आईन अकबरी और उपसंहार / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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यद्यपि जो बातें इन पश्‍चिम आदि ब्राह्मणों के विषय में लिखी गई है वे सार्वजनिक और स्पष्ट है, इसलिए इन सबों के रहते हुए इस समाज के विषय में किसी प्रकार की शंका करना या मिथ्या दोषारोपण करते हुए असभ्यतापूर्ण शब्दों का प्रयोग करना बुद्धिमान, सभ्य और प्रतिष्ठित के लिए उचित न था और न है ही। तथापि मध्य में उल्लूपक्षी को अंधकारमय ही जगत प्रतीत होता है, अथवा श्रावण मास में किसी प्रकार से नेत्रहीन हो जानेवाले को बारह महीने हरियाली ही सूझती है, प्रकृति के इस अटल नियम को कौन हटा सकता है? अथवा यों कह सकते हैं कि दुष्टों की प्रकृति भी विचित्र ही हुआ करती है। इसलिए उनके निकट अच्छी बात भी बुरी ही लगती और उसे उलटी ही समझते हैं, क्योंकि उनके लिए कोई औषधि नहीं है। जैसा कि किसी कवि ने सत्य ही कहा है:

सब की औषधि जगत में, खल की औषधि नाहिं।

चूर होंहि सब औषधी, परिके खलके माहिं॥

इसीलिए ऐसे महात्माओं के लिए ये सब जले तवे पर पानी की तरह उलटा दोष ही सूझने के साधन हो जाती है। क्योंकि :

गुणायन्ते दोषा: सुजनबदने दुर्जनमुखे,

गुणा दोषायन्ते न खलु तदिदं विस्मयपदम्।

यथा जीमृतो यं लवणजलधेर्वारि मधुरम्,

फणी पीत्वा क्षीरं वमति नगरं दु:सहतरम्॥

अर्थात 'यदि सज्जन पुरुषों के पास या उनकी दृष्टि में दोष भी गुण की तरह और इसके विपरीत दुर्जनों के लिए गुण भी दोष की तरह प्रतीत होते हैं, तो इसमें आश्‍चर्य ही क्या हैं? क्योंकि मेघ समुद्र के खारे जल को भी पी कर मीठा ही जल बरसाया करता है और साँप दूध को पी कर विष ही उगलता है।'

इसलिए ऐसी दशा में ऐसे महात्मा लोग इस समाज या अन्य के विषय में जो कुछ भी 'मुखमस्तीति वक्‍तव्यं दशहस्ता हरीतिकी', अर्थात 'यदि परमात्मा ने मुख दिया है तो क्यों न कह देंगे कि दस हाथ की हड़र (हरीतकी) हुआ करती है?' इस न्यायानुसार अपने बेलगाम और पवित्र मुँह तथा लेखनी से कह या लिख कर अपनी सज्जनता का परिचय न दे उसी में आश्‍चर्य है।

ऐसे ही सज्जनों में 'क्षत्रिय और कृत्रिम क्षत्रिय' नामक अंग्रेजी ग्रन्थ के रचयिता बाबू कुँवर छेदासिंह जी बी.ए. बैरिस्टर-ऐट-ला (Barrister-at-law) और उसके हिंदी अनुवादक, कुँवर रूपसिंह जी है। वह ग्रन्थ राजपूत प्रेस, आगरा में छपा है। हम नहीं कह सकते कि शिक्षितता, सुधारकता और सभ्यता का दम भरनेवाले नवशिक्षादीक्षित दल के अन्त:पाती उक्‍त बैरिस्टर महोदय जी की ही पवित्र लेखनी से क्यों ऐसे 'वाग्वज्र' निकल गए, जो अकारण दूसरों के मर्मवेधी है?

