आइये स्वर्ग चलते हैं / सुभाष चन्दर
सारे जहां से अच्छे हमारे इस हिन्दोस्तां में मरने के बाद सीधे स्वर्ग में जाने का रिवाज है। ज्यों ही बंदे की जिंदगी का टिकट कटता है, बंदा सीधा स्वर्ग लोक का आरक्षण करा लेता है। बीच में कोई स्टॉमप नहीं, गाड़ी सीधी स्वर्ग लोक के प्लेटफार्म पर। बहुत सी दुखी आत्माओं द्वारा किसी व्यक्ति के सशरीर नरक लोक जाने की भविष्यवाणियां की जाती है। बड़े-बड़े कयास लगाये जाते हैं। किंतु न जाने क्या होता है कि जिंदगी के खर्च होते ही नरक लोक का गेट बंद हो जाता है और स्वर्ग लोक का वन साइड ट्रेफिक शुरू। जीते जी तो कमबख्त नरक लोक नेताओं के आश्वासन फल की तरह अदृश्य भी हो जाता है और मृत्यु प्राप्त मनुष्य के नाम के आगे स्वर्गीय का लेबिल चस्पां कर जाता है। नारकीय कमबख्त कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता।
वैसे भी साब, स्वर्ग देखने लायक जगह है। फिल्मों में स्वर्ग के दृश्य भी क्या बढ़िया दृश्य दिखाई देते हैं। चारों तरफ रेशमी रंग-बिरंगी झालरें बीच में एक सिंहासन। सिंहासन पर हाथ में सोमरस का गिलास लिए बैठा एक क्लीन शेव्ड चेहरा। चारों तरफ हरी-भरी अप्सराएं। जिनका एक काम कपड़ों से यथासंभव खुद को बचाए रखना होता है तो दूसरा सर्दी-गर्मी की चिंता किए बगैर राजा को पंखे झलते रहना। सामने रंभा-मेनका का खूबसूरत कैबरे। भला फिर कौन नहीं चाहेगा स्वर्ग जाना?
जैसे हमारे कस्बे के ही एक लाला रामदीन थे। बड़े ही धार्मिक प्रवृत्ति के जीव थे। शायद ही कोई प्रातःबेला ऐसी हो जब गांव के कुंए पर स्नानरत महिलाओं के पावन दर्शन के कारण, उन्होंने किसी महिला से गालियों का आर्शीवाद प्राप्त न किया हो। कभी-कभी प्रसाद की मात्रा मुख से न होकर चरण-पादुकाओं के माध्यम से भी वितरित की जाती थी। तब लालाजी का मुख शीतलता छोड़कर बाल सूर्य जैसी लालिमा ग्रहण कर लेता था। वे सच्चे अर्थों में समाज सुधारक एवं समदर्शी थे। उन्होंने मेहतरानी हो या सेठानी, किसी की चप्पलों का बुरा नहीं माना।
लालाजी को बालों की कटाई की कभी आवश्यकता ही न हुई। चरण पादुकाओं से लगातार स्पर्श-सुख लेने के कारण उनके सिर की जमीन एकदम बंजर हो गयी थी, जिस पर बालों की फसल उगाना असंभव था। इस धार्मिकता के अतिरिक्त लालाजी निष्ठावान पत्नीव्रती सज्जन भी थे। ललाइन साहिबा मुक्त कंठ की गलियों से उनकी खूब सेवा करती थी और इस सेवा के बदले डंडा मेवा भी प्रसन्नता से ग्रहण करती थी। इससे मनोरंजन के भूखे पड़ोसियों को मुफ्त में नाटक देखने को मिलता था। ललाइन सदैव भगवान से प्रार्थना करती थी कि ऐसे धार्मिक पुरुष को तो वह अपने पास जल्दी से जल्दी बुला लें तो अच्छा होगा।
