आकांक्षा / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
तीन लोग एक शराबघर की मेज पर मिले। उनमें एक जुलाहा था, दूसरा बढ़ई और तीसरा खुदाई-मजदूर।
जुलाहा बोला, "लाइनन का एक खूबसूरत कफन मैंने आज सोने की दो मुहरों में बेचा। इसलिए आज की शराब मेरी ओर से रहेगी।"
"और मैं… " बढ़ई बोला, "मैंने आज अपना सबसे अच्छा ताबूत बेचा है। शराब के साथ भुना माँस मेरी ओर से रहेगा।"
"मैंने तो आज एक ही कब्र खोदी है।" खुदाई-मजदूर ने कहा, "लेकिन मालिक ने मुझे दूनी मजदूरी दी। शराब और भुने माँस के साथ मीठा केक मेरी ओर से।"
पूरी शाम वह मेज उन तीनों से घिरी रही। वे बार-बार शराब, भुना माँस और केक मँगाते रहे। पीने और खाने का उन्होंने पूरा मज़ा लिया।
शराबघर का मालिक आनन्दपूर्वक हाथों को मलता हुआ अपनी बीवी की ओर मुस्करा रहा था। उसके ये ग्राहक खुलकर पैसा खर्च कर रहे थे।
जब वे उठे, चन्द्रमा ऊपर चढ़ चुका था। गाते और शोर मचाते वे सड़क पर चलने लगे।
शराबघर का मालिक और उसकी बीवी दरवाज़े पर खड़े होकर दूर तक उन्हें निहारते रहे।
"अहा!" बीवी ने कहा, "ये लोग! इतने खुले हाथ वाले और इतने खुश! काश, ये रोज़ाना ऐसे ही यहाँ आते रहें! हमारे बेटे को तब हमारी तरह बदनतोड़ मेहनत करना और शराबघर चलाना नहीं पड़ेगा। हम उसे लिखा-पढ़ा सकेंगे। वह पादरी बन सकेगा।"