आकारगत लघुता के निहितार्थ / सुकेश साहनी
कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता के आयोजन की रूपरेखा 2005 में हरिनारायण जी के साथ तय की गई थी। अक्टूबर 2006 में प्रथम प्रतियोगिता में पुरस्कृत रचनाओं की घोषणा हुई. इसमें अरुण मिश्र की 'पावर विण्डो' प्रथम घोषित किया गया था। यह देखकर सुखद अनुभूति हुई कि 19 जून 2019 को हिन्दी भवन, भोपाल में आयोजित लघुकथा-पर्व में अरुण मिश्र की 'पावर विण्डो' चर्चा में रही। लघुकथा को वहाँ उपस्थित श्रोताओं ने खूब सराहा और लघुकथा के समापन पर सभागार तालियों से गूँजता रहा। 2006 से इस प्रतियोगिता की निरंतरता बनी हुई है। जिसका श्रेय भाई हरिनारायण जी को जाता है। प्रतियोगिता में नए पुराने सभी कथाकार प्रतिभाग करते रहे हैं। पुरस्कृत लघुकथाएँ आज भी बहुत से पाठकों की पहली पसंद बनी हुई हैं। कथादेश की इस प्रतियोगिता के माध्यम से बहुत से नए लेखकों ने लघुकथा के क्षेत्र में पदार्पण किया और अपनी पहचान बनाई. पुरस्कृत लघुकथाएँ कथादेश में प्रकाशित होने के बाद लघुकथा डॉट कॉम [1]के जरिए देश-विदेश के बड़े पाठक-वर्ग तक पहुँची।
इस प्रतियोगिता को उत्कृष्टता प्रदान करने में निर्णायक मण्डल की भी महती भूमिका रही है। 2006 से अब तक निर्णायक मण्डल में निम्न हस्ताक्षर रहे-
मैनेजर पाण्डेय, योगेन्द्र आहूजा, आनंद हर्षुल, सत्यनारायण, महेश कटारे, जितेन्द्र रघुवंशी, विभांशु दिव्याल, श्याम सुन्दर अग्रवाल, गौतम सान्याल, सुरेश उनियाल, हृषिकेश सुलभ, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ सुकेश साहनी, राजकुमार गौतम, सुभाष पंत, भालचंद जोशी, श्याम सुन्दर 'दीप्ति' , एवं हरिनारायण।
आर्य स्मृति साहित्य सम्मान 2000 के अवसर पर बोलते हुए राजेन्द्र यादव जी ने कहा था, " सौ-सवा सौ लघुकथाएँ हर महीने आती हैं और उनमें कहीं कोई गहराई, कहीं कोई छूनेवाली बात नहीं होती। यह बात थोड़ी-सी परेशान करने वाली है कि सौ लघुकथाएँ आपको हर महीने मिलें और उनमें आप एक या दो बड़ी मुश्किल से चुन सकें। लगभग 20 वर्ष बीत जाने के बाद कथादेश को प्राप्त होने वाली लघुकथाओं को लेकर यही बात हरिनारायण जी को भी हैरान करती है। कमोवेश इसी स्थिति का सामना मुझे और काम्बोज जी को लघुकथा डाट कॉम के लिए प्राप्त होने वाली रचनाओं को लेकर करना पड़ता है। कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता हेतु भी बहुतायत में रचनाएँ प्राप्त होती हैं। इनमें बहुत सीमित रचनाओं का चयन हो पाता है। 2019 की प्रतियोगिता हेतु लगभग 70 प्रतिशत रचनाएँ ई-मेल से और शेष डाक द्वारा प्राप्त हुई. इनमें से निम्न लघुकथाएँ निर्णायकों के पास भेजने हेतु चयनित की जा सकीं-
वर्चुअल वर्ल्ड (मार्टिन जॉन) , शुभकामना सन्देश (शशिभूषण बडोनी) , आइपैड (रेणू श्रीवास्तव) , मौसम (विनय सिंह) , नेकी की दीवार (लवलेश दत्त) , बदला (विनोद कुमार दवे) , आत्मग्लानि (सारिका भूषण) , उतरन (डॉ.पूनम सिंहा) , प्यार की महक (सविता मिश्रा) , हार (राम करन) , पतंग (अदिति मेहरोत्रा) , बदलते करवटों के निशां (अणु शक्ति सिंह) , बालिका दिवस (सुधा भार्गव) , छन्न (निरंजन धुलेकर) , अकीदत (नीतू मुकुल) , बड़ा कौन (सविता इन्द्र गुप्ता) , ज़िन्दगी की रफ्तार (प्रहलाद श्रीमाली) , यादों की बारिश (सत्या शर्मा 'कीर्ति' ) , अष्टावक्र: उत्तर आख्यान (अभिषेक चंदन) , गिरा नागरिक (मुसाफिर बैठा) सर्व शिक्षा अभियान (पूरन सिंह)
प्राप्त सैकड़ों लघुकथाओं में से केवल 21 लघुकथाओं का चयन चिंतित करता है, विचार करने पर बाध्य करता है। लघुकथा अपने विकास-यात्रा में नित्य नये सोपान चढ़ रही है। साहित्य आजतक-2018 में पूरा एक सत्र लघुकथा पर केन्द्रित था। राष्ट्रीय फलक पर मान्यता की दृष्टि से लघुकथा के लिए इसे बड़ी उपलब्धि कहा जाएगा। लघुकथा कलश (सम्पादक-योगराज प्रभाकर) संरचना (संपादक-कमल चोपड़ा) जैसे आयोजन लघुकथा को लोकप्रियता और सम्मान दिलाने में निरंतर प्रयासरत हैं।
वर्तमान में लघुकथा के क्षेत्र में सर्वाधिक लेखक सक्रिय है। सोशल मीडिया पर उनकी आपाधापी को देखकर डॉ. जितेन्द्र 'जीतू' को 'करमवा बैरी हो गए हमार' जैसा लेख लिखना पड़ता है। लघुकथा प्रतियोगिता हेतु प्राप्त अधिकतर लघुकथाओं का चयन क्यों नहीं हो पाता, इस पर 2017 में पुरस्कृत लघुकथाओं पर टिप्पणी 'लघुकथा का गुण धर्म और पुरस्कृत लघुकथाएँ' में विस्तार से लिखा गया था, इसे लघुकथा डाट कॉम, नवम्बर 2017 अथवा गद्य कोश पर पढ़ा जा सकता है।