अथवा उनका शरीर न रह गया, इसलिए पीछे से उनके ही नाम को बदनाम करने के लिए टट्टी की ओट से उनके किसी मिथ्याचारी, अकारण परद्रोही और स्वार्थान्धा पूज्य अथवा प्रिय भाई ने शिकार खेल कर अपने हृदय की कान निकाली है, क्योंकि यदि चोरी गई तो कम से कम तुम्बाफेरि तो नहीं छूटा करती है।

अथवा अनुवादक महोदय की ही असीम कृपा हो सकती है। क्योंकि उक्‍त अंग्रेजी ग्रन्थ हमें न मिल सका, केवल भाषानुवाद ही हमारे सन्मुख है। परंतु शिक्षितों की लेखनी से ऐसे शब्दों की संभावना करने में जरा चित्त हिचकता है।

अस्तु, जो कुछ भी हो, उस ग्रन्थ की बात को देखिए। उसके 63वें पृष्ठ में खत्रियों के बनावटी या कृत्रिम क्षत्रिय सिद्ध करने के प्रसंग से आपके भूतपूर्व खत्री अबुलफजल रचित 'आईन अकबरी' नामक ग्रन्थ का विचार किया है। क्योंकि उसमें कहीं-कहीं खत्रियों को क्षत्रिय लिखा है। इसलिए आपने प्रथम से ही यह चिल्लाना शुरू कर दिया कि जाति के विषय में 'आईन अकबरी' प्रमाण नहीं मानी जा सकती। जब आपको अपनी इस निर्मूल उक्‍ति में दूसरा कुछ अवलम्ब न मिला, तो सर विलियम जोन्स की सम्मत्ति इस विषय में दे डाली। क्योंकि जहाज के कौवे को सिवाय उसके मस्तूल के दूसरी शरण ही क्या मिल सकती है? आप ही के लेखानुसार भूतपूर्व खत्री या हिंदू अबुलफजल की बात तो प्रमाण न मानी जावे, परंतु एक वैदेशिक अंग्रेज की बात उसी विषय में मान ली जावे! यह बुद्धिमत्ता नहीं तो और क्या है?

अस्तु, यह कह कर अन्त में अपनी पूर्व उक्‍ति का उपसंहार करते हुए आपने लिख मारा कि 'इसलिए आईन अकबरी पुस्तक से हिंदू जाति के विषय में विशेष हाल नहीं मालूम हो सकता है। अर्थात इस पुस्तक से भूमिहार और तेली या कहार और डोम में अन्तर नहीं प्रतीत हो सकता है।' पाठक! यदि इसे ही 'अकांड तांडव' अथवा 'हँसुए के ब्याह में खुरपे की गीत गाना' नहीं कहते तो और किसे कहते हैं? यदि खत्रियों के साथ आपका विवाद और उसी का प्रकरण था, तो उपसंहार में यदि तान तोड़ना था तो उन्हीं पर तोड़ते। भूमिहारों के ऊपर तान तोड़ने का वहाँ कौन प्रसंग था, जिससे अपनी आंतरिक दरुज्जनता दिखलाए बिना न रहा गया?

यदि हम भी 'शठे शाठयं कुर्यात' इस न्यायानुसार उलट कर यह कहने लग जावे कि तमाम इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्र प्रभृति से भी क्षत्रियों, वर्णसंकरों, जाटों, सीदियनों, अहीरों और कुर्मियों का भेद ब्रह्मा भी सिद्ध नहीं कर सकते, तो हमारी समझ में पूर्वोक्‍त दुष्ट विचारवाले और प्रकृतिदुष्टों की नानी मर जावे, सारी आई बाई ही हज्म हो जावे, हाहाकार मच जावे और जीतों के कौन कहे मरे हुओं तक के कलेजे फट जावे। परंतु हम ऐसी दुष्टता करना नहीं चाहते। हम नहीं चाहते कि ऐसा काम करें कि प्रत्येक समाज में अन्योन्य संघर्षण हो कर उसी कलहानल से वे शुष्ककाष्ठवत दग्ध हो जावे। हम तो क्षत्रियों को भी परम प्रिय और अपना श्रेष्ठ अंग समझते हैं। और 'उदार चरितानां तु वसुधौव कुटुंबकम्' ही हमारा उद्देश्य है। इसलिए अकारण और व्यर्थ ये सब बातें लिख कर उनका दिल दुखाना नहीं चाहते। ये सब बातें आप जैसे बैरिस्टरों और सत्पुरुषों को ही मुबारक हों। इसलिए यद्यपि :

