आकाश चारी / से.रा. यात्री
अगर आपकी जेब में एक रुपया टूटा पड़ा हो तो दे दीजिए।
मैं और रामदास एक मित्र की अन्त्येष्टि से लौट रहे थे। मुझे यह पता था कि वह दो दिन से लगातार उसी घर में था और उस टूटे परिवार की सारी त्रासदी को उसने अपने तन मन पर झेला था। और मैं भी यही सोचकर उसे अपने साथ लाया थ कि उसे घर ले जाकर खाना खिला दूंगा। रामदास का अपना कोई घर-बार नहीं था और न वह कभी लगकर कोई नौकरी वगैरह करता था। पर यह टूटे रुपये की बात सुनकर एकाएक मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने सोचा शायद वह बीड़ी का बंडल खदीदना चाहता होगा। मैंने अपनी सदरी की जेब में हाथ डालकर दो रुपये का नोट निकालकर कहा, 'एक तो नहीं, चाहो तो तुम दो रुपये ले सकते हो।'
'चलिए दो ही सही।' कहकर उसने दो रुपये का नोट पकड़ा और दूसरी तरफ मुड़ते हुए बोला, 'आप घर चलो - मैं दो मिनट में आता हूं।'
मैंने घर जाकर कपड़े बदले और अपनी पत्नी तारा से कहा, 'वह तुम्हारा धर्म भाई रामदास आ रहा है। उसके लिए खाना बना लेना।'
'मेरा धर्म भाई, आपका भी तो कुछ लगता होगा।' तारा आंखें तरेरकर बोली। 'लगता तो है, पर उस रिश्ते को मुंह पर लाते हुए गाली का अहसास होता है और तुम तो जानती हो - मैं महिलाओं की उपस्थिति में गाली देने से बचता हूं।'
'अभी तारा कुछ कहने ही जा रही थीं कि दरवाजे पर घंटी बज उठी।
'लीजिए आपके साले साहब आ गये। जाकर किवाड़ खोलिए अब।'
मैं कुर्सी छोड़कर बाहर गया और दरवाजा खोलकर देखा। प्रेतछाया-सा रामदास खड़ा था। वह वैसे ही काफी मरगिल्ला था। मरघट से लौटने के बाद तो वह बिलकुल ही पतली सुई सरीखा लग रहा था।
मैं बोला, 'बाथरूम में जाकर मुंह-हाथ धोलो, खाना तैयार है।'
'नहीं-नहीं, मैं खाना नहीं खाऊंगा।' रामदास ने अपने दोनों पंजे लहराते हुए कहा।
'क्यों नहीं खाओगे? दो दिन से तुम रोहा-राट वाले घर में थे। वहां तो तुमने कुछ भी खाया नहीं था।'
रामदास बोला, 'वही तो। दो दिन से पेट में कुछ नहीं गया था। भूख बरदाश्त नहीं हो पाई तो आपसे पैसे मांग लिये। आपके मोहल्ले में जो तंदूर वाला है, बस उसके यहां जाकर दो रोटी खा आया।' अपनी बात कहकर वह दयनीय ढंग से हंस पड़ा। हंसते हुए उसके सूखे कल्ले और सिकुड़ गये और छितरे दांत होंठों से बाहर झांकने लगे।
मैंने कहा, 'यह बहुत गलत बात है। जब तुम्हें यहां खाने में कोई उलझन नहीं थी तो तंदूर पर खाने की क्या गरज पड़ गई थी? मैंने तो तारा से तुम्हारा खाना बनाने के लिए कह भी रखा है।'
'गलती हो गई। माफ करो। भैन जी से छमा मांग लूंगा।'
मैं जानता था कि अपनी पत्नी से उसका बरसों पहले अलगाव हो चुका था और यही वजह थी कि उसकी जिंदगी में कोई ठहराव नहीं था। वह एक भटकता हुआ निर्जल बादल जैसा था। मैंने थोड़े परिहास को बरकरार रखने का प्रयास किया।
'घर-घुर बसा लो तो यह तंदूर का किस्सा खत्म हो सकता है।'
वह मायूसी से बोला, 'घर-गृहस्थी का बंदरगाह छोड़कर यह जहाज बहुत दूर निकल गया है भाई साहब।'
'पर जीने का कोई बहाना तो चाहिए रामदास।'
'बहानों की क्या कमी? मैं सिर्फ संदर्भ बदल जाने का इंतजार करता हूं। कड़ी से कड़ी धूप में चलता रहता हूं क्योंकि मैं निकल जाऊं तो मेरे लिए वह धूप अर्थहीन हो जाती है।'
मैं हंसकर बोला, 'पर यह भी तो हो सकता है कि तुम कहीं भी न पहुंचो और कड़ी धूप में ही चलते रहना तुम्हारी नियति बन जाये।' उसने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया, 'धूप में तेजी हमेशा एक जैसी बनी रहे और वह कभी न ढले, ऐसा भी कभी होता है? उसका ढल जाना ही उसको अप्रासंगिक बना देता। बस यही तो होता है जीवन में कि संदर्भ बदल जाने से ही सारे कुछ का अर्थ बदल जाता है।'
मैं आजिजी से बोला, 'रामदास, तुम निहायत बेचैन आदमी हो। इंतजार तो शायद तुम किसी चीज का कर ही नहीं सकते।'
हालांकि वह बहुत थका हुआ था और उसकी आंखें कई रातों की जगार से बोझिल हो रही थीं, पर वह मेरी बात सुनकर एकदम सजग हो उठा और बोला, 'बात एकदम उल्टी है। मेरे पास इंतजार के अलावा और है ही क्या? लेकिन ट्रजेडी यह है कि मुझे ठीक-ठाक पता नहीं है कि मुझे किसका इंतजार है।'
उसके शब्दों में ईमानदारी की खनक थी। मैंने उसकी ओर सिगरेट का पैकेट बढ़ाते हुए कहा, 'यह कैसे हो सकता है?'
