आकार में सीमित होकर भी अर्थ में व्यापकता / पूनम चौधरी
कुछ रचनाएँ पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है- मानो शब्द नहीं, अनुभूतियाँ चल रही हों—मौन, धीमी, परंतु गहराई तक उतरती हुई। लघुकथा भी ऐसी ही एक सघन विधा है, आकार में सीमित होकर भी अर्थ में व्यापक होती है। इसमें शब्दों का शोर नहीं, बल्कि एक मौन भाषा होती है, जो सीधा हृदय से, आत्मा से संवाद करती है।
मेरे लिए लघुकथा का चयन किसी साहित्यिक शास्त्रीय आग्रह का परिणाम नहीं; बल्कि भीतर से उठती एक आत्मिक पुकार का उत्तर है। यह वह विधा है, जो शब्दों के पार की संवेदनाओं को छूने का सामर्थ्य रखती है। कभी-कभी सबसे छोटी ये कथाएँ हमारे भीतर सबसे लंबे समय तक जीती रहती हैं—यही इस विधा की सबसे बड़ी शक्ति है, और यही मेरे चयन का कारण भी।
मेरी पसंद’ स्तंभ के अंतर्गत प्रस्तुत उपमा शर्मा की ‘बोनसाई’और खेमकरण सोमन की ‘मनीऑर्डर’ लघुकथाएँ केवल साहित्यिक रचनाएँ नहीं, बल्कि संवेदनाओं की जीवंत छवियाँ हैं। ये वे लघुकथाएँ हैं, जो सामाजिक संरचनाओं की जकड़न, स्त्री-मन की पीड़ा, और आंतरिक द्वंद्वों को इस तरह उजागर करती हैं कि पाठक न केवल उन्हें पढ़ता है; बल्कि भीतर तक अनुभव करता है। इन कथाओं ने मुझे स्पर्श किया—एक ऐसी जगह जहाँ शब्द नहीं पहुँचते, केवल अनुभूति ठहरती है
उपमा शर्मा की लघुकथा 'बोनसाई' एक अत्यंत संवेदनशील, मार्मिक और बौद्धिक रचना है, जो स्त्री जीवन की जटिलताओं, उसकी प्राथमिकताओं, संघर्षों और सामाजिक दृष्टिकोण की सूक्ष्म पड़ताल प्रस्तुत करती है। यह कथा दो सहेलियों, अवि और अनु, के संवाद के माध्यम से स्त्री के आंतरिक द्वंद्व, सामाजिक अपेक्षाओं और व्यक्तिगत आकांक्षाओं के बीच संतुलन की चुनौती को उजागर करती है।
कथा का प्रारंभ अवि और अनु के आत्मीय मिलन से होता है। अनु, जो एक सफल चित्रकार है, अवि से वर्षों बाद मिलती है। अवि, एक गृहिणी, अपने परिवार और बच्चों के लिए समर्पित है। अनु अवि से पूछती है कि उसने अपनी चित्रकारी क्यों छोड़ दी, जबकि वह इस क्षेत्र में प्रतिभाशाली थी। अवि मुस्कराकर उत्तर देती है कि उसकी प्राथमिकताएँ बदल गई थीं। अनु उसे 'बोनसाई' कहती है, जो प्रतीकात्मक रूप से उस स्त्री की स्थिति को दर्शाता है जो सामाजिक अपेक्षाओं और पारिवारिक दायित्वों के कारण अपनी आकांक्षाओं को सीमित कर देती है।
बोनसाई, एक सजावटी पौधा, जिसे काट-छाँटकर एक आकर्षक रूप दिया जाता है, वस्तुतः उसी स्त्री की प्रतीक है जो सामाजिक अपेक्षाओं और पारिवारिक दायित्वों की कैंची से अपने स्वाभाविक विकास को रोक देती है। यह प्रतीक कथा की गहराई को बढ़ाता है और पाठक को सोचने पर मजबूर करता है कि क्या यह सीमितता स्त्री की कमजोरी है या उसकी शक्ति?