इह कुमतिरत्तवे तत्ववादी वराक:,

प्रलपति यदकाण्डे खण्डनाभासमुच्चै:।

प्रति वचनममुष्यै तस्य को वक्तु विद्वान,

नहि रुतमनुरौति ग्रामसिंहस्य सिंह:॥

अर्थात 'जो दुर्बुद्धि, मिथ्या का सत्य मानने या कहनेवाला और नीच प्रकृति पुरुष यदि बिना प्रसंग के ही सत्य बातों का भी बड़े जोर से झूठमूठ ही खण्डन करता है, तो उसकी उन बातों का उत्तर देने की इच्छा कौन विद्वान कर सकता है? क्योंकि क्या कुत्तों के भूकने पर कहीं सिंह भी उसके बदले में बोलता या भूकता है।' इस न्यायानुसार कुँवर साहब की उस दुरुक्‍ति का उत्तर देना उचित नहीं है। तथापि ऐसा करने से लोग उन्हें बैरिस्टर समझ कहीं भ्रम में पड़ कर उनकी ही उन निस्सार बातों को सत्य न मानने लग जावें, इसलिए उनकी बातों का तत्व दिखलाते हुए प्रसंगवश यह दिखला देते हैं कि सर्वमान्य प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थ 'आईन अकबरी' भी इन अयाचक दल के ब्राह्मणों को केवल ब्राह्मण कह कर अधिक कुछ नहीं कहती।

कुछ कहने से प्रथम इस बात का विचार कर लेना आवश्यक है कि आया, जैसा कुँवर जी ने लिखा है कि जाति के विषय में वह प्रमाण नहीं मानी जा सकती वही ठीक हैं, अथवा इस अंश में भी उसे प्रमाण मान सकते हैं। हम तो जहाँ तक देखते हैं इस विषय में उसके न माने जाने में कोई युक्‍ति या प्रमाण नहीं। आपने और तो कुछ युक्‍ति या प्रमाण दिए नहीं, केवल सर विलियम जोन्स के वचन लिख दिए हैं। परंतु उनसे हो ही क्या सकता है! क्योंकि यदि अबुलफजल को हिंदू समाज का विशेष ज्ञान न था, क्योंकि वह हिंदुस्तान का ही रहनेवाला प्रथम का हिंदू या खत्री था, जैसा कि आपने स्वयं लिखा है, तो सर विलियम जोन्स तो वैदेशिक थे। उनके कथन को आपने इस विषय में व्यास, वसिष्ठ का वचन कैसे मान लिया? उस पुस्तक-भर में केवल अंग्रेजी और कहीं-कहीं फारसी ग्रन्थों के ही प्रमाण भरे हैं और फिर ऐसा लिखा जाता है कि 'आईन अकबरी' नहीं मानी जा सकती। क्या उन अंग्रेजी और फारसी लेखकों की अपेक्षा भी आईन अकबरी का लेखक अप्रतिष्ठित था? धान्य हैं ऐसे कहनेवाले को। चूँकि खत्रियों के साथ आपका विवाद है, उन्हीं के ऊपर आपका आक्रमण है, उसके लेखक को आप खत्री बतलाते हैं और आईन अकबरी के मानने से खत्री भी शायद क्षत्रिय सिद्ध हो जावें। इसलिए आपने अच्छा सोचा कि जड़ ही उड़ा दे, जिससे 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी' की बात हो जावे। परंतु स्मरण रखिए। शायद उस मियाँ जी का-सा हाल न हो जावे जिन्होंने अपनी नाक पर बैठने वाली मक्खी से दिक हो कर उसके बैठने का अड्डा ही उड़ा दिया।

