती हैं। इन कहानियों की रचना प्रक्रिया का गवाह होने के नाते मेरे लिए इन्हें पढ़ना कई बार एक निजी एकांत में खुद से रूबरू होने जैसा भी है।
कविता की कहानियों के पात्र कब एक अंतरंग और आत्मीय निकटता के साथ आपकी उंगली पकड़कर चलने लगते हैं और कब अपने भीतर अपने समय का प्रतिसंसार रचते हुए आपसे एक खास तरह की तटस्थ दूरी बनाकर खुद अपना ही प्रतिपक्ष बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। निजी अंतरंगता के विशिष्ट और रचनात्मक पुनर्लेखन के बीच स्वयं तथा अपने समय और समाज का प्रतिपक्ष रचने का यही तटस्थ लेखकीय कौशल कविता की कहानियों को अपने समकालीनों से अलग करता है। दरअसल ये कहानियाँ परंपरा और आधुनिकता के अंतरद्वंद्वों के बीच विकसित हो रही युवा स्त्री के मानसिक परिवेश की अंतर्यात्रा है, जहाँ प्रेम, विश्वास, भय और निजी पहचान की स्थापना की धुन के रसायन से बनी-बुनी कथा-नायिकाएँ परंपरा से चले आ रहे सामाजिक-पारिवारिक जीवन-मूल्यों को कदम-दर-कदम परखती तो हैं ही, अपनी सोच और सपनों के उपकरणों से उन्हें लगातार परिस्कृत-परिमार्जित भी करती चलती हैं। घिस-घिसकर हमारे जीवन-व्यवहारों का स्थाई हिस्सा-सा बन चुके पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों को चुनौती देते हुए उनके समानांतर नए मूल्यबोध का प्रतिसंसार रचने की जिद ही कविता की कहानियों का मर्म है। इन कहानियों की नायिकाएँ परिवार और समाज में व्याप्त लैंगिक विसंगतियों से उत्पन्न मान्यताओं की जड़ों पर प्रहार करते हुए एक व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान अर्जित करना चाहती हैं।
संग्रह की एक बेहद ही महत्वपूर्ण कहानी 'देहदंश' की कुछ पंक्तियों को कविता की रचनात्मक स्वप्नधर्मिता की प्रस्तावना के रूप में उद्धृत किया जा सकता है - "मैं उसे प्यार करती। मन होता मैं उसे कंधे पर थपकाऊँ, बाँहों के झूले में झुलाऊँ, पर मेरे पीछे-पीछे कोई परछाई की तरह चल रहा हो। मैं और वो जब साथ-साथ लेटी हों, उसके पार कोई तीसरा भी हो। मैं जब उसे एकटक निहारूँ, कोई मुझे भी तक रहा हो। मैं जब उसकी छुटकी सी नाक दबाऊँ, कोई धीमे-धीमे मेरे बाल सहला रहा हो। कोई हो जो जब तिया रोये मेरे उठने से पहले उसे उठा ले, उसके गीले कपड़े बदल दे... हम दोनों ही उसे साथ-साथ प्रैम में डालकर टहलने निकलें - न जाने कितनी छोटी-मोटी और हल्की-फुल्की बातें बतियाते।" एक स्त्री के भीतर पल रहे छोटे-छोटे सपनों को शब्द रूप में ढालकर कविता जैसे परिवार और समाज की नसों में दौड़ रहे आचार-व्यवहार के बने-बनाए पितृसत्तात्मक व्याकरण को बदल कर एक नितांत ही मानवीय रूप देना चाहती हैं। कविता की कहानियाँ नारी मन में व्याप्त व्यवस्थाजनित दंशों से मुक्त होने का एक सार्थक जतन करती हैं। लेकिन ये कहानियाँ पुरुष-विरोध के फार्मूले में यकीन नहीं रखती बल्कि स्त्री-पुरुष के परस्पर सहयोग से एक बेहतर दुनिया का 'मॉडल' रचती हैं। कहानी-दर-कहानी ऐसे ही मित्र-पुरुषों की उपस्थिति को इन कहानियों की उल्लेखनीय उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए।
संग्रह में संकलित कुल दस कहानियों में से एक 'खेल-खेल में' को छोड़कर बाकी नौ कहानियाँ मैं शैली में हैं। `वागर्थ' में प्रकाशित आत्मकथ्य में कविता ने अपनी इस शैली को लेकर कहा है कि 'मैं' उनके लिए एक चुनौती है, कारण कि अपने को उघाड़ना, अपनी परतें खोलना ज्यादा दुःसाध्य है। यह सच है कि कविता अपने कथानक अपने आसपास से ही चुनती हैं, लेकिन सिर्फ 'मैं' शैली में लिखी होने के कारण इन कहानियों को आत्मकथात्मक कहा जाना एक तरह का सरलीकरण होगा और इस तरह हम इन कहानियों के साथ न्याय भी नहीं कर पाएँगे। दरअसल अपने आसपास की चीजों को परकाया प्रवेश के द्वारा नितांत अपना बनाकर या फिर पात्रों की परिस्थितियों और मनःस्थितियों की आखिरी हद तक जाकर उन्हें स्वयं जीने के बाद कहानी की शक्ल देना कविता के कथाकार की विशेषता है।
कविता की कहानियों की स्त्री पात्र सामान्यतया घर और परिवार की चक्की में पिसनेवाली गृहस्थिनें नहीं है। बल्कि घर और अपने शहर की दहलीज लाँघकर बड़े शहरों और महानगरों में अपनी पसंद का जीवन जीने के लिए रोजगार के लिए पुरुषों के समानांतर अनुदिन संघर्ष करती युवतियाँ है, जिन्हें अपने हिस्से की धूप और हवा खुद अर्जित करनी है, अपनी राह में आने वाले अवरोधों से जूझते-टकराते हुए। संग्रह का शीर्षक 'मेरी नाप के कपड़े' दरअसल अपने मन का कुछ चुनने और कर पाने की उसी जिद की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति है। इन कहानियों की स्त्रियाँ अपनी सोच और व्यवहार दोनों में आधुनिक और साहसी हैं। ये पुरुष मित्रों के साथ फ्लैट शेयर करके रहती हैं जो बाद में एक मनोनुकूल साथी के साथ 'लिव इन रिलेशन' में भी बदल जाता है। संग्रह की दो कहानियाँ - 'मेरी नाप के कपड़े' और 'भय' 'लिव इन रिलेशन' की इसी आधुनिक जीवन पद्धति को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं, जहाँ परस्पर प्रेम और विश्वास के बीच समाज और परिवार की रूढ़ियों से लड़ने के समानांतर परस्पर भय और अविश्वास की सहज, स्वाभाविक मानवीय वृत्तियों की भी झलक दिखाई पड़ती है। उल्लेखनीय है कि कविता की इन कहानियों के पात्रों का 'लिव इन' में रहना किसी प्रयोगधर्मी दुस्साहस का नतीजा न होकर दैनंदिनी की आर्थिक जरूरतों और मजबूरियों के साझा करने के भाव से उत्पन्न एक नई जीवन शैली की खोजयात्रा है, जो विवाह संस्था का प्रतिपक्षी दिखते हुए भी उसका सर्वथा नकार नहीं है, बल्कि विवाह संस्था में व्याप्त पुरुष वर्चस्व को खुरच और तरास कर उसे एक सहज मानवोचित रूप देने का उपक्रम है जहाँ स्त्री और पुरुष के बीच गुलाम और मालिक का नहीं बल्कि मित्र और साझीदार का रिश्ता हो।
भय कविता की कहानियों का जैसे स्थायी भाव है। संग्रह की अधिकांश कहानियाँ यथा - 'भय', 'चार घंटे', 'सुख', 'मेरी नाप के कपड़े', 'नीमिया तले डोला रख दे मुसाफिर', 'आईना हूँ मैं' आदि कहानियों में भय के कई रूप देखे जा सकते हैं। यह भय कही भीतरी है तो कहीं बाहरी, कहीं परंपरा का, तो कहीं परिवार और समाज का। लेकिन कविता का कहानीकार अपनी कहानियों में इन विविधवर्णी भयों से लगातार लड़ता-जूझता है। हालाँकि भय कहानी में स्त्री मन के भीतर का भय एक खास तरह की आश्वस्ति और निश्चिंतता के बावजूद नए सिरे से सिर उठाता है, लेकिन संग्रह की अधिकांश कहानियाँ स्त्री मन में व्याप्त भीतर-बाहर के तमाम भयों से मुक्त होने का एक आश्वस्तकारी जतन करती हैं।
कविता मनःस्थितियों की कथाकार हैं। पात्रों के मनोविज्ञान में उतरना, उसे थाहना, उसकी हाँ-ना को पकड़ना उन्हें बखूबी आता है। लेकिन इनकी दिक्कतें तब शुरू होती हैं जब वे अपनी कहानियों में घटनाओं का अंकन शुरू करती है। मन:स्थितियों से बाहर निकलकर परिस्थितियों के भूगोल में दाखिल होते ही कई बार ये कहानियाँ नाटकीयता और संयोगों का शिकार-सी होने लगती हैं। नाटकीयता एक कथायुक्ति भी हो सकती है और संयोग भी जीवन में घटित होते ही हैं। लेकिन कहानी में प्रयुक्त नाटकीयता यदि अविश्वसनीयता की परिसीमा में प्रवेश करने लगे और संयोग ही कहानियों की नियति तय करने लगें तो पाठकों के मन में सवाल उठना लाजिमी है। अपमी तमाम कलात्मकता के बावजूद 'भय', 'आईना हूँ मैं' आदि कहानियों की कई घटनाएँ संयोग और अतिनाटकीयता के इसी अहाते में प्रवेश करती दिखती हैं। इसके अतिरिक्त यथार्थ और वर्तमान की आवा-जाही के क्रम में घटनाओं का घालमेल भी कई बार कहानी के पाठ में बाधा उपस्थित करता है।
इन कमियों के बावजूद स्त्री-पुरुष की परस्पर साझेदारी से निर्मित एक बेहतर दुनिया सिरजने का जतन करती ये स्वप्नधर्मी कहानियाँ बदलते समय और समाज का विश्वसनीय रूपक हैं। जाहिर है, ये कहानियाँ सिर्फ बदलती स्त्रियों की नहीं बदलते पुरुषों और बदलते समाज की भी कहानियाँ हैं।
बदलते यथार्थ की कहानियाँ
भारतीय ज्ञानपीठ ने जिन छ्ह युवा कथाकारों के पहले कहानी-संग्रह का सेट प्रकाशित किया था उनमें तीन महिलाएँ हैं - अल्पना मिश्र, कविता और पंखुरी सिन्हा। अल्पना मिश्र और कविता के संग्रह की कहानियों में जहाँ स्त्री जीवन की विडंबनाएँ, उसकी चुनौतियाँ और संभावनाएँ अपने कई रूपों में देखने को मिलती हैं वहीं पंखुरी का अनुभव क्षेत्र तुलनात्मक रूप से ज्यादा विविधवर्णी है। विषयों की विविधता पंखुरी की विशेषता है और यही इन्हें अपने इन दो सहयात्री कथाकारों से अलग भी करती है।
बदलते समय के साथ हो रहे छोटे-छोटे परिवर्तनों और उससे उपजी जद्दोजहद का सूक्ष्म चित्रण और मूल्यांकन ही इन कहानियों का मूल स्वर है। एक तरफ इन कहानियों में तमाम आपाधापी और कैरियर की कठिन प्रतिस्पर्द्धा के बीच ऊसर होती जिंदगी को बचाए रखने की जिद है, तो वही दूसरी तरफ प्रवासी होने की पीड़ा से गुजरते हुए माँ के बहाने उन सभी अवयवों को याद करने की कोशिश भी है जिनके समन्वय से जीवन, जीवन बनता है। पंखुरी की कहानियाँ जहाँ प्रेम की तरलता से अनुप्राणित हैं वही उनके कथा-पात्रों के मन में छोटी-बड़ी सामाजिक कुरीतियों-अव्यवस्थाओं के प्रति एक गहरा रोष भी है। गोकि पंखुरी की कई कहानियों में स्त्री जीवन के नए सत्य झाँक-झाँक जाते हैं लेकिन युवोचित चिंताएँ, आक्रोश और परंपरा व आधुनिकता का द्वंद्व इनकी अधिकांश कहानियों में निरंतर दिखाई देता है। मूल्यों के टकराहट, विषमताओं-जटिलताओं के प्रति सहज विद्रोह व एक नए समाज के निर्माण की कसमसाहट के बीच पंखुरी की कहानियाँ कैसे मानवीय संबंधों की रचना को परत-दर-परत खंगाल जाती है, पता ही नहीं चलता। दैनिक जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं और उसकी विविधताओं को जोड़कर कैसे कहानियाँ खड़ी की जाती हैं इसके कई उदाहरण इस संग्रह में मौजूद हैं।
बदलते समय की आहटें, यथा - लैंगिक दूरियों का कम होना सदियों से व्याप्त जाति व्यवस्था का कमजोर पड़ना और स्त्री-पुरुष संबंधों का रोज नए अर्थ तलाशना, बार-बार इन कहानियों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। ये कहानियाँ कई तरह से यह रेखांकित करती हैं कि नए समय की चुनौतियाँ भी नए तरह की हैं। संग्रह की पहली और महत्वपूर्ण कहानी 'प्रदूषण' एक कामकाजी लड़की के मकान या फ्लैटमेट खोजने की कहानी भर न होकर नए समय के संबंधों की हकीकत और पुरानी पीढ़ी के इससे टकराव की कहानी है। आज की लड़की अपना खर्च कम करने के लिए बेहिचक पुरुष-मित्र के साथ फ्लैट शेयर कर सकती है। हाँ इस क्रम में आपसी संबंध विखंडित और पुनर्परिभाषित होते हैं, होंगे। आज की लड़की संबंधों के इस विघटन-विखंडन से लड़ने में भी स्वयं ही समर्थ है लेकिन पुरानी पीढ़ी यह पचाने को तैयार नहीं और मुँह फेरकर इसके खिलाफ एक अबोला विद्रोह ठाने हुए है। यद्यपि यह कहानी रिश्तों के विखंडन-विघटन के बीच आधुनिकता और पारंपरिकता के द्वंद्व को बहुत बारीकी से पकड़ती है लेकिन 'अपने शहर को प्रदूषण से बचाएँ' के जिस नोट पर यह कहानी समाप्त होती है उससे इसके उद्देश्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाता है।
