आंवा / चित्रा मुद्गल / पृष्ठ 2

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हताश स्वर में वह बातचीत का रूख मोड़ती।

‘‘कामकाजी महिलाओं के लिए दो सहूलियतें बंबई में होनी बेहद जरूरी हैं।’’

‘‘मसलन ?’’

‘‘यही कि महिलाओं के लिए विशेष गाड़ियां चलाई जानी चाहिए- पूरी की पूरी।’’

‘‘दूसरी ?’’

‘‘प्लेटफार्म नितांत अलग होने चाहिए। उनके आने-जाने की सीढ़ियां और पुल भी।’’

‘‘अखबार के दर्शन कब से नहीं हुए मुझे ?’’

‘‘अरसे से। बाबूजी के बिस्तर लगते ही कटौतियों की मार अखबार पर सबसे पहले पड़ी। ट्रांजिस्टर पर कब से नहीं सुना ?’’

‘‘क्यों ?’’

‘‘लगता है, तू इस दुनिया में नहीं रहती।’’ कुएं के मेंढक की तरह उसका अपने घर तक सीमित हो जाना हर्षा को विचित्र लगा।

‘‘रहती तो इसी दुनिया में हूं।’’

‘‘इसी दुनिया में रह रही होती तो मुझे पता होता कि रेलवे वाले कम अंतर्यामी नहीं। तेरी मरजी का अनुमान हो गया था उन्हें, सो उन्होंने कार्यालय के समय पर चर्चगेट और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दोनों ही स्थानों में महिलाओं के लिए पूरी की पूरी लोकलें शुरू कर दी हैं। काफी अरसा हो गया।’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी खबर है।’’

‘‘हाँ, मगर पिछले हफ्ते हुई भयानक रेल दुर्घटना ने रेल अधिकारियों को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिया।’


‘‘मतलब ?’’ उसे अपनी अल्पज्ञता पर वाकई खिसियाहट हुई।

‘‘एक डिब्बे में बिजली की मामूली-सी चिनगारी तड़तड़ाई नहीं कि विस्फोट के भय से लगभग चालीस महिलाएँ जान बचाने की खातिर भड़भड़ाकर डिब्बे से कूद पड़ीं और दूसरी ओर चली आ रही लोकल के नीचे आकर कूद मरीं।’’

उसने अविश्वास से सिहरकर आंखें मींच लीं।

‘‘रेलवे विशेषज्ञों ने दुर्घटना की समीक्षा की।’’

दहली चितवन से उसने हर्षा की ओर देखा।

‘‘विशेषज्ञों का निष्कर्ष था कि उस डिब्बे में अगर पुरुष सहयात्री भी होते तो निश्चित ही यह दर्दनाक दुर्घटना टल जाती। उनका कहना है कि स्त्रियों की तुलना में मर्द आपदा-विपदा में अधिक विवेकशील और साहसी होते हैं।’’

‘‘हुंह ! मर्द विशेषज्ञों ने की होगी दुर्घटना की समीक्षा। कितना भी दर्दनाक हादसा हो, तमगा पहनने के लिए फौरन छाती फुलाकर खड़े हो जाएंगे।’’

‘‘खड़े क्यों न हों ! छुईमुई बनकर तुम अपने लिए अलग ट्रेनें, प्लेटफार्म पुल, सीढ़ियां, सड़कें-पूरा प्रतिसंसार मांगोगी तो भूल क्यों रहीं, स्वयं अपने हाथों उन्हें तमगे नहीं पहना रहीं !’’

हर्षा गलत नहीं कह रही।, वह करे तो क्या करे ? भीड़ से भिड़ने-बचने का है कोई अमोघ अस्त्र उसके पास ? बरसों से खोई सामर्थ चुटकी बजाते हासिल होने से रही। बातें चाहे जितनी, छौंक बघार लो।

‘‘हिम्मत करो तो सुझाऊं फार्मूला फोर्टी फोर ?’’ हर्षा का स्वर अचानक खुसफुसाहट में बदल गया, ‘‘छोटा-सा सूजा रखा कर अपने पर्स में और गाड़ी में चढ़ते-उतरते निकालकर चांप लिया कर मुट्ठी में।’’ कौतुहल से भरकर उसने हर्षा की ओर देखा।

‘‘दिमाग तो नहीं चल गया तेरा ?’’

‘‘दिमाग न चल रहा होता तो तुझे सूजा मुट्ठी में चांपने के लिए कहती ? अचूक इलाज है, यार ! भीड़ जैसी ही चुटकी काटने के लिए कसमसाए, धीरे से तू सूजे वाला हाथ आगे बढ़ा दे। फिर देख ततैया का नाच-छूम-छननन, छूम-छननन....’’ अचानक उसने पाया कि वह महिलाओं के डिब्बे के सामने पहुंच गई है और गाड़ी छूटते ही गति पकड़ रही है।

खयालों से कटकर वह बिजली की-सी फुर्ती से दरवाजे की ओर लपकी और हैडिंल मुट्ठी में आते ही वेग पकड़ती लोकल के संग लगभग आठ-दस कदम घिसटती हुई, सर्कस की-सी कुशलता से देह साध, छलांग भर, डिब्बे के भीतर हो ली। धड़धड़ाती गति एक पल के लिए तो अपने ही दुस्साहस पर स्तब्ध हो कुछेक पलों के लिए फेफड़ों में पलटना ही बिसर गई। कहां भटक गई ?

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