'पता नहीं। बस, मैं तो यही सोचता हूं कि मैं किसी दिन बड़ी शानदार जिंदगी गुजारूंगा। हालांकि अब तक की जिंदगी पैदल प्यादे सी कटी है मगर मैं मन से चाहे जब 'रोल्स रायस' पर सवार हो जाता हूं। उड़कर किसी रमणीक पहाड़ी होटल में ठहर जाता हूं। यह बात दीगर है कि मेरे बदन पर जो मैले-कुचैले कपड़े हैं इन्हें बदलने के लिए एक और ड्रेस तक नहीं है। कभी-कभी रोटी खाने के लिए अठन्नी तक नहीं होती, पर इससे क्या? मेरी रईसी में कोई कमी नहीं होती।'
अपनी बात कहकर वह कुर्सी से थोड़ा-सा उठा और अपने मुचड़े पतलून की जेब से कागजों का एक पुलिंदा खींचकर मेरे सामने करते हुए बोला, 'यह देखिए मेरी रईसी के ठाठ।'
मैंने मुड़े-तुड़े लाटरी के टिकट देखे और बेदिली से पूछ बैठा, 'अभी तक कोई इनाम निकला भी है।'
वह फराखदिली से बोला, 'ऐसी जल्दी भी क्या है? कभी न कभी मिल ही जायेगा। यकायक मिल गया होता तो सब कुछ गड़बड़ा जाता, मगर अब तो मेरे पास बाकायदा बड़ी-बड़ी योजनाएं हैं। इनाम मिलते ही उधर जाऊंगा।'
मैं ताज्जुब में पड़ गया। चालीस को पास करके भी एक आदमी किस ख्याली दुनिया में विचर रहा था, पर मैंने उसकी हंसी उड़ाना उचित नहीं समझा। मुझे लगा, उसके जीने के ढंग पर टिप्पणी करना भारी हृदय-हीनता होगी। वह जिन रंगीन खिलौनों से खेल रहा था - वहां की दुनिया की वास्तविकता का हवाला देकर मैं उसका रंग-बिरंगा सपना नहीं तोड़ना चाहता था।
रात के नौ बजे थे। मैंने सोचा, मैं उसे ठहरने के लिए कहूं। अगर वह नहीं ठहरा तो उसे अपने दिवंगत मित्र के परिवार में पहुंचते-पहुंचते बहुत देर हो जायेगी। सर्दी शुरू हो चुकी थी और उसके बदन पर महज एक सूती शर्ट-पैंट और पांवों में रबड़ की चप्पलें थीं।
रामदास तुम रात को यहीं क्यों नहीं ठहर जाते?
किसी दिन फिर रूक जाऊंगा-कल सवेरे एक जगह जाना है। रात को कपड़े धोकर सुखा दूंगा - तो कल एक नये खुलने वाले स्कूल में बातें करने जा सकूंगा। वैसे तो पांचवीं जमात तक का ही है पर बच्चों को ड्राइंगें सिखाना मुझे पसंद है।
'ठीक है फिर कभी जल्दी ही दर्शन करूंगा आप लोगों के।' कहकर रामदास चल पड़ा।
मैं उसके साथ बाहर निकल गया और उसे चौराहे तक पहुंचा कर घर की ओर लौट पड़ा।
जब मैं घर में दाखिल हुआ तो तारा बोला, 'ये क्या! तुम रामदास को कहां छोड़ आये? यहां मैंने उनका खाना बनाया है।'
मैंने हंसते हुए कहा, 'वह आज रात तुम्हारा खाना खाने वाला नहीं। वह किसी बड़े होटल में डिनर लेने वाला है। वह आज विदेशी गाड़ी पर सवार है।
'विदेशी गाड़ी? क्या मजाक करते हो - उस बेचारे के पास ढंग का एक कपड़ा तक तो है नहीं।' तारा हैरानी से बोली।
'कपड़ों की क्या जरूरत है - उसके पास लाटरी के पचासों टिकट तो हैं।'
'लाटरी के टिकटों से क्या होता है?' कहकर तारा चली गई तो मैं देर तक यही सोचता रहा कि रामदास सपनों का जीवंत सौदागर है या मरीचिका का मरु मृग?