आकारगत लघुता का अतिक्रमण करने वाली रचनाएँ प्रथम द्रष्टया ही चयन प्रक्रिया से बाहर हो जाती हैं। यहाँ आकारगत लघुता के निहितार्थ समझने होंगे। पिछले चार दशकों में लघुकथा अपनी पहचान बनाने में सफल रही है। कहना न होगा इसके पीछे वर्षों से विभिन्न लघुकथा लेखक सम्मेलनों और कार्यशालाओं में किया गया गम्भीर विमर्श है। इधर फेसबुक पर लघुकथा के आकार को लेकर निरर्थक बहस चल पड़ी है, जो लघुकथा लेखन की ओर प्रवृत्त नये लेखक को भ्रमित करने का काम कर रही है। लघुकथा का 'शिल्प विधान' में डॉ. शंकर पुणतांबेकर कहते हैं-लघुकथा में प्रधान तत्त्व उसकी लघुता है। यही इसे अन्य विधाओं से अलगाती है। कहानी की भाँति तथ्यान्विति लघुकथा में भी है; पर लघुकथा में लघुता या सामासिकता होती है, इसलिए वह कहानी से भिन्न है। लघुकथा छोटी है, पर हम उसे शब्दों में नहीं बाँध सकते। ऐसा करना अवैज्ञानिक और असाहित्यिक काम होगा।
श्याम सुन्दर अग्रवाल इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-जहाँ तक मुझे याद है वर्ष 1993 में कोटकपूरा में हुए अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन में इस विषय पर बहुत बहस हुई थी। इस दो दिवसीय सम्मेलन में सर्वश्री सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , डॉ. अशोक भाटिया, सुभाष नीरव, डॉ. श्याम सुन्दर 'दीप्ति', डॉ. रूप देवगुण सहित बहुत-से लघुकथाकारों ने भाग लिया था। तब इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि लघुकथा की शब्द संख्या निश्चित नहीं की जा सकती। रचना का कथ्य ही उसके आकार को तय करता है। मेरे विचार में समस्या लघुकथा की शब्द-संख्या को लेकर है ही नहीं। समस्या तब पैदा होती है जब लेखक लघुकथा को कहानी की सीमा में प्रवेश कराता है। आज सब से बड़ी ज़रूरत लघुकथा के तत्त्वों को जानने की है। लघुकथा के गुणों को समझ लेंगे तो शब्द-संख्या की समस्या आएगी ही नहीं।
श्यामसुंदर अग्रवाल जिस समस्या का उल्लेख कर रहे हैं, रमेश बतरा वर्षों पहले उसका समाधान कर चुके हैं-"कथ्य बहुमुखी हैं, तो उसे विस्तृत फलक पर (कहानी) लिख लिया जाए और कथ्य किसी एक मनःस्थिति क्षण के व्यवहार की तरफ संकेत करता है, तो उसे थोड़े (लघुकथा) में लिख लिया जाए." रमेश बत्तरा के इस कथन 'थोड़े में लिख लिया जाए' को समझने के लिए लघुकथा को शब्द सीमा में बाँधने की वकालत करने वाले विद्वान् मित्रो को उनकी 'कहूँ कहानी' 'शीशा' और 'बीच बाजार' जैसी लघुकथाएँ पढ़नी चाहिए. रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का अभिमत है-'वाक्पटुता क्या है-उत्तर है-मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता: अर्थात् जो नपा-तुला (मितं) हो और किसी विषयवस्तु का सारांश नहीं, वरन् सारयुक्त अर्थात् सार्थक हो (सारं) वही वाक्पटुता है। यह कथन लघुकथा की लघुता पर पूर्णरूपेण लागू होता है। कथ्य की प्रस्तुति का यह कसाव ही उसके आकार का निर्धारण करता है। यही उसकी आकारगत सीमा है, यही उसकी पूर्णता है।'
मण्टो और खलील जिब्रान की दो तीन पक्तियों की लघु रचनाओं की तर्ज़ पर लघुकथाएँ लिखने की होड़-़सी दिखाई देती है। ऐसी रचनाएँ बहुत ही कमजोर और हास्यास्पद होने के कारण प्राथमिक चयन से ही बाहर हो जाती हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इस तरह की लघुकथाएँ नहीं लिखी जानी चाहिए. इस तरह का सर्जन बहुत ही श्रम की माँग करता है। इसमें तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा संतुलन ज़रूरी है। कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता 2018 में पुरस्कृत रचनाओं पर टिप्पणी 'रचनात्मकता की उष्मा से अनुस्यूत पुरस्कृत लघुकथाएँ' में इस पर उदाहरण सहित विस्तृत चर्चा की गई है। इसी प्रकार दो परस्पर विरोधी घटनाओं वाली रचनाएँ शुरूआती दौर में प्रतियोगिता से बाहर हो जाती हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. श्यामसुंदर 'दीप्ति' कहते है, "लघुकथा को अब दो परस्पर विरोधी घटनाओं की तुलना वाले परिवेश से बाहर आना चाहिए व अपने लघु आकार के मद्देनजर, जल्दी से समेटने या परिणाम देने के मकसद से, रचना के अन्त को असहज, अस्वीकार्य, यथार्थ के दूर ले जाने का लोभ भी नहीं पालना चाहिए."
कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में तीन निर्णायकों (कथाकार देवेन्द्र, सुकेश साहनी और डॉ.श्यामसुंदर 'दीप्ति' ) द्वारा दिए गए अंकों के आधार पर प्रथम 10 पुरस्कृत लघुकथाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) हार (राम करन) , (2) बड़ा कौन (सविता इन्द्र गुप्ता) , (3) बदला (विनोद कुमार दवे) , (4) अकीदत (नीतू मुकुल) , (5) छन्न (निरंजन धुलेकर) , (6) यादों की बारिश (सत्या शर्मा 'कीर्ति' ) , (7) प्यार की महक (सविता मिश्रा) , (8) ज़िन्दगी की रफ्तार (प्रहलाद श्रीमाली) (9) अष्टावक्र: उत्तर आख्यान (अभिषेक चंदन) (10) पतंग (अदिति मेहरोत्रा) ,
निर्णायकों और कथादेश परिवार की ओर से पुरस्कृत सभी लघुकथा लेखकों को हार्दिक बधाई! आगे चर्चा करने से पूर्व स्पष्ट करना आवश्यक है कि सभी पुरस्कृत लघुकथाएँ स्वागत योग्य हैं। खूबियों के कारण निर्णायकों ने इनका चयन किया। पुरस्कृत रचनाओं पर चर्चा की जाती रही है, उसका सदैव ही स्वागत हुआ है। यहाँ चर्चा का उद्देश्य लघुकथा के विकास के लिए बेहतर जमीन तैयार करना होता है, न कि रचनाओं की कमजोरियाँ गिनाना। वैसे भी आम पाठक को लघुकथा के लिए निर्धारित मानदण्डों से कोई लेना-देना नहीं होता है। सबसे बड़ा निर्णायक तो रचनाओं का पाठक ही होता है।
हार (राम करन) , बड़ा कौन (सविता इन्द्र गुप्ता) , बदला (विनोद कुमार दवे) , अकीदत (नीतू मुकुल) , अष्टावक्र: उत्तर आख्यान (अभिषेक चंदन) यानी कुल पुरस्कृत लघुकथाओं का 50 प्रतिशत में ' संवाद शैली, को प्रधानता दी गई है। लघुकथा के गुण धर्म को देखते हुए संवाद शैली लघुकथा सर्जन के लिए बहुत उपयुक्त है। आकारगत लघुता को सुनिश्चित करते हुए चुस्त संवादों के माध्यम से कथ्य विकास करते हुए इसमें प्रभावी प्रस्तुति संभव है।
संवाद शैली का उत्कृष्ट उपयोग बड़ा कौन (सविता इन्द्र गुप्ता) में देखा जा सकता है। बाल-श्रम अधिनियम का पालन करते हुए एक कारखाने पर छापा मारकर कुछ बच्चे पकड़े जाते हैं। बच्चों को चेतावनी देकर उनके घरवालों को सुपुर्द किया जा रहा है। वहीं एक दस साल के बच्चे और सिपाही के बीच संवाद से बहुत ही प्रभावी लघुकथा का सर्जन हुआ है, जो अंत में पाठक को बहुत भावुक ही नहीं, प्रेरित भी करती है। बच्चा सिपाही को बताता है कि उसका पिता पिछले साल ट्रक से कुचलकर मर गया, माँ को बुलाने की बात पर बच्चा रोते हुए कहता है कि मुझे पुलिस ने पकड़ लिया है, माँ सुनेगी तो जान दे देगी, अब आगे की पक्तियाँ जस की तस प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ-
"और कौन है घर में।
"छोटी बहन है साहब। लेकिन अब तक वह आँगन-बाड़ी जा चुकी होगी।" बहन का ख़्याल आते ही बच्चे का रोना बंद हो गया। चेहरे पर अचानक अभिभावक जैसे फ़िक्र के भाव आ गए।
"और कोई बड़ा है घर में, जो तुझे यहाँ से ले जाए?" सिपाही ने झुँझलाकर कहा, वह असमंजस में था कि इस बच्चे का क्या करे।
"अब तो मैं ही अपने घर का बड़ा हूँ साब।" इस बार बच्चे की आवाज आत्मविश्वास से लबरेज थी।
इस लघुकथा को विषय की नवीनता और महीन बुनावट के लिए भी जाना जाएगा। जब वार्त्तालाप के दौरान बहन का सन्दर्भ आता है, तो लेखिका ने बच्चे का रोना एकाएक बंद करवा दिया और चेहरे पर अचानक अभिभावक जैसे भाव उत्पन्न करवाकर लघुकथा में नेपथ्य के महत्त्व को उजागर किया है। ये पंक्तियाँ पढ़ते ही पाठक का ध्यान वर्तमान में देश में बच्चों के साथ हो रहे बलात्कारों की ओर चला जाता है। लघुकथा का समापन सकारात्मक है और जीवन में संघर्ष की प्रेरणा देता है। सोशल मीडिया पर अपनी उथली सोच के साथ अधकचरी लघुकथाएँ प्रस्तुत करके दम्भ भरने वालों को ऐसी लघुकथाओं से प्रेरणा लेनी चाहिए। 'लघुकथा में संवाद' पर डॉ. नागेंन्द्र प्रसाद सिंह के प्रस्तुत विचार आकारगत लघुता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं-