आखिर यह प्रदूषण क्या है? आधुनिकता की परिणति या पारंपरिकता पर व्यंग्य? यदि यह आधुनिकता की परिणति है तो इससे कहानी का संदेश विखंडित होता है और यदि यह पारंपरिक रूढ़ि पर व्यंग्य है तो ठीक से सध नहीं पाया है। यहाम यह भी उल्लेखनीय है कि पंखुरी के अतिरिक्त पूनम सिंह और कविता ने भी 'लिविंग इन रिलेशन' की चुनौतियों को अपनी कहानियों 'पॉल्यूशन मॉनिटरिंग' तथा 'भय' व 'मेरी नाप के कपड़े' में अलग-अलग कोणों से उठाया है। 'प्रदूषण' में जहाँ 'लिविंग इन' का द्वंद्व आर्थिक और अन्य बाह्य जरूरतों के साथ रिश्तों के टूटने के भय की बीच चलता है वहीं 'पॉल्यूशन मॉनिटरिंग' में लिविंग इन रिलेशन' और पारंपरिक संबंधों की बारीक पड़ताल है जबकि 'भय' और 'मेरी नाप के कपड़े' में निजी और पारिवारिक भय और आश्वस्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण है। कविता और पूनम सिंह जहाँ आपनी कहानियों में अंतर्मन से लड़ती हैं, वहीं पंखुरी की मुठभेड़ बाह्य जगत से है। यह भी कम दिलचस्प नहीं कि ये तीनों लेखिकाएँ एक ही शहर मुजफ्फरपुर की हैं।
गोकि पंखुरी सिन्हा की अधिकांश कहानियाँ बाह्य परिस्थितियों से दो-चार होती हैं लेकिन वे प्रायोजित नहीं हैं और निजी अनुभवों से निकली हैं, और यही इनकी विशेषता है। पंखुरी सोच-समझकर अपनी कहानियों में कोई बड़ा विषय नहीं उठातीं बल्कि चलते फिरते, हँसते-खेलते किसी सामान्य-सी घटना पर एक अच्छी कहानी लिख जाती हैं। इसी तरह की सादगी से उत्पन्न संग्रह की एक बहुत ही अच्छी कहानी 'आवाजें' है। अतीत की स्मृतिदायक आवाजों के बहाने सहज जीवनानुभवों को हौले से कहानी का शक्ल दे जाने वाली यह रचना अपनी सरलता में ही सुंदर है। संग्रह की एक और खूबसूरत कहानी 'सांत्वना' भाई-बहन के संबंधों की एक मार्मिक अभिव्यक्ति है। अपने कैरियर के लिए सजग यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अपने उस भाई के प्रेम विवाह का समर्थन करती है जिसने कभी उसके प्रेम का विरोध किय था। आधुनिक स्त्रीबोध और संबंधों की सहजता को समान रूप से रेखांकित करती यह कहानी संग्रह की उपलब्धि है।
पंखुरी सिन्हा ने पत्रकारिता भी की है और उनकी दृष्टि में पत्रकारोंवाला चौकन्नापन भी है। परिणामतः समय और संबंधों की पड़ताल करती इनकी कहानियों में कई बार कुछ सामाजिक-राजनैतिक टिप्पणियाँ भी मिलती हैं, जिससे बदलते समय की कई विडंबनाएँ उजागर होती हैं। उदाहरणस्वरूप कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं - 'बेघर लोग जो पहले जॉर्ज पंचम की मूर्ति के नीचे सोते थे, अब जवाहरलाल नेहरू की मूर्ति के नीचे सोएँगे। उन्हें क्या फर्क पड़ता है, मूर्ति किसकी है।' (बहुत साल बाद)
'देखो नीरज आयुर्वेद, हकीमी इन सबकी बुरी हालत हो रही है। पर ये खबर नहीं है। मान लो यह इमारत ढह जाएँ और दो बच्चे मर जाएँ तो यह खबर है।' (कहानी का सच)
कहानी का सच जो शायद पंखुरी की पहली कहानी है और हंस में छपी थी, संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी है, जो इस बात से पर्दा उठाती है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया कैसे सरोकारों को सनसनी में बदल खबरों की नई परिभाषाएँ गढ़ रहा है। समय की नब्ज को टटोलते छोटे-छोटे अनुभवों और चुटीली राजनैतिक-सामाजिक टिप्पणियों से लैस कहानियाँ पंखुरी की विशेषता है लेकिन इनकी दिक्कतें तब शुरू होती हैं जब ये टिप्पणियाँ कोरी बयानबाजी में बदल जाती हैं, कहानीकार हर घटना को कहानी बनाने की हड़बड़ी में आ जाता है और उसके भीतर का पत्रकार उसके कहानीकार पर हावी होने लगता है। इस क्रम में कहानियाँ, कहानियाँ नहीं रह जातीं बल्कि स्कूली बच्चों द्वारा लिखे गए लेख की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं। सपाट बहस और कई-कई कवियों-कविताओं के उद्धरण से लबरेज 'एक नास्तिक की आस्था' एक ऐसी ही कहानी है। ऐसी कहानियों में उस कला का नितांत अभाव दीखता है जिससे विचार और अनुभव कहानियों की शक्ल लेते हैं। पंखुरी को इनसे बचने और यह समझने की जरूरत है कि कहानियाँ महज घटनाओं का भाषिक प्रस्तुतीकरण या पुनर्लेखन नहीं है और कई बार कहानियों में अव्यक्त या अल्पव्यक्त कलात्मक अनुभूतियाँ बयानों और भाषणों की तुलना में ज्यादा गंभीर, विचारोत्तेजक और प्रभावी विमर्श को जन्म देती हैं।
अपने हिस्से का जादू: उसके हिस्से का जादू
प्रियदर्शन का पहला कहानी-संग्रह 'उसके हिस्से का जादू' एक ऐसे समय में छप कर आया है जब हिंदी कहानी में एक नई पीढ़ी के आगमन की पदचाप सुनाई पड़ रही है। यदि इस पीढ़ी का संबंध भूमंडलीकरण के बाद की कथा-पीढ़ी से है तो प्रियदर्शन इस पीढ़ी के शुरुआती कथाकारों में से हैं। एक लंबे समयंतराल के बीच इन्होंने संख्या में बहुत कम और थम-थम कर कहानियाँ लिखी हैं। बहरहाल, प्रस्तुत संग्रह में कुल बारह कहानियाँ हैं जो लगभग बीस वर्षों के लंबें कालखंड में लिखी गई हैं। ये बीस वर्ष सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से बहुत ही परिवर्तनगामी और महत्वपूर्ण रहे हैं। इस कालावधि में जहाँ कई-कई वैचारिक आंदोलनों ने नए-नए संदर्भ देखे हैं वहीं बदलती आर्थिक परिस्थितियों ने हमें नई-नई शब्दावलियों से परिचित भी कराया है। बड़े बदलावों और बदलते सरोकारों के बीच मानवीय रिश्तों ने भी कई-कई बाने बदले हैं। यह आश्वस्तिदायक है कि प्रियदर्शन की ये कहानियाँ न सिर्फ पिछले दो दशकों में हुए राजनैतिक-सामाजिक बदलावों से उत्पन्न परिस्थितियों का जायजा लेती हैं, बल्कि इस बीच रिश्तों और भावनाओं की क्यारियों में उग आई नई वनस्पतियों को भी चीन्हती-पहचानती हैं।
उल्लेखनीय है कि प्रियदर्शन की कई कहानियों के पात्र छोटे-छोटे शहरों से महानगर में आए हुए हैं। छोटी जगहों से महानगर तक जाने की यात्रा दर असल अपने भीतर कई-कई अंतर्यात्राएँ छुपाएँ रहती हैं। इन यात्राओं में जहाँ बहुत कुछ पीछे छूट जाता है वहीं कई सारी नई चीज़ें भी साथ आ जुड़ती हैं। रिश्तों की मजबूत डोर कब-कैसे हमारे हाथ से छूट जाती है और कैसे तथा कहाँ से हमारे चेहरों पर अजनबीयत और बेगानेपन की परतें चढ़ जाती हैं या चढ़ा दी जाती हैं, हमें पता ही नहीं चलता। बहुत कुछ छूटने और कुछ-कुछ आ जुड़ने के द्वंद्व की कई-कई छवियाँ इन कहानियों में कलात्मक बारीकी के साथ उपस्थित हैं। कब-कैसे कई अनजान चेहरों से आत्मीयता का आकर्षण फूटने लगता है और कैसे पलक झपकते ही इस सद्यः निःसृत आत्मीयता का सोता एक कृत्रिम और जिद्दी व्यवहारिकता का भेष धारण कर लेता है, बार-बार प्रियदर्शन की कहानियों में आता है। इन कहानियों में जहाँ महानगरीय यथार्थ की विविधवर्णी विडंबनाएँ हैं वहीं हाशिए पर धकेल दिए गए जीवन के भीतर अंखुआता प्रतिरोध भी है। यहाँ अव्यक्त प्रेम की टीस से उपजी स्मृतियों की धुँधली परछाइयाँ हैं, तो महानगर की चकाचौंध में खो चुके रिश्ते का पुनरान्वेषण भी। मतलब यह कि प्रियदर्शन की कहानियों में वह सबकुछ है जिनसे जीवन, जीवन बनता है और वह भी उस सघन आत्मीयता में लिपटा हुआ कि सबको अपना-सा लगे। बेहद ही हल्के-फुल्के और जाने-पहचाने माहौल और घटनाओं से आरंभ कर प्रियदर्शन का कथाकार असमंजस, द्वंद्व और बेचैनी का एक ऐसा संसार रच डालता है, जो कहानी के खत्म होने पर भी खत्म नहीं होता, हमारे भीतर नए सिरे से घटित होने लगता है। इस संदर्भ में प्रियदर्शन की सर्वाधिक चर्चित और इस संग्रह की पहली कहानी 'पेइंग गेस्ट' उल्लेखनीय है। कंपटीशन की तैयारी करने और उससे भी ज्यादा अपनी ममा को भूलने की कोशिश में दिल्ली आई शालिनी, मिसेज मैठानी के यहाँ पेइंग गेस्ट है। शालिनी और मिसेज मैठानी के संबंधों की आरंभिक औपचारिकता शनैः-शनै: मानवीय उष्मा की आँच से पिघल-पिघलकर आत्मीय तरलता में परिवर्तित हो जाती है। दोनों के बीच माँ-बेटी का एक अनकहा रिश्ता बन जाता है। लेकिन एक दिन जब मिसेज मैठानी शालिनी और उसके एक पुरुष मित्र के संबंधों के बीच मातृवत हस्तक्षेप करती है तो यह शालिनी को अपनी निजता का अतिक्रमण लगता है और वह मिसेज मैठानी के प्रति अत्यधिक कठोर हो उठती है - 'आप मेरी माँ बनने की कोशिश न करें।' लेकिन अगले ही पल उसे अपनी गलती का अहसास होता है और वह पश्चाताप के आँसू में घुलकर मिसेज मैठानी के कमरे में चली जाती है। शालिनी की क्रूरता से स्तब्ध पाठक के भीतर उसके ये आँसू कहानी का एक नया पाठ तैयार करते हैं।
संग्रह की एक दूसरी कहानी 'वे उसके पिता नहीं थे' में प्रियदर्शन रिश्तों के इस बनते-बिगड़ते समीकरण को दूसरे कोण से उठाते हैं जब एक व्यक्ति महानगर की तेज रफ्तार जिंदगी में गुम हो गए अपने बेटे की तलाश एक ऐसे लड़के में करता है, जिसने उसे चाचा कहकर संबोधित किया है। ऊपर से एक गुम हो गए रिश्तें की पहचान की यह कहानी अपने भीतर गहरी अर्थवता समेटे हुए है जिसकी कई परतें हैं। यहाँ छोटे शहरों से उजड़कर दिल्ली जैसे महानर में बस जाने वालों की पहचान का संघर्ष भी है तो वहीं इस बात की कसक भी कि शहर इनसान को भूखा भले न रखे उसे इनसान की तरह पालता नहीं है। यहीं आकर हम यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि यह समय कितना विद्रूप है जहाँ हमें दो जून की रोटी की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
एक ऐसे समय में जब कहानियों से लुप्त हो रहा कहानीपन ही विशिष्टता का परिचायक हो गया है और एक उबाऊ और प्रायोजित बौद्धिकता कहानियों की स्वाभाविकता का अतिक्रमण कर रही है, प्रियदर्शन की कहानियाँ न सिर्फ कहानीपन के ठाठ को बचाए रखती हैं बल्कि छोटे-छोटे जीवनानुभवों के बहाने आज के जीवन की बड़ी-बड़ी सच्चाइयों को अनावृत भी करती हैं। यह संयोग भर नहीं है कि इन कहानियों के पात्र जो महानगरीय अवसाद और पीड़ा के धक्के खा-खाकर अपने सपनों का संसार सिरजते हुए अपनी जड़ों से दूर जा चुके हैं, एक दिन किसी बच्चे के हाथ में लट्टू देखकर या फिर टेलीफोन बूथ पर लोगों की अपनी-सी बातें सुनकर अपने भीतर संवेदनाओं का पिघलना महसूस करते हैं लेकिन अगले ही पल उनके चेहरे पर व्यावसायिकता, व्यावहारिकता और दिखावे का मोटा लेप चढ़ जाता है। 'लट्टू' और 'अजनबीपन' शीर्षक कहानियाँ मन के किसी कोने में अनवरत जारी कोमलता और कठोरता की धूप-छांही आवाजाही की यादगार गवाहियाँ हैं जो कहीं मजबूरियाँ हैं तो कहीं दिखावा।