कथा में अवि और अनु के संवाद केवल दो मित्रों की बातचीत नहीं हैं, बल्कि स्त्री के भीतर पल रहे द्वंद्व का जीवंत प्रतिबिम्ब हैं—प्रगति बनाम परिवार, स्वप्न बनाम कर्तव्य। अनु ने अपने कैरियर को प्राथमिकता दी, वह चित्रकार बनी, पुरस्कार प्राप्त किए; और अवि ने अपने बच्चों की सफलता को प्राथमिकता दी, उनके भविष्य को सँवारने में अपनीआकांक्षाओं को स्थगित कर दिया। दोनों स्त्रियाँ अपने-अपने ढंग से सफल हैं: परंतु समाज का दृष्टिकोण अभी भी अवि जैसे पात्रों को कमतर आंकता है। यह रचना उसी असंतुलन की ओर संकेत करती है।
अवि का पात्र एक अत्यंत संवेदी और सशक्त स्त्री की छवि प्रस्तुत करता है। वह प्रतिरोध नहीं करती, वह आरोप नहीं लगाती, वह स्पष्टीकरण नहीं देती—वह केवल जीवन जीती है, अपने निर्णयों में निष्ठा के साथ। यह मौन, यह मुस्कान, यह आत्म-सम्मान उसकी सबसे बड़ी ताकत है। जब अनु उसे पुरस्कार न मिलने पर दुखी बताती है, तो अवि केवल मुस्कराकर कहती है कि यही उसकी प्राथमिकता नहीं थी। यह वाक्य स्त्री जीवन के गूढ़ दर्शन को उजागर करता है—प्रत्येक स्त्री की प्राथमिकता एक-सी नहीं होती। समाज को यह समझना होगा कि हर स्त्री को अपने जीवन की दिशा चुनने का अधिकार है, चाहे वह घरेलू जीवन हो या सार्वजनिक मंच।
कथा का शिल्प संवादों के माध्यम से बुना गया है, जिससे पात्रों के मनोभाव सीधे पाठक के हृदय तक पहुँचते हैं। लेखिका की भाषा अत्यंत सहज, प्रवाहमयी और प्रभावशाली है। कहीं कोई कृत्रिमता नहीं, कोई आडंबर नहीं; बस दो आत्मीय मित्रों की बातचीत के माध्यम से जीवन के बड़े प्रश्नों को उठाया गया है। पात्रों की भाषा उनके चरित्र के अनुकूल है—अनु की शैली अधिक आत्मविश्वासपूर्ण और थोड़ी व्यंग्यात्मक है, जबकि अवि की वाणी में आत्मीयता, सहनशीलता और ममत्व की झलक मिलती है। यह पात्रों की भाषा ही है जो उनके व्यक्तित्व की गहराई को प्रकट करती है।
इस कथा की सबसे मार्मिक और निर्णायक परिणति उस दृश्य में आती है जब अवि की बेटी रुचि की सफलता सामने आती है। बेटी का यह कथन – “माँ, आपके बिना ये संभव नहीं था” न केवल एक माँ की भूमिका की पुष्टि करता है; बल्कि उस त्याग और समर्पण को भी प्रमाणित करता है जिसे समाज अक्सर गौण मान लेता है। यह क्षण अनु के दृष्टिकोण को भी परिवर्तित करता है। उसे समझ में आता है कि अवि का ‘बोनसाई’ बनना किसी सामाजिक दुर्बलता का परिणाम नहीं, बल्कि एक सजग निर्णय था—एक ऐसा निर्णय, जिसने एक संपूर्ण जीवन की नींव रखी।
इस प्रकार ‘बोनसाई’ का रूपक केवल सजावटी पौधे का नहीं, बल्कि एक चेतना का है—एक ऐसा जीवन, जो सीमाओं में रहते हुए भी जीवन की सुगंध बिखेरता है। यह सीमित स्थान में विस्तृत अर्थों की संभावनाएँ समेटे हुए है। लेखिका ने इस प्रतीक के माध्यम से स्त्री जीवन की जटिलता, उसकी सौंदर्यात्मकता और उसकी आत्म-निष्ठा को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से रूपायित किया है।
इस लघुकथा में पारिवारिक संरचना, स्त्री की भूमिका, मातृत्व की गरिमा, सामाजिक दृष्टिकोण की विसंगतियाँ, आत्म-निर्णय का अधिकार और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं की स्वतंत्रता जैसे विषयों को अत्यंत संतुलित रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह रचना हमें यह सोचने को विवश करती है कि क्या सफलता की परिभाषा केवल पुरस्कारों, प्रदर्शनियों और सामाजिक मान्यता तक सीमित है, या फिर वह उन अनकहे क्षणों में भी छिपी है जब एक माँ की आँखों में अपने बच्चे की सफलता के आँसू झलकते हैं?