उपन्यासों एवं कहानियों में संवादों की कालावधि तथा विस्तार का पर्याप्त अवसर होता है। लघुकथा में यह अवसर बहुत संकुचित, संक्षिप्त, संकेन्द्रित, व्यंजक, सांकेतिक, प्रतीकात्मक, ध्वन्यात्मक एवं प्रभावपूर्ण होता है। इसलिए संवाद-संरचना की दृष्टि से लघुकथा में संवादों का विशिष्ट महत्त्व होता है। संवाद लघुकथाकार को बहुत सारे विवरणों (नरेशन्स) को स्वयं कहने से बचाते हैं, जिससे लघुकथाकार की व्यक्तिगत उपस्थिति तथा कथा-विकास में लेखकीय हस्तक्षेप घटता है। लघुकथा के संवाद लघुकथाकार द्वारा थोड़ी सावधानी से संयस्त किए जाएँ, तो कथा-यष्टि में कसाव, गठीलापन तथा संतुलन बढ़ता है।
हार (राम करन) निर्णायकों के सम्मिलित अंकों के आधार पर प्रथम स्थान पर रही। नए विषयों की तलाश के संन्दर्भ में भी इस लघुकथा को रेखांकित किया जा सकता है। इसमें दो पात्रों की मनःस्थिति का चरित्रांकन हुआ है। जेठ की दुपहरी में साहब (लघुकथा में यह अनकहा है) के सैंडिल का तल्ला निकल जाता है। वे समीप ही बैठे मोची को मरम्मत के लिए कहते हैं। मोची पूछता है-'सिल दूँ?' वे कहते है-'नहीं भाई, लुक बिगड़ जाएगा'। इस संवाद के माध्यम से लेखक उनके ओहदे और सोच को प्रकट करने में सफल रहा है। जब मोची संकेत से उन्हें दूसरी जगह मरम्मत करा लेने के लिए कहता है, तो उनका तिलमिला जाना यह सिद्ध करता है कि उनको 'न' सुनने की आदत नहीं है। वह उसके सामान का निरीक्षण करते हैं और उसके दोबारा कहने पर भी दूसरे मोची के पास नहीं जाते। छोटे-छोटे संवादों और घटनाओं से दोनों पात्रों का चरित्रांकन करते हुए कथा आगे बढ़ती है। जब वह पता लगा लेते हैं कि उसके पास चिपकाने वाला गांेद नहीं है, तो भी दूसरी जगह न जाकर मोची को रुपये देकर गोंद मँगवाते हैं। पैसे देकर गोंद मँगवाने के बाद साहब उस मोची से इस प्रकार का व्यवहार करने लगते हैं, जैसे उसे खरीद लिया हो। सवाल पर सवाल। मोची शांत भाव से उनके प्रश्नों का उत्तर देता जाता है और कहीं भी अपना आपा नहीं खोता। साहब को उम्मीद थी कि गोंद के पैसे देते ही वह उनके आगे जी हुज़ूरी करते हुए बिछ जाएगा; पर ऐसा कुछ भी होते न देख खुद को पराजित महसूस करते हैं। यहाँ लेखक का उद्देश्य ऐसे तथाकथित गरीबों के हितैषियों को बेनक़ाब करना है, जिसमें उसे सफलता मिली है।
'बदला' (विनोद कुमार दवे) संवाद शैली में लिखी गई है। उसमें नवीनता यही है कि मास्साब के चरित्र के बदलाव को संवादों के माध्यम से उजागर किया गया है। मिठू बेटा, मिठिया और फिर हराम के पिल्ले! जैसे सम्बोधनों से उत्तरोत्तर कथ्य-विकास किया गया है। लघुकथा को और अधिक कसा जाना चाहिए. एक दिन, कुछ दिनों बाद, काफी दिनों बाद, महीने भर बाद, कुछ महीनों बाद जैसे शब्दों की कोई ज़़़रूरत नहीं थी, इनके बगैर भी लघुकथा अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहती। लघुकथा का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि लेखक ने शुरू से अंत तक कहीं भी मास्टर जी की अथवा छात्र की जाति का उल्लेख नहीं किया है। यहाँ 'बदला' शीर्षक रचना को कमजोर करता है। अंत में मास्टर जी की हिम्मत नहीं हो रही थी अधिकारी महोदय से नाम पूछने की। बस उनके कानों में बरसों पुरानी छात्र की आवाज 'गूँज' रही थी। 'गूँज' शीर्षक लघुकथा के कथ्य के अधिक करीब है। लघुकथा पढ़ते हुए बीसवी सदी की प्रतिनिधि लघुकथाएँ में संकलित रंगनाथ दिवाकर की ' गुरु दक्षिणा' याद आती है।