इस संग्रह की भूमिका में प्रियदर्शन ने यह चिंता जाहिर की है कि कहीं काल के इस विराट चक्के तले वे छोटी-छोटी कहानियाँ दब न जाएँ जो इनसान की धुकधुकी से निकलती हैं, जो इतनी भंगुर और अल्पजीवी होती हैं कि भाप की तरह उड़ जाती हैं। प्रियदर्शन की कहानियाँ कदम-दर-कदम न सिर्फ इस इनसानी धुकधुकी को बचाए रखते हैं बल्कि उजाड़ होते समाज और पत्थर होती आदमीयत के बीच प्रेम और नेह का एक कोमल और मासूम प्रतिसंसार भी रचती हैं। अनकहे या अव्यक्त प्रेम के इस संसार में कहीं दो प्रेमी आधे-सूखे, आधे-गीले अपनी उदासी की पिघलन को महसूस करते हैं तो कहीं कोई व्यक्ति जीवन के उत्तरार्द्ध में अपने प्रेम की स्मृतियों के सहारे अपने पूरे जीवन की सार्थकता की तलाशी ले लेता है, तो कहीं कोई आदमी अपने दफ्तर के सामने से गुजरती रेलगाड़ियों में बैठी लड़की के बहाने अपने प्रेम की फैंटेसी रचता अपने हिस्से का वह जादू खोजता है, जिसके प्रभाव में वह अपने मन के गोपन हिस्सों को खोल सके। 'चलते-चलते', 'काहे डगर रोकत... नंदलाल' और 'उसके हिस्से का जादू' शीर्षक कहानियों में उदासी, स्मृति और कल्पना के बीच पसरे प्रेम का यह अनकहा उल्लास मनुष्य की उन धड़कनों से बना है जो जीवन की कठिन धरातल पर भी संवेदनाओं की नमी रोप देते हैं।
संग्रह की दो अन्य कहानियाँ 'खबर पढ़ती लड़कियाँ' और 'खोटा सिक्का' अलग-अलग कारणों से महत्वपूर्ण हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया की शब्दावली और वहाँ के माहौल से परिचय कराती कहानी 'खबर पढ़ती लड़कियाँ', जो हंस के मीडिया अंक में छपी थी, जहाँ खबरिया चैनलों में व्याप्त वैचारिक खोखलेपन को दर्शाती है वहीं इस जगत की स्वभाविक आपाधापी, जटिलताओं और इसकी अंदरुनी राजनीति पर से भी पर्दा उठाती है। जबकि 'खोटा सिक्का' में अल्पसंख्यक समाज की अनकही पीड़ा, उसकी जद्दोजहद और किसी एक के बहाने पूरे समाज पर लगे प्रश्नचिह्न के असमंजस को रेखांकित किया गया है। लेकिन संतोष का विषय यह है कि बहुसंख्यक मानसिकता के शिकार जलील साहब को आखिरकार वह तिनका अमिल हो जाता है जिसके सहारे वे सम्मानपूर्वक अपने मनुष्य होने की सत्यता को साबित कर सकें। यह कहानी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक मानसिकता के बहाने पिछले कुछ वर्षों में उभर आए प्रतिक्रियावादी राजनीति के खतरों को भी रेखांकित करती है।
प्रियदर्शन हृदय से कवि हैं और पेशे से पत्रकार। इनकी कहानियों पर इन दोनों रूपों का प्रभाव है। यही कारण है कि एक पत्रकार के सूक्षम चौकन्नेपन और कवि की तरल रागात्मकता दोनों को साधने की कोशिश कई कहानियों में दिखती है। शब्दों का मितव्ययी प्रयोग। एक शब्द भी अनावश्यक नहीं। कभी शब्दों की यह मितव्ययिता इतनी ज्यादा भी कि आप किसी कहानी में विस्तार की संभावनाएँ भी तलाशें। यहाँ 'छोटापन' और 'वजह' शीर्षक कहानियों का उल्लेख जरूरी लगता है, जिनमें महानगरीय सुविधा-संपन्नता को अपने श्रम और स्वेद से चमकाते उन लोगों के जीवन की त्रासदियाँ रेखांकित की गई हैं जो हाशिए पर जीने को मजबूर हैं। निश्चित शब्द-सीमा में अपनी बात कहने की अखबारी मजबूरी से उत्पन्न लेखकीय कौशल हो या फिर लेखक के शुरुआती दिनोंका स्वाभाविक रूमानी आदर्श, प्रियदर्शन इन कहानियों में मजदूरों के सपनों और आक्रोश को पहचानने की कोशिश तो जरूर करते हैं लेकिन इसकी गहराइयों में नहीं उतर पाते।
संग्रह की आखिरी कहानी 'माँ'। जिसमें प्रियदर्शन ने कैंसर से जूझती अपनी माँ का आत्मीय संस्मरण लिखा है, पाठकीय मर्म को भीतर तक छूती है। माँ की मृत्यु को बेहद करीब से देखने की मजबूरी के बीच किसी परिवार की निर्मिति में माँ के स्नेहपूर्ण महत्व को जिस भावप्रवण अंतरंगता से यह कहानी लिपिबद्ध करती है, उसे पढ़कर पाठक का रेशा-रेशा पिघल जाता है, नम हो जाता है और वह सहज ही अपनी माँ की स्मृतियों से संपृक्त हो जाता है। इस कहानी को इस संग्रह में शामिल करते हुए प्रियदर्शन ने एक प्रश्न भी उठाया है कि जब काल्पनिक चरित्रों और घटनाओं से कहानी बन सकती है तो असली चरित्रों और घटनाओं से क्यों नहीं। कहानी चाहे लाख काल्पनिक हो, जब तक उसका वास्तविकता से जुड़ाव नहीं होता, उसके बृहत्तर संदर्भ रेखांकित नहीं किए जा सकते। वहीं दूसरी तरफ वास्तविक जीवन की कोई घटना चाहे जितनी भावात्मक रागात्मकता के आवेग से लिखी जाएँ, बिना लेखकीय तटस्थता के कहानी नहीं बन पाती। गोकि इसे लिखते हुए प्रियदर्शन एक खास तरह के निस्संगता के निर्वाह की कोशिश करते जरूर दिखाई पड़ते हैं, लेकिन कई बार लेखकीय तटस्थता का अतिक्रमण तो होता ही है। इसलिए इसे आत्मकथात्मक कहानी की तरह संस्मरणात्मक कहानी की श्रेणी में रखा जा सकता है, जो कहानी की तरह 'लार्जर दैन लाइफ' भी है और संस्मरण की तरह अपनापे और आत्मीयता से भरपूर जीवन का हिस्सा भी।
कुल मिलाकर प्रियदर्शन के पहले संग्रह की तमाम कहानियाँ जो कहीं से पहले-पहल होने का आभास नहीं देतीं एक विशेष प्रकार की परिपक्वता के रस-गंध से परिपूर्ण हैं। दर असल ये कहानियाँ समकालीन समय में व्याप्त अँधेरे के खिलाफ रोशनी, सड़ांध के विरुद्ध फूलों की खुशबू और संबंधों के प्रस्तरीकरण के समानांतर संवेदना की नमी के सार्थक प्रतिरोध की कहानियाँ हैं, जिसमें हम सब अपने-अपने हिस्से का जादू खोज सकते हैं।
अकर्मण्य बौद्धिकता के साइड-इफेक्ट्स: बाकी धुआँ रहने दिया
एक ऐसे समय में जब हिंदी समाज और साहित्य, खास कर कथा साहित्य, उल्लेखनीय परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं युवा कथाकार राकेश मिश्र के पहले कहानी संग्रह 'बाकी धुआँ रहने दिया' का प्रकाशन कई दृष्टि से महत्वपूर्ण है। एक तरफ जहाँ सदियों से प्रतिष्ठित मूल्य तहस-नहस हो रहे हैं, अतीत के महानायकों का साम्राज्य तितर-बितर हो रहा है, वहीं कुछ ऐसे तथाकथित नायकों का भी उदय हो रहा है जो अपनी तमाम अकर्मण्यताओं से बेपरवाह बौद्धिक जुगाली करते हुए एक नए तरह के नायकत्व का व्यामोह सिरजने में व्यस्त हैं। यथार्थ और मुगालते कि इस अभिसंधि पर भूमंडलीकृत सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के बीच लिखी गई राकेश मिश्र की ये कहानियाँ, सभ्यता और शिक्षा के नाम पर हो रहे परिवर्तनों के समानांतर प्यार और व्यापार के बनते-बिगड़ते मूल्यों का चश्मदीद गवाह हैं।
आधुनिकता और परंपरा के जिस दोराहे पर हम खड़े हैं, वहाँ सभ्यता और साहित्य दोनों के अवयवों पर नई बहस की गुंजाईश है। बदलती सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के साथ कहानी के ढाँचे में हो रहा परिवर्तन पाठकों से एक खास तरह की तैयारी और समीक्षकों-आलोचकों से मूल्यांकन के नए उपकरणों के तलाश की माँग कर रहा है। बृहत्तर पाठकीय बौद्धिकता और सूक्ष्मतर आलोचकीय दृष्टि की यह माँग आज जिन कहानियों से रेखांकित हो रही है निःसंदेह राकेश मिश्र की कहानियाँ उनमें शुमार की जानी चाहिए। लेकिन यहीं आकर इन कहानियों ने जो दूसरा बड़ा सवाल खड़ा किया है वह यह है कि क्या कहानी पढ़ने का शौकीन पाठक इन कहानियों से खुद को जोड़ पा रहा है? दूसरे शब्दों में यह कि क्या इन कहानियों से हिंदी पाठकों की संख्या मे वृद्धि हो रही है? या फिर प्रजातंत्र की परिभाषा की शब्दावली उधार लें तो कहीं ये कहानियाँ बुद्धिजीवियों के द्वारा, बुद्धिजीवियों के लिए ही लिखी कहानियाँ बन कर तो नहीं रह जा रही हैं? राकेश मिश्र की कहानियों में पाठ और आलोचना के नए औजारों के माँग के समानांतर बौद्धिकता के आतंक की धमक भी लगातार सुनाई पड़ती है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि संभावनओं और सीमाओं के इन रसायनों से निर्मित कहानियों में आज के समय की त्रासदी भी सुनाई पड़ती है और विडंबनाओं से भरे समकालीन यथार्थ की टीस भी।
दिलचस्प है कि इस संग्रह की अधिकांश कहानियों के मुख्य पात्र लगभग एक से हैं, बुद्धिजीवी... बहुत हद तक स्वप्नजीवी भी, जो कैरियर और रोजगार के दुनियावी चक्करों में पड़ने के बजाए खुद को एक 'थिंक टैंक' के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, एक ऐसा थिंक टैंक जो देश और दुनिया को बदलने के सपने देखता है, जिसकी आभा से आस-पास के लोग चमत्कृत होते हैं... लड़कियाँ जिनके प्रेम में पागल रहती हैं... लेकिन अंततः उन्हें कुछ हासिल नहीं होता और कल तक उनसे प्रेम करने वली लड़कियाँ अचानक किसी दूसरे-तीसरे तथाकथित सफल व्यक्ति के साथ अपना घर बसा लेती है। और न खुदा ही मिले न विसाले सनम की स्थिति से जूझता यह बुद्धिजीवी कभी छलछलाई आँखों से अपनी अकर्मण्यता का ठीकरा उपभोक्तावाद के सिर फोड़ता है तो कभी उसके हुनर का संगीत कानफाड़ू शोर में बदलने लगता है। प्रेम, व्यवसाय और स्वप्नभंग के त्रिभुज में फैली ये कहानियाँ दरअसल उस युवा उच्छ्वास का रूपक है जो करना तो बहुत कुछ चाहती है लेकिन दृष्टिहीन विशिष्टता-बोध से उत्पन्न अव्यावहारिकता के कारण न घर का रहती है न घाट का।
राकेश मिश्र की कहानियों में मुख्य पात्र के अलावा स्त्री पात्र, परिवेश और परिस्थितियाँ भी लगभग एक जैसी हैं। वही विश्वविद्यालय परिसर, वही काशी के घाट और लगभग वैसी ही कैरियरिस्ट लड़कियाँ... पात्र, परिवेश और कथानकों के बीच ऐसा साम्य कि कई कहानियाँ एक जैसी या एक दूसरे का एक्स्टेंशन सी लगती हैं। लेकिन जैसे ही राकेश प्रेम में छ्ले गए टिपिकल बुद्धिजीवी से अपने आपको अलग करते हैं, कहानीपन के ठाट से समाज और सभ्यता में हो रहे उद्वेलन की उल्लेखनीय चित्रलिपियाँ रच जाते हैं। उदाहरण के लिए संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी 'शह और मात' का उल्लेख किया जा सकता है। बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा और व्यावसायिक शिक्षा के नए चलन ने जहाँ नौकरी और व्यवसाय के नए क्षेत्र खोले हैं वहीं सूचना और संचार के नवीनतम तकनीकों से लैस इस नई व्यवस्था ने अनस्किल्ड लोगों के लिए रोजगार के दरवाजे लगभग बंद से कर दिए हैं। उन्माद और महत्वाकांक्षा के सख्त कदमों ने मूल्यों को इस कदर रौंद डाला है कि आस्था अपनी उदात्तता को छोड़ कर मूर्तियों और अन्य सांप्रदायिक प्रतीकों तक सीमित हो गई है और विडंबना यह है कि इन प्रतिकूलताओं के खिलाफ खड़ा तथाकथित क्रांति-योद्धा विकलांग बौद्धिकता और मिथ्याभिमान के सफेद-स्याह खाने में शह और मात का खेल, खेल रहा है। नए समय की बेरोजगारी और सांप्रदायिकता के बहाने लिखी गई यह कहानी कई स्तरों पर अपने समय के अंतर्विरोधों और अंतरद्वंद्वों को रेखांकित करती है।
मूल्यों के विघटन और विखंडन के इस दौर मे जारी बुद्धि-विलास पर राकेश मिश्र की कहानियाँ जो व्यंग्य करती हैं उसकी धार और तेज व असरदार होती यदि इन कहानियों मे आई स्त्री पात्रों को अपेक्षित और युगानुकूल विस्तार मिलता, उन्हें सिरजते हुए लेखकीय तटस्थता का निर्वाह किया जाता। फिलहाल इन कहानियों की स्त्रियों को देख कर मन में यह प्रश्न तो उठता ही है कि आखिर क्या कारण हैं कि लगभग हर कहानी की स्त्री, पुरुषों की आभा से चौंधियाई और उनके आगे बिछने को तैयार तथा अपौर्चुनिस्ट होने की हद तक कैरियरिस्ट होती है? उनका स्वतंत्र और संपूर्ण विकास क्यों नहीं होता?