'बोनसाई' न केवल एक लघुकथा है; बल्कि एक विचार है, एक विमर्श है, एक मौन आह्वान है—जो प्रत्येक पाठक को अपने अनुभव, अपने पूर्वग्रह, और अपने सामाजिक दृष्टिकोण की पुनः समीक्षा करने को प्रेरित करता है। यह कथा अपने सीमित शब्दों में अनंत भावनाओं को समेटे हुए है। यह पाठक के भीतर न केवल करुणा उत्पन्न करती है, बल्कि उसे चेतना के स्तर पर भी स्पर्श करती है।
उपमा शर्मा की यह रचना साहित्यिक दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध है। इसकी संरचना में सुघड़ता है, भावों में गहराई है और शैली में शास्त्रीय गरिमा है। यह कथा आधुनिक हिंदी लघुकथा की परंपरा में एक सशक्त हस्ताक्षर है, जो न केवल संवेदनाओं को मुखर करती है, बल्कि विचारों को भी उद्दीप्त करती है। यह उस स्त्री की कथा है, जो चुपचाप, मुस्कराकर, बिना किसी अपेक्षा के, अपने घर, अपने बच्चों, और अपने सपनों को एक नई दिशा देती है। और यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है—जो किसी ट्रॉफी से कहीं अधिक मूल्यवान् है।
तार्किक दृष्टि से भी यह रचना अत्यंत संतुलित है। यह किसी भी प्रकार की अति या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं है। अनु को खलनायक नहीं बनाया गया है, न ही अवि को देवी। दोनों ही स्त्रियाँ हैं, अपने-अपने जीवन के निर्णय के साथ। कथा पाठक को यह सोचने की स्वतंत्रता देती है कि किसका जीवन अधिक सार्थक है, या यह भी कि दोनों अपने-अपने स्थान पर सही हैं। यही संतुलन इसे एक उच्च कोटि की रचना बनाता है।
कुल मिलाकर, ‘बोनसाई’ एक अत्यंत प्रभावशाली, भावनात्मक रूप से सघन और विचार उत्तेजक कथा है। यह आधुनिक स्त्री की भूमिका, समाज की अपेक्षाओं, मातृत्व के मूल्य और स्त्री की आत्म चेतना के बीच एक संवाद रखती है। लेखिका की संवेदनशील दृष्टि, भाषिक सादगी और प्रतीकात्मकता इस रचना को साहित्यिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण बनाती है। यह कथा पाठक को न केवल भावुक करती है, बल्कि विचार के उस धरातल तक भी ले जाती है जहाँ वह अपने आसपास की स्त्रियों को नए दृष्टिकोण से देखना सीखता है। यही इस रचना की सबसे बड़ी सफलता है।
करुणा और आत्मीयता का सेतु: ‘मनीऑर्डर’
‘मनीऑर्डर’ शीर्षक से प्रस्तुत यह लघुकथा अपने छोटे आकार में भी मानवीय संबंधों की जटिलता, भावनाओं की गहराई और पारिवारिक मूल्यों की गरिमा को अत्यंत सघनता से व्यक्त करती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह अत्यल्प संवादों और सीमित घटनाक्रम के माध्यम से भी करुणा, आत्मीयता और पारिवारिक एकता का अत्यंत मार्मिक आख्यान रचती है। कथा की शुरुआत ही एक धुँधली पृष्ठभूमि से होती है—“घर का बँटवारा और बोलचाल बंद हुए कई वर्ष बीत चुके थे।” यह वाक्य न केवल कथा की ऐतिहासिकता को स्पष्ट करता है; बल्कि पारिवारिक विघटन और टूटे हुए रिश्तों की पृष्ठभूमि को भी रेखांकित करता है। यहाँ ‘बँटवारा’ शब्द केवल संपत्ति या मकान तक सीमित न रहकर आत्मीयता, संवाद और संबंधों के विभाजन का प्रतीक बन जाता है।