अकीदत (नीतू मुकुल) मानवता के पक्ष में खड़ी सशक्त लघुकथा है। यह सच है कि वोटों की राजनीति ने धर्म के आधार पर समाज को बाँटने का काम ही नहीं किया; बल्कि मानव मन में ऐसा डर पैदा कर दिया है कि उसका जीवन दुष्कर हो गया है। इस विषय पर बहुत-सी कहानियाँ / लघुकथाएँ मिल जाएँगी; पर इस रचना में एक घटना के माध्यम से उस सच्चाई को प्रकट किया गया है, जो जीवन का आधार है। माँ बहुत खोजबीन के बाद एक ऑटो चुनती है। गंतव्य पर पहुँचकर जब ऑटो वाले को पेटीएम से भुगतान सम्भव नहीं होता तो ऑटो वाला गुस्साते हुए बोला..."या अल्लाह! एक तो मेरे ऑटो में जबरदस्ती बैठते हैं, फिर कहते है पैसा नहीं हैं, पर्स भूल गए. खुदा ऐसी सवारी ना दिया करें।" यह सुनते ही आई का माथा ठनका।
"तू मुसलमान है...?"
"हाँ तो क्या...?"
"लेकिन तू तो गणेश की मूर्ति लगाए है।"
"इस ऑटो का मालिक हिन्दू है और मैं मुसलमान हूँ।"
छन्न! (निरंजन धुलेकर) विषय की नवीनता के कारण निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल रही। बैंड में झाँझ बजाने वाले की मनःस्थिति का बहुत ही मार्मिक और सशक्त चित्रण हुआ है। इस तरह के विषय लघुकथा में आने चाहिए. ऐसी लघुकथाएँ ही विधा की ताकत का अहसास कराती हैं। कुछ पंक्तियाँ रेखांकित करने लायक हैं-
मैं तो उनको ढूँढ़ता, जो खुश न हों, मदहोश ज़रूर हों और दस और बीस के नोट में फ़र्क़ भूल चुके हों। वह लोग, जिन्हें अपना रुतबा सबके सामने दिखाने के लिए, मेरी ज़रूरत होती!
साथ बिगुल वाले चचा चलते, फँूकते बजाते दमें की बीमारी हो गई, पर इलाज के पैसे के लिए...बजाते चल रहे।
बड़े ढोल वाले भैया ने इतना ही सिखाया कि जब मैं बोलूँ, 'मार' , तब दोनों हाथ ऊपर उठाकर जोर से मारना। बस उनकी इस मार-मार से, ज़िन्दगी से भिड़ना सीख गया।
यादों की बारिश (सत्या शर्मा 'कीर्ति' ) लघुकथा उसमें निहित संवेदना के कारण प्रभावित करती है। यह रचना हर उस पाठक को अपनी कथा लग सकती है, जो गाँव-घर छोड़कर महानगरों के मायाजाल में जीने को अभिशप्त हैं। दिन बीतते जाते हैं और माँ के बुलाने पर भी बेटा उसके पास गाँव नहीं जा पाता। नहीं समझ पाता कि मोबाइल पर बातें हो जाने पर भी माँ चिट्ठियाँ क्यों भेजती रहती है। रेत-से फिसल जाते हैं दिन हाथों से और माँ चली-चली जाती है दुनिया से। कथा नायक टी.वी. पर अपने गाँव के चित्र देखता है, बाढ़ सब कुछ बहाकर ले जा रही थी...वह फूट फूटकर रो पड़ता है। उसे लगता है जैसे माँ दो महीने पहले नहीं बल्कि आज ही मरी हो।
सविता इन्द्र गुप्ता और सत्या शर्मा 'कीर्ति' की लघुकथाएँ पाठक के मन में संवेदना जगाने में सफल है। संवेदना के महत्त्व को उजागर करते हुए डॉ. पुणतांबेकर लिखते है-राजा मर गया और रानी मर गई', मात्र स्टोरी या सामान्य घटना है, जिसमें से कोई संवेदना नहीं जागती, किन्तु वहीं यह कहा जाए कि राजा मर गया और इस कारण रानी भी मर गई, तो यह प्लॉट या असामान्य घटना है, जिसमें से संवेदना जागती है। इस कसौटी से हमारी अधिकतर लघुकथाएँ लघुकथा नहीं रह जातीं। फिर वे भले ही' लघु'हों और उनमें' कथा'भी हो; इसीलिए आज लिखी जा रही ढेरों कथाएँ' लघु 'और' कथा'दोनों होकर भी' लघुकथा' नहीं हैं।
प्यार की महक (सविता मिश्रा) पारिवारिक जीवन पर सकारात्मक सोच की सशक्त लघुकथा है। यह लघुकथा हर पाठक को अपनी कथा लग सकती है। लेखिका ने घर परिवार के अपने अनुभवों पर कलम चलाते हुए परिवार में प्यार के महत्त्व को रेखांकित किया है। इस लघुकथा में बच्चों के माध्यम से यह भी संदेश देने का प्रयास किया गया है कि माँ-बाप के बीच झगड़े के कारण सबसे ज़्यादा बालमन प्रभावित होता है।
