आंदोलन की लहरें, सत्ता के पथरीले किनारे / जयप्रकाश चौकसे

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आंदोलन की लहरें, सत्ता के पथरीले किनारे
प्रकाशन तिथि : 29 दिसम्बर 2012


प्राय: यह माना जाता है कि पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग राजनीति या सामाजिक समस्याओं से दूर रहता है। अमीर वर्ग अपने संगमरमरी बुर्ज में महफूज रहता है, परंतु अन्ना हजारे के आंदोलन में एक विशेष दल के कार्यकर्ताओं की संख्या से अधिक आम मध्यम वर्ग के लोग शामिल थे और हाल ही में बलात्कार विरोध में भी आम आदमी, विशेषकर विद्यार्थी वर्ग शामिल था। यह अलग बात है कि भीड़ में शरारती तत्वों को आने से नहीं रोका जा सकता और यह खतरा हमेशा बना रहता है कि भीड़ में विदेशी आतंकवादी भी मौजूद हो सकते हैं। इस तरह की भीड़ बारूद के ढेर की तरह होती है और दियासलाई जेब में रखकर चलने वालों की कमी नहीं है। आंदोलन गणतंत्र व्यवस्था में जनता के लिए अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति का माध्यम है। हमने तो आंदोलन करके ही साम्राज्यवाद से मुक्ति पाई है। इस मामले का दुखद पहलू यह है कि प्राय: आंदोलनों में समस्या की जड़ पर प्रहार करने का मुद्दा शामिल ही नहीं होता, पूरा आंदोलन मात्र लोकप्रियता की लहर पैदा करता है, जो सत्ता के सख्त किनारों से टकराकर बेअसर साबित होती है। आंदोलनों में जड़ पर प्रहार को शामिल करते ही वे सस्ती लोकप्रियता के दायरे से उठकर परिवर्तन प्रस्तुत कर सकते हैं। मसलन अन्ना हजारे ने कभी यह नहीं कहा कि भ्रष्टाचार की जड़ में सांस्कृतिक शून्य है या जीवन मूल्यों का पतन है और इन्हें परिवार नामक समाज के मूल अंग द्वारा ही रोका जा सकता है। परिवार अपने बच्चों को निर्मम प्रतियोगी की तरह पाल रहे हैं। वे उसे जागरूक नागरिक बनने का पाठ नहीं पढ़ाते। हमारी तमाम शिक्षा संस्थाएं भी भौतिक सफलता हथियाने के तरीके ही सिखा रही हैं।

इसी तरह दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ हुए आंदोलन में भी मूल बात नहीं प्रस्तुत की गई कि स्त्री के प्रति हमारा रवैया बदलना चाहिए। हमारे समाज ने लंपटता को एक व्यावहारिक सत्य की तरह स्थापित कर दिया है और इच्छाओं का गणतंत्रीकरण भी हमने कर लिया है, परंतु जागरूक नागरिकता और उसके दायित्व हाशिये में धकेल दिए गए हैं। हमने स्वतंत्रता के साथ जुड़े कर्तव्यों की दुहाई कभी नहीं दी और हमारे लिए अराजकता और स्वतंत्रता में कोई अंतर नहीं है। /

पुलिस व्यवस्था से हम बहुत आशाएं करते हैं, परंतु पुलिस को राजनीतिक दबाव से मुक्त करने की बात कभी नहीं की जा सकती। उनके उपकरणों के नवीनीकरण पर कभी विचार नहीं किया गया। आज दुनिया के समृद्ध देशों में पुलिस के पास आधुनिकतम सुविधाएं उपलब्ध हैं। कभी यह आकलन प्रस्तुत नहीं हुआ कि अन्य देशों का पुलिस वेतन और हमारी पुलिस का वेतन क्या है? पुलिस ट्रेनिंग संस्थाओं में बाबा आदम के जमाने का पाठ्यक्रम है। दरअसल सारी गड़बड़ी इस बात से शुरू हुई कि देश में आधुनिकीकरण के नाम पर इंफ्रास्ट्रक्चर का अर्थ केवल यह लिया जा रहा है कि आवागमन और संचार साधनों का विकास किया जाए, परंतु इंफ्रास्ट्रक्चर(अधोसंरचना) में शामिल है सुदृढ़ कानून व्यवस्था। दरअसल कानून व्यवस्था के ढीलेपन के कारण हमारा पर्यटन उद्योग अत्यंत पिछड़ा रह गया है। सिंगापुर, बैंकाक, स्विट्जरलैंड इत्यादि जगहों पर लोग वहां की सुचारू रूप से चलाई जा रही कानून व्यवस्था के कारण जाते हैं। हमारे यहां तो डर लगता है। विदेशी पर्यटकों से दुष्कर्म हमारी उसी लंपटता का हिस्सा है, जिसको हमने मन में जायज मान रखा है। हमारे आख्यानों में दुष्कर्म के अनेक प्रसंग हैं और वे हमारे अवचेतन का हिस्सा बन चुके हैं।

क्या यह एक भयावह तथ्य नहीं है कि जिस दिल्ली में निरंतर आक्रोश अभिव्यक्त किया जा रहा है, उसी दिल्ली में फिर एक बलात्कार की खबर आ रही है। क्या किसी को कोई खौफ नहीं है? सच्चाई यह है कि समाज से संवेदनाएं नदारद हो गई हैं। इस देश की चमड़ी मोटी है। शिराओं में अंधविश्वास और कुरीतियां सतत प्रवाहित हैं और अवचेतन पर अराजकता का कब्जा है। अवचेतन भी नियंत्रित एवं अनुशासित होते हैं। इस ताजे आंदोलन में बलात्कार की सजा मृत्युदंड हो, ऐसी मांग है। कल यह मांग उठेगी कि चौराहे पर पत्थर मारकर बलात्कारी को मारा जाए। सारांश यही है कि हम जंगल कानून की ओर लौटना चाहते हैं। अब हम उन देशों के कानून की मांग कर रहे हैं, जिन्हें हम सदियों से नापसंद करते रहे हैं। हमने गुजश्ता साठ-पैंसठ सालों में गणतंत्र व्यवस्था का ही बलात्कार कर दिया है और मात्र नेता इसके लिए जवाबदार नहीं हैं। हर नागरिक आंशिक रूप से जवाबदार है। हमारी शादी पर ही गौर कीजिए कि दूल्हे को एक योद्धा की तरह कटार, तलवार से लैस घोड़े पर विजेता की तरह ले जाते हैं, बरातियों की मानसिकता सामंतवादी होती है। दूल्हा दुल्हन को ट्रॉफी या पराजित राज्य की तरह ले जाता है। उसके साथ जीती हुई जमीन की तरह मनमर्जी का व्यवहार किा जाता है। यह सोच बदलना जरूरी है। पूरा देश खाप पंचायत की तरह संचालित है और प्रेम से डरने का पाठ ही पढ़ाया जा रहा है, क्योंकि प्रेम की रोशनी से अंधविश्वास और कुरीतियों के प्रेत घबराते हैं।