संग्रह की एक अन्य कहानी 'तक्षशिला में आग' जो शिक्षण संस्थानों में व्याप्त राजनीति और सत्ता के वर्चस्व का खुलासा है, की कुछ पंक्तियाँ हैं - 'इसी विश्वविद्यालय की कैंटीन के बोधिवृक्ष के नीचे प्रणयकांत को इल्म हुआ कि गांधीजी ने हिंद स्वराज में अपनी भाषा में मर्दवादी रवैया अख्तियार किया है जो समकलीन स्त्री विमर्श वाले समय में उचित नहीं है। कि इतिहास में उन वंचितों-पीड़ितों के लिए कोई जगह क्यों नही है, जो भारतीय समाज और इस राष्ट्र-राज्य के सबसे बड़े हिस्से हैं?' प्रणयकांत के इल्म के बहाने राकेश मिश्र की ये पंक्तियाँ कई अर्थों में उनकी कहानियों का प्रतिपक्ष भी हैं जिनसे जूझ कर ही उन्हें अपनी आगामी कहानियों का रास्ता खोजना होगा।
आधुनिक भावबोध की कहानियाँ: यूटोपिया
'यूटोपिया' वंदना राग का पहला कहानी-संग्रह है। अपने सहयात्री कथाकारों की तुलना में इनका संग्रह देर से आया है। लेकिन पत्र-पत्रिकाओं में अपनी लगातार उपस्थिति से वंदना राग समाकालीन कथा परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप करती रही हैं। कथाकारों की नई पीढ़ी से आलोचकों की यह आम शिकायत रही है कि इनकी राजनैतिक पक्षधरता स्पष्ट नहीं होती। बहुत हद दक यह शिकायत उचित भी है। लेकिन इस पीढ़ी के जो थोड़े-से कथाकार अपनी राजनैतिक समझदारी और प्रतिबद्धतता से इस आलोचना का प्रतिपक्ष रचते हैं, वंदना राग उनमें से एक हैं। प्रस्तुत संग्रह की पहली कहानी 'शहादत और अतिक्रमण' की कुछ पंक्तियों के बहाने वंदना राग की राजैनितिक समझ और चेतना का जायजा लिया जा सकता है - 'जमाने के दस्तूर बदल गए हैं आज। जमाना अब मुन्नी सिंह जैसी विधवाओं के साथ संवेदनशील हो जुड़ने लगा है। जमाने ने अपने हीरो चुन लिए हैं। शहीद उनके हीरो हो गए हैं। लोग शहीद होना नहीं चाहते, पर शहीदों को हीरो बना आदर करना चाहते हैं। कारगिल के शहीदों का और भी ज्यादा। लोग मुर्गे हो गए हैं, कारगिल उनके सिरों की कलगी। मुर्गे बाँग देने लगे हैं : 'शहीद अमर रहें! भारत माता की जय!' मुर्गों की बाँग नारा लगने लगी है। लोग नारे पूरे जोशोखरोश से लगाते हैं। देश प्रेम का जज्बा चारों ओर पसर जाता है। मुन्नी सिंह को देश प्रेम का जज्बा मीठा-मीठा लगने लगता है। उसे मीठा पसंद नहीं। अधिक मीठा जहर बन जाता है।'
लांस नायक अजय प्रताप सिंह के शहीद होने के बाद उसकी विधवा मुन्नी सिंह की मनःस्थितियों के प्रभावी अंकन के बहाने यह कहानी वर्तमान समय और समाज की कई विद्रूपताओं पर करारा चोट करती है। इस कहानी के एक छोर पर तरुणाई में ही वैधव्य का दंश झेलती मुन्नी सिंह है तो दूसरे छोर पर उसके दिवंगत पति के धन, जिसकी वह नॉमिनी है, पर नजर लगाए उसके कुटुंब, तो कहानी के तीसरे सिरे पर समाज सेवा की आड़ में अपनी दुकानदारी जमाने को उद्धत राजनेता। इन सब के बीच गाँव का एक लंपट रमेश सोनाने भी है, जिसके मन में मुन्नी सिंह के लिए आवेगयुक्त अनुराग पलता है। पति से दूर, घर-परिवार की चाक चौबंद दहलीज के भीतर चूल्हे-चौके में झोंक दी गई एक नवोढ़ा के मनोविज्ञान को यह कहानी जिस स्वाभाविक रागात्मकता के साथ अभिव्यक्त करती है उसे सुनने-देखने के हम आदी नहीं रहे हैं। जब तक पति के इंतजार की गुंजाइश हो, ऐसी स्त्री किसी तरह अपना जीवन जी लेती है लेकिन जब आशा और इंतजार की वह पतली डोर भी टूट जाएँ तो? नियति की कोई क्रूर लीला मन के आवेगों-आलोड़नों को तो अवरुद्ध नहीं करती न! अपने पति के सारे रुपये पैसे अपने कुटुंबों के नाम कर जाने के बाद पड़ोस के एक लगभग लंपट युवक के साथ मुन्नी सिंह का गुपचुप अँधेरी रात में गाँव छोड़ देना कोई भावुक निर्णय न होकर जड़ और चालाक व्यवस्था के मुँह पर एक जोरदार और सुनियोजित तमाचा है। मुन्नी सिंह का एक लंपट के साथ भाग जाना अपने पहले पाठ में कुछ लोगों को खटक सकता है, लेकिन गौरतलब है कि कैद खाने का पर्याय बन चुकी घर-परिवार की चाहरदीवारी में जीने को अभिशप्त मुन्नी सिंह के लिए रमेश सोनाने उम्मीद की अकेली किरण है। और फिर व्यवस्था के अतिक्रमण का यह पहला चरण ही तो है। वैसे भी क्रांति अचानक न होकर, चरणबद्ध तरीके से ही घटित होती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस विवेकपूर्ण साहस के साथ आज मुन्नी सिंह ने गाँव-घर की देहली लांघी है, वही विवेक उसकी आगे की लड़ाई का भी रास्ता साफ करेगा, चाहे वह लड़ाई कभी रमेश सोनाने जैसे प्रेमी के आधिपत्यवादी व्यवहार के खिलाफ ही क्यों न हो।
वंदना राग किसी खास वाद, विमर्श या खाँचे की कथाकार नहीं हैं। वर्ण, धर्म, लिंग, वर्ग आदि की खाँचेबंदियों से बाहर इनकी कहानियाँ मनुष्यता और प्रगतिशीलता के पक्ष में खड़ी होती है। वंदना एक चक्षु-सजग कथाकार हैं। इनकी कहानियों की चौहद्दी व्यापक है। यहाँ धर्मांध होते समाज की क्रूरताएँ (यूटोपिया) भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं, जितनी की दांपत्य जीवन के छोटे-बड़े झगड़े (झगड़ा)। स्त्री-पुरुष संबंधों के बहाने मन के वर्जित प्रदेशों को खंगालने की एक नाजुक-सी जतन (नमक) हो या फिर भिखमंगी की आड़ में ठगी का गोरखधंधा (टोली), स्त्री मन पर लाद दिए गए सौ-सौ पहरों की मुखालफत हो (कबिरा खड़ा बजार में) या फिर जगराते की आड़ में फलते-फूलते शोहदों का कुत्सित खेल (रात्रि जागरण) या फिर इनसे इतर समय और समाज की नब्ज टटोलती दूसरी भावाभिव्यक्तियाँ, वंदना राग अपनी कहानियों में सबके प्रति समान रूप से चिंतित दिखाई देती हैं।
वंदना राग की कहानियाँ न तो कोरी भावुकता का शिकार होती हैं न उबाऊ बौद्धिकता का। जीवन-जगत के कड़वे-कसैले यथार्थ से हर कदम रूबरू होते इनके कथाकार को भाषा और शिल्प के चौंकाऊ प्रयोग की भी फुर्सत नहीं है। ये कहानियाँ संवेदनहीन रूमानी भाषा और सरोकारविहीन कथ्य की जुगलबंदी के विरुद्ध मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में एक सार्थक हस्तक्षेप हैं। छोटे-छोटे और संकुचित दायरों का अतिक्रमण कर लिखी गई ये कहानियाँ सच्चे अर्थों में आधुनिक और प्रगतिशील विचारों की संवाहिका हैं।
प्रतिरोध और पलटवार के बीच लोकतंत्र का सपना: पटकथा और अन्य कहानियाँ
'पटकथा और अन्य कहानियाँ' युवा कथाकार अजय नावरिया का पहला कहानी संग्रह है, जिसमें कुल सात कहानियाँ शामिल हैं। इन कहानियों को पढ़ना युवा कहानी के सर्वथा भिन्न आस्वाद से गुजरना है। अजय नावरिया की ये कहानियाँ समग्रता में न सिर्फ समकालीन युवा कहानी के एक भिन्न रूप से परिचित कराती हैं बल्कि दलित लेखन से जुड़े कुछ सर्वमान्य से हो चले मिथों का खंडन भी करती हैं। यह एक आम धारणा है कि दलित लेखन महज आपबीती का कच्चा-पक्का लेखांकन होता है। यहाँ कल्पना, उड़ान या कि भाषा और लेखन का सौंदर्य देखने को नहीं मिलता। यह अनगढ़ होता है। प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ दलित लेखन संबंधी इन अवधारणाओं को चुनौती देते हुए दलित लेखन के क्रमिक विकास को भी रेखांकित करती है। इन कहानियों को कहानी से ज्यादा एक सामाजिक विमर्श के रूप में पढ़ा जाना चाहिए जिसमें दलितों की दशा-दिशा और सवर्ण मानसिकता के बीच स्त्री की उपस्थिति/अनुपस्थिति भी शामिल है।
यूँ तो कहानी संग्रहों में लेखकीय भूमिकाएँ सामान्यतया गए दिनों की बात हो गई हैं, लेकिन प्रस्तुत संग्रह में लेखक ने एक छोटी सी भूमिका भी लिखी है, जिसमें तीन बातें बहुत ही महत्वपूर्ण है। पहली यह कि ये कहानियाँ लेखक के सपनों की रचनात्मक रूपाकृतियाँ भर हैं, दूसरी बात यह कि यह संयोग नहीं है कि इन कहानियों के मुख्य पात्र दलित हैं और तीसरी बात यह कि दलित और सवर्णों के बीच की खाई को पाटना एक साझी जिम्मेदारी है जिसकी पहल संपन्नों और सवर्णों को ही करनी होगी जिसके लिए गैर-दलित कथाकार दलितों पर साहित्य लिखने की बजाए आत्मभर्त्सनापरक रचनाएँ साहित्य को दें ताकि आपसी संवाद और विश्वास बन सके। प्रस्तुत संग्रह की भूमिका में उल्लिखित ये तीनों लेखकीय निष्पत्तियाँ हमारे भीतर तीन पाठकीय जिज्ञासाएँ उत्पन्न करती हैं। पहली जिज्ञासा यह कि लेखक ने अपनी कहानियों को अपने जिन सपनों की रूपाकृतियाँ बताई है आखिर वे स्वप्न क्या हैं और क्या ये कहानियाँ अपने पाठकों को सपनों का वह आकाश दिखाती हैं? दूसरी जिज्ञासा यह कि जिस तरह इन कहानियों के मुख्य पात्र संयोग से दलित नहीं हैं उसी तरह यह क्यों न समझा जाए कि इनके गैर दलित पात्र खास कर स्त्रियाँ भी किसी संयोग की परिणति न हो कर सायास रचे गए चरित्र हैं? और तीसरी तथा आखिरी जिज्ञासा यह कि क्या इन कहानियों में आए गैर दलित पात्रों के भीतर 'सामूहिक क्न्फैशन' या 'आत्मभर्त्सना' की कोई प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है?
उपर्युक्त तीनों लेखकीय निष्पत्तियों और उनके समानांतर उत्पन्न तीन पाठकीय जिज्ञासाओं या प्रतिप्रश्नों के दो छोरों के बीच इन कहानियों और इनमें उपस्थित विमर्श को समझने के लिए अपनी सुविधा से मैं इन कहानियों को दो भागों में बाँटना चाहता हूँ एक वैसी कहानियाँ जो पूर्णतः दलित अनुभव और दलित सरोकारों की कहानियाँ हैं और दूसरी वे जिनके मुख्य पात्र दलित तो हैं लेकिन इन कहानियों की केंद्रीय चिंता मूलत: दलितों से जुड़ी नहीं है। पहली श्रेणी में जहाँ संग्रह की चार कहानियाँ 'एस धम्म सनंतनो', 'बलि', 'उपमहाद्वीप' और 'पटकथा' रखी जा सकती हैं वहीं दूसरी श्रेणी में संग्रह की शेष तीन कहानियाँ 'ढाई आखर', 'चीख' तथा 'रात' को शामिल किया जा सकता है।
'बलि' और 'पटकथा' संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं जिनमें पीढ़ियों से चले आ रहे दलित-विद्वेष की बारीक व्याख्या के समानांतर दलित मानसिकता के अनुकूलन और समय के साथ उसमें हो रहे बदलावों को भी रेखांकित किया गया है। यहाँ विभिन्न दलित समुदायों के बीच की खाईयाँ, उनकी आपसी खींचतान और एकता के अभाव पर भी लेखक की लगातार नजर है। ये कहानियाँ सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि इनमें दलितों के प्रति पीढ़ियों से हो रहे समाजिक अत्याचार का वर्णन हैं बल्कि ये इसलिए उल्लेखनीय हैं कि इन कहानियों में लेखक इन विद्रूपताओं से टकराते हुए एक स्वप्नदर्शी प्रतिरोध भी दर्ज करता है। संग्रह की भूमिका में अजय नावरिया जिन सपनों की बात करते हैं उन्हें इन कहानियों मे आसानी से झिलमिलाते देखा जा सकता है।