एक बात और भी विचारने योग्य है कि 'सर विलियम जोन्स' ने भी तो यही लिखा है कि फारसी ग्रन्थों में हिंदू जातियों का विवरण या हाल नहीं जाना जा सकता। क्योंकि उन्होंने ऐसा लिखा है कि 'जो मनुष्य फारसी की किताबों से हिंदू जातियों का विवरण जानता है, वह वास्तव में हिंदुओं को नहीं जान सकता है।' आईन अकबरी से हिंदू जाति के विषय में विशेष हाल नहीं मालूम हो सकता है। परंतु एकदम ही वह प्रमाण न मानी जावे, यह तो न सिद्ध ही हुआ और न आप इसे मान ही सकते हैं। यदि उस पुस्तक में राज्य की सभी बातों का विवरण विस्तारश: है और हिंदू जातियों का विवरण संक्षिप्त हैं, तो इससे जातियों का विशेष ज्ञान नहीं हो सकता, न कि इसके लिए वह ग्रन्थ ही न माना जावे। ग्रन्थकर्ता या उसके बनवानेवाले ने जिसे अपनी समझ में जैसा उपयोगी समझा वैसा लिखा या लिखवा दिया। इससे वह खराब नहीं समझी जा सकती, जब तक उसकी कही बातें किसी प्रकार मिथ्या न सिद्ध हो जावे। यह बात उसी ग्रन्थ के लिए नहीं हैं, किंतु ग्रन्थ मात्र के ही लिए है कि जो कुछ उसमें लिखा हो वह सच्चा हो तो माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसलिए यदि 'आईन अकबरी' के मानने से आपका अभिष्ट सिद्ध न हो, तो इससे वह अप्रमाण नहीं हो सकती। क्योंकि यदि किसी का प्रयोजन किसी प्रमाण के मानने से नहीं हो सकता, तो इसके लिए वह प्रमाण क्यों न होगा? क्योंकि 'प्रयोजनमपेक्षन्ते न मानानीतिहि स्थित:' प्रमाण किसी के प्रयोजन को नहीं देखते, किंतु सच्ची बात बतला देते हैं।' इसलिए अवश्य ही 'आईन अकबरी' सर्वमान्य होने के कारण हिंदू जातियों के विषय में भी जितना उसमें लिखा है उसके लिए प्रमाण है।

अब हम प्रथम 'आईन अकबरी' का लेख भूमिहारादि ब्राह्मणों के विषय में दिखलाते हैं, जिसे हमने उसके अंग्रेजी अनुवाद के दो ग्रन्थों में एक-सा ही पाया है। उन अनुवादकों को नाम 'ग्लैडविन (Gladwin) और जैरेट (Jarret) है। प्रथम ग्रन्थ 1783 ई. और दूसरा 1894 ई. में छपा है। बात यह है कि 'आईन अकबरी' में ब्राह्मणों के लिए 'जुन्नारदार' शब्द आया है। यद्यपि 'जुन्नार' शब्द यज्ञोपवीत मात्र का वाचक है, तथापि वह शब्द आईन अकबरी या अन्य फारसी के ग्रन्थों में केवल ब्राह्मणों के लिए ही आया है, नहीं तो यज्ञोपवीत (जनेऊ) वाले तो क्षत्रियादि भी हैं, फिर उनका नाम 'क्षत्रिय' ऐसा अलग क्यों लिखा जाता? इसीलिए कान्यकुब्ज, सर्यूपारी या भूमिहारादि ब्राह्मणों के लिए ही 'जुन्नारदार' शब्द उस ग्रन्थ में आया है। इसीलिए 'एशियाटिक रिसर्चेज' (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ के जो 1793 में छपा है, 16वें पृष्ठ में मालाबार (Malabar Coast) के इतिहास में 'केरल उत्पत्ति' नामक मालाबारी ग्रन्थ के फारसी अनुवाद के आधार पर लिखा है कि :

Those who are entitled to wear Zunnar of Brahmanical thread, are superior to or more noble than all the classes of Malabar coast.

अर्थात 'जिनको जुन्नार या ब्राह्मणों का जनेऊ पहनने का अधिकार हैं, अर्थात जो ब्राह्मण हैं, वे मालाबार की सभी अन्य जातियों से श्रेष्ठ और रईस या प्रतिष्ठित समझे जाते हैं।' इसलिए जुन्नार शब्द के केवल ब्राह्मण के ही यज्ञोपवीत का नाम होने के कारण आईन अकबरी में जुन्नारदार शब्द केवल ब्राह्मणों के लिए आया है। इसीलिए अंग्रेजों ने अनुवाद में ब्राह्मण शब्द ही रख दिया है। इस जगह हम केवल कर्नल एच.एस. जैरेट के ही अनुवाद के द्वितीय भाग को उदधृत कर देते हैं। जिसमें भूमिहार ब्राह्मणों से ले कर सभी अन्य ब्राह्मणों को भी केवल ब्राह्मण ही लिखा है। उसके 161वें पृष्ठ में इलाहाबाद के जिन-जिन परगनों में ब्राह्मणों की जमींदारी लिखी गई है, या विशेष रूप से जहाँ ब्राह्मण ही प्रतिष्ठित या बाशिंदे बतलाए गए हैं, वे इस प्रकार हैं :