'ज़िन्दगी की रफ़्तार (प्रहलाद श्रीमाली) में लेखक ने महानगर की रेलमपेल में आत्मकेन्द्रित होते मनुष्य की स्थिति का चित्रण किया है। जीने के लिए संघर्षरत आम आदमी न चाहते हुए भी संवेदनहीन होता जा रहा है। जिन्हें महानगर में इन परिस्थितियों में रहने का अवसर मिला है, वह महानगर इस 'रफ्तार' के फलस्वरूप आनेवाली भयावह स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। आकारगत लघुता को सुनिश्चित करती एकदम कसी हुई लघुकथा। लोकन ट्रेन पर चढ़ने वाला और उसे बचाकर ट्रेन में खींचने वाला दोनों ही आम आदमी हैं। बचाने वाला व्यक्ति चढ़ने वाले व्यक्ति को जलती आँखों से घूरते हुए फूट पड़ता है-"कमबख्त! अभी गिरकर मर जाता, तो तेरा तो कुछ नहीं बिगड़ता! लेकिन साले ट्रेन लेट हो जाती, तो हमारा रूटीन बिगड़ जाता। टाइम टेबल टूट जाता। कितना नुकसान होता पता है!" यहाँ एकाएक डॉ. शंकर पुण्तांबेकर की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं-लघुकथा की संक्षिप्तता केवल उसका लघु आकार नहीं, बल्कि उसमें सामविष्ट प्रभावात्मकता भी है। लघुकथा धनुष की वह टंकार है, जहाँ से चला बाण दूर कहीं भेदता है और गहरे भेदता है। अष्टावक्र: उत्तर आख्यान (अभिषेक चन्दन) शिक्षा-जगत् पर लिखी गई सशक्त लघुकथा है। 'आधुनिक शिक्षाजगत् की विकृतियों का सजीव चित्रण' विषयक आलेख में डॉ. कविता भट्ट लिखती हैं-'मूल प्रश्न है; शिक्षण एवं अधिगम की प्रक्रिया का अत्यंत भयावह तथा जटिल होना। प्रत्येक बालक-बालिका की अधिगम क्षमता एवं बोधगम्यता बिल्कुल भिन्न होती है। पारिवारिक परिदृश्य, सामाजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ नितान्त भिन्न होते हुए भी प्रत्येक छात्र-छात्रा को विद्यालयीय शिक्षा प्रणाली में एक ही डण्डे से हाँका जाता है। यह आधुनिक शिक्षा-पद्धति का ऐसा दोष है; जिसका परिणाम आज किशोर एवं युवा वर्ग को अधिक से अधिक आत्महत्याओं, मानसिक कुंठाओं-विकृत मनोविकारों के रूप में भोगना पड़ रहा है।' अभिषेक चन्दन की लघुकथा इस ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही है।
हम सभी मानते हैं कि वास्तविक जीवन की पाठशाला से बड़ी कोई पाठशाला नहीं है। संवाद शैली में लिखी गई इस लघुकथा में आचार्य जी और बालक के बीच रोचक वार्त्तालाप पूरी कक्षा को उनके पढ़ाए गए पाठ से इतर वास्तविक दुनिया में ले जाता है, जहाँ टेढ़े हाथ पैर वाला लड़का है, जो चाट पकौड़ी बेचता है, गली-गली, शीला के घर के आगे भी। जब शीला चाट नहीं खाती है तो मुँह फुला लेता है, कुएँ पर बैठ जाता है। फुचका के ठेले के पास रहता है, किताब कभी नहीं पढ़ा। अष्टावक्र से सम्बंधित सभी सवालों के जवाब सुनकर बालक का रचनात्मक-कौशल आचार्य जी को सोचने पर विवश कर देता है कि उनके पढ़ाए किताबी आख्यान से अधिक सार्थक उस बालक के माध्यम सुना गया जीवन का वास्तविक पाठ है।
विषय में नवीनता की दृष्टि से 'पंतग' (अदिति मेहरोत्रा) को बहुत ऊपर रखना चाहूँगा। लघुकथा में अति सांकेतिकता के चलते यह लघुकथा सभी निर्णायकों का ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाई. लेखिका ने लघुकथा के प्रस्तुतीकरण पर भी बहुत श्रम नहीं किया। इन सब कमियों के बावजूद अपने कथ्य के कारण प्रभावी बन पड़ी है। यहाँ 'पतंग' शीर्षक बहुत उपयुक्त है। लड़की ने गर्दन पर उड़ती पतंग का टैटू बनवा रखा है। कथा में नायिका समाज की पारम्परिक सोच, अपेक्षाओं और अपनी आधुनिक सोच के बीच बहुत ही समझदारी से सामंजस्य बिठाती है। वह उन आधुनिक युवक-युवतियों को बहुत ही सकारात्मक संदेश देने में सफल है, जो अपने माता पिता के पास गाँव जाने से कतराते ही नहीं, उसे बहुत बड़ी सजा समझते हैं। 'पतंग की उड़ान' को कथा में जगह-जगह सिद्ध भी किया गया है-