'बलि' कहानी का मुख्य पात्र रामेसर उर्फ अविनाश बाबा साहब के दर्शन से प्रेरित एक ऐसा दलित युवक है जो वर्षों पुरानी बेड़ियों को काटने का माद्दा क्या रखता है उसे काट ही देता है। उल्लेखनीय है कि रामेसर ने अपना नाम अविनाश खुद रखा है। वह अपनी ही जाति या गोत में शादी करने की दकियानूसी अनिवार्यताओं को धता बताते हुए न सिर्फ अपनी मर्जी की शादी करता है बल्कि अपने सपनों के समर्थन अपने पिता तक के खिलाफ खड़ा हो जाता है। उसके व्यवहार में वर्षों से चली आ रही (कु)व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश है और आँखों में अपने और अपने समुदाय के लिए बेहतर भविष्य का सपना। अविनाश के पिता उसके ठीक उलट व्यवस्था के ऐसे पोषक हैं जिनका व्यवस्था के साथ पूर्णतः अनुकूलन हो चला है। वे सड़ी-गली मान्यताओं को न सिर्फ अपनी नियति मान बैठे हैं बल्कि उसका कोई भी अतिक्रमण उन्हें भीतर तक व्यथित और दुखी भी कर देता है। दो पीढ़ी की सोच में व्याप्त इस फासले को ही हम अजय नावरिया के सपनों का संसार कह सकते हैं। पिता और पुत्र के बीच सेतु का काम करता है कालू कसाई। एक बच्चे के कसाई बनने की दुख भरी कहानी के समानांतर प्रेम में असफल होने के बाद एक मनुष्य के क्रूर कसाई में बदल जाने की यह कहानी अंततः अविनाश के सपनों की जीत के रूप में परिणत होती है जब उसके पिता अपनी प्रेमिका के दुखद अंत की कहानी सुनाने वाले कालू की मृत्यु के बाद अपनी बहू अनीता के बारे में पहली बार पूछते हुए उसके हाथ की चाय पीने की इच्छा जाहिर करते हैं। उल्लेखनीय है कि यह वही अनीता है जिसे अविनाश अपनी पसंद से ब्याह कर लाया था। यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि अविनाश के पिता की नाराजगी और उनका प्रतिरोध अनीता के एस.सी. होने के बावजूद था। इस तरह यह कहानी दलित के बीच के फर्क को मिटा कर अपने अस्मिता संघर्ष की पहली और सबसे जरूरी शर्त पूरी करती है।
'बलि' कहानी में अजय नावरिया के जिन सपनों की झलक मिलती है उसका विस्तार संग्रह की आखिरी और शीर्षक कहानी 'पटकथा' में देखा जा सकता है। 'पटकथा' इन अर्थों में भी 'बलि' का विस्तार है कि 'बलि' जहाँ एक ही समय में दलितों की दो पीढ़ियों के द्वंद्व को दर्शाता है वहीं 'पटकथा' में अलग-अलग तीन दलित पीढियों की व्यथा-कथा अपने सपनों, संघर्षों और संकल्पों के साथ उपस्थित है। लेखक ने इस कहानी को सीधे-सीधे तीन हिस्से में बाँट दिया है। पहला हिस्सा यानी 'पूर्वार्द्ध' जहाँ कल्याराम और उसकी पत्नी सुगनी की कहानी है वहीं दूसरा हिस्सा यानी 'मध्यांतर' उनके बेटे मोहनाराम छिलवाड़ और उनकी पत्नी मिसरी की कहानी है। कहानी के तीसरे और आखिरी हिस्से 'उत्तरार्ध' के केंद्र में है कल्या का बेटा और मोहनाराम का पोता भास्कर और उसकी प्रेमिका सुजाता। तीन पीढ़ियों की ये कहानियाँ अलग-अलग व्यक्ति और समय की हो कर भी एक दूसरे से अलग कहाँ हैं। तीन पीढ़ियों के अंतराल में न जाने नदियों में कितना पानी बह गया पर दलितों के दुख जस के तस बने हैं। अपनी कमाई से अपनी पत्नी के लिए चमकदार ओढ़नी खरीदना कल्या का अपराध हो जाता है तो मोहनाराम को अध्यापक होने के बावजूद गैर दलित 'माटसाब' नहीं बुलाते और भास्कर इसलिए अपनी नौकरी से इस्तीफा देने को मजबूर हो जाता है कि किसी शुक्ला जी को उसकी जाति का पता चल जाता है और वे उससे अपनी बेटी का विवाह नहीं कर पाते। उल्लेखनीय है कि कल्याराम खुद कमा कर खर्च करता है वहीं मोहनाराम एक काबिल अध्यापक है और भास्कर अपनी मेधा की बदौलत एक मल्टीनेशनल कंपनी का प्रबंधक बनता है। लेकिन तीनों की योग्यता और क्षमता पर उनकी जाति भारी पड़ जाती है। मतलब यह कि जाति से इतर सिर्फ अमीरी-गरीबी का वर्गीकरण भारतीय समाज का अधूरा सच है। हालाँकि कहानी के उत्तरार्द्ध में जिस तरह भास्कर अपनी नौकरी छोड़ने को मजबूर हो जाता है वह प्रसंग आधुनिक व्यावसायिक माहौल में बहुत हद तक अप्रत्याशित और नाटकीय जान पड़ता है तथापि जिस तरह ये तीनों पात्र प्रतिकूल परिस्थितियों के खिलाफ अपनी-अपनी सीमा में तन कर खड़े होते हैं वह उल्लेखनीय है। कल्याराम भरी पंचायत में सुक्खन की पेट के नीचे जोर की लात मारता है तो मोहनाराम ईसुरी सिंह के मुँह पर तीन-चार मुक्के जड़ देता है और भास्कर मेहता एंड मेहता से इस्तीफा देने के बाद कैलीफोर्निया जाने का अपना निर्णय बदलते हुए अपने देश में रह कर ही अपनी लड़ाई जारी रखने का निर्णय लेता है। इस तरह इस कहानी में अजय नावरिया उस रास्ते की तरफ भी इशारा करते हैं जिससे गुजर कर उनके सपनों की यात्रा पूरी की जा सकती है। इस कहानी का युवतम पात्र भास्कर अजय नावरिया के इन सपनों को और स्पष्ट करते हुए कहता है यह सपना शासन में भागीदारी का है। एक ऐसा शासन जिसमें किसी को कोई परेशानी नहीं हो। एक ऐसा शासन जिसकी आचार संहिता वेद और इंद्र के बजाए रैदास और कबीर के सिद्धांतों से संचालित हो। गैर बराबरी के विरुद्ध बराबरी के सपने की इस प्रस्तावना को अजय नावरिया बाबा साहब की डेमोक्रेसी के सपने से जोड़ कर देखते हैं। वैकल्पिक व्यवस्था की बहाली और समाजिक पुनर्रचना का सपना बहुआयामी होता है। जाति, समाज, राजनीति, अर्थनीति, न्याय व्यवस्था, संस्कृति, विज्ञान आदि सभी मोर्चों पर एक आधुनिक, प्रगतिशील, रचनात्मक, स्वप्नदर्शी और समावेशी दृष्टि के अभाव में नवनिर्माण की यह लड़ाई अधूरी ही रहेगी। अजय नावरिया की ये कहानियाँ सपनों के जिस क्षितिज की तरफ इशारा करती हैं वह जाति व्यवस्था से आरंभ हो कर जाति व्यवस्था तक ही खत्म हो जाती है। चूँकि यह लेखक की पहली कृति ही है, उम्मीद की जानी चाहिए कि इनकी आगामी कहानियाँ वैकल्पिक समाज के पुनर्निर्माण के लिए जरूरी अन्य अवयवों को भी रेखांकित करेंगी।
अजय नावरिया पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं - 'यह संयोग नहीं है कि इन कहानियों के मुख्य पात्र या स्वप्नदर्शी प्रोटोगनिस्ट दलित हैं।' संग्रह की सातों कहानियों को पढ़ जाने के बाद लेखक का यह कथन अर्द्धसत्य सा जान पड़ता है कारण कि ये मुख्य पात्र सिर्फ दलित नहीं 'दलित पुरुष' हैं। उल्लेखनीय है कि अजय नावरिया अपने मुख्य पात्रों को 'स्वप्नदर्शी' कहते हैं। सवाल यह है कि क्या भविष्य के सपने सिरजने की काबीलियत और उसका अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही है? इन कहानियों में उल्लिखित दलितों की तकलीफ और उनके संघर्ष भी सामान्यतया दलित पुरुषों के ही होते हैं। इन कहानियों के लगभग सारे मुख्य पात्र या कि प्रोटगनिस्ट स्मृतियों के सहारे अपने पिता और दादा की व्यथा-कथा को रेखांकित करते हैं लेकिन इस क्रम में माँ और दादी के संघर्ष की कहानियाँ अछूती ही रह जाती हैं। माँ और दादी यहाँ कहानियों को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी रेफरेंस भर ही हैं। हाँ, 'बलि' की अनीता और 'पटकथा' की सुगनी, मिसरी और सुजाता की उपस्थिति को इसका अपवाद जरूर माना जा सकता है। लेकिन ये चारों मिल कर भी इस कमी की भरपाई इसलिए नहीं कर सकती हैं कि ये इन कहानियों की मुख्य पात्र न हो कर अंततः अपने पति और प्रेमी की सहधर्मिणी या कि अनुगामिनी भर हो कर रह जाती हैं। यहाँ यह बताना जरूरी है कि इन दलित स्त्री चरित्रों में इन कहानियों के प्रमुख (पुरुष) पात्रों के बराबर और कभी-कभी उनसे ज्यादा प्रतिरोधी शक्तियाँ मौजूद हैं। लेकिन उनके भीतर छुपी इस ऊर्जा का उपयोग लेखक अपने पुरुष पात्रों की अनुवर्तिनी होने भर के लिए ही कर पाता है। स्त्री पात्रों की यह नियति अपनी सूक्ष्मता में उसी हिंदू धर्म की कुछ रूढ़ियों को पोषित कर जाती है जिसका प्रतिपक्ष तैयार करने का सपना अजय नावरिया इन कहानियों में लगातार देखते हैं। इन कहानियों में इन स्त्री पात्रों की स्वतंत्र चेतना के विस्तार और अन्य कहानियों में दलित स्त्री के जीवन संघर्षों के भी शामिल हो जाने से नए समाज के निर्माण का यह सपना और बड़ा हो सकता था।
अब बात उन कहानियों की जिनके प्रमुख पात्र दलित तो हैं लेकिन कथानक की संपूर्णता को देखते हुए इनकी केंद्रीय चिंता दलित सरोकारों तक ही जुड़ी नहीं है। दलित पुरुषों और सवर्ण स्त्रियों के प्रेम के बहाने लिखी ये कहानियाँ अंततः स्त्री-पुरुष संबंधों की परिसीमा में ही आ कर फिट होती हैं। हाँ, इन पुरुषों के दलित होने के कारण इन कहानियों का एक बड़ा हिस्सा दलित पृष्ठभूमि से जरूर अनुप्राणित होता है। उल्लेखनीय है कि 'ढाई आखर' की समीरा हो या 'चीख' की शुचिता या फिर 'रात' की निशि अपने अलग-अलग कारणों से गहरे प्रेम और शारीरिक संबंध होने के बावजूद अपने प्रेमियों के साथ घर बसाने का उनका प्रस्ताव नहीं स्वीकार पाती। समीरा अपने पिता द्वारा बलात्कृत होने की पीड़ा से नहीं उबर पाती तो शुचिता को अपने पति से तलाक मिलने की उम्मीद नहीं है और निशि अपने पति दिवाकर को छोड़कर अपने बसे-बसाए घर की चाहरदीवारी से बाहर आने का साहस नहीं कर पाती। एक के बाद एक लगातार तीन कहानियों में स्त्री पात्रों के इन (अ)निर्णयों को क्या कहा जाए लेखक की पुरुष दृष्टि की सीमा या फिर एक दलित के भीतर सवर्णों के प्रति बैठा घृणा भाव जिसके प्रतिशोध की आखिरी और निर्णायक लड़ाई सवर्ण स्त्री के साथ संभोग कर के ही अपनी परिणति को प्राप्त होती है या फिर दोनों ही।
इन कहानियों की स्त्री दृष्टि पर ऐसी टिप्पणी करने के कारण इन कहानियों में ही मौजूद हैं। प्रेम तो 'बलि' और 'पटकथा' में भी है लेकिन वहाँ स्त्रियाँ (अनीता और सुजाता) सवर्ण नहीं दलित हैं और उनके साथ उन कहानियों में उनका प्रेमी कहीं संभोग नहीं करता। जबकि 'ढाई आखर', 'चीख' और 'रात' के बड़े हिस्से में यौन व्यवहारों और संबंधों का विस्तार से वर्णन है। कई बार तो ये यौन दृश्य संदर्भ रहित और भौंडे भी हैं। इतना ही नहीं इन कहानियों ('बलि' सहित) के अवांतर सवर्ण स्त्री चरित्रों के साथ भी संभोग या बलात्कार घटित होता है या कि वे यौन असंतुष्टि या विकृति का शिकार होती हैं। अर्चना के बलात्कार ('बलि'), रम्या चावला की यौन विकृति (ढाई आखर), अतृप्ति से उपजी मिसेज देशमुख की यौन कुंठा (चीख), विवाहिता निशि की यौन सुख से अनभिज्ञता (रात) और इस जैसी कई अन्य यौन घटनाओं की श्रृंखला महज संयोग नहीं हो सकती। जिस तरह कहानी के दलित पात्र संयोग मात्र नहीं हैं (लेखक के ही शब्दों में) उसी तरह इन कहानियों की ये सवर्ण स्त्रियाँ भी सायास रची गई हैं। आखिर क्या कारण है कि किसी एक कहानी में भी सवर्ण लड़के और दलित लड़की का प्रेम नहीं देखने को मिलता। चित्त होने वाली या कि कर दी जाने वाली ये स्त्रियाँ इन कहानियों में हमेशा सवर्ण ही क्यों होती हैं? कहने की जरूरत नहीं है कि प्रेम हो या प्रतिशोध पुरुषवादी व्यवस्था अपना शिकार अंततः स्त्रियों को ही बनाती है। अजय नावरिया की इन कहानियों में सवर्ण और दलित प्रेमिकाओं की परिणतियों का यह सायास अंतर ब्राह्मणवादी व्यवस्था का प्रतिपक्ष रचते सपनों के पुरुषवादी हो जाने की आशंकाओं की तरफ भी इशारा करता है।
प्रस्तुत संग्रह की कहानियों के अधिकांश दलित पात्र गाँव के दमन से मुक्त होने के लिए शहर में विस्थापित हो जाते हैं। शहर उन्हें अपेक्षाकृत ज्यादा खुला और कुंठा रहित दिखता है। वहाँ कोई किसी की जाति नहीं पूछता। लेकिन इन शहरों का जातिवाद दूसरे तरह का है। कालीन हटने भर की देर है वहाँ भी दरारें ही दरारें हैं। 'पटकथा' कहानी इन शहरी दरारों की तरफ भी हमारा ध्यान खींचती है। लेकिन जिस तरह इस कहानी में भास्कर विदेश जाने का निर्णय त्याग कर अपने देश में ही अस्मिता संघर्ष का निर्णय लेता है उसी तरह दूसरी कहानियों के पात्र गाँव के संघर्ष को जारी रखने की बात नहीं करते। काश ये पात्र यह समझ पाते कि शहरों में दिखता खुलापन एक व्यामोह या समस्याओं का स्थगन मात्र है। विस्थापन समस्याओं का समाधान नहीं एक तरह का पलायन है। नवनिर्माण का सपना पूरा हो इसके लिए विस्थापन और पलायन दोनों को रोकने की जरूरत है।