Allahabad-इलाहाबाद

Allahabad - इलाहाबाद Sikandarpore - सिकंदरपुर

Suraon - सुराँव Kewa - केवाई

Singarapore - सिंगारपुर Hadia bas (Jhunsi) - झूँसी

इनमें से विशेष कर सुराँव, सिकंदरपुर और केवाई परगनों में भूमिहार या जमींदार ब्राह्मण हैं और थे, जैसा कि विवाह-प्रसंग में दिखला ही चुके हैं और शेष परगनों में सर्यूपारी या कान्यकुब्ज थे और हैं।

162वें पृष्ठ में गाजीपुर और बनारस के परगनों का विवरण नीचे हैं :

Ghazipur - गाजीपुर

Chausa - चौसा Mohammadabad - मुहम्मदाबाद

Saidpur Namadi - सैदपुर Madan Benares - मदन-बनारस

Zahurabad - जहूराबाद (जमानियाँ)।

यहाँ सभी केवल भूमिहार ब्राह्मण हैं, जिनमें से चौसा में सकरवार, सैदपुर में भारद्वाज, जहूराबाद में कौशिक, जमानियाँ में सकरवार और द्रोणवार और मुहम्मदाबाद में किनवार रहते हैं और थे।

Benaras - बनारस

Afrad - अफरद Pindara - पिंडरा

Haveli - हवेली Kuswar - कुसवार

Byalisi - बसालिसी Harhua - हरहुआ

इनमें से पिंडरा में कोलहा भूमिहार ब्राह्मण थे और हैं, कुसवार में गौतम और हरहुआ में दीक्षित। बाकी में सर्यूपारी और भूमिहार ब्राह्मण दोनों थे। पृष्ठ 163 में जौनपुर के परगनों का विवरण इस प्रकार है :

Jaunpur - जौनपुर

Chandipur - चाँदीपुर Nizamabad-निजामाबाद

Sanjhauli - सँझौली Mohammadabad - मुहम्मदाबाद

Sikandarpur - सिकंदरपुर Negum-निगम

इनमें से निजामाबाद में भृगुवंशी भूमिहार ब्राह्मण थे और हैं, एवं मुहम्मदाबाद में बरुवार भूमिहार ब्राह्मण थे और हैं। शेष में सर्यूपारी और भूमिहार ब्राह्मण दोनों थे और हैं। इसी प्रकार अवधा, लखनऊ, हरदोई आदि जिलों के परगनों और महालों में ब्राह्मण ही लिखे गए हैं और वहाँ सभी कान्यकुब्ज या सर्यूपारी ब्राह्मण थे और हैं भी।

इसी आईन अकबरी के आधार पर मिस्टर नेविल ने बनारस के गजेटियर के 195वें पृष्ठ में लिखा है कि :

The Mahal of Haveli Benares comprised of the present Dehat Amanat, Jalhupur and Sheopur. It was held by Brahmans etc. Pindarah has remained unchanged and was held by Brahmans etc. Athgawan was then known as Harhua and was held by Brahmans etc. Kuswar was a large mahal and was held by Brahmans etc.

अर्थात 'बनारस हवेली महाल में देहात अमानत, जाल्हूपुर और शिवपुर भी मिले हुए थे और वहाँ ब्राह्मणों का अधिकार था इत्यादि। इसी प्रकार पिंडरा भी ब्राह्मणों के ही अधिकार में था जो आज भी बदला नहीं है इत्यादि। अठगाँवाँ का नाम प्रथम हरहुआ था ओैर यह भी ब्राह्मणों के ही अधिकार में था इत्यादि। कुसवार सबसे बड़ा महाल था और ब्राह्मण लोग ही उनके जमींदार थे इत्यादि।'

इसी प्रकार नेविल साहब ने अपने गाजीपुर के गजेटियर क 164वें पृष्ठ में गाजीपुर के ऐतिहासिक वर्णन के समय अकबर का प्रबंध वगैरह दिखलाते हुए साफ ही लिख दिया है कि गाजीपुर के मुहम्मदाबाद और जमानियाँ वगैरह महालों में जो ब्राह्मण जमींदार लिखे गए हैं वे भूमिहार ब्राह्मण ही थे और हैं, न कि दूसरे ब्राह्मण। वे इस प्रकार लिखते हैं :

