आओ पेपे घर चलें / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1
कथासार / समीक्षा
अपने परिवेश की सीमाओं से ऊपर उठकर विदेशी धरातल पर लिखा गया 'आओ पेपे घर चलें` उपन्यास न सिर्फ प्रभा खेतान का प्रथम उपन्यास है बल्कि हिन्दी साहित्य में भी विश्व की स्त्री का सच बयान करता यह उपन्यास पहला जान पड़ता है।
प्रभा ब्यूटी थैरोपी का कोर्स करने अमेरिका गईं उस दौरान के हुए अपने अनुभवों को बड़ी ही संजीदगी से इस उपन्यास में उभारा है। अमेरिका में प्रभा को लगा मानों लोग भाग रहे हैं, काम ही काम, रात-दिन मेहनत। जीवन-स्तर को और ऊपर उठाने के लिए पैसे परंतु सम्पन्नता के बीच भी टूटते हुए घर और टूटते हुए इंसान। बाहर से खुश दिखते हुए लोग लेकिन मन के भीतर जमता-पिघलता हुआ लावा।
उपन्यास की एक पात्र आइलिन दबंग और आत्मनिर्भर स्त्री है, जो अपनी ७० वर्ष की उम्र में अपने प्रथम पति को प्रेमियों में खोजती हुई जर्जर मन को पेपे (कुत्ते) के सहारे बहलाती है। आइलिन कुत्ते को बेटा मानकर जानवर में आदमी खोजती, जीवन के दुखों को भूलाने के प्रयास में पल-पल मरती हुई महसूस होती है। मरील जो अपने पति से अलग रहती है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी दुखी है। पति-पत्नी के अहम् के टकराव से दोनों लड़कियां दिशा भ्रमित हो रही हैं।
डॉक्टर बेरी और हेल्गा का सुविधा-सम्पन्न घर है लेकिन परिवार के सदस्यों की आपसी समझ बिल्कुल भी नहीं। हेल्गा सम्पन्नता में भी अपने दु:ख को याद करती हुई परिवार से छुटकारा चाहती है।एलिजा (मिसेज डी) अपने पति का प्यार पाने के लिए हर प्रकार से समर्पित रहती है मगर वह अपने पति को नहीं पा सकी और आत्महत्या करने का प्रयास करती है। हर प्रकार से सक्षम एलिजा डॉक्टर को टूटकर चाहती है फिर भी उसे तलाक मिलता है।
समग्र रूप से देखें तो आइलिन, हेल्गा, एलिजा, मरील आदि सभी स्त्रियां आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी किसी न किसी प्रकार से दुखी हैं। इस उपन्यास का मूल स्वर स्त्री के ईद-गिर्द घूमता है। स्त्री न सिर्फ भारत में दुखों को झेल रही है अपितु वह तो अमेरिका जैसे महान् समझे जाने वाले देश में भी टुकड़ों में जी रही है। इस उपन्यास में प्रभा के अमेरिका प्रवास के अनुभवों का औपन्यासिकरण है, उन्हीं के शब्दों में-
पिछले चार महीने में जिंदगी के इतने हिस्से देख चुकी थी कि लगता था मेरी उम्र अचानक बहुत पक गई है। औरत की जिंदगी के भयावह सच मेरे सामने पर्त-दर-पर्त उघड़ते गए थे और यहां पर यदि यह स्थिति है, तो मेरे देश में; और वह भी मारवाड़ी समाज में कैसे झेलूगीं?``