इस कथा का भावात्मक केंद्र बड़े भाई की पत्नी है, जो इस लघुकथा की असली नायिका भी है। उसके माध्यम से ही करुणा, सहानुभूति और पारिवारिक उत्तरदायित्व की चेतना पाठक के सामने आती है। जब वह अपने पति से माँ की बीमारी का बहाना बनाकर पाँच हजार रुपये माँगती है, तब पाठक के मन में क्षणिक संशय पैदा होता है कि शायद वह पैसे किसी स्वार्थ या छल से माँग रही है। लेकिन शीघ्र ही कथा का अगला दृश्य इस संशय को पूर्णतः समाप्त कर देता है—वह सीधे अपने देवर-देवरानी के घर पहुँचती है, जो आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं।
यहाँ उस स्त्री पात्र का जो आदर्श रूप सामने आता है, वह भारतीय पारिवारिक संरचना की उस स्त्री का प्रतिरूप है, जो टूटे हुए रिश्तों को फिर से जोड़ने का प्रयास करती है—बिना किसी आडंबर, श्रेय की चाह या स्वार्थ के। उसका वाक्य—“कुछ भी नहीं सुनूँगी”—उसकी दृढ़ता, करुणा और साहस का प्रतीक बन जाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि वह यह सब अपने पति को बताए बिना करती है। इससे उसका नैतिक बोध, आत्मनिर्भरता और मानवीय धर्म के प्रति उसकी गहरी आस्था स्पष्ट होती है। वह जानती है कि मदद करने के लिए किसी औपचारिक अनुमति की आवश्यकता नहीं होती—जरूरत के समय मदद ही सबसे बड़ा धर्म है।
कथा के भावनात्मक उत्कर्ष पर बड़े भाई की चुप्पी टूटती है और वे भावुक होकर कहते हैं—“अपना ही खून है।” यही वह क्षण है, जब वर्षों से जमा हुआ संकोच, उपेक्षा और द्वेष पिघलकर आत्मीयता में बदल जाता है। यह कथन केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि वर्षों से दबे संबंधों और आत्मीयता का गहन विस्फोट है। इस क्षण के साथ ही बँटवारा केवल भौतिक नहीं, मानसिक रूप से भी समाप्त होता है।
कथा की भाषा अत्यंत सहज, परिष्कृत और सशक्त है। लेखक ने अत्यल्प शब्दों में गहन अनुभूतियों का संप्रेषण किया है। संवाद इतने स्वाभाविक हैं कि हर पात्र का कथन उसके चरित्र की गरिमा को पुष्ट करता है—देवरानी का संकोच, देवर की हैरानी और बड़े भाई का मौन संयम पाठक के मन में गहरे उतर जाते हैं। इस कथा में न कोई नाटकीयता है, न कोई चमत्कारी मोड़, और यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है। यह एक अत्यंत यथार्थपरक और आत्मीय कथा है, जो सामान्य जनजीवन की पीड़ा और संवेदना से उपजी है।