It was in Akbar's days that Ghazipur became recognized seat of government and the capital of a Sarkar in the province of Allahabad. The Sarkar contained 19 mahals or parganas comprising most of the present district and Ballia, as well as Chausa, now in Shahabad and Belahabans in Azamgarh. The Ain-i-Akbari affords us a considerable amout of information as to the state of the district at that time, showing the state of cultivation, the revenue and the principal landholders of each pargana. The mahals are Ghazipur Haveli,Pachotar, Bahariabad, Zahurabad, Dehma, Mohammadabad, Madan Benares, Karanda, Sayidpur, Namadi, Baraich, Shadiabad, Bhitari, Khanpur and Mahaich. Zahurabad had 13803 bighas of cultivation paying 657808 dams; it was held by Brahmans, who contributed 20 horsemen and 500 infantry. Mohammadabad Parharbari, as it was then styled, had 44775 bighas under cultivation and paid 2260707 dams. The land-holders were Brahmans, which is the name always given to Bhumihars, and the military force fconsisted of 100 horse and 2000 foot. The present Mohammadabad pargana also includes the scattered mahal of Quriat Pali, which contained but 1394 bighas of cultivated land and was possessed at 75497 dams. Zamania is shown under the old name of Madan Benares. It was held by Brahmans, or more probably Bhumihars, who paid 2760000 dams on 66584 bighas of cultivation and furnished 50 horse and 5000 foot. Saidpur Namadi had a cultivated area of 25721 bighas, an assessment of 1250280 dams and the Brahman Zamindars contributed 20 cavalry and 1000 infantry. The remaining parganas were mostly held by Rajputs, while Bhitari by Ansari Shekhs.

इसका अर्थ यह है कि 'अकबर के समय में ही गाजीपुर राज्य कार्य का एक स्थान और इलाहाबाद के सूबे की एक सरकार की राजधनी बन गया। इस सरकार में 19 महाल या परगने थे, जिनके अन्तर्गत वर्तमान जिले का बहुत सा भाग बलिया जिला और चौसा भी था, जो अब शाहाबाद में हैं। इसके अतिरिक्‍त बेलहा बन भी था, जो अब आजमगढ़ में हैं। आईन अकबरी से इस जिले की उस समय की दशा का बहुत सा पता चलता है। क्योंकि उसमें उस समय की कृषि की दशा, मालगुजारी और प्रत्येक परगने के प्रधान जमींदारों का उल्लेख है। उसके महाल ये है :-गाजीपुर हवेली, पचोतर बहरियाबाद, जहूराबाद, डेमहा, मुहम्मदाबाद, मदन बनारस (जमानियाँ), करडा, सैदपुर, नामदी, बहराइच, शादियाबाद, भितरी, खानपुर और महाइच। परगना जहूराबाद में 13803 बीघे खेती की जमीन थी, जिसकी मालगुजारी 657808 दाम थी और इसके जमींदार ब्राह्मण थे, जो 20 सवार और 500 पैदल फौज रखते या उसका खर्च देते थे। मुहम्मदाबाद का नाम उस समय मुहम्मदाबाद परहारबारी था, जिसमें खेती की भूमि 44775 बीघे थी, जिसकी मालगुजारी 2260707 दाम थी। इसके जमींदार ब्राह्मण थे। आईन अकबरी में यह ब्राह्मण नाम भूमिहारों के लिए आया करता है। अर्थात वहाँ के जमींदार भूमिहार ब्राह्मण थे जो 100 सवार और 2000 पैदल फौज रखते थे। वर्तमान मुहम्मदाबाद परगने में उस समय करियत पाली का तितर-बितर महाल भी मिला हुआ था, जिसके 1394 बीघे में खेती होती थी और मालगुजारी 75497 दाम थी। जमानिया का प्राचीन नाम मदन बनारस ही लिखा गया है। इसके जमींदार ब्राह्मण थे, जिन्हें भूमिहार ब्राह्मण कह सकते हैं, जिनकी जमींदारी 66584 बीघे थी और मालगुजारी 276000 दाम थी। ये लोग 50 सवार और 5000 पैदल फौज रखते थे। सैदपुर के 25721 बीघे में कृषि होती थी, जिसके ब्राह्मण जमींदार 1250280 दाम मालगुजारी के देते और 20 सवार एवं 1000 पैदल सेना रखते थे। अवशिष्ट परगने विशेष कर राजपूतों के अधिकार में थे केवल भीतरी पर अंसारी शखों का दखल था।