अजय नावरिया ने किताब की भूमिका में सामाजिक खाइयों को पाटने को सवर्णों और दलितों की जिस साझी जिम्मेदारी की बात की है उसकी कोई व्यावहारिक ध्वनि उनकी कहानियों में नहीं सुनाई पड़ती। उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप 'कन्फैशन' या कि 'आत्मभर्त्सना' करने वाले कुछ गैर-दलित पात्रों की तरफ भी यदि ये कहानियाँ इशारा करती तो वैकल्पिक समाज का यह माडल और खूबसूरत और प्रामाणिक दिखता।
और अंत में 'रात' शीर्षक कहानी की कुछ पंक्तियाँ - 'एक पीटे, दूसरा चुपचाप पिटे तो कभी संवाद हो ही नहीं सकेगा। इसके लिए जरूरी है... हाथ रोकना, पलटवार करना। वही वार संवाद का रास्ता खोलेगा' निश्चित तौर प्रतिरोध संवाद की पहली कड़ी है। लेकिन पलटवार के प्रतिशोध में बदलने की आशंका हमेशा बनी रहती है। संवाद बदलाव का वाहक बने इसके लिए जरूरी है पलटवार प्रतिरोध से आगे निकल कर प्रतिशोध के अहाते में न प्रवेश कर जाएँ। अजय नावरिया की ये कहानियाँ वर्षों पुरानी सामंती व्यवस्था का प्रतिरोध करते हुए उनका प्रतिपक्ष तो रचती ही हैं पीढ़ियों से दलित समुदाय के होठों पर जड़ दिए गए ताले को झकझोर कर तोड़ फेंकने का जरूरी जतन भी करती हैं।
प्रतिरोध और स्वप्नदर्शिता का अभाव: कैरियर , गर्लफ्रैंड और विद्रोह
'कैरियर, गर्लफ्रैंड और विद्रोह' युवा कथाकार अनुज का पहला कहानी-संग्रह है, जिसमें कुल दस कहानियाँ संकलित हैं। 2005 के बाद हिंदी कहानी के परिदृश्य पर नए कथाकारों की जो खेप आई, अनुज उन्हीं में से एक हैं। प्रयोगधर्मी भाषा-शिल्प के कारण जहाँ कथाकारों की इस जमात को शुरुआती प्रशंसा मिली वहीं कथ्य की सीमाओं और प्रतिबद्धता के अभाव के कारण यदा-कदा इनकी आलोचना भी होती रही है। कतिपय कारणों से इस प्रायोजित प्रशंसा और प्रतिक्रियावादी आलोचना दोनों के केंद्र में कुछ खास कथाकार ही रहे। जबकि सतत रचनारत रह कर भी नए कथाकारों की जमात का एक बड़ा हिस्सा समकालीन कथालोचना के परिदृश्य से गायब ही रहा। अनुज इसी दूसरे तबके के कथाकार हैं। अपने साथ के चर्चित कथाकारों की तुलना में अनुज इन अर्थों में अलग हैं कि ये अपने कई सहयात्री कथाकारों की तरह न तो शब्दों का मायाजाल रचते हैं और न हीं शिल्प और शैली के चौंकाऊ प्रयोग के द्वारा कोई चमत्कार पैदा करने की कोशिश ही करते हैं बल्कि एक सीधे-सादे किस्सागों की तरह अपने आस-पास बनते-बिगड़ते यथार्थों को ही कहानी का जामा पहना देते हैं।
राजनैतिक पार्टियों की असलियत, विश्वविद्यालयीय राजनीति की उठापटक, गांवों की बदहाली, लोगों को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करने वाले बाबाओं का व्यापार और व्यभिचार, सांप्रदायिक दंगों के पीछे की असली राजनीति और उसके कारण उत्पन्न तबाहियाँ जैसे विषय ही अनुज की कहानियों के प्रतिपाद्य हैं। यूँ तो इस संग्रह में गाँव और शहर दोनों पृष्ठभूमि की कहानियाँ मौजूद हैं लेकिन इन कहानियों के अधिकांश पात्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से ही आए हैं। यही कारण है कि इन कहानियों की भाषा में गाँव की खुशबू और ठाठ दोनों ही दिखाई पड़ते हैं।
संतोष की बात है कि अनुज की कहानियों में मौजूद भाषा का लोक रंग कही भी किसी तरह के अतिरेक का शिकार नहीं होता, परिणामत: भाषा की आँचलिकता पाठ में किसी तरह की बाधा उपस्थित नहीं करती बल्कि उसे एक खास तरह की सरसता प्रदान करती है। लेकिन इन कहानियों की दिक्कतें दूसरी हैं। ये कहानियाँ क्या दक्षिणपंथी क्या वामपंथी यहाँ तक की 'फ्री थिंकर्स' तक की असलियतों से पर्दा हटाती हैं, लेकिन अपनी कोई राजनैतिक पक्षधरता नहीं तय कर पाती। ये कहानियाँ भाषा-शिल्प के प्रयोग और कौतुक में तो नहीं उलझती लेकिन कथ्य के स्तर पर भी कुछ नया न देकर स्टीरियो टाइप का शिकार हो कर रह जाती हैं। अनुज की कहानियाँ विषय के क्षैतिज फैलाव को तो पकड़ती हैं लेकिन उसके उदग्र विस्तार का आकलन नहीं कर पाती यही कारण है कि संग्रह की कई कहानियाँ यथा 'कुंडली' और 'अनवर भाई नहीं रहे' अंतर्वस्तु की गहराईयों में उतरने और पात्रों की मानसिक बेचैनी का पड़ताल करने की बाजाए विषयवस्तु को ऊपर-ऊपर छूकर निकल जाती हैं।
रंग-रूप, दहेज आदि के कारण एक लड़की की शादी में आनेवाली कठिनाईयों को दिखाती कहानी 'कुंडली' को पढ़ते हुए दीपक श्रीवास्तव की कहानी 'सत्ताईस साल की सांवली लड़की' की याद आना स्वाभाविक है। देखने-दिखाने के झंझटों को बार-बार झेलती और कतिपय कारणों से शादी के लिए बार-बार नकार दी जाने वाली 'दीदी' इस कहानी के अंत में उसे देखने आए लड़के वालों के मुँह पर यह कहते हुए अपना प्रतिरोध जताती है कि 'पापा, मैं शादी नहीं करूँगी... इस परिवार में तो बिल्कुल नहीं... चलिए यहाँ से।' लेकिन उस लड़की की त्रासदी और इस निर्णय के लिए उसकी मानसिक तैयारी के क्रम में उसके भीतर के द्वंद्व आदि को दिखाए बिना यह कहानी जिस सपाट ढंग से इस क्लाइमेक्स तक पहुँचती है वह परिस्थितियों की विडंबना को प्रवाशाली तरीके से तो नहीं ही उभार पाती है, एक फार्मूला अंत की कहानी बनकर भी रह जाती है।
अनुज की कहानियाँ समस्यामूलक हैं। घर के भीतर रोजमर्रा की समस्याएँ, परिवार से बाहर समाज और देश में गूँजते प्रतिक्रियावादी ताकतों के हिंसक उन्माद, दफ्तरों के भीतर जड़ जमाती अकर्मण्यता और टाँगखीचू राजनीति, स्त्री जीवन की परंपरा से चली आती त्रासदियाँ आदि-आदि। लेकिन इन कहानियों के पात्र इन समस्याओं से जूझने, इनका प्रतिरोध करने के बजाए परिस्थितियों के आगे दम तोड़कर निराशा और हताशा से उत्पन्न अवसाद में घुटते रहने को मजबूर हो जाते हैं या मानसिक विक्षिप्तता को प्राप्त हो जाते हैं। मानसिक विक्षिप्तता या पागलपन की यह स्थिति जो समस्या से लड़ने की बचाए उसे बिना प्रतिरोध के झेलते रहने या यूँ कहें कि एक अकर्मण्य पलायन से उत्पन्न होती है, को अनुज कई बार एक फार्मूले की तरह साधना चाहते हैं। यही कारण है कि ऐसी परिस्थितियाँ और पात्रों की नियति संग्रह की लगभग एक तिहाई कहानियों में मौजूद हैं - संग्रह की शीर्षक कहानी - 'कैरियर, गर्लफ्रैंड और विद्रोह' में पार्टी की उपेक्षा और गर्लफ्रैंड की बेवफाई के मारे विद्रोही जी पागल होकर मर जाते हैं तो 'भाई जी' कहानी के भाई जी, जो प्रतिक्रियावादी शक्तियों के प्रतीक हैं और समाज में नफरत की आग को हवा देते हैं, अपने अंतिम दिनों में अपनी कारगुजारियों को याद कर-कर के मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति को प्राप्त होते हैं, तो 'बनकटा' कहानी का बनकाटा अपनी बेटियों की स्थिति और उनके भविषय की चिंता में इतना तल्लीन हो जाता है कि असामान्य हरकतें करने लगता है। इस तरह एक के बाद एक कई कहानियों के प्रमुख पात्रों का इस तरह असामान्य मनोदशा को प्राप्त होना पलायन और फार्मूलेबाजी दोनों की तरफ इशारा करता है।
स्त्रियों की स्थिति को लेकर भी अनुज की कहानियाँ पूर्वाग्रह, दुविधा और रूढ़ियों का शिकार लगती हैं। इन कहानियों में सामान्यतया दो तरह की स्त्रियाँ मिलती हैं - एक वे जो परंपरा से चली आ रही लैंगिग ज्यादतियों का शिकार हैं और दूसरी वे जो आधुनिक लेकिन अवसरवादी हैं। यहाँ अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के पूरे होने की उम्मीद में अपने प्रेमी विद्रोही जी को छोड़ देने वाली तूलिका जी हैं (कैरियर गर्लफ्रैंड और विद्रोह), अमेरिका में रहने के लिए ग्रीन कार्ड के जुगाड़ की उम्मीद में अपने पति को किसी गोरी कन्या से 'कॉट्रैक्ट मैरिज' करने की सहमति देती ममता जी हैं, पारिवारिक दवाबों के करण अपने प्रेमी को भुलाकर अपने पिता के पसंद के किसी लड़के से शादी को मुनासिब समझती नीलिमा जी हैं (तीनों, अनवर भाई नहीं रहे), संतान की आशा में खड़ेसड़ी बाबा के छद्म और व्यभिचार का शिकार होती बाँझ चाची है (खड़ेसरी बाबा), पिता की चिंता का केंद्र दुर्गेश और सर्वेश हैं (बनकटा), पति की सेवा में अपना सर्वस्व होम करती माँ हैं (कॉम्सोमोल कोटा), यहाँ तक कि गाँव के मेले में स्त्री देह की दलाली करती मौसियाँ तक इस संग्रह की कहानियों में मौजूद हैं (खूंटा), लेकिन कुंडली की दीदी जो कि एक फार्मूला के तहत प्रतिरोध का अभिनय करती दिखती हैं, के अपवाद को छोड़ दें तो इन कहानियों से आधुनिक स्त्री का प्रगतिशील चेहरा सिरे से गायब है।
संग्रह की दो कहानियों 'कॉम्सोमोल कोटा' और 'खूंटा' की चर्चा के बिना यह टिप्पणी अधूरी होगी। 'खूँटा' संग्रह की सर्वाधिक चर्चित कहनियों में से हैं। इस कहानी में बैलों की खरीद बिक्री के लिए लगे जाने वाले मेले का वर्णन है। उल्लेखनीय है कि इस मेले में एक तरफ जहाँ बैलों की खरी बिक्री होती है वहीं दूसरी तरफ स्त्री-देह का कारोबार भी चलता है। अनुज ने बैलों की प्रजाति से संबंधित शब्दावलियों, मेले के जीवंत दृश्य, सहज ग्रामीण संवादों आदि के साथ गाँव की एक सच्ची तसवीर खींचने की कोशिश की है। लेकिन यह कहानी इससे आगे कुछ नही कर पाती। किसी कसाई के हाथों बैल के बेचे जाने और मेले के एक कोने में स्र्त्री-देह की खरीद फरोख्त की घटनाओं का बयान हो कर रह जाने वाली यह कहानी एकरैखिक भी है। विश्वसनीय भाषा, शब्दावली और माहौल का चित्र खींचने के साथ खरीद-बिक्री की इन दोनों तस्वीरों की तह में व्याप्त विडंबना को भी यदि यह कहानी व्यक्त कर पाती तो यह एक यादगार कहानी हो सकती थी। लेकिन ग्रामीण माहौल के ऊपरी सतह को दिखा भर कर रह जाने और परिस्थितिजन्य त्रासदियों के मूल में उतरने का धैर्य न दिखा पाने के कारण यह कहानी बस मेला घूमने-घुमाने का एक उपक्रम जैसा हो कर रह जाती है। हाँ, संग्रह की एक अन्य कहानी 'कॉम्सोमोल कोटा' वामपंथी राजनीति की आड़ में होने वाले सेठ-साहूकारों के खेल के बीच ग्रास रूट के एक आम कार्यकर्ता की उपेक्षा, उसके मोहभंग और प्रतिकूलताओं के बावजूद उसकी अनवरत जारी स्वप्नधर्मिता को प्रभावशाली ढंग से दर्ज करती है।
अनुज को कहानी कहना आता है। इनकी कहानियों में कथात्मकता के गुण बचे हुए हैं यह इनकी विशेषता है। लेकिन एक खास तरह की एकरैखिकता तथा प्रतिरोध और स्वप्नदर्शिता का अभाव संग्रह की कहानियों को औसत कहानियों की श्रेणी से ऊपर नहीं जाने देता। लेकिन आश्वस्ति और भरोसे की बात यह है कि बतौर कथाकार अनुज लगातार ग्रो कर रहे हैं, संग्रह के बाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपी 'फैसला सुरक्षित है' (हंस) जैसी इनकी कहानियाँ इनके विकास के प्रति हमें आश्वस्त करती हैं।
स्त्री मन की अंतर्यात्रा: अनकही
'न जाने क्यों मन आज बड़ा अशांत हो रहा है... रह-रह कर बरामदे में पिंजरे का सुग्गा कभी टें-टें करता हुआ अपने पंख फरफरा रहा है तो कभी चोंच से पिंजरे की सलाखों को काट रहा है। सुजा भूली-भूली सी उसकी तरफ देखती रही थी... सुजा को बरबस अपना गाँव, बचपन, हमजोलियाँ याद आने लगे थे। मन में एक हूँक से उठी थी, वह कांटा बिंधी मछली की तरह कलप उठी थी। और फिर न जाने क्या सोचकर उसने अचानक उठकर पिंजरे का द्वार खोल दिया था... आँखों से बहते हुए पानी का खारापन उसके होंठों से हो कर जैसे अंतर तक रिस आया था। नमक का यही स्वाद रात-दिन उसके हाड़ मज्जे में घुला रहता है। आज इस पिंजरे को खोल कर एक पल के लिए ही सही, उसे लगा था, उसने स्वयं को मुक्त कर लिया है। कंधों पर दो उजले पंख जैसे अनायास उग आए थे... सामने गहरा नीला संभावनाओं का आकाश था और एक पागल उड़ान अंदर ही अंदर कहीं पर तोल रही थी...'