इसके साथ ही उनका विश्वास था कि यदि लालाजी जीते जी शरीर में कुछ कीड़ों और कोढ़, महामारी जैसी बीमारियों को घर बनाने देंगे तो कीड़ों के साथ उन्हें भी पुण्य की प्राप्ति हो जाएगी। यही नहीं अड़ोसी-पड़ोसी, नाते रिश्तेदार सभी लालाजी के कृत्यों से बेहद प्रसन्न रहा करते थे, जैसे ही उन्हें घर की ओर आते देखते, प्रसन्नता के अतिरेक में अपनी घर की बहू-बेटियों को घर के अंदर भेज देते थे। लालाजी की हरेक बात लोगों को प्यारी थी और घर से बाहर जाते हुए तो वे उन्हें हमेशा अच्छे लगते थे। घरों में हाथ-सफाई कला का प्रदर्शन करने वाले लोगों से लालाजी का बहुत अच्छा संबंध था। ऐसे महान कलाकारों की कलाकृतियों के वे अच्छे प्रशंसक थे।
अपनी दुकान के समान में मिलावट करने को उन्होंने हमेशा पाप समझा। दुकान के मामले में वे बराबरी के सिद्धांत का अवश्य पालन करते थे। इसलिए उन्होंने दाल और कंकर, हल्दी और पीली मिट्टी में कभी भेदभाव नहीं किया। वे इस मामले में भारत के संविधान में वर्णित समानता के मौलिक अधिकारों के पक्षपाती थे।
बुड्ढा मर जाए तो पीछा छूटे‘, ’कमबख्त नरक में जाएगा‘ का मधुर प्रसारण रोज प्रातःकाल उनके पुत्रों के मुख से सुनने को मिलता था। मैं भी यह देखकर बड़ा आशान्वित था कि कम से कम एक बंदा तो मिला जिसे मरने के बाद नारकीय की उपाधि से जरूर अलंकृत किया जाएगा।
कुछ दिनों बाद एक दिन आधी रात को लालाजी की जिंदगी की गाड़ी ने सचमुच प्लेटफार्म छोड़ दिया। मैं बड़ा खुश था कि अब लालाजी को नारकीय की उपाधि से विभूषित किया जाएगा, और सुनने, देखने में कितना अच्छा लगेगा ‘नारकीय लाला रामदीन जी‘। किंतु हाय! मेरी आशाओं की नई कमीज पर बच्चे ने शूशू कर ही दी।
हुआ ये कि देहावसान के कुछ दिनों बाद जब मैं उनकी दुकान के आगे से गुजरा तो दुकान पर लालाजी का शीशे में मंढा बड़ा सा फोटो लगा पाया जिस पर फूल-मालाएं चढ़ी हुई थीं। फोटो के नीचे लिखे बड़े-बड़े अक्षर मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे ‘स्वर्गवासी लाल रामदीन जी की दुकान यही है‘। आश्चर्य उस दुकान में गद्दी में उनके वही दोनों सुपुत्र विराजमान थे जिन्होंने उनके नरक जाने की जमकर वकालत की थी।
साब रामदीन और भी हैं। पूरा देश रामदीनों से भरा पड़ा है। स्वर्ग जाने का रिवाज है। रिवाज भी भला कोई तोड़ता है। तोड़ना है तो कानून जैसी चीजें तोड़ो। संसद से लेकर सड़क तक सब स्वर्ग की बुकिंग कराये बैठे हैं। कुछ अपनी बुकिंग कराते हैं तो कुछ स्वयंसेवी दूसरों के टिकट कटाते हैं। सबको स्वर्ग जाने और भेजने की जल्दी है। आतंकवादी स्वर्गलोक के सबसे बड़े एजेंट हैं। उनको तो स्वर्ग के सबसे कर्मठ कर्मचारी का पुरस्कार मिलना चाहिए। नूरजहां ने कश्मीर को देखकर कहा था दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वो यहीं है- यहीं है। आतंकवादियों ने नूरजहां के शब्दों का पूरा सम्मान दिया। काफी कश्मीरी स्वर्गवासी हो चुके हैं और कुछ कूच होने की तैयारी में हैं। ईश्वर की कृपा रही तो वो भी जल्दी ही स्वर्ग जाकर भाई-बंदों से मिल लेंगे।