अब हमको इस विषय में कुछ नहीं कहना है। पाठक लोग स्वयं ही समझ गए होंगे कि आईन अकबरी, उसके अनुवादकों और उसके आधार पर इतिहास लेखकों के भी मत से भूमिहार ब्राह्मण लोग ब्राह्मण सिद्ध होते हैं अथवा नहीं। भला जहाँ पर इस प्रकार लिखा जा रहा है कि आईन अकबरी में भूमिहार ब्राह्मणों के लिए ही केवल 'ब्राह्मण' नाम आया है और वैसा ही आईन अकबरी के वाक्य लिख कर स्पष्ट ही दिखला भी चुके हैं, तो फिर वहाँ भूमिहार लोग ब्राह्मण हैं या नहीं इस संशय की जगह ही कहाँ हैं? इन सब ग्रन्थों को उक्‍त 'क्षत्रिय और कृत्रिम क्षत्रिय' नामक ग्रन्थ के रचयिता कुँवर महाशय जी भी उलट गए हैं, क्योंकि उस 'ग्रन्थ-भर में प्राय: इन्हीं की दोहाई दी गई है। ऐसी दशा में पूर्वोक्‍त लेख का उनकी पवित्र लेखनी से लिखा जाना कैसी सुजनता, सभ्यता, सुधारकर्ता, निष्पक्षपातिता, निर्द्वेषता और उदारता है, इसे आप ही लोग विचार ले। हमारी समझ में तो ऐसी दशा में संभवत: वह इन भूमिहार ब्राह्मणों के उद्देश्य से न लिखा गया होगा, क्योंकि इनके विषय में वैसा लिखने की जगह ही नहीं हैं। किंतु जैसा कि पूर्व भी दिखला चुके हैं कि कहीं-कहीं क्षत्रिय भी भूमिहार कहलाते हैं, जिस बात को 'राजपूत' के संपादक कुँवर हनुमंतसिंह तथा क्षत्रिय समाज स्वीकार करता है। इसलिए खत्रियों पर रंज हो कर - क्योंकि उन्हीं के साथ विचार करने का यह प्रकरण हैं - आपने यह लिख दिया है कि आईन अकबरी से खत्री क्षत्रिय सिद्ध नहीं हो सकते। क्योंकि उन्हीं के साथ विचार करने का वह प्रकरण हैं - आपने यह लिख दिया है कि आईन अकबरी से खत्री क्षत्रिय सिद्ध नहीं हो सकते। क्योंकि उससे तो 'भूमिहार अर्थात भूमिहार क्षत्रिय अथवा क्षत्रिय और तेली या कहार और डोम में अन्तर प्रतीत नहीं हो सकता है।' अगर सच पूछा जावे तो यही तात्पर्य उस वाक्य का घटता हैं। इसीलिए ऐसी दशा में हम उक्‍त कुँवर जी को कुछ भी कहना नहीं चाहते और उनके कथन का दूसरा तात्पर्य समझ हमने जो कुछ लिखा है उसे वापस कर लेते हैं। अथवा रहने देने पर भी उनसे और उस कथन से कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं। इसलिए उनके संबंधियों को इससे बुरा न मानना चाहिए। क्योंकि वे लोग ऐसी दशा में हमारे उक्‍त कथन के लक्ष्य है ही नहीं।