संवेदनशीलता के धरातल पर देखें तो यह कथा करुणा की त्रिस्तरीय अभिव्यक्ति है: पहली, एक स्त्री की करुणा जो अपने देवर के परिवार की विपत्ति देखकर विचलित होती है; दूसरी, एक भाई की मौन करुणा जो सबकुछ समझकर भी सहायता स्वीकार कर लेता है; और तीसरी, पाठक के भीतर उत्पन्न करुणा, जो उसे सोचने पर विवश करती है कि क्या वह भी अपने निकट संबंधों के प्रति ऐसा ही सहृदय बन सकता है।
भावनात्मक संतुलन की दृष्टि से कथा अद्भुत है। इसमें कहीं भी भावनात्मक अतिरेक या ओवरड्रामा नहीं है। सभी प्रतिक्रियाएँ अत्यंत स्वाभाविक हैं। स्त्री पात्र की संवेदना मातृत्व और परोपकार से युक्त है, जिसमें वह गर्भवती देवरानी और उसके बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित है। बड़े भाई की चुप्पी उसकी आंतरिक वेदना को दर्शाती है और अंततः उसका रो पड़ना उसके भीतर की संवेदना का विस्फोट है।
शास्त्रीय दृष्टिकोण से यह कथा करुण रस की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है। इसमें शोक और दुःख तो है, पर उसका स्रोत दया और सहानुभूति है। यहाँ मृत्यु या विनाश नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों की दरार से उपजी पीड़ा है। यह कथा भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित ‘सत्त्वगुण’ की पुष्टि करती है—जिसमें आत्मीयता, करुणा, सहिष्णुता और पारिवारिक उत्तरदायित्व के भाव निहित हैं। बड़े भाई की पत्नी का चरित्र सत्त्वप्रधान नारी का प्रतीक है।
यदि पश्चिमी आलोचना के आलोक में देखें, तो यह कथा अस्तित्ववादी यथार्थवाद (Existential Realism) की कोटि में आती है, जिसमें पात्र अपनी नियति से विवश नहीं होते; बल्कि अपने नैतिक बोध और निर्णय क्षमता से परिस्थितियों को दिशा देते हैं। बड़े भाई की पत्नी परिस्थिति से भागती नहीं, उसका सामना करती है।
समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह कथा आज के परिवारों में बढ़ती आत्मकेंद्रिता और विघटनशीलता के बीच एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह स्पष्ट करती है कि संबंध केवल खून के नहीं; बल्कि संवेदना के धागों से बँधे होते हैं और स्त्रियाँ ही अक्सर उन संबंधों को मरम्मत करने का कार्य करती हैं—अपनी सूक्ष्म संवेदना, साहस और करुणा से।
पात्रों की मानसिक संरचना और आपसी संबंधों की जटिलता अत्यंत यथार्थपरक है। यह कथा बताती है कि समय चाहे जितना भी बीत जाए, अगर आत्मीयता बची है तो संबंध फिर से जीवित हो सकते हैं। अंततः यह कथा पाठक को नैतिक शिक्षा देती है, पर उपदेशात्मक शैली में नहीं, बल्कि मौन आचरणों और भावनाओं के प्रवाह से।