रेशमी, लेस लगे, खूबसूरत लाल-काले, खुबानी त्वचा पर फबने वाले (अंडर-गारमेंट्स) यहीं घर पर अकेले दिवाली मनाएँगे। ऐसा सोचते ही हँसी छूटती है। अमर पूछता है-क्या हुआ। उँगलियों के बीच दो-चार को पकड़ती हूँ और कहती हूँ "ये अकेले दिवाली मनाएँगे।" वह भी हँस देता है। हवा-सी हँसी, पतंग के नीचे की हवा।
एक अगूँठी, जो अमर ने पसंद की थी और एक पतली सोने की चेन जो मैंने अपनी पहली सैलरी से ली थी, उसी की आदत है। बाकी सब फँसता है, खींचता है, रोकता है। पतंग हल्की होगी, तो उड़ेगी।
मेकअप बैग से फाउंडेशन की शीशी निकालती हूँ और अमर को पकड़ाती हूँ। पीछे घूम, गर्दन झुका उससे कहती हूँ, "लगाओ, पार्टनर इन क्राइम!" "क्या ज़रूरत है?" कहते हुए उसकी गीली उँगिलयाँ गर्दन को छूती हैं। गर्दन पर बना उड़ती पतंग का टैटू धीरे-धीरे हल्का हो रहा है। पूरी तरह से छुपेगा नहीं; पर घूँघट से ढका इतना हल्का फिलहाल चलेगा।
आकारगत लघुकथा की अनिवार्यता के कारण ही लघुकथाओं में गजलों, दोहों जैसी बारीक खयाली की बात की जाती है। पुरस्कृत सभी रचनाएँ आकारगत लघुता की दृष्टि से लघुकथा की परिधि में आती है। यहाँ आकारगत लघुता की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि जब कोई घटना स्वाभाविक रूप से लेखक के भीतर सर्जन की आँच में पककर लघुकथा के फॉर्म में ढलती है तो कैमिस्ट्री की भाषा में उसमें नख से शिख तक 'सामग्री की सान्द्रता' होनी चाहिए. यह टिप्पणी पहले भी कई बार पेश की गई है; पर थोड़ा और स्पष्ट करना ज़रूरी है। जब नख से शिख की बात है, तो लघुकथा के शीर्षक से समापनबिंदु तक पूरी बॉडी (शब्द-शब्द) की बात हो रही है। यह कार्य लेखक अपनी रचना का सम्पादन करते हुए भी कर सकता है। जो बात आप चार पाँच पंक्तियों (कपसनजमक / पतला) में कह रहे हैं। उसे और भी प्रभावी तरीके से एक वाक्य (बवदबमदजतंजम / सान्द्र) में कहकर इस 'सामग्री की सान्द्रता' को समझा जा सकता है। यहाँ कुछ वाक्यों को संक्षिप्त / छोटा करने की बात नहीं है। हंस, अप्रैल 2013 में प्रकाशित लघुकथा 'आधी दुनिया' का जो विश्लेषण लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर भगीरथ परिहार ने किया है, उससे इसको बखूबी समझा जा सकता है। प्रस्तुत है उस विश्लेषण का एक अंश। इसमें इटैलिक और बोल्ड पंक्तियाँ लेखक की हैं और शेष टिप्पणियाँ भगीरथ की हैं-
शादी से पहले: अवसर है लड़की देखने का।
जब लड़की को लड़केवाले देखने आते है, तो लड़की को कैसे देखते हैं ...साड़ी पहनकर दिखाओ, लूज़ फ़िटिंग के सूट में फ़िगर्स का पता ही नहीं चलता। (जैसे इन्हें बहू नहीं मॉडल चाहिए, फैशनेबल गुडिया चाहिए) ...चलकर दिखाओ. (कहीं लँगडी तो नहीं है) ...लम्बाई? ऐसे नहीं-बिना सैंडिल के चाहिए. (कहीं नाटी तो नहीं है) ...मेकअप तो नहीं किया है न? ...पार्क में चलो, चेहरे का रंग खुले में ही पता चलता है। (यानी गोरी है कि साँवली, उन्हें तो गोरी ही चाहिए) ...बड़ी बहन की शादी में क्या दिया था?। (यह सब देखने के बाद बताओ-बड़ी बहन की शादी में कितना मालपत्ता दिया था, ताकि हमें अनुमान लग सके कि हमें कितना मिलेगा) ... क्या-क्या पका लेती हो? ... (पक्का है उसका जीवन रसोईघर में ही बीतना है) ...घर सम्हालना आता है? आज के समय में नौकर-मेहरी रखना 'सेफ़' नहीं है। (यानी हम नौकर नहीं रखेंगे। तुम्हें ही घर संभालना है, यानी बिना तनखा की महरी बनकर रह जाएगी। उन्हें गोरी, लम्बी और अच्छे फिगर वाली लड़की चाहिए, जो पाक कला में प्रवीण हो और घर को अकेले सँभाल सके.)