अस्तु, इस प्रकार से श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, व्यवस्थाओं, पत्रों, प्राचीन वंशावलियों, ब्राह्मणादि के लेखों, चीनी और ग्रीक यात्रियों के लेखों, पालि ग्रन्थों, गवर्नमेंट की आज्ञा और आईन अकबरी प्रभृति ग्रन्थों, एवं मैथिल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी और गौड़ ब्राह्मणों के साथ भूमिहार, त्यागी आदि ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध और खान-पानों से सिद्ध हो गया कि सृष्टिकाल से ही जो अयाचक और याचक दो प्रकार के ब्राह्मण हैं, उनमें से अयाचक ही श्रेष्ठ और सर्वमान्य है और ये भूमिहार, पश्‍चिम, त्यागी, जमींदार, महियाल आदि ब्राह्मण उसी अयाचक दल के हैं। इसलिए यदि चाहें तो इन्हें अयाचक ब्राह्मण, भूमिहार, पश्‍चिम, त्यागी आदि ब्राह्मण अथवा ब्राह्मण इन तीनों नामों से कह सकते हैं। जैसे कान्यकुब्ज या सर्यूपारी प्रभृति ब्राह्मणों से पूछने पर वे लोग प्रथमत: 'आप कौन हैं?' इस प्रश्‍न का उत्तर 'ब्राह्मण हैं' ऐसा देते हैं। उसके बाद 'कौन ब्राह्मण हैं?' इस प्रश्‍न पर 'सर्यूपारी या कान्यकुब्ज ऐसा बतलाते हैं। वैसे ही अयाचक ब्राह्मणों से पूछने पर कि 'आप कौन हैं?' उन्हें कहना चाहिए कि 'ब्राह्मण हैं'। पश्‍चात् 'कौन ब्राह्मण हैं?' ऐसा पूछने पर 'अयाचक अथवा भूमिहार, पश्‍चिम, जमींदार, त्यागी, महियाल ब्राह्मण हैं' ऐसा उत्तर देना चाहिए। अथवा जो अयाचक ब्राह्मण दल जिस देश में हैं वह वहाँ के मैथिल, कनौजिया, सर्यूपारी, गौड़ और सारस्वतादि ब्राह्मण ही अपने को सबसे पहले कह कर पीछे अपनी विशेषता के लिए त्यागी, भूमिहार आदि कह सकते हैं। और यह भी सिद्ध हो गया कि इन अयाचक ब्राह्मणों के भूमिहारादि विशेषण जागीर वगैरह पाने या भूमि पर बल से अथवा अन्य प्रकार से अधिकार कर लेने से ही मुसलमानों के समय में पड़े। जैसे कि दो या तीन वेदों के पढ़ने, पढ़ाने आदि कामों के करने और मिथिलादि देशों में रहने से दूबे, तिवारी, श्रोत्रिय, मैथिल और गौड़ प्रभृति नाम या विशेषण अन्य ब्राह्मणों के यवन काल में ही पड़े। और राय, सिंह, पांडे और दूबे प्रभृति पदवियाँ भी उसी समय की हैं, जो कामों के करने से ही पड़ी हैं। साथ ही साथ यह भी दिखला चुके कि पश्‍चिम, जमींदार और भूमिहार ब्राह्मण, तगे, त्यागी या दानत्यागी ब्राह्मण और महियाल ब्राह्मण इस समय भी एक-से ही आचार-विचार और प्रतिष्ठावाले हैं। इसलिए इन लोगों के परस्पर विवाह सम्बन्ध वगैरह होने में कोई हर्ज नहीं हैं। और यह भी सिद्ध हो चुका कि इन लोगों में आज तक कोई शास्त्र निषिद्ध ऐसी बुराई भी नहीं आ गई है, जिससे इनकी दशा या दर्जा ब्राह्मण समाज में किसी प्रकार से भी हीन समझा जावे। बल्कि अन्य ब्राह्मण ही शास्त्रोक्‍त मार्ग से कुछ भ्रष्ट हो गए हैं। इसलिए इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों को ब्राह्मण समाज में किसी प्रकार से हीन मानना, या ऐसा लिख देना अथवा लिख देने का साहस मात्र भी करना केवल भ्रम या अज्ञान ही हैं। इसलिए इस प्रकरण के अन्त में अन्तर्यामी जगदाधार से यही प्रार्थना हैं कि सभी भारतवासियों और विशेष कर इन अयाचक दल के सभी ब्राह्मणों को शास्त्रीय सुबुद्धि प्रदान करें जिसमें सभी लोगों के पक्षपात या राग-द्वेष निवृत्त हो जावे और सभी लोग शास्त्रीय धर्म का हृदय से अनुमोदन करें, भातृभाव की वृद्धि हो और स्वार्थवश हो बेजा तौर से किसी को कोई दबाना न चाहे और ये अयाचक दलीय ब्राह्मण अपने स्वरूप को यथावत पहचान कर अपने शास्त्रोक्‍तर कर्तव्य में परायण हो॥ इति श्री ब्रह्मर्षिवंश विस्तरे याचकायाचकद्विविधाब्राह्मणविचारोनामाद्यं प्रकरणम्॥