संक्षेप में, ‘मनीऑर्डर’ केवल एक लघुकथा नही; बल्कि एक भावात्मक यात्रा है, जिसमें पाठक एक ऐसे परिवार से जुड़ता है जो टूटकर भी एकसूत्र में बँधा हुआ है। यह कथा करुणा, नारी संवेदना और पारिवारिक उत्तरदायित्व का अद्भुत उदाहरण है। इसकी सरलता ही इसकी महानता है। यह पाठक को सोचने पर विवश करती है कि क्या हमारे जीवन में भी कोई ऐसा संबंध है, जिसे हमने समय के साथ खो दिया है, और क्या हम भी किसी ‘मनीऑर्डर’ के बहाने किसी के जीवन में फिर से उजाला भर सकते हैं।
‘मनीऑर्डर’ इस बात का प्रतीक है कि बँटवारे केवल बाहर के नहीं होते, भीतर के भी होते हैं—और इन्हें जोड़ने के लिए किसी बड़े आंदोलन की नहीं, केवल एक छोटे-से मनीऑर्डर जैसी संवेदनशील पहल की आवश्यकता होती है। यह कथा हमें भीतर से नम कर देती है, पर साथ ही एक नई दृष्टि और उम्मीद भी देती है कि हम भी अपने जीवन में टूटे हुए रिश्तों को जोड़ सकते हैं—बिना शोर, बिना श्रेय, केवल प्रेम और समझ से।
वास्तव में, यह कथा एक जीवन-दर्शन है, जो यह सिखाती है कि रिश्तों की गर्माहट बनाए रखने के लिए केवल एक संवेदनशील हृदय चाहिए—और वह हर किसी के भीतर हो सकता है। यही इस कथा का संदेश है: संबंधों को पुनर्जीवित करना करुणा और आत्मीयता के माध्यम से।
1-बोनसाई/उपमा शर्मा
“चल तुझे फुरसत तो मिली मुझसे मिलने की । पुरस्कृत होने पर ढेर सारी बधाई तुझे”- चहकते हुई अवि ने अपनी सखी अनु को गले लगाते हुए कहा।
“थैंक्स यार! फुरसत तो सच में मुश्किल से ही मिली है; लेकिन ये तेरा प्यार है, जो सौ काम छोड़ तुझसे मिलने आती हूँ। तू तो कभी बिटिया के लिए कोचिंग ढूँढने में व्यस्त रहेगी। कभी उसे पढ़ाने में। एक शहर में रहते हुए भी मिलने नहीं आ सकती ।” शिकायती लहजे में बोली अनु।
“सॉरी यार! लेकिन तुझसे रोज ही बात कर लेती हूँ। रूटीन टफ है थोड़ा । ऑफिस, बच्चे, घर । इसी कारण मिलने कम आ पाती हूँ अनु; लेकिन तेरी चित्र -प्रदर्शनी देखने जरूर पहुँचती हूँ। फिर कैसे कह सकती है ऐसा ?और तू भी तो कहाँ घर पर रुक पाती है ?”अवि ने मुस्कुराकर कहा।
“तभी तो मैं तेरे लिए दुखी हूँ।”
“मेरे लिए दुखी! वो क्यों अनु ? मुझे क्या हुआ?” आश्चर्य से बोली अवि।
“अवि! तू भी मेहनत करती, तो मेरी तरह पुरस्कार न सही; लेकिन कुछ नाम तो होता तेरा भी आज। कैनवास पर रंग तो तूने भी मेरे साथ ही बिखेरे; पर देख न तू कहाँ रह गई और मैं कहाँ पहुँच गई?” गर्व मिश्रित स्वर में कहा अनु ने।
“अच्छा है अनु तू पुरस्कृत हो रही है। मुझे भी खुशी हो रही है मेरी सखी प्रगति के पथ पर अग्रसर है; लेकिन तू जानती है ये मेरी प्रिऑरिटी नहीं अभी। बच्चों का भविष्य बनाना ही मेरा उद्देश्य है अभी। ये फिर कभी जब समय मिला। और रंग तो अभी भी बिखेर लेती हूँ कैनवास पर” -अवि मुस्कुराई
“क्या अवि तू भी? पति क्या करते हैं तेरे सारे दिन ?बच्चे उनके भी हैं ,तेरे अकेले के ही नहीं। तू क्यों अपनी प्रतिभा दबा रही है ?”
