आकाशपक्षी / अमरकांत / पृष्ठ 2

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वे देर रात बातें करते रहे। वे कमरे में थे और मैं अपनी बहनों के साथ बरामदे में सोती थी, फिर उनके कमरे की बत्ती बुझ गयी। अँधेरे में मेरी आँखों के सामने अजीब-अजीब छायाएँ नाचने लगीं। मेरे समक्ष भिखमंगों का एक लम्बा जुलूस नजर आया जिसमें हम लोग भी थे। आखिर यह काँग्रेस कौन है ? यह हम लोगों को क्यों निकालनी चाहती है ? हम लोगों ने क्या गलती की है ? क्या राजा लोगों को भी कोई निकाल सकता है ? और तब मुझे ऐसा लगा कि अब तक राजा साहब और बड़े सरकार गरीबों पर जो अन्याय करते रहे थे तथा शिकार में जो चिड़ियों को जो मारते रहे, इसी की वजह से उनको यह भुगतना पड़ रहा है। पता नहीं मुझे क्यों खुशी सी होने लगी।

चिन्ताएँ बढ़ने लगीं। हम लोग हमेशा डरते रहे। सब कुछ कितना बदल गया था ! राजा साहब अब हमेशा चिड़चिड़ाया करते। प्रजाजन अब हम लोगों से नजरें मिलाकर बात करते। बाद में हम लोगों के खिलाफ कई जुलूस भी निकले थे। बड़े सरकार का सिर झुका रहता, जैसे वे किसी चिन्ता में हों। मैं अच्छी तरह समझ गयी कि काँग्रेस का राज आ गया है और अँग्रेज हमको बेसहारा छोड़कर अपने देश लौट गए थे। एक दिन हम लोगों को अपनी रियासत छोड़कर लखनऊ जाना पड़ा। राजा साहब और उनका परिवार भी हम लोगों के साथ था। इतना कार्यक्रम था कि वह कुछ दिनों तक लखनऊ में रहेंगे। फिर वे दिल्ली चले जाएंगे। न मालूम कितनी गाड़ियां सामान तो हम लोगों के पास थे। राजा साहब के सामानों की तो गणना नहीं। रियासत खत्म हो चुकी थी और हम लोग एक साधारण नागरिक बन गये थे। राजा साहब और रानी साहब तो अब भी शान एवं घमंड से गर्दन टेढ़ी करके बैठे थे, लेकिन मेरी माँ की आँखों में आँसू थे। ऐसी शान-शौकत की जिन्दगी छोड़कर वे जा रही थीं और इन सामानों तथा कुछ हजार रुपयों के अलावा हम लोगों का कोई ठिकाना नहीं था। अब पता नहीं क्या हो। हमारे आगे एक अंधकारमय दुर्गम घाटी थी, जिसको पार करने का रास्ता हम लोग नहीं जानते थे।

मेरी आँखों में भी आँसू भर आए। रियासत छोड़कर जाते हुए मुझे बहुत बुरा लग रहा था, जबकि बाहर घूमने-फिरने या कहीं यात्रा पर जाने से मैं बहुत ही उत्साहित हो जाती थी। लेकिन पहले की यात्राओं तथा इस यात्रा में अन्तर था। मैं जहाँ पैदा हुई और जहाँ खा-पीकर तथा खेल-कूदकर इतनी बड़ी हुई थी, वह अब सदा-सदा के लिए छूट गया था। मेरे आँगन में आम और जामुन के पेड़ थे। उन पेड़ों को मैं कितना प्यार करती थी। उनके फल बड़े ही मीठे होते थे और उनकी मिठास अब भी मेरे मुँह में बनी हुई है। मैं उन पेड़ों पर चढ़ जाती थी और अपने हाथ से फलों को तोड़कर खाती थी।

सहसा मैं सिसकने लगी। सबके मन में दु:ख एवं पराजय की भावना थी। मेरे इस रोने पर राजा साहब बिगड़ गए। वह अब भी शान और घमंड में ही वहाँ से निकल जाना चाहते थे, लेकिन मेरी रुलाई से वास्तविकता की ओर सबका ध्यान खींचा और यही बात उनको बहुत बुरी लगी। क्यों रो रही है रे ? चुप रह, नहीं तो मारते-मारते खाल उधेड़ लेंगे। उन्होंने डपट कर कहा।

मेरी सिसकी और बढ़ गयी।

अच्छा, लाओ भाई डंडा, मैं आज इसकी पिटाई ऐसी करूँगा कि इसको फरिश्ते याद आने लगेंगे। राजा साहब गरज पड़े।

बड़े सरकार ने अंगुली का इशारा करते हुए कहा चुप।

मुझे याद है कि मैं बहुत ही कठिनाई से चुप हुई थी। राजा साहब देर तक लाल-लाल आँखों से मुझे घूरते रहे थे। लेकिन इतना डॉक्टर के बाद एकदम चुप हो गए और सिर झुकाकर कुछ सोचने लगे। मैं अब भी उनकी बड़-बड़ी मूँछों और उनके सिकुड़े हुए मुँह को देख सकती हूँ।

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