अन्य बहुत सी संस्थाएं भी इस धर्म के काम में जुटी हैं। रेल सेवा को ही देख लीजिए, हर साल हजार दो हजार को स्वर्ग की फ्री सैर कराती है। सरकारी बसें भी अच्छा काम कर रही हैं। उन्हें तो दूर से देखकर ही लगता है कि सीधा स्वर्ग वाहन आ रहा है। पिछले साल में उसने केवल छःसौ लोगों को स्वर्ग के दर्शन कराये थे। आशा है कि आने वाले दिलों में धर्म-कर्म की रफ्तार और बढ़ेगी। बशर्ते कि ईश्वर और सरकार इस पुण्य के काम में उनका साथ देते रहें।
सरकारी अस्पतालों में भी स्वर्ग की अच्छी संभावनाएं मौजूद हैं। दवाएं और इलाज इसमें बाधा डालते हैं इसलिए दवाइयां मेडीकल स्टोरों पर पहुंच जाती हैं तो इलाज निजी क्लीनिकों में। आखिर स्वर्ग भेजने का श्रेय अकेला सरकारी अस्पताल ही क्यों लें? क्लीनिकों को भी योगदान देना चाहिए।
स्वर्ग जाने के बहुत से रास्ते हैं। कुछ पुण्यात्मा जमीन से ही यात्रा करते हैं तो कुछ पाताल से। कुछ लोगों को आसमां की ऊंचाइयों में लुत्फ आता है। कुछ साल पहले की बात है कि हमारे एक महामहिम आकाशमार्ग से ही स्वर्ग पहुंच गये। महामहिम बहुत शरीफ और ईमानदार थे। ईमानदारी और दो-दो राज्यों के बोझे से कंधे तक जकड़ गये थे। एक बार कंधे सीधे करने के लिए हवाई जहाज में सैर कर रहे थे। जहाज सरकारी था, बीबी-बच्चों की पिकनिक भी सरकारी थी। साथ में ईमानदारी भी थीं। ईमानदारी जो थी वो ब्रीफकेसो में बंद थी। स्वर्गलोक से निमंत्रण पत्र आ गया। उन्होंने कोशिश की कि ईमानदारी साथ ले जाई जाये। ईमानदारी जो थी वो करोड़ों में थी। महामहिम की ईमानदारी थी इससे कम क्या होती? क्यों छोड़ते, ईमानदारी भी कोई छोड़ने की चीज है? पर फरिश्तों ने एक न चलने दी, कहा कि वहां इंडियन करेंसी की ईमानदारी नहीं चलती। सो ईमानदारी मय ब्रीफकेसों के जहाज से बिखेर दी गई। कुछ देर से हवाई जहाज जमीन पर आ गया और वह सीधे स्वर्ग पहुंुच गए। वैसे उनकी ईमानदारी को देखते हुए जरूर उन्हें स्वर्ग का एक्जीक्यूटिव क्लास मिला होगा। बाद में सरकार ने उनकी ईमानदारी के ऊपर शोध किया तो बची-खुची ईमानदारी राजभवन से मिल गई।
मैं इस सबको देखते हुए इस नतीजे की जंजीर थामे बैठा हूं कि जब हर कमबख्त ऐरा-गैरा, नत्थू खैरा स्वर्ग जा रहा है तो मैं भला क्यूं ना जाऊं। साब मैं तो सशरीर स्वर्ग जाने के मूड में हूं। लड़कियां छेड़ने से लेकर ट्रक के नीचे आने तक के सारे शार्टकट अपना कर देख चुका हूं। लेकिन सिवाय सिर पर उभरे गूमड़ और हाथ पर बंधे प्लास्टर के, मेरी और कोई उपलब्धि नहीं हैं। अंत में थक-हारकर मैं यह व्यंग्य लिखे दे रहा हूं, सोचता हूं शायद आपको ही मुझ पर दया आ जाये। और आप हाथ में मेरा स्वर्गलोक का टिकट लिए जा रहे हों ना। आ रहे हैं ना स्वर्ग, सच बड़ी अच्छी जगह है। आइये स्वर्ग चलते हैं।