आइन रैंड से प्रेरित है कंगना रनोट? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :15 सितम्बर 2017
प्राय: फिल्मवाले अपने साथ किताब जरूर रखते हैं और उनके लिए किताब, आईना तथा कंघा रखना समान महत्व रखता है। आईना और कंघा तो उनके मेक-अप किट की महत्वपूर्ण चीजें हैं परंतु किताब स्वयं को पढ़ने का शौकीन बताने के लिए रखते हैं। वे बैलेंस शीट बखूबी बढ़ा लेते हैं परंतु किताब तो उनके स्वांग का एक हिस्सा है। अशोक कुमार और देव आनंद बाथटब में लेटे हुए किताब पढ़ते थे। टब में पैंतालीस मिनट काटने के लिए पुस्तक पढ़ी जाती थी। उनका पढ़ना कुछ ऐसा था जैसे कोई बादलों से गुजरे परंतु न तो उसकी आर्द्रता को महसूस करे और न ही उसमें रहने वाली बिजली को थामे।
गुजरे एक दौर में भारत भूषण ने 'बैजू-बावरा' जैसी अनेक संगीत प्रधान फिल्मों में अभिनय किया था। वे सच्चे और जागरूक पाठक थे परंतु फिल्म निर्माण की निर्मम प्रक्रिया में उन्हें घाटा हुआ तो उन्हें अपना बंगला भी बेचना पड़ा। वे अपने पुस्तकालय को बचा नहीं पाए परंतु कुछ समय पश्चात उन्होंने पुरानी पुस्तकों की एक दुकान पर अपने संग्रह की एक किताब देखी तो उन्हें ज्ञात हुआ कि नए खरीदार ने सारी किताबें रद्दी में बेच दी थीं। घर का बिकना सहने वाले भारत भूषण के लिए पुस्तक का यह अपमान सहना कठिन हो गया। उनकी मृत्यु का कारण कोई भी बीमारी रहा हो परंतु असल कारण तो पुस्तक का अपमान ही था।
एक धनाढ्य व्यक्ति ने अपनी आलीशान कोठी में एक बड़ा पुस्तकालय भी बनाया था, क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों की कोठियों में इस तरह का कक्ष देखा था। उन्होंने अपने घर की साज सज्जा करने वाले को निर्देश दिया कि सभी प्रसिद्ध किताबों से वाचनालय को सजा दो और 'हां, बाजार से कुछ जासूसी दुनिया, शमा, सुषमा, माधुरी, फिल्मफेयर पढ़ने के लिए ले आना'। इसे कहते हैं हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और।
भोपाल के महान पुस्तक प्रेमी डॉ. शिवदत्त शुक्ला ने मुझे एक रोचक किताब दी थी, जिसमें वाचनालय के कर्मचारी के युवा पुत्र को एक पुस्तक मनभावन लगती है तो उसके गुमशुदा माने गए लेखक की तलाश में अपने जीवन के कई वर्ष लगा देता है और अंततोगत्वा सफल होता है। कार्लोस रुइज की किताब का नाम था 'शेडो ऑफ द विंड' जब भी किताब का नाम लेता हूं तो जेहन में हॉलीवुड की एक फिल्म का प्रथम दृश्य याद आता है। एक भव्य हवेली के चारों ओर विविध फूलों के पौधे लगे हैं और जगह-जगह चेतावनी अंकित है कि फूल तोड़ना कानूनी अपराध है। आंधी आती है और तमाम फूल नीचे गिर जाते हैं तो कोठी के मालिक का विद्रोही बेटा ठहाका लगाकर कहता है 'माफ करना पिताजी, इन गुस्ताख हवाओं को पढ़ना नहीं आता'। वक्त की गुस्ताख हवाएं किसी भी तानाशाह से डरती नहीं। आजकल विकास के खंजर इमारतों की शक्ल में धरती में धंसे हैं और धरती के भीतर बुलेट दौड़ाई जा रही है। क्रोधित धरती कभी भी करवट ले सकती है।
बहरहाल, 'क्वीन' कंगना रनोट का साक्षात्कार एक अखबार में प्रकाशित हुआ है और वे आइन रैंड के 'फाउंटेनहेड' नामक उपन्यास के साथ नज़र आ रही हैं। पोलैंड की रहने वाली मिस रैंड 1929 में अमेरिका में बसीं और उनकी अंग्रेजी भाषा में लिखी यह किताब 1939 में प्रकाशित हुई और अब तक सौ बार छपी है। इस किताब में एक जगह यह विचार अभिव्यक्त किया गया है कि दो प्रकार के दंड विधान होने चाहिए। एक सामान्य जन के लिए और दूसरा लचीला असाधारण प्रतिभाशाली लोगों के लिए। ज्ञातव्य है कि रैंड पूंजीवादी व्यवस्था की समर्थक थीं और साम्यवादी रूसी भाषा के महान लेखक फ्योदोर दॉस्तोवस्की भी अपनी कालजयी 'क्राइम एंड पनिशमेंट'में दो दंड विधान की बात अभिव्यक्त करते हैं। यह प्रकरण नकल जैसी बचकानी बेहूदा बात का नहीं है। दो विपरीत राजनीतिक आदर्श में पलने वालों के विचारों में समानता का है। संभवत: रैंड के पोलैंड में पैदा होने से इसका संबंध है।
क्या कंगना रनोट की विचार प्रक्रिया पर लेखिका रैंड के नायक हावर्ड रोर्क का प्रभाव है? उपन्यास की पृष्ठभूमि आर्किटेक्चर है। भवन बनाने का विज्ञान और कला। नायक की अवधारणा है कि भवन धरती के सीने में मारे गए चाकू की तरह नहीं होना चाहिए वरन धरती से उत्पन्न पौधे की तरह होना चाहिए। खंजर बनाम पौधा ही असल युद्ध है।
क्या स्वयं कंगना रैंड के नायक हावर्ड रोर्क की रह आचरण करने लगी हैं? किताबों का प्रभाव जबरदस्त होता है। छठे दशक में धर्मवीर भारती के भावना की चाशनी से लबरेज उपन्यास 'गुनाहों का देवता' के प्रभाव में युवाओं ने प्रेम किया परंतु अपने प्रेम के लिए संघर्ष न करते हुए अपनी प्रेमिका की बारात के जूूठे पत्तलों को उठाने में गर्व महसूस किया। वर्षों बाद भारतीजी खुद अपनी रचना के बचकानेपन पर दु:ख व्यक्त कर चुके हैं। ज्ञातव्य है कि 'गुनाहों के देवता' पर फिल्म 'एक था चंदर' की चंद रीलें बनी हैं। संभवत: अमिताभ बच्चन नायक थे। बाद में 'गुनाहों के देवता' नाम से जितेन्द्र अभिनीत फूहड़ फिल्म बनी जिसका उपन्यास से कोई संबंध नहीं था। उसका निर्माता उपन्यास के अधिकार खरीदना चाहता था परंतु भारतीजी ने इनकार कर दिया। उसने बदले स्वरूप से उनका नाम ही उड़ा दिया। बौने लोग दूसरों को भी बौना बनाने का प्रयास करते हैं।