अब अंत में लघुकथा में चरित्रांकन की बात करना भी ज़रूरी लगता है॥ डॉ. शमीम शर्मा लिखती हैं-'कहानी में एक पात्र के समग्र या अधिकांश जीवन का चित्रण संभव है। लघुकथा में पात्र की किसी एक मनःस्थिति को ही लिखा-परखा जाता है और यह एक स्थिति भी इतनी प्रगाढ़ता से निरूपित की जाती है कि कई बार तो पात्र का समग्र चरित्र रेखांकित हो जाता है। इस सन्दर्भ में प्रबोध कुमार गोविल की' माँ'एक बेजोड़ मिसाल है।' पुरस्कृत लघुकथाओं में हार (राम करन) में एक ही लघुकथा में दो पात्रों (साहब और मोची) की मनःस्थिति का चरित्रांकन प्रभावी ढंग से हुआ है। लघुकथा जगत् में संतू, ओए बबली, ईश्वर, जुबैदा, नमिता सिंह, दुलारे जैसे पात्रों को लेकर लघुकथाएँ लिखी गई हैं। चरित्रांकन की दृष्टि से लेखक आकारगत लघुता का निर्वहन करते हुए इनमें कितनी डैप्थ दे पाए; इस पर अभी काम होना है। यहाँ इसी संदर्भ में कथादेश के दिसम्बर 1999 के अंक में प्रकाशित रघुनंदन त्रिवेदी की लघुकथा 'निहाल चंद' प्रस्तुत है, बहुत से प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे-
निहालचंद
निहालचंद दुनियादार आदमी हैं। दुनियादार होने का मतलब इतना ही कि वे मौके की नज़ाकत को पहचान लेते हैं, कहीं भिड़ गए हैं, कहीं झुक जाते हैं। रिश्वत के खिलाफ हैं; लेकिन ज़रूरत पड़े तो रिश्वत दे सकते हैं और ले भी सकते हैं, रेलों में इतनी भीड़ रहती है; लेकिन निहालचंद के कहे मुताबिक उन्होंने कभी खड़े रहकर 'सफ़र' नहीं किया। भावुक आदमी से सीट हासिल करनी हो तो बीमार की तरह मुँह लटकाए खड़े रहना चाहिए, ताकतवर आदमी को पटाना हो तो उसकी तारीफ़ करनी चाहिए, स्त्रियों के मामले में उनके साथ जो बच्चे होते हैं उन्हें पुल की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है, ये कुछ सूत्र हैं जिनके कारण निकाल चंद को अपनी यात्राओं में कभी कष्ट नहीं हुआ।
निहाल चंद सिगरेट पीते हैं; लेकिन माचिस नहीं रखते अपने पास। सिगरेट सुलगाने के लिए माचिस दूसरों से माँगी जा सकती है, ऐसा निहालचंद सोचते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें आदमी को देखते ही अन्दाजा हो जाता है कि कौन व्यक्ति बीड़ी पीने वाला है और कौन नहीं। सिगरेट पीने वाले लोग प्रायः माचिस नहीं रखते; जबकि बीड़ी पीने वाला आदमी माचिस ज़रूर रखता है, निहाल चंद अपने इस विश्वास के बूते पर कहते हैं कि जिस व्यक्ति का चेहरा कुछ झुलसा हुआ, होंठ काले, दाढ़ी बढ़ी हुई और आँखों में लाचार पीलापन हो, वह व्यक्ति ज़रूर बीड़ी पीने वाला होता है। ऐसे लोगों की जेबें अंट-शंट (और प्रायः फिजूल) चीजों से भरी हुई रहती हैं। बच्चे इस किस्म के लोगों से डरते हैं सफर में, परन्तु यह इस वजह से कि वे उनकी आँखों में जो लाचारी-सी होती है उसे पढ़ नहीं पाते। ये लोग मजदूर, किसान और अनपढ़ (या एक शब्द में कहा जाए तो गरीब) होने के कारण दो वजहों से माचिस दे देते हैं। एक वजह तो यह कि ऐसे लोग प्रायः झूठ नहीं बोल सकते, इसलिए जेब में माचिस होने पर इनकार नहीं करते। दूसरी वजह यह कि ऐसे लोग हमारे साफ-सुथरे कपड़ों ओर चमचमाते जूतों से इतने प्रभावित (या आतंकित) हो जाते हैं कि माचिस देकर आभार-सा महसूस करते हैं।
निहाल चंद कहते हैं कि अकसर उनका अन्दाजा सही साबित हुआ है। जीवन में अब तक वे कई अनजान लोगों से माचिस ले चुके हैं और लौटाते वक्त हमेशा उन्होंने शुक्रिया अदा किया है। यह अलग बात है कि माचिस देने वाला आदमी अगर दूसरे दिन रास्ते में मिल जाए तो निहालचंद उसे पहचान नहीं पाते। माचिस की वजह से बस एक आदमी का हुलिया ज्यों का त्यों याद है निहालचंद को। बकौल निहालचंद वह एक कमीना आदमी था, जिसके पास माचिस थी और जो अनपढ़ भी था, मगर माचिस देने से मुकर गया था। पीले दाँतों वाला वह सींकिया-सा आदमी, जिसने खाकी कुरता और धोती पहन रखी थी, जरा-सी आग बचाकर क्या हासिल कर लेगा, निहाल चंद कहते हैं यह बात आज तक उनकी समझ में नहीं आई.
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