जयश्री राय के पहले कहानी संग्रह 'अनकही' की एक महत्वपूर्ण कहानी 'पिंजरा' की ये पंक्तियाँ न सिर्फ एक स्त्री की मुक्ति कामना का प्रतीक रचती हैं बल्कि हमें इस संग्रह के मर्म तक पहुँचने का सूत्र भी उपलब्ध कराती हैं। उल्लेखनीय है कि जयश्री की कहानियों में लगभग हर बार एक अकेली स्त्री आती है। लेकिन यह अकेली स्त्री सामान्यतया परित्यक्ता या अविवाहिता न हो कर भरे-पूरे घर में रहते हुए अकेलेपन का दंश झेलती एक ऐसी स्त्री होती है जिसे परंपरा और व्यवस्था ने हमेशा से उत्पीड़ित किया है। ये कहानियाँ इन अर्थों में विशिष्ट हैं कि ये येन केन प्रकारेण वाचाल और अव्याहारिक क्रांति के स्टीरियो टाइप में उलझने की बजाए सार्थक मुक्ति-प्रतीकों की तरफ इशारा करती हैं। यही कारण है कि इन कहानियों की ये अकेली स्त्रियाँ अपनी आँखों में सपनों का एक निस्सीम आकाश और सीमाहीन उड़ान की एक उत्कट इच्छा लिए अपनी मुक्ति यात्रा में गतिशील हैं। इस कहानी में सुजा द्वारा पहले पिंजरे का दरवाजा खोल देने और फिर स्वयं मुक्ति के भाव से भर जाने को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दर असल इस संग्रह की कहानियों से गुजरना अकेलापन, इंतजार और सपनों के त्रिकोणीय विस्तार के बीच अपने वजूद और अपनी पहचान को जिंदा रखने की कोशिश में कभी छटपटाती तो कभी अपनी मुक्ति की संभावनाओं का अनुसंधान करती स्त्रियों के मानसिक भूगोल की यात्रा करने जैसा है।
जयश्री की कहानियों का संसार विविधताओं से भरा-पूरा है। वर्ग, वर्ण, परिवेश, पर्यावरण आदि की भिन्नता लिए ये कहानियाँ समाज के बहुवर्णी और बहुपरतीय चेहरे के पीछे की विडंबनात्मक त्रासदी के स्त्री पक्ष का स्पर्शी अनुसंधान करती हैं। इन कहानियों के एक छोर पर जहाँ परिवार और उसके प्रति समर्पण से उत्पन्न स्त्री जीवन की त्रासदी है तो दूसरे छोर पर वर्ग भेद की क्रूर असलियत। इन दोनों छोरों के बीच प्रेम और आस्था की एक महीन सी डोर तनी है जिसके सहारे इन कहानियों का संसार हमारे भीतर उतरता है। अलग-अलग पृष्ठभूमि की स्त्रियों की कहानियाँ होने के बावजूद ये एक दूसरे से जुड़ी और उनका विस्तार हैं जो कहीं न कहीं इस बात को रेखांकित करती हैं कि दुनिया की सारी औरतों के दुख लगभग एक से होते हैं। बेटे की राह तकती अकेली रामरति (बंधन) हो या कैंसर जैसी प्राणघातक बीमारी से जूझते हुए अपने पारिवारिक जीवन को दरकता देखने को विवश अपराजिता (गुलमोहर), बर्तन चौका कर के अपने परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाने वाली शनिचरी (शनिचरी) हो या पति की उपेक्षा का दंश झेलती सुजा (पिंजरा), या फिर अपनी जड़ों से कटने के बाद महानगरीय फ्लैट की खिड़की से अपने हिस्से का धूप और आसमान खोजती अरूप (धूप का टुकड़ा), या फिर प्रेम में छली जाने के बावजूद अपनी आत्मचेता दामिनी (औरत जो नदी है), ये सब स्त्रियाँ अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की होने के बावजूद कहीं न कहीं लगभग एक ही तरह के दुख को साझा कर रही हैं जिसकी जड़ें अधिकाररहित कर्तव्य, अकेलापन और उपेक्षा की मिट्टी में गहरे धंसी है। इस तरह ये कहानियाँ बिना किसी शोर-शराबे और नारेबाजी के 'ग्लोबल सिस्टरहुड' की स्त्रीवादी परिकल्पना का एक सार्थक और व्यावहारिक उदाहरण पेश करती हैं। लेकिन इन कहानियों का नारी-स्वर एकांगी नहीं है। ये कहानियाँ अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ियों की स्त्रीवादी कहानियों से इन अर्थों में भिन्न और आगे हैं कि स्त्री दुख और उसके कारणों को दर्ज करते हुए ये पुरुषों को अनिवार्यतः खल पात्र के रूप में चित्रित नहीं करती बल्कि लैंगिक विभेद से उत्पन्न तकलीफदेह सामाजिक सच्चाइयों के समानांतर उन आधुनिक पुरुषों की शिनाख्र्त भी करती चलती हैं, जो कि मालिक के पारंपरिक बाने का अतिक्रमण कर शनैः-शनैः दोस्त की भूमिका में दिखने लगे हैं। 'गुलमोहर' के डॉ. विवेक, 'शनिचरी' के सखु, 'पापा मर चुके हैं' के अरनव आदि पात्रों के रूप में यह संग्रह ऐसे ही बदले हुए पुरुषों से हमारा परिचय करवाता है।
जयश्री की दृष्टि तीक्ष्ण और उनका व्यंग्यबोध पैना है जो स्वप्न और यथार्थ के बीच फैले फासले को बड़े ही मारक तरीके से व्यंजित कर जाता है। संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी 'शनिचरी' जिंदगी और जिंदगी के दरम्यान पसरे स्वप्न और यथार्थ के सलेटी सलवटों को निर्ममता से उघाड़ कर रख देती है। एक तरफ मंगरा और शनिचरी का बेबस लेकिन विडंबनापूर्ण जीवन तो दूसरी तरफ रतन बाबू जैसे जमींदार की मनमानी जो अपने किए अपराध को बड़ी आसानी से पीड़ित के मत्थे ही मढ़ देना जानते हैं तो तीसरी तरफ वर्ग भेद की अश्लील खाइयाँ जो 'श्वानों को मिलता दूध वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हैं' की याद दिला जाता है। इस त्रिकोण से बनी यह कहानी जितनी पारिवारिक है उतनी ही सामाजिक और राजनैतिक भी। स्त्री-पुरुष जीवन के कसैले यथार्थ का प्रतीक शनिचरी और मंगरा की कहानी के समानांतर इस कहानी में व्याप्त महुआ और सखु की अंतर्कथा अपनी स्वप्नदर्शी लयात्मकता के कारण इस कहानी को बहुकोणीय अर्थ विस्तार देती है।
जयश्री के पास कहने को जिंदगी की तल्ख सच्चाईयों की एक लंबी फेहरिस्त है। ऐसी सच्चाईयाँ जो सामान्यतया या तो हमें दिखती नहीं हैं या फिर जिन्हें कई बार हम जानबूझ कर देखना नहीं चाहते। ऐसी ही सच्चाइयों को आईना दिखाती संग्रह की बहुचर्चित कहानी 'औरत जो नदी है' स्त्री-पुरुष मानसिकता और संवेदना की बुनियादी बनावट को बारीकी से अलगाते हुए आत्मचेतना से उद्दीप्त एक ऐसी स्त्री से हमारा परिचय करवाती है जिसके आगे आत्मप्रवंचना से स्लथ पुरुष अंततः आत्मस्वीकृतियों से भर जाता है। जयश्री अपनी कहानियों में मखमली कालीन के नीचे छुपी या कि छुपा दी गई दररों को निर्ममता से उघाड़ती हैं। इस कहानी का एक सूत्र वाक्य 'औरत महज एक योनि नहीं होती परंतु मर्द शायद अपादमस्तक एक लिंग ही होता है, ऐसी ही सच्चाइयों का एक उदाहरण है जिसके आईने में हम सब अपना-अपना चेहरा देख सकते हैं।
बलात्कार जैसे जघन्य अपराध का शिकार होने के बाद एक स्त्री जिस मानसिक अवसाद और पीड़ा के दौर से गुजरती है वह कहने-सुनने से ज्यादा समझने और महसूसने की चीज है। लेकिन जब बलात्कारी खुद पिता हो तब...? इस त्रासद घटना और उसके बाद उत्पन्न परिस्थिति की कल्पना भी बहुत पीड़ादायक और लोमहर्षक है। पिता द्वारा बलात्कृत एक लड़की की मनोदशा को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानी 'पापा मर चुके हैं' संग्रह की ऐसी कहानी है जिसे न सिर्फ इस संग्रह की बल्कि समकालीन कहानी की उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। यह कहानी जिस तरह बिना किसी फार्मूलेबाजी या नाटकीयता का शिकार हुए एक स्त्री की मुक्ति को उसके मनोनुकूल पुरुष साथी की तलाश से जोड़ कर मुकम्मल करती है उसे अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए। यही कारण है कि पिता वेषधारी पुरुष द्वारा सताई संदल की जिंदगी में अरनव का शामिल होना पूरे संग्रह का हासिल है। अपराधबोध और ग्लानि से भरे अपने पिता को माफ करके और अपनी जिंदगी में अरनव को शामिल कर के जिस तरह संदल अपनी जिंदगी में व्याप्त अवसाद और निराशा से उत्पन्न ग्रंथि से मुक्त होती है वह इस कहानी को एक आधुनिक और रचनात्मक मूल्यबोध से भर देता है और तब यह कहानी मुक्ति कामना से कहीं आगे एक स्त्री के मुक्ति संघर्ष और मुक्त होने की कहानी बन जाती है।
नाते-रिश्तेदारों के बीच उपेक्षा, अकेलेपन और जुगुप्सा का संत्रास झेलती एक लड़की के भीतर व्याप्त असुरक्षाबोध तथा दोयम दर्जे के व्यवहार से उत्पन्न हीन भावना की मनःस्थितियों का जायजा लेती 'गुड़िया' रोंगटे खड़ा कर देने वाली कहानी है, जिसमें किशोर होती एक लड़की अपने नवजात भाई की इसलिए मुँह दबा कर हत्या कर देती है कि उसमें उसे अपने हिस्से का सुख छीनने वाले पुरुष का चेहरा दीखता है। कैशोर्य की दहलीज की तरफ बढ़ती एक लड़की के व्यवहार की यह क्रूरतम परिणति अकारण नहीं है। इसके सूत्र हमारे सामाजिक आचार-व्यवहार में आसानी से खोजे जा सकते हैं।
अकेलेपन की पीड़ा से लबरेज दूर शहर में किसी हमजुबाँ की तलाश में सिसकते एक पुरुष की कहानी 'अकेला' संग्रह में एक नया रंग भरती है लेकिन लेखिका ने यदि कुछ और धीरज से इस विराट अनुभव को विस्तार दिया होता तो यह कहानी और मारक हो सकती थी। 'धूप का टुकड़ा' और 'आदमी का बच्चा' जैसी कहानियाँ भी सर्वथा भिन्न विषय की संभावनाओं से भरी ऐसी ही कहानियाँ हैं जिन्हें और धीरज के साथ लिखा जाना चाहिए था।
यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि 'अभिनय' शीर्षक कहानी का जिक्र न किया जाएँ। इस कहानी की नायिका प्रेम में छली जाने वाली एक ऐसी अकेली स्त्री है जो अंतत: पुरुष के लिए मनोरंजन का साधन भर हो कर रह जाती है। गौर किया जाना चाहिए कि यह स्त्री विद्रोह के बजाए अभिनय का रास्ता अख्तियार कर खुद को जैसे मुगालते में रखती है। इस तरह यह कहानी स्वप्न और यथार्थ के बीच अभिनय की विवशता को रेखांकित करते हुए स्त्री मन के भीतर छुपी आत्मप्रवंचना और उससे उत्पन्न तकलीफों को एक साथ उद्घाटित करती है।
एक ऐसे समय में जब कथ्य और सरोकार से खाली समकालीन कथाकारों का एक समूह भाषा और शिल्प के बेतुके प्रयोगों में उलझा हुआ है, जयश्री अपनी सूक्ष्म और हृदयग्राही भाषा शैली में बड़ी सहजता से चुनौतीपूर्ण विषयों की कहानियाँ कह रही हैं। इनकी भाषा खासी काव्यात्मक है लेकिन भाषाई गुंजलक बना कर छद्म काव्यानुभूति की कहानियाँ लिखने वाले अपने कुछ समकालीन कथाकारों से ये इस मामले में अलग हैं कि इनकी कहानियों का काव्यात्मक विन्यास कथा सूत्र को शब्द दर शब्द थामे रहता है। एक तरफ जब कहानियों से प्रकृति के चित्र लगभग गायब से होते जा रहे हैं, ये कहानियाँ प्रकृति के विविध रंग-रूप को उसके पूरे वैभव के साथ अपने पात्रों की मन:स्थितियों से जोड़कर प्रभावी ढंग से हमारे आगे रखती हैं। ये विशेषताएँ निश्चित तौर पर जयश्री को अपने समकालीनों से अलग करती हैं। लेकिन इनकी दिक्कतें दूसरी है। चूँकि जयश्री भाषा और कहन के अंदाज को लेकर बहुत प्रयोगधर्मी नहीं हैं, इनकी कहानियों की भाषा और उनमें व्याप्त प्रकृति के चित्र कई बार एकरूपता और पुनरावृत्ति का सा आभास देते हैं। अपनी आगामी कहानियों में इसके प्रति उन्हें सचेत रहने की जरूरत है ताकि उनकी विशेषता ही उनकी सीमा न बन जाए।
जयश्री मूलतः मनःस्थितियों की कथाकार हैं और इनकी कहानियों में बहुधा (एकाध अपवाद को छोड़कर) जो स्त्रियाँ आती हैं वो घर की दहलीज के अंदर रहने वाली और मानसिक स्तर पर अकेली स्त्रियाँ हैं। नतीजतन बाह्यजगत से उनकी अंतर्क्रियाओं की गुंजाईश इन कहानियों में बहुत कम हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि इनकी आगामी कहानियों की स्त्रियाँ घर की दहलीज का अतिक्रमण कर एक बृहत्तर दुनिया में भी प्रवेश करेंगी ताकि बाह्यजगत और अंतःजगत के परस्पर संवाद से रची गई कुछ और बड़ी कहानियाँ हमारे सामने आ सकें। फिलहाल काव्यात्मक भाषा और तरल संवेदना की परस्पर प्रतिस्पर्धा से रची गई चुनौतीपूर्ण विषयों की ये विविधवर्णी कहानियाँ अपने भीतर अपार संभावनाएँ और ऊर्जा छिपाए बैठी हैं। निश्चित तौर पर इन कहानियों ने जयश्री राय से हमारी उम्मीदें और अपेक्षाएँ दोनों बढ़ा दी हैं।
लेखकीय हस्तक्षेप से बचने की जरूरत: अधूरे अंत की शुरुआत
भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता में पुरस्कृत 'अधूरे अंत की शुरुआत' विमलेश त्रिपाठी का पहला कहानी-संग्रह है, जिसमें कुल सात कहानियाँ संकलित हैं। अक्टूबर 2004 में प्रकाशित वागर्थ के नवलेखन विशेषांक से सामने आई कहानीकारों की खेप में जिन कथाकारों ने कथा जगत में अपनी एक निरंतर उपस्थिति दर्ज कराई है, विमलेश उन्हीं कथाकारों में से एक हैं। इनकी कहानियों का मुख्य पात्र बहुधा कविता-कहानी लिखने वाला एक साहित्यिक बुद्धिजीवी होता है - उम्मीदों और आकांक्षाओं से भरा एक ऐसा व्यक्ति, जो दिन-रात एक बेहतर देश और दुनिया के सपने सिरजता रहता है। समकालीन कहानी में ऐसे बुद्धिजीवी चरित्रों का होना कोई नई बात नहीं। लेकिन विमलेश की कहानियाँ इन अर्थों में ऐसी अन्य कहानियों से भिन्न हैं कि इनके पात्र सिर्फ बौद्धिक चर्वण तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि एक सार्थक सामाजिक बदलाव के लिए अपनी तरफ से पहल भी करते हैं।