“बच्चे हम दोनों के हैं, ये ठीक कहा अनु; लेकिन सारा दिन थक जाते हैं। ऑफिस का लोड उन पर भी है। जितना वक्त मिलता है, वो भी देखते हैं बच्चों को।”
“छोड़ तू मानेगी थोड़े ही कि तू नौकरानी बन गई है अपने ही घर की। खैर छोड़, ये बात! चल मेरे साथ ,एक बहुत बड़े कलाकार की पेंटिंग की प्रदर्शनी लगी है।”
“नहीं अनु। फिर कभी। बच्चे घर आते होंगे। पिछले दिनों रुचि के एन्ट्रेंस एक्जाम के लिए छुट्टियाँ ली थीं तो काफी काम पेंडिग है ऑफिस का।”
“तूने छुट्टियाँ क्यों लीं? मेरी बेटी का भी एक्जाम था रुचि के साथ ही। मैं तो घर नहीं रुकी। इतनी बड़ी हो गई है अपना काम खुद देखे। तू शुरू से ही महान है। कितने ही साल तूने अपने हाथ से खाना खिलाया है रुचि को। मैंने ये झंझट कभी नहीं पाले। तेरा तो प्रमोशन भी ड्यू था इस साल।”
“हाँ, तो क्या हुआ? अगली बार हो जाएगा। रुचि रात में अकेले जल्दी सो जाती है। साथ में मैं रही तो ठीक से पढ़ पाई। प्रि-मेडिकल था तो नर्वस थी थोड़ी।”
” तू भी न! वो अपनी बनाई पेंटिंग देख रही है गमले में लगे बोनसाई की। बिल्कुल उसी के जैसे तुझे काट -छाँटकर सजावटी वस्तु बना दिया गया है। बस फर्क है तू घर की बोनसाई है और वो गमले का।”
“माँ! कहाँ हो तुम?”दोनों बच्चों का समवेत स्वर गूँजा ।
“यहाँ हूँ बेटा ड्रांइग रूम में। तुम्हारी अनु मौसी के साथ।”
“अरे वाह! मौसी भी आई हैं।”
“तेरा रिजल्ट आने वाला था बेटा। मैं बातों में देख नहीं पाई।”
“वही मैं कहूँ! माँ को दीदी से ज्यादा इंतजार था उनके रिजल्ट का, जैसे माँ ने ही पेपर दिए हों, फिर माँ ने देखा क्यों नहीं अब तक ?माँ दीदी ने टॉप रैंक ली है प्रि मेडीकल में।”खुशी से चिल्लाया बेटा।
“ओह पेपर रिशू ने भी दिया था। मुझे तो याद ही नहीं रहा आज रिजल्ट आने वाला है। फोन करती हूँ घर” अनु को जैसे याद आया।
“मौसी रिशू का सलेक्शन नहीं हो पाया। वो काफी दुखी थी। उसने मेहनत काफी की; लेकिन कुछ कॉन्सेप्ट क्लीयर नहीं हो पाए। माँ आपने सच में बहुत अच्छे टीचर सलेक्ट किए मेरे लिए। आपके बिना ये मुश्किल था”- बेटी लाड़ से कँधों पर झूल गई।
अवि के कन्धों पर झूलती यह जीवन्त पेंटिग अनु को बहुत कुछ समझा गई।
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2-मनीऑर्डर/खेमकरण सोमन
घर का बँटबारा और बोलचाल बंद हुए कई वर्ष बीत चुके थे।
‘‘पाँच हजार रुपये चाहिए” -एक दिन बड़े भाई की पत्नी बोली-“माँ बीमार है। गाँव मनीऑर्डर करना है।’’
बड़े भाई ने कुछ नहीं कहा। शान्त भाव से पैसे दे दिए। पैसे लेकर बड़े भाई की पत्नी फिर सीधे अपने देवर-देवरानी के घर पहुँच गई। वह उनके आर्थिक संकट से विचलित थी। पैसे दिए तो दोनों संकोच से गड़ गए।
‘‘लेकिन दीदी!’’ देवरानी ने कुछ कहना चाहा। देवर भी हैरान था।
‘‘कुछ भी नहीं सुनूँगी।” बड़े भाई की पत्नी बोली-‘‘मुझे पता है छोटे इन दिनों एक-एक पैसे के लिए परेशान है। तुम भी अभी पेट से हो। बच्चे छोटे-छोटे हैं। मैं अब चलती हूँ।”
यह सब कुछ बडे़ भाई ने देख लिया, परन्तु बोले कुछ नहीं। सम्भवतः वह अच्छी तरह जानते थे कि छोटा भाई आजकल घोर विपत्ति में है। घर में खाने-पीने, ओढ़ने की किल्लत है।
‘‘मनीऑर्डर करा दिया?’’ रात को बड़े भाई ने अपनी पत्नी से पूछा।
‘‘जी हाँ!’’ पत्नी बोली- ‘‘आज दोपहर में करा दिया था।”
‘‘ठीक है। समय-समय पर इसी तरह मनीऑर्डर करा दिया करो।” बड़े भाई लगभग रो पड़े। कमरे से निकलते हुए बोले- ‘‘अपना ही खून है।”
पत्नी सब कुछ समझ गई। वह अपने आँखों से आँसू बहने से रोक न सकी।
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