चाहे वह संग्रह की शीर्षक कथा 'अधूरे अंत की शुरुआत' का सूत्रधार मैं हो, या 'खंडहर और इमारत' का कालीचरण, या फिर 'चिंदी-चिंदी कथा' का सूर दादा या अली अरमन या फिर 'एक चिड़िया एक पिंजरा और एक कहानी' का 'मैं' ये सारे पात्र अपनी-अपनी सामर्थ्य और सीमाओं से गुजरते हुए अपने सपनों की दुनिया तक पहुँचने का जतन करते हैं। हाँ, यहाँ यह स्पष्ट करना अवश्य जरूरी है कि मंजिल की तरफ चलना भले मंजिल पा लेना नहीं होता लेकिन मंजिल की तरफ बढ़े हर कदम के नीचे मंजिल का सही पता छुपा होता है। इन अर्थों में ये कहानियाँ सपनों की मंजिल की तरफ बढ़े शुरुआती कदम हैं। इस संदर्भ में संग्रह की अत्यंत महत्वपूर्ण कहानी 'खंडहर और इमारत' का उल्लेख बहुत जरूरी है जिसमें कालीचरण के माध्यम से लेखक ने पुरुष-मन में व्याप्त खालीपन और उससे उत्पन्न व्यथा का रचनात्मक पुनर्लेखन किया है। माँ और पत्नी के बीच किंकर्तव्यविमूढ़ - सा फँसा एक आम मध्यमवर्गीय पुरुष, रोजमर्रा की परेशानियाँ और दो कदम आगे दो कदम पीछे घिसट-घिसट कर कुछ दिन चलने के बाद अंततः तलाक की नियति तक पहुँचता जीवन। लगता है बढ़ती महत्वाकांक्षा और घटती सौमनस्यता और आपसी समझदारी के अभाव में आने वाले समय में सबसे ज्यादा खतरा परिवार संस्था को ही है। लेकिन ऐसे ही टूटन और बिखराव को झेलते कालीचरण बाबू अपनी जिंदगी की सार्थकता अनाथ बच्चों को पालने-पोसने के उपक्रम में तलाशते हैं। लेखक के शब्दों में यही खंडहर होते जीवन का पुनः इमारत में तब्दील होना है। लेकिन हाथ से फिसल कर दूर चली गई खुशियों की स्मृतियाँ अतीत के उस खंडहर के दंश को तो गाहे-बगाहे हरा करती ही है न! बावजूद इसके यह कहानी जिस तरह निजी दुख और खालीपन से उत्पन्न संत्रास को जगत के दुख से जोड़ते हुए, सुख और आह्लाद की एक बृहत्तर दुनिया के सिरजने का जतन करती है वह इसे विशिष्ट और महत्वपूर्ण बनाता है।
'एक चिड़िया, एक पिंजरा और कहानी' रश्मि माझी नामक एक ऐसी लड़की की कहानी है जो दोहरे स्तर पर प्रताड़ित होती है। एक तरफ जाति व्यवस्था तो दूसरी तरफ स्त्री होने का 'अपराध'। तथाकथित नीची जाति की होने के कारण जहाँ लोग उससे अछूत की तरह व्यवहार करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ उसके प्रेम की खबर मिलने पर उसकी सौतेली माँ के उकसावे पर उसका पिता ही उसका बलात्कार करता है, एक नहीं कई-कई बार लगातार और एक दिन इस खेल से ऊबकर शादी की आड़ में पच्चीस हजार रुपये में उसका सौदा कर लेता है। यद्यपि बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के पीछे कोई तर्क नहीं होता लेकिन जिस तरह इस कहानी में यह घटित होता है और एक लंबे समय तक घटता चला जाता है, वह बहुत ही औचक, वीभत्स और नृशंस है।
यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी है कि इस पीढ़ी में इस विषय को लेकर कई कहानियाँ लिखी गई हैं, जिनमें कविता की 'देह-दंश', अजय नावरिया की 'ढाई आखर', जयश्री रॉय की 'पापा मर चुके हैं', मनीषा कुलश्रेष्ठ की 'फाँस' आदि उल्लेखनीय हैं। इस बात पर अलग से विचार किए जाने की जरूरत है कि आखिर क्या कारण है कि इस विषय पर लिखी स्त्री कथाकारों की कहानियों की बलात्कृत स्त्रियाँ जहाँ जीवन-समर में आगे बढ़ जाती हैं वहीं पुरुष कथाकारों की कहानियों की स्त्रियाँ इस सदमे से उबर नहीं पाती। यह सिर्फ अलग-अलग कहानियों के कथानक का फर्क भर न होकर स्त्री-पुरुष मानसिकता का भी अंतर तो नहीं? इस कहानी के अंत में जिस तरह रश्मि पहले नशे में धुत्त अपने पति की और फिर उसी रात मायके जाकर अपनी सौतेली माँ और पिता की हत्या करने के बाद आत्महत्या की कोशिश में अपनी कलाई की नसें काट लेती है वह अति नाटकीय है। वर्षों तक पहले पिता और फिर पति का बलात्कर झेलते रहने के बाद अचानक किसी स्त्री-मन को इस तरह नाटकीय प्रतिरोध से भर देना और फिर उसे मरते हुए देखकर भी उसके प्रेमी का दुख, शोक या आक्रोश प्रकट करने की बजाए उसकी आँखों में अपने लिए कामना के भाव पढ़ना... क्या यह सिर्फ क्रूर होते समय और समाज का एक भयावह रूपक भर है? मुझे लगता है यह वीभत्स नृशंसता कहीं न कहीं समय और समाज की चुनौतियों को रुमानी दृष्टि से देखने वाली लेखकीय दृष्टि का भी परिचायक है।
विमलेश समय की जिस अभिसंधि पर खड़े होकर कहानियाँ लिख रहे हैं, वह अंतर्विरोधों का काल है। एक तरफ सूचना और तकनीक की क्रांति जहाँ हमें समय के सारे मानकों से पीछे छोड़ देने को आमादा है, वहीं जाति-धर्म की संकीर्णताएँ हमारे सोच-विचार में घुन की तरह लगी हुई हैं। सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी ताकतें जैसे मनुष्य और मनुष्यता को अपनी जद में लेने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में यह आश्वस्तिदायक है कि विमलेश बतौर कथाकार न सिर्फ अपने समय की इन विद्रूपताओं को समझते हैं बल्कि उसके प्रतिरोध और अतिक्रमण की भी हरसंभव कोशिश करते हैं। इस संदर्भ में यहाँ संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी 'चिंदी-चिंदी कथा' का उल्लेख जरूरी है। इस कहानी में वेदांत पंडित और अली अरमन दो गहरे मित्र हैं। संयोगवश अली अरमन एक हिंदू लड़की से प्यार कर बैठता है और वहीं से कहानी में सांप्रदायिक ताकतें सक्रिय हो जाती हैं। लेकिन अली प्रेम में विश्वास रखने वाला मजबूत इरादे का व्यक्ति है। वह अपनी हिंदू प्रेमिका रेणु के साथ बिना किसी को कोई सूचना दिए शहर से भाग जाता है। इधर उसकी अनुपस्थिति में पुलिस के दवाब में वेदांत यह स्वीकार करने को विवश हो जाता है कि अली एक आतंकवादी था। वर्षों बाद अली का बेटा वेदांत अली अरमन अपने गुम हो गए या कि मार दिए गए पिता का संदेश लेकर बेदांत के पास पहुँचता है और उससे यह प्रश्न करता है कि क्या एक हिंदू लड़की से मुहब्बत कर लेना टेररिस्ट हो जाना है? यह कहानी धर्मांधता से उत्पन्न विद्रूप विडंबनाओं से उबरने का प्रयत्न करते हुए उस प्रतिक्रियावादी मानसिकता का सार्थक प्रतिरोध करती है जो किसी खास तरह के नाम या वेश-भूषा के आधार पर लोगों का चरित्र तय करती है। इस कहानी में लड़की का हिंदू होना भी बहुसंख्यक मानसिकता से संचालित हिंदू-मुस्लिम प्रेम कहानी के उस फार्मूले को तोड़ता है जिसमें लड़की प्रायः मुस्लिम ही होती है।
संग्रह की शीर्षक कथा 'अधूरे अंत की शुरुआत' प्रभुनाथ उर्फ राकेश कुमार नामक एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो बचपन में हुए यौन उत्पीड़न के कारण यौन कुंठा का शिकार हो जाता है। इस ग्रंथि को छुपाने के लिए प्रभुनाथ अपने इर्द-गिर्द नैतिकता और आदर्श जैसे भारी-भरकम शब्दों की दीवार खड़ी कर लेता है। बावजूद इन प्रयासों के एक दिन उसके जीवन में एक लड़की आती है और वह इस आशा से भर जाता है कि कहीं प्रेम का संस्पर्श उसे उक्त ग्रंथि भार से मुक्त कर दे। लेकिन एक दिन उसके भीतर का जानवर जागता है और वह अपनी प्रेमिका के साथ दुष्कर्म करके भाग खड़ा होता है। अपनी प्रेमिका को लिखे गए उसके पत्र की कुछ पंक्तियाँ हैं - 'मेरे मन के कोने में बचपन से बैठी एक अँधेरी सुरंग... एक ग्रंथि ने मुझे ऐसा करने को उकसाया... दर सल उस समय मैं एक जानवर था... एक ऐसा जानवर जिसके ऊपर जोर की चोट की गई हो और वह खूब गुस्से में बदले की कार्रवाई कर रहा हो...' यौन उत्पीड़ित बच्चे के मन में ग्रंथि का बनना एक असहज और असामान्य दुर्घटना की सामान्य परिणति है लेकिन उस ग्रंथि से निकलने का यह तरीका एक बार फिर अमानवीय और स्त्री विरोधी है। हालाँकि बाद में उस लड़की पल्लवी से सूत्रधार की शादी कराकर लेखक ने उस स्त्री को उस घटना से उबारने का प्रयत्न किया है लेकिन कहानी में एक जगह उसी सूत्रधार का यह कहना कि `उसे कोई लड़की नहीं एक कहानी पसंद आई है' कहीं न कहीं उसके पुरुष होने के विशिष्टताबोध को ही उजागर करता है। इतना ही नहीं जिस तरह यह कहानी पल्लवी का पक्ष जानने की कोशिश किए बिना तीन पुरुषों के बीच घूमती रहती है वह भी कहीं न कहीं लेखक के स्त्री मन तक नहीं पहुँच पाने की असमर्थता या स्त्री पात्र के प्रति उसकी उपेक्षा को ही दिखाता है।
परदे के इधर-उधर संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी है जिसमें दुर्लभ भट्टाचार्या नामक एक व्यक्ति की मनोदशा के बहाने एक बुद्धिजीवी की स्वप्नधर्मिता और उसके स्वप्नभंग से उत्पन्न परिस्थितियों का प्रभावशाली वर्णन किया गया है।
विमलेश एक शब्द सजग कथाकार हैं। भाषा की बारीक बुनावट इनके कहानीकार को अपने समकालीनों के बीच विशिष्ट भी बनाता है लेकिन कहानियों में जरूरत से ज्यादा लेखकीय हस्तक्षेप न सिर्फ कहानी के प्रवाह को बाधित करता है बल्कि कहीं न कहीं इस तरफ भी इशारा करता है कि लेखक को पाठक के विवेक पर भरोसा नहीं है। और हाँ, इन कहानियों में स्त्री पात्रों की अनुपस्थिति या लगभग भूमिकाहीन उपस्थिति भी खटकने वाली है। सवाल यह भी है कि पुरुष की सहृदयता तारणहार होने में ही क्यों है?
अपनी शुरुआती कहानियों से विमलेश ने जो उम्मीद जगाई है वह आने वाले समय में हिंदी कथा जगत में एक जरूरी हस्तक्षेप का रूप ले सके इसके लिए जरूरी है कि वे अपनी आगामी कहानियों खुद से ज्यादा अब तक चुप रह गए पात्रों को बोलने का मौका दें।
कहानी का भविष्य और भविष्य की कहानियाँ
अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के पश्चात आए बहुकोणीय परिवर्तनों को रेखांकित करती इन कहानियों में सामूहिकता और आंदोलनधर्मिता के अभाव को सहज ही रेखांकित किया जा सकता है। लेकिन प्रश्न यह है कि वर्जनाओं और प्रतिकूलताओं के खिलाफ लड़ी जा रही छोटी-छोटी लड़ाईयाँ जब सामाजिक स्तर पर ही एकजुट नहीं हैं तो उन्हें कहानियों में खोजना कहाँ तक जाएज हैं? जब गरीबी, महँगाई, गैर-बराबरी और भ्रष्टाचार जैसे आमजन के मुद्दे पर आंदोलन करने वाली शक्तियाँ, प्रतिरोध के बदले प्रतिरोध का व्यापार चलाने में व्यस्त हों, कहानियों में सामूहिक प्रतिरोध की माँग करना कितना न्याय संगत हो सकता है?
आज के लेखकों और उसके लेखन की चाहे जितनी आलोचना की जाएँ, अपनी मेधा और अपने भाग्य की बदौलत जिम्मेदारी रहित सरकारी नौकरियों का सुख लूट रहे कुछ लोग भले लेखकों की इस जमात को 'सेल्समैन पीढ़ी' का नाम देकर इनकी खिल्ली उड़ाएँ, लेकिन यह सच है कि आज का लेखक पहले की तुलना में कहीं ज्यादा चुनौतियों का सामना कर रहा है। उसे प्राप्त सुविधाओं के साथ-साथ उसके आगे खड़ी जटिलताओं को भी देखा जाना चाहिए। आज का लेखक दो मोर्चों पर लड़ रहा है। अपनी निजी और पारिवारिक जिम्मेवारियों का कुशलता पूर्वक निर्वहन करते हुए या कि उसके उपाय खोजने की जद्दोजहद करते हुए लिखना कोई खेल नहीं है। उसे साहित्य तो लिखना ही है, अपनी संततियों से यह भी नहीं सुनना है कि 'लेखक हो कर आपने समाज के लिए क्या किया पता नहीं, लेकिन हमारे लिए क्या किया?' विगत में देखे गए सपनों के टूटने और सामने से आकर्षित कर रही सुख-सुविधाओं की नई दुनिया की अभिसंधि पर बैठा नया लेखक पूर्णकालिक और परंपरागत अर्थों में रूढ़ हो चला आंदोलनधर्मी लेखन नहीं कर सकता। उसकी सीमाएँ, उसके सपने और उसके सामने खड़ी चुनौतियाँ शायद उसे यह करने भी न दें। आज भूमंडलीय यथार्थ का हौवा और उसका भय खड़ा करने से ज्यादा उसके निहितार्थों को समझने और उसके अर्थपूर्ण और विवेक सम्मत विकल्प तलाशने की जरूरत है। मतलब यह कि 'आज साहित्य आंदोलनरहित क्यों है' का जवाब 'समाज आंदोलनरहित क्यों है' के प्रतिप्रश्न में खोजा जा सकता है? इसका मतलब यह कतई नहीं है कि समकालीन चुनौतियों के आगे घुटने टेक दिए जाएँ। यकीन मानिए, ऐसा हो भी नहीं रहा है। प्रतिकूलताओं के प्रतिरोध का सिलसिला जारी है... कुछ प्रायोजित चर्चाओं और उसके खंडन-मंडन की राजनीति से बाहर निकल आज उन कहानियों को रेखांकित किए जाने की जरूरत है जो जीवन की छोटी-छोटी धुकधुकियों और उसके लिए किए जा रहे संघर्षों की बेवाक गवाहियाँ हैं। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं लगाया जाए कि आज की कहानियाँ अपनी सारी जवाबदेहियाँ कुशलतापूर्वक निभा रही हैं। जिस तरह हमारे समय की अधिकांश कहानियाँ अपने समय का क्रिटीक रच कर अपनी भूमिका पूरी मान लेती हैं, वह कदापि पर्याप्त नहीं हैं। अब समय आ गया है कि कहानियाँ अपने कथानक और उसके यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए नए यथार्थों के अन्वेषण की दिशा में अपने समय के संभावित विकल्पों की तरफ भी इशारा करें। आलोचना और लेखन के इन्हीं दो छोरों के बीच कहानी का भविष्य और भविष्य की कहानियाँ छिपी हैं। आप चाहें तो इसे कहानी के नए आंदोलन की प्रस्तावना भी